भारत में आर्थिक उदारीकरण पर निबन्ध | Hindi Essay on Economic Liberalization in India!

प्रस्तावना:

वर्तमान समय में उदारीकरण शब्द ऐसा है जिससे प्रत्येक वर्ग भली-भाँति परिचित है । उदारीकरण का तात्पर्य ‘उदार दृष्टिकोण’ से होता है फिर यह उदार दृष्टिको चाहे राजनैतिक क्षेत्र से सम्बंधित हो अथवा सामाजिक क्षेत्र से या फिर आर्थिक क्षेत्र से । यहाँ आर्थिक परिप्रेक्ष्य में उदारीकरण की नीति की चर्चा की जा रही है । इस नीति का तात्पर्य है : “सरकारों द्वारा आर्थिक क्रियाओं में न्यूनतम हस्तक्षेप” ।

चिन्तनात्मक विकास:

इतिहास इस बात का साक्षी है कि भारत ही नहीं वरन् समू विश्व भी हिंसा, भयानक नरसंहार के दौर से गुजर चुका है । बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध आर्थिक विकास एवं समृद्धि की दिशा में विश्व का ही नहीं अपितु भारत का ध्यान भी केनि हुआ ।

आर्थिक विकास के चलते क्रमशत: आर्थिक नीतियाँ भी बनाई गई । बर्तमान समय आर्थिक कार्यक्रमों के सम्बंध में न केवल राजनेताओं बल्कि ‘जनसाधारण की भी रूचि नहीं राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के विविध पहलुओं के सम्बंध में 1991 में दिये गए अनेक सरकारी नतई विषयक वक्तव्यों ने नई आर्थिक नीति को स्पष्ट तथा ठोस रूप प्रदान किया है ।

नई आर्थिक नीति की प्रमुख विशेषता ‘आर्थिक उदारीकरण’ है । आर्थिक प्रतिबन्धों की न्यूनता को उदारीकरण कहते हैं । वर्तमान समय में सरकार द्वारा उदारीकरण की नीति को जोरदार सम मिल रहा है । जिसके फलस्वरूप अनेक बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भारत जैसे देशों पर हावी होना चाहती हैं ।

उदारीकरण से पूर्व जो विदेशी कम्पनी भारत में थी उसने भी भारतीय साझेदारी के हितों पर कुठाराघात करते हुए अपनी पूंजी की भागीदारी बढ़ानी शुरू कर दी । इस तरह उद्योगपतियों र्मे यह आशंका फैलने लगी कि धीरे-धीरे भारतीय उद्योगों का विदेशी कम्भी: अधिग्रहण करती जाएंगी ।

इसका परिणाम यह हुआ है कि सुधार कार्यक्रम के पहले चार साल तक भारतीय घरेलू कम्पनियों और विदेशी कंम्पनियों के बीच खुली प्रतिस्पर्द्धा की वकालत व वाले सभी उद्योग संगठनों ने अब यह कहना शुरू कर दिया है कि शत-प्रतिशत मालिय हक वाले विदेशी निवेश को अनुमति नहीं दी जानी चाहिए ।

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वास्तव में विगत वर्षों के सुधार कार्यक्रमों ने यह सबक दिया है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और विकसित देशों के साथ ‘भारत बहलाओं और हड़काओं’ की नीति का ठीक उसी प्रकार संचालन करना होगा जैसा कि ने सफलतापूर्वक आजमाया है ।

अत: आर्थिक मामले में कोई भी देश अन्तर्राष्ट्रीय प्रभावों तकाजों की पूरी तरह अवहेलना नहीं कर सकता परन्तु जिस प्रकार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों भारत के आर्थिक क्षेत्र में आने की खुली छूट दी गई है । उसने भारतीय अर्थव्यवस्था के अमी सामाजिक एवं राजनैतिक क्षेत्र को अत्यन्त प्रभावित किया है । उदारीकरण की नीति भारत आर्थिक एवं विकासात्मक दोनों दृष्टियों से लाभदायक नहीं है ।

उपसंहार:

निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि आर्थिक उदारीकरण से भारतीय अर्थव्यवस्था गतिशील एवं प्रतिस्पर्द्धात्मक तो बनेगी किन्तु विदेशी पूंजी पर आश्रिता, विदेशी आर्थिक उपनिवेशवाद की स्थापना एवं वृहद औद्योगिक वर्गों का समाज में वर्चस्व बढ़ेगा, जिससे गा बेरोजगारी बढ़ेगी, मुद्रा स्फीति की स्थिति का सामना करना पड़ेगा ।

पश्चिमीकरण के क् संस्कृति का हास होगा भारतीय लोकतन्त्र खतरे में पड़ जायेगा । राजनीति और अर्थनीति के बीच गहरा संबंध होता है । संभवत: इसीलिए तप की राजनीति पर आधारित विख्यात कृति का नाम ‘अर्थशास्त्र’ है ।

व्यक्ति की तरह समाज और राष्ट्र के जीवन पर भी आर्थिक स्थिति का गहरा है । संसार की प्राचीनतम संस्कृतियों और सभ्यताओं का विकास उन्हीं क्षेत्रो में हुआ, जहां की भूमि और जलवायु ऐसी थी कि थोडे प्रयत्न में जीवनयापन के लिए पर्याप्त धन-धान्य पैदा किया जा सकता था ।

रोटी कमाना और पेट भरना हर व्यक्ति की प्रथम आवश्यकता होती हे । यह आवश्यकता पूरी हो जाती है, तब उसका मन और उसकी बुद्धि सृजनात्मक, कलात्मक कामों और चिन्तन की ओर प्रवृत्त होती है और सभ्यता और संस्कृति का विकास होता है ।

विशेष रूप में इसकी सिसु और गंगा की घाटियूां ऐसे उपयुक्त क्षेत्र थे, इसलिए अथवा हिन्दू संस्कृति और सभ्यता का विकास ध्या, जो न केवल सारे भारत पर छा गई आपितु जिसका प्रभाव भारत के बाहर भी दूर-दूर तक फैला ।

साहित्य, कला और राजनीति की तरह आर्थिक क्षेत्र में भी भारतीयों ने नए प्रयोग किए और एक उत्तम अर्थव्यवस्था का विकास किया, जिसने भारत को आर्थिक दृष्टि से भी अति समृद्ध देश बना दिया । कृषि, व्यापार और दस्तकारी और उद्योगों के क्षेत्र में भी भारत की उप थी । वैदिक काल में भारत में विकसित अर्थ-व्यवस्था मुख्य रूप से दो धुरों पर चल। अर्थव्यवस्था की पहली धुरी कृषि और कृषि से संबंधित या कृषि पर आधारित उद्योग- का इसमे विशेष स्थान था ।

इसीलिए गाय को पवित्र राष्ट्रीय पशु की मान्यता मिली और गोवंश का संरक्षण और संवर्द्धन शासन और समाज का कर्तव्य माना गया । भारतीय अर्थव्यवस्था की दूसरी धुरी आर्थिक मामलों में लोगों ओर देश का स्वावलम्बन था ।

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कर-बसूली के आ मामलों में शासन अथवा राजा का हस्तक्षेप लगभग वर्जित था । शुक्र आदिग्कुछ चिन जहां राजा आर्थिक मामलों में दखल देता है, स्वय व्यापार करने लगता है, वहां का अनिष्ट होता है । राजा और शासक वर्ग की तरह कृषक और व्यापारी वर्ग भी धर्म से अनुशासित होता था ।

वैश्य समुदाय को धन कमाने की छूट थी परंतु उसे यह धन केवल लिए अथवा दूसरों का शोषण करने के लिए उपयोग करने की छूट नहीं थी । उसका कर्तव्य था कि वह अपने धन को समाज के हित में खर्च करें, धर्मशालाएं, बावलिया, मंरि और शिक्षा सस्थाओ को चलाने में सहयोग दे ।

