Here is an essay on Indian bureaucracy especially written for school and college students in Hindi language.

भारतीय नौकरशाही व बाबूशाही के आपसी गठजोड़ की बात करते हैं । न्याय में देरी का सबसे अधिक लाभ लेने वाले लोग भारतीय नौकरशाह व राजनीतिक अपराधी हैं । भ्रष्टाचार व अपराध का मूल कारण भी न्याय में देरी है ।

भ्रष्टाचार में लिप्त कितने नौकरशाह केन्द्रीय सतर्कता आयोग द्वारा पकड़े गये ? इसका कोई उत्तर उपलब्ध नहीं है । जबकि हाल ही में केन्द्रीय सतर्कता आयोग द्वारा जारी आंकड़ों में बताया गया है कि पिछले 9 महीनों में ही भ्रष्ट अफसरों की संख्या तीन गुनी हो गयी ।

उपरोक्त प्रश्न का उत्तर आपको शून्य में मिलेगा क्योंकि देश के भ्रष्टाचार की नींव ही देश के नौकरशाह हैं जो अपने अधिनस्थों पर दबाव बनाकर तरीके बताकर धन कमाते हैं । जिसका तरीका भी कई प्रकार से हो सकता है जैसे- राजपत्रित अधिकारी स्तर के नौकरशाह के दफ्तर के बाबू उक्त अधिकारी के रसोई का सामान, बाहर जाने का रेल या फ्लाईट का टिकिट, किसी और बड़े अधिकारी के आने पर उसके रहने, खाने व सोने की व्यवस्था करना बाबू लोगों का ही काम है ।

जिसका भुगतान बाबू लोग अपनी जेब से करते हैं । फिर अपनी जेब को पूरा करने के लिए खुलेआम जनता से रिश्वत लेते हैं । जनता यदि इसकी शिकायत भी करती है तो उक्त अधिकारी का जवाब होता है कि जांच करायेगें, आप प्रार्थना-पत्र दे दो । उसके बाद प्रार्थना-पत्र कूड़े के डब्बे में डाल दिया जाता है ।

किसी का कुछ नहीं बिगड़ता क्योंकि उक्त अधिकारी की सरपरस्ती में ही तो सबकुछ चल रहा है । भारत देश में नौकरशाह सीधे तौर पर रिश्वत नहीं लेते । ऐसे कम ही लोग हैं जो सीधे तौर पर रिश्वत लेते हैं । जिन्हें महाभ्रष्ट की  संज्ञा दी जा सकती है ।

अन्यथा किसी भी छोटी-बड़ी रिश्वत को अधिकारी अपने विश्वसनीय बाबू या निजी सचिव के माध्यम से ही लेते हैं । बाबू को अपना कार्य बता दो और कार्य की फीस दे दो आपका कार्य हो जायेगा । देश की काली कमाई सर्वाधिक नौकरशाह व बाबूओं के पास है जिसको पकड़पाना मुस्किल ही नहीं नामुंकिन है । जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण देखने को मिला गाजियाबाद के नजारत घोटाले में आरोपी बनाये गये आशुतोष अस्थाना का । जिसके गाजियाबाद के पॉश कालोनियों में 2-3 मकान मिले ।

ऐसे सैकड़ों उदाहरण देश में भरे पड़े हैं । जहां बाबूओं के पास अकूत सम्पत्ति है चाहे ऑफिस के बाबू हों या कोर्ट के बाबू । कोर्ट के बाबू कोर्ट में ही जज या मजिस्ट्रेट के सामने वकीलों से भी मुकदमों में तारीख लगाने के लिए खुले आम सुविधा शुल्क लेते हैं अगर किसी मुकदमे की फाईल से किसी महत्वपूर्ण दस्तावेज की कापी गैरकानूनी तरीके से कराना हो तो उसके लिए अच्छी खासी सुविधा शुल्क मिल जाती है ।