समन्वित मानव जीवन और मानव विकास के लिए चार पुरुषार्थो-धर्म, अर्थ में अर्थ को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया और अर्थ का उपयोग धर्म के अनुसा दिया गया । उस व्यवस्था का उद्‌देश्य था जन-कल्याण, मानव-कल्याण, परंतु उस एवं परिवार और व्यक्ति के गुण, कर्म और स्वभाव के आधार पर काम का प्रकृति की अनुकम्पा और इस व्यावहारिक तथा यथार्थवादी अर्थ-व्यवस्था के समृद्ध देश बन पाया था ।

इसकी यह आर्थिक समृद्धि विदेशी आक्रमणों का भी आक्रांता यहां केवल लूट के लिए आए । ब्रिटिश लोग भी भारत की आर्थिक समृद्ध और इसके साथ व्यापार करने हेतु ही इसकी ओर आकृष्ट हुए । अपनी सत्ता कायक कर बाद उन्होंने भारत का ब्रिटेन के हित में योजनाबद्ध ढंग से आर्थिक शोषण और दोहन किया ।

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इससे भारत की अर्थव्यवस्था चरमरा गई और उसकी समृद्धि एक पुरानी याद बन कर रह गई । पहले महायुद्ध के काल से ब्रिटिश सरकार ने ब्रिटेन की युद्ध सम्बंधी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भारत के औद्योगिक विकास की ओर ध्यान देना शुरू किया । इसका लाभ भारत को हुआ और ब्रिटेन को भी ।

1947 में जब भारत खंडित रूप में स्वतंत्र हुआ, तब यह यातायात और औद्योगिक विकास की दृष्टि से चीन समेत एशिया के लगभग सभी देशों से आगे था । युद्ध के कारण जापान क् आर्थिक स्थिति भी बिगड़ चुकी थी । कुछ क्षेत्रों में उस समय भारत जापान से भी आगे था ।

यरि स्वतत्र भारत की सरकार और नीति-निर्धारक स्वतंत्रता के बाद भारत की विशिष्ट परिस्थितिट को ध्यान में रखते हुए यथार्थवादी, व्यावहारिक और भारतीय परम्परा के अनुलेप जन-कल्याणवात आर्थिक नीतियां अपनाते तो भारत आर्थिक क्षेत्र में बहुत आगे बढ चुका होता और इसकी गिन संसार के समृद्ध देशों में होने लगती ।

परंतु हुआ इसके बिल्कुल विपरीत । पण्डित जवाहर लार नेहरू, जो ब्रिटिश सरकार के अप्रत्यक्ष और गांधीजी के प्रत्यक्ष और अनुचित दबाव के कारा स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमत्री बने, आर्थिक चिन्तन की दृष्टि से समाजवादी थे ।

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आर्थिक क्षे में उनका माडल सोवियत रूस था । गांधीजी के आर्थिक चिन्तन का वह गांधीजी के जीवनका में भी विरोध करते रहे थे । गाँधीजी की हत्या के बाद उन्होंने आर्थिक मामलों में गांधीजी चिन्तन और नीतियों को सर्वथा नकार दिया और समाजवाद के नाम पर सरकारी पूंजीवाद मार्ग पर सरपट दौडने लगे ।

इस मामलें में समाजवादी और कम्युनिस्ट दलों का उन्हें पूर्ण समर्थ मिला । भारतीय जनसंघ एकमात्र राजनीतिक दल था, जिसने अपने जन्मकाल से ही समाजवार अर्थव्यवस्था और इसमें निहित आर्थिक क्षेत्र में सरकार के एकाधिकार और कोटा-परमिट-लाइसे प्रणाली का विरोध किया और समाजवादी और पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से भिन्न जनकल्याणवार स्वदेशी अर्थव्यवस्था का प्रतिपादन किया परंतु दीनदयाल उपाध्याय की हत्या के बाद जनर्स अपने पथ से भटकने लगा ।

चूकि जनसंघ को इसके मूल चिन्तन से पूरी तरह काटना कटि था, इसलिए इसने नेहरूवादी नेतृत्व में जनसघ से मुह मोड़कर भारतीय जनता पार्टी बनाई अ गांधीवादी समाजवाद के नाम पर खुलकर समाजवादी अर्थव्यवस्था का समर्थन करना शुरू किय वास्तव में गाँधीयन अथवा गांधीवादी समाजवाद की बात केवल आत्मबचाना है ।

गांधीजी के आर्थि चिन्तन का समाजवाद के साथ दूर का भी वास्ता नहीं था । वे भारत की परम्परागत अर्थव्यवस्था के पक्षधर थे । उनके आर्थिक चिन्तन को समाजवाद कहना उनके साथ अन्याय करना है । समाजवाद के नाम पर 1990 तक अपनाई गई आर्थिक नीतियों ने भारत की अर्थ-व्यवर को पूरी तरह चौपट कर दिया ।

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विदेशी सहायता और ऋण से कायम किए गए सरकारी उद्यो धंधे सफेद हाथी सिद्ध हुए । इनमें उत्पादन का खर्चा अधिक और उत्पादन की गुणवत्ता कम हो गई । फलस्वरूप कीमतें बढती गईं और विदेशों में हमारे माल की मांग कम होती गई ।

जिसका उपयोग आर्थिक विकास के बुनियादी ढांचे-सडकें बनाने, ऊर्जा के उत्पादन और शिक्षा स्वास्थ्य की स्थिति सुधारने में होना चाहिए था, वह सरकारी उद्योगों का घाटा पूरा करने ठै उनके फैलाव में खर्च होने लगा । फलस्वरूप विदेशी ऋण का बोझ बढ़ने लगा और जनसाधार की स्थिति लगातार बिगडती चली गई ।

इस कटु अनुभव के बावजूद नेहरूवादी शासक समाजवाद से चिपटा रहा परतु जब समाजवाद के स्वर्ग सोवियत रूप में समाजवादी अर्थव्यवर की विफलता जग-जाहिर हो गई, सोवियत संघ का विघटन होने लगा और भारत की अर्थव्यवर इतनी बिगड़ गई कि अपना सोना गिरवी रखकर विदेशों से की व्यवस्था करनी पड़ी, तब भारत सरकार को आर्थिक-उदारीकरण के नाम पर समाजवादी अर्थव्यवस्था से मुह मोड़ना और खुली मार्किट और प्रतिस्पर्धा पर आधारित अर्थव्यवस्था की ओर मुडना पड़ा परंतु के यह ब गहन चिन्तन के बजाय हालात के थपेडों और विदेशी ऋणदाताओं के दबाव पर लाया गया इस राष्ट्र हित पर उचित और आवश्यक ध्यान नहीं दिया गया ।

विगत कुछ वर्षो विशेषकर सातवीं योजना के प्रारम्भ से देश में अनेक महत्वपूर्ण नीति परिवर्तन लाए गए हैं । जिनका संबंध अर्थव्यवस्था के विभिन्न अंगो से है । आर्थिक क्षेत्र में गए परिवर्तन अत्यन्त बृहत् एवंग प्रभावपूर्ण ठहरते है कि इनको नई आर्थिक नीति की सइ गई है ।

नई आर्थिक नीति की एक महत्वपूर्ण विशेषता है: आर्थिक उदारीकरण । नीति की विशेषता निजी क्षेत्र के विनियमन और नियन्त्रण में ढील देने से सम्बधित है । पुरानी न, अन्तर्गत निजी क्षेत्र के कार्य-संचालन पर कई कड़े प्रतिबंध लगे हुये थे ।

इन्हें अब बहुत कुछ हटा लिया गया है अथवा ढीला कर दिया गया है, ताकि निवेश, उत्पादन, बिक्री आदि के सिर मे निजी क्षेत्र अधिक स्वतन्त्र रूप से कार्य कर सकें । निजी क्षेत्र के प्रति यह दृष्टिकोण ही उदारिकरण है । इन दिनों सरकार आर्थिक उदारीकरण का राग बडे जोर से अलाप रही है ।