तहसील स्तर पर अधिकारियों के रसोई घर का सामान लाने, टिकिट कराने आदि की जिम्मेदारी लेखपालों (पटवारियों) की होती है जो बिना किसी हिचक के ये जिम्मेदारी उठाते हैं । देश में गांव विकास के लिए आने वाले पैसे का जिला स्तर से बटवारा शुरू होता है ।

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माना पैसा सांसद निधि या विधायक निधि का है तो जिलाधिकारी द्वारा प्रस्ताव के लिए 2 प्रतिशत, सांसद या विधायक का 40 प्रतिशत, जे.ई. का 10 प्रतिशत हिस्सा कार्य होने से पहले ही ले लिया जाता है अब शेष 48 प्रतिशत में ठेकेदार को भी कमाना और काम भी दिखाना है तो ये तो रही सांसद या विधायक निधि द्वारा विकास कराने की ।

बात करते हैं वित्त आयोग, राज्य सरकार व केन्द्र सरकार द्वारा सीधे ब्लाक स्तर पर पैसे भेजने की जो ग्राम विकास पर खर्च होता है जिसका माध्यम होता है ब्लाक प्रमुख, विकास खण्ड अधिकारी, ग्राम प्रधान व ग्राम सचिव ।

जिसमें ब्लाक प्रमुख तो अपना हिस्सा विकास खण्ड अधिकारी के माध्यम से ले लेता है बाकी सीधे ग्राम प्रधान व ग्राम सचिव के संयुक्त खाते में जाता है । अब यह ग्राम प्रधान का विवेक है कि वह उसको ग्राम विकास पर लगाये या ग्राम सचिव से मिलकर आपस में बांटकर खा जाये ।

गांवों के विकास का ढिंढोरा पीटने वाली सरकारों की पोल तो उपरोक्त विवरणों से खुल रही है । रही बात गांवों के पंचायती राज की । उसकी स्थिति तो इससे भी दयनीय है । पंचायती राज का उद्देश्य गांवों में लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित करना है । जिससे गांवों का उचित रूप से विकास हो सके ।

लेकिन होता इसके बिलकुल विपरित है । पंचायती राज अधिनियम 1947 की धारा 11(1) के अनुसार प्रत्येक ग्राम सभा की वर्ष में 2 सामान्य बैठक होना अनिवार्य हैं । जबकि कहीं कोई बैठक नहीं होती न ही प्रशासन के पास ऐसा कराने का समय है ।

किसी भी ग्रामवासी को यह पता नहीं लगता कि कितना पैसा ग्राम विकास के लिए आया है और कहा लगा है । वर्तमान परिदृष्य में पंचायती राज केवल ग्राम प्रधान व ग्राम सचिव द्वारा अपना-अपना हिस्सा लेकर कागजी कार्यवाही पूरी कर अपना विकास कराना मात्र रह गया है । इस प्रकार तो हमारे देश का विकास हो रहा है ।

बात करते है केन्द्र व राज्य सरकार द्वारा चलायी जाने वाली योजनाओं की- जैसे इंदिरा आवास योजना, बी.पी.एल. योजना, रोजगार गारन्टी योजना, आंगनवाड़ी केन्द्र, मिड-डे-मिल योजनाऐं हैं जिनकों अपनी महत्वपूर्ण उपलब्धियों में गिनाने में सरकारें गर्व का अनुभव करती हैं ।

वास्तविकता इसकी कहीं अलग है । इन्दिरा आवास योजना-जिसके अन्तर्गत बी.पी.एल. परिवारों के लिए मकान बनवाने का कार्य है । अब मकान किस तरह बनते हैं । थोड़ा ध्यान देने की आवश्यकता है सबसे पहले यह जानना आवश्यक है कि बी.पी.एल. क्या है (गरीबी रेखा से नीचे) ।

अर्थात जो लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे है वे बी.पी.एल. हैं । तो इसमें ग्राम प्रधान व ग्राम सचिव अपने चहेते लोगों को जो बी.पी.एल. नहीं भी हैं उनका नाम बी.पी.एल. सूची में सम्मिलित कराते हैं उसके बाद सरकार से मिलने वाले लाभों को स्वयं लेते हैं या थोड़ा उस व्यक्ति को भी दे देते हैं जैसे इन्दिरा आवास योजना के अन्तर्गत 25 हजार रूपये का प्रावधान है ।