सरक दावा है कि 265 बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने देश में 45 हजार करोड़ रुपये के पूजी निवेश का कर लिया है । भारत सरकार की यही उदार आर्थिक नीति का लाभ उठाकर बडी-बडी कम्पनियां देश की समूची अर्थव्यवस्था को सुरसा की भांति निगलने के लिए आतुर हैं ।

यह कोई छोटी-मोटी कम्पनी नहीं है जो कि सरकारी दबाव के आगे हथियार डाल दे । उसके विपुल साधन हैं । भारतीय कानून के गोरख-धंधे को वह भली-भांति जानती है । इसलिए वह है कि बेंगलूर की तरह दिल्ली में भी अदालती आदेश की आड़ में अपना कारोबार जारी रखने में सफल रहेगी ।

इसके साथ ही बहुराष्ट्रीय कम्पनिर्या नेताओं को खरीदने और प्रचार द्वारा जनमत को मोड़ना भी भली-भांति जानती है । इसलिए उदारीकरण की नीति वि बनी हुई है । देश अभी भी इस सरकारी नीति को अपनी स्वीकृति नहीं दे पाया है क्योकि हवा पश्चिम से चली है ।

भारत तेजी से विश्व आर्थिक व्यवस्था में समाहित होता ज उदारीकरण का पूरा जोर विदेशी निवेश को आकर्षित करने में लगा हुआ है । सरका निवेशकों को नई-नई सहूलियतें दे रही है । उदारीकरण के समर्थक विदेशी पूजी ओ प्रवाह को बढाने की जी-तोड कोशिश करेंगे ही । पर इसके कारण देश की अंदरूनी में आयी बढ़त, कीमतों पर दबाव डाल सकती है ।

स्वतंत्र और अनियंत्रित कीमत नीति के संदर्भ में यह स्थिति आम आदमी को त्रस्त कर सकती है । इस तरह आयी कीमत नीति विदे सतुलन पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती है । पर ज्यादा सकुचन वाली मुद्रा और नीति उद्योग-धंधी की कार्यवाहक पुंजी की जरूरतो को पूरा करना कठिन और महगा बना सकती है ।

आर्थिक नीतियों का इस तरह के परस्पर विरोधी प्रभावों की गिरफ्त में अपना यह दिखाता है कि बाजार पर आधारित आर्थिक उदारीकरण की नीति के तहत राज्य को एक मूक दर्शक बना सकना कितना कठिन, कितना जोखिमभरा और कितना एकांगी कदम होता है । इन सवालों पर चर्चा करके ही हम उदारीकरण के उभरते यथार्थ से बाबस्ता हो सकते हैं ।

अर्थव्यवस्था और सामाजिक विकास की स्थिति के बारे में बहुत से आंकड़े हर साल उपलब्ध हैं । उनमें से किन आकडो को, किस तरह की गणना के आधार पर सरकारी स्तर पर प्रचारित किया जाता है और मीडिया द्वारा हवा दी जाती है, यह उनके आर्थिक, सामाजिक सोच और नीतिगत आग्रही को परिलक्षित करता है ।

साथ में एक उजला, चमचमाता चेहरा जनता जनार्दन के सामने पेश करने की इच्छा एक स्वाभाविक राजनीतिक प्रवृत्ति है । परन्तु समय-समय पर जारी सरकारी दस्तावेज ही इन विपरीतार्थक स्थितियो को उजागर कर देते हैं । पिछले दशक में राष्ट्रीय आमदनी की बढत दर, योजना के लक्ष्यों को पार कर गयी थी ।

पर राजकोषीय घाटे, व्यापार असतुलन, भुगतान अधिशेष के घाटे, उत्पाद में आयातित सामान के बढते अनुपात, विदेशी कर्जों तथा मुद्रा प्रसार पर निरतर जारी निर्भरता, सम्पन्न वर्गो में संसाधन जुटाने की असमर्थता, बढती गैर-कानूनी तथा भ्रष्ट आर्थिक गतिविधियों आदि के कारण अभूतपूर्व आर्थिक बढत दर के बावजूद अर्थव्यवस्था एक गंभीर संकट के चक्रव्यूह में फंस गयी ।

इससे साफ नजर आता है कि बढत दर को पूरे संदर्भ में देखे बिना पीठ ठोंक लेना बचकानापन है । यहां हमने आर्थिक विषमता के विभिन्न पहलुओं, पर्यावरण-संतुलन, राष्ट्रीय आत्म-निर्भरता, सामाजिक सांस्कृतिक विकास आदि महत्वपूर्ण और मूलभूत लक्ष्यों का तो उल्लेख तक नहीं किया है, परन्तु यह तो उदारीकरण के प्रबलतम समर्थक भी मानेंगे कि ये सब उद्‌देश्य अपने आप में गहरे और दूरगामी मायने रखते हैं । जबकि आर्थिक बढत की दर तो केवल साधनमात्र है ।

एक ऐसा साधन जिससे कई अलग-अलग किस्म के नतीजे निकल सकते हैं, खासकर अब यह बात और भी ज्यादा सटीक हो गयी है कि क्योंकि बढ़त के जरिये न तो स्वत: संचालित बाजार प्रक्रियाओ और न ही बढ़त से प्राप्त ससाधनों के आधार पर संचालित गरीबी-निवारण कार्यक्रमो के जरिये न्यूनतम जीवन स्तर से भी कम स्तर वाली गरीबी तक का खात्मा हो पाता है ।

जीवन की सपूर्णता और हर नागरिक की मानवीय गरिमा और सामाजिक न्याय के मापदडो की तो यह सोच बात ही नहीं उठाती है कि यह उन्हे निश्चित दीर्घकालिक भविष्य के लिए स्थगित कर चुकी है । यहा इस बात का भी उल्लेख हो जाना चाहिए कि गरीबी-रेखा घटने के सरकार आकडो को बहुत से वस्तुनिष्ठ विद्वानों ने चुनौती दी है और उनकी विश्वसनीयता का पर्दाफाश किया है ।

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि उदारीकरण तथा सन् 1991-96 के आर्थिक प्रबौ सतही स्तर पर, सीमित कसौटियों पर तथा अधिकाश महत्वपूर्ण और दीर्घकालिक रु केतकी क अवहेलना करने पर ही सफल माने जा सकते हैं । राज्य वित्तीय घाटा इतना ज्यादा बना रहा गैर-विकास, चालू खर्च में सरकारी शानी-शौकत और फिजूल के कामो पर संसाधन बरबाद हो रहे तथा दीर्घकालिक, पूंजीगत खर्च में कमी की गयी ।

अब यह देखने की बात है कि कम पूंजीग तथा आधारभूत सुविधाओं के घटते खर्च के साथ आर्थिक बढ़त टिकाऊ कैसे हो सकती है । लगातार नौ साल से सूखे, अतिवृष्टि आदि के अभाव में हुई खेतों की पैदावार की बढ़त को स्था कैसे माना जा सकता है ?

जब सरकारी कोष का घाटा इतना ज्यादा है और उसमें सार्वजनि क्षेत्र के शेयरो की बिक्री से प्राप्त राशि मिला लेने से (जो सर्वथा तर्कसंगत है) यह घाटा सु भी बढ जाता है, तो भुगतान सतुलन की स्थिति में सुधार कैसे संभव हुए ?

कर्ज बढा है, क चुकाने का खर्च बढा है और आयात भी निर्यात से ज्यादा तेजी से बढा है । चार अरब डर का व्यापार घाटा, दस अरब डॉलर का ब्याज और कर्ज परिशोधन खर्च हमें पूरे करने हैं, बढ्ते हुए व्यापार घाटे के साथ-साथ 1995 के मुकाबले विदेशी कर्ज तथा पूजी प्रवाह पर आधारित विदे मुद्रा भंडार में 1995 में तीन-चार अरब डॉलर की कमी आयी है । रुपया डॉलर के मुकाबले सस्ता हो गया है ।