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इसमें से 5 हजार रूपये तो ग्राम सचिव के व 10 हजार रूपये ग्राम प्रधान के होते हैं बाकी 10 हजार रूपये लाभार्थी को दे देते हैं । यदि लाभार्थी वास्तव में बी.पी.एल. है और यदि वह फर्जी बी.पी.एल. है तो ग्राम सचिव व ग्राम प्रधान आपस में बांट लेते हैं ।

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राशन विक्रेता भी बी.पी.एल. योजना में आने वाले अनाज आदि को स्वयं ही डकार जाते हैं । क्योंकि बी.पी.एल. परिवारों की इतनी सामर्थ ही नहीं है कि वो कहीं जाकर शिकायत करें और यदि किसी ने शिकायत कर भी दी तो पहले तो उस पर कार्यवाही होती ही नहीं क्योंकि खाद्य आपूर्ति अधिकारी का भी राशन विक्रेता से हिस्सा तय होता है और यदि मजबूरी में या किसी दबाव में कार्यवाही करनी भी पड़ी तो राशन विक्रेता को पहले ही सूचित कर दिया जाता है कि हम आ रहे हैं ।

रजिस्टर पूरे मिलने चाहिए । रजिस्टर बिल्कुल सही मिलेंगे बाकायदा अंगूठा या हस्ताक्षर हुए । जो राशन डीलर ने अपने आप कर लिये हैं तो शिकायत कर्ता स्वयं को ठगा सा महसूस करता है क्योंकि सबकुछ व्यवस्थित तरीके से चल रहा है अब बेचारा बी.पी.एल. परिवार क्या कर सकता है ? सोचो ।

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अब बात करते हैं केन्द्र सरकार की महत्वपूर्ण और महत्वांकाक्षी योजना जिसे पहले रोजगार गारन्टी योजना (नरेगा) अब महात्मा गांधी रोजगार गारन्टी योजना (मनरेगा) नाम दिया गया है । जिसके अन्तर्गत मजदूर वर्ग के लोगों को 100 रूपये रोजाना से 100 दिन का रोजगार उपलब्ध कराने का लक्ष्य है ।

लेकिन वास्तविकता जानिये जरा इस योजना की इसका हस्र भी कुछ बी.पी.एल. जैसा ही रहा है इसमें भी ग्राम प्रधानों ने फर्जी मजदूरों के नाम से फर्जी कार्य कागजों में दिखाकर पैसा डकार लिया । न कोई मजदूर, न कोई कार्य बस ग्राम प्रधान की जेब में दाम ही दाम । ऐसा हस्र हुआ इस नरेगा या मनरेगा का ।

अब बात करते हैं आंगनवाड़ी केन्द्रों की । जिनका उद्देश्य स्कूल जाने से पहले बच्चों को स्कूल जाने के लिए स्कूली वातावरण में रहने का अभ्यस्थ कराना है । जिसने एक केन्द्र पर एक केन्द्र संचालिका व एक केन्द्र सहायिका होती हैं जिसकी वास्तविकता देखिए कि उक्त केन्द्र पर आने वाले आटे की बोरी को पशुओं के लिए बेच दिया जाता है न कभी केन्द्र खुलता है न कहीं कोई बच्चा आता है ।

और न कोई संचालिका व सहायिका । बस महीने में एक बार केन्द्रों की सुपरवाईजर आती है । वो भी सहायिका व संचालिका से अपनी सुविधा शुल्क वसूल करने के लिए । ये स्थिति है देश के आंगनवाडी केन्द्रों की ।