इससे विदेशी कर्ज़ का बोझ बढ़ गया है और हमें ज्यादा माल निर्यात करना पड़ता है अपनी नियत आयात जरूरतें पूरा करने के लिए । उत्पादन के उभरते ढाचे सामान का अनुपात बढ़ रहा है और इनके उत्पादन में आयातित सामान पर निर्भरता बढ़ रही है ।

बहुधा, यह उत्पादन बहुउद्‌देशीय कम्पनियां ही कर रही है । रुपये के अवमूत्न लागतों मे बढत आयी है जिसके चलते हमारी अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगी क्षमता पर भी पड़ रहा है । संक्षेप में थोडी-सी सावधानी और थोडे से खुले दिमाग से सोचने । के पक्ष में फैलाये भ्रमजाल से मुक्ति संभव है ।

उदारीकरण का घोषित मकसद क्या था ? कहा गया था कि घरेलू बाजार की ताकतों को ज्यादा खुली छूट देकर भारतीय अर्थव्यवस्था के ढीलेपन, कम प्ररि रिश्वतखोरी और दलाली (अधिकार से प्राप्त लगान) आदि को खत्म करके तीव्र विक उत्पादन की बढत दर को और ज्यादा तेज और टिकाऊ बनाना उदारीकरा बाजारीकरण तथा नियंत्रण समाप्ति की नीति के उद्‌देश्य थे ।

इन उददेश्य की प्राप्ति के लिए राज्य और योजना की भूमिका घटाना और उसे एक अलग किस्म का, तब्दील देना जरूरी समझा गया । राजकीय वित्त में स्थायित्व लाना तथा अर्थव्यवस्था में पर संतुलन स्थापित करना इस नीति के प्रारम्भिक चरण थे । इस तरह स्थायित्व तीव्र विकास द्वारा ही गरीबी के लिए रोजगार बढाना और उनको गरीबी से राहत गया था ।

बाजार की शक्तियां उन्हीं लोगों को भागीदारी देती हैं जिनके पास निवेश जिनके माल की बाजार में पर्याप्त मांग हो तथा जिनके श्रम की बाजार में मांग । बाजार शक्तियो पर आधारित व्यवस्था में बाजार की विद्यमान स्थिति ही उसके दशा, दर और प्रकृति निर्धारित करते हैं ।

जो लोग बाजार व्यवस्था के भाग नहीं बन पाए है या तो बिकी योग्य सा के लिए आवश्यक पूंजी के अभाव के कारण या बिक्री योग्य कार्यक्षमता के और उनकी श्रम क्षमता की बाजार में मांग नहीं होने के कारण, वे बाजार व्यवस्था पाते हैं, यद्यपि वे सामाजिक सदस्य और राष्ट्र के नागरिक हैं ।

हमारे यहां या ते खासकर मानवीय संसाधन या तो अनप्रयुक्त हैं या उनका कम और अकुशल प्रयो व्यवस्था के पास बिना सामाजिक, राजनीतिक हस्तक्षेप के इस बरबादी से बचे नहीं है । पूंजी तथा आर्थिक क्षमता के केन्द्रीकरण के चलते बाजार व्यवस्था लगा तबके के हित में काम करती है । उदारीकरण के पास इस बरबादी, अकुश असमानतापूर्ण इस्तेमाल को रोकने का कोई साधन नहीं है ।

वास्तव में असमानताएं, परदेसी निर्भरता आदि सवाल उदारीकरण के कार्य-क्षेत्र से जगतीकरण के नाम पर खुले आयात-निर्यात, निवेश, तकनीक खरीद तथ उत्पादन और निवेश बढाने की छूट दी गई हैं । इस तरह भारत की अर्थव्यवस्था से और ज्यादा घनिष्ठ रूप से जोड़ा जा रहा है । आयात और निर्यात का राष्ट्रीय, में वजन बढा है । विदेशी दीर्घकालिक तथा अल्पकालिक पुंजी तथा मुद्रा बाज देन भी बढे हैं ।

विदेशी प्रत्यक्ष पूंजी का प्रवाह वास्तव में स्वीकृत मात्रा पहले के मुकाबले बहुत बढा है । हमारे शेयर बाजार में विदेशी संस्थागत निवेशकों ने काफी लगाया है, खासकर चालू कम्पनियों के शेयर खरीदने में । यह बात दूसरी है कि यह लोग कि में अपनी शाखाएं खोलकर बिना किसी दिक्कत के अल्प अवधि में ही ये शेयर फिर से बेच काफी पूंजीगत लाभ कमा लेते हैं और कोई कर नहीं देते हैं ।

इस तरह के हीट मनी या अरि मुद्रा प्रवाहों से बाजार की अस्थिरता बढ़ती है । इस तरह के तीव्र चलायमान या चंचल नि के आधार पर विदेशी, आर्थिक संबंधों में स्थायित्व या टिकाऊपन नहीं आ सकता है । इस प्रक्रिया के कुछ गभीर दुष्परिणामों से चुराना वाजिब नहीं होगा । हमारे आ महंगी शर्तो पर आ रहे हैं, रुपये की कीमत गिरने के कारण । इनमें आम आदमी की जरूरत सामान बहुत कम होता है ।

चाहे वाहनों के लिए पेट्रोल, डीजल हो, विद्युत उपकरणों के या कारों आदि की मशीने हों या गैर आम उपभोग की चीजों के लिए निवेश का सामान हो या की वस्तुओं में लगने वाले सामान हों, हमारे तेजी से बढते आयातों से सामाजिक राष्ट्रीय तो काफी सीमित ही होता है ।

यह बात अलग है कि एकतरफा संरक्षणवादी नीति अपनाने धनी देशों के लिए हमारी नीतियां महाभोज के ऐसे अवसर प्रदान कर रही हैं । तभी तो आर हम औद्योगिक देश इविशाल उभरते बाजारों’ के नाम से जानते हैं । इस तरह एक जगतीकरण के नाम पर धनी देशों का माल धड़ल्ले से बिक रहा है, दूसरे हम नये कर्ज पुराने कर्ज सही समय पर चुका रहे हैं ।

साथ ही उनकी तकनीक, उनकी नकल की संगठन छ तथा जीवन पद्धति अपना रहे हैं और उनकी पूंजी को आकर्षक लाभ कमाने के अवसर हैं] हमारे संपन्न वर्ग, निजी निगमि क्षेत्र तथा वित्तीय क्षेत्र के महारथी और सटोरिये अर्थव्यवस्था के मुकाबले धनी देशों की अर्थव्यवस्थाओं से ज्यादा जुड़ते जा रहे हैं ।

आन्तरिक को तोड़ कर हमारे अभिजात्य वर्ग अंतरराष्ट्रीयता के नाम पर धनी देशों के धनी तबकों के रूप से जुड़ते जा रहे हैं । इस तरह के जगतीकरण का प्रादेशिक पहलू भी कम ध्यान देने नहीं है । दुनिया का अर्थ सिमटकर धनी पश्चिमी देशों तक ही सीमित नहीं है । पर देखा रहा है कि हमारे व्यापारिक संबंध हमारे जैसे ही विकासमान देशों के साथ प्रगाढ नहीं हैं ।

आयात बढ़त में स्पष्टत: तट कर की कमी, आयात-नियंत्रण में छूट, विदेशी निवेशकों तथा नये उभरते पश्चिमी देशों की तर्ज के उत्पादन ढांचे का काफी योगदान रहा है निर्यात में भी अच्छा खासा इजाफा हुआ है । इस वृद्धि में रुपये की कीमत घटने प्रोत्साहन की नीतियो, विदेशी साज-सामाज के आयात के आधार पर निर्यात उत्पादन; काफी योगदान रहा है ।

निर्यात आमदनी पर कर छूट असमानता बढाने का साधन बन निर्यात वस्तुओं में से कई आम जरूरत की चीजें हैं । इस तरह आम आदमी की चीजें बाहर धनी लोगों के काम का माल मंगवाया जाता है । यह भी आम जनता को त्रस्त करने वाली बात है ।

आज एक बंद और अलग-अलग पड