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देश की सबसे महत्वपूर्ण कमजोरी कहे या नौकरशाहों की चाल कहे या नौकरशाहों द्वारा अपने आप व अपने अधीनस्थों को बचाने की रणनीति कहें या नौकरशाहों द्वारा अपने अधीनस्थों से धन उगाही का तरीका । यदि कोई व्यक्ति किसी विभाग के किसी कर्मचारी की शिकायत करता है तो उस शिकायत को उसी विभाग के अधिकारी द्वारा जांच की जाती है जिस जांच में उस कर्मचारी को निश्चित रूप से बचाया जाता है और उसके एवज में उस कर्मचारी से वाजिब शुल्क भी जांच अधिकारी द्वारा वसूली जाती है जांच रिपोर्ट की कॉपी भी उस कर्मचारी को दी जाती है । जिसके विरूद्ध जांच की जाती है ।

यह किसी एक विभग का प्रकरण नहीं है बल्कि देश के सभी विभगों की यही स्थिति है । दूसरा पहलू यह है कि शिकायतकर्ता को भी जांच के दौरान नहीं बुलाया जाता क्योंकि यदि शिकायतकर्ता को जांच के दौरान बुलाया तो फिर उस कर्मचारी को बचाना थोड़ा कठिन होता है ।

हालाँकि उस कर्मचारी से अधिक फीस वसूली जाती है या कई बार कोई शिकायतकर्ता दबंग हुआ तो ऐसा भी हो सकता है कि सुविधा शुल्क न मिले इसलिए शिकायतकर्ता को जांच की भनक तक लगने नहीं दी जाती और जांच कराकर रिपोर्ट उस कर्मचारी के पक्ष में दी जाती है जिसकी एक कॉपी उस कर्मचारी को भी दी जाती है ।

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माना शिकायतकर्ता ने किसी बड़े अधिकारी के यहां पुन: उसी कर्मचारी की शिकायत कर दी तो जांच अधिकारी के आने पर वह कर्मचारी पूर्व में की गई जांचों को उस जांच अधिकारी को सौंप देगा अत: जांच अधिकारी भी उस जांच रिपोर्ट को आधार बनायेगा अपनी सुविधा शुल्क लेगा और जांच रिपोर्ट उस कर्मचारी के अनुरूप तैयार कर अपना कार्य पूरा करके चला जायेगा बेचारा शिकायतकर्ता अपने आप को फिर ठगा हुआ सा महसूस करेगा ।

जांच और शिकायत का यह खेल सुविधा शुल्क और जांच अधिकारी का उसी विभाग का होना काफी मददगार साबित होता है और उस कर्मचारी का कुछ नहीं बिगड़ता है यह स्थिति देश-प्रदेश के प्रत्येक विभग की है । इसलिए आज तक किसी भी विभागीय जांच में किसी शिकायत पर किसी कर्मचारी का बहुत अधिक मात्र स्थानान्तरण तक का दण्ड दिया जाता है न कि सेवा समाप्ति का ।

क्योंकि कोई भी विभाग अपने कर्मचारी के गलत व भ्रष्ट आचरण करने पर उसको कठोर दण्ड नहीं देता और उनके उच्च अधिकारी उनको बचाने का भरपूर प्रयास करते हैं । इसलिए विभागों में भ्रष्टाचार तेजी से अपनी पैंठ बना रहा है ।

अगर ऐसा नहीं है तो जिस कर्मचारी के विरूद्ध शिकायत प्राप्त हो उस शिकायत को दूसरे विभागों से जांच करायें और जांच के उपरान्त उसकी विभागीय समीक्षा गोपनीय तरीके से हो तथा शिकायतकर्ता को भी जांच में अनिवार्य रूप से सम्मलित किया जाये तो कुछ हद तक भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा जांच और शिकायत का यह खेल कुछ हद तक अपने परिणाम तक पहुंचेगा तथा शिकायतकर्ता भी कुछ राहत महसूस अवश्य करेगा ।

ऐसे अधिकारियों को तत्काल चिन्हित कर सेवा से बरखास्त कर देना चाहिए ताकि और लोग ऐसी पुनरावृत्ति करने का सहास न जुटा सके और नौकरशाही व बाबूशाही का गठजोड़ समाप्त हो सके ।

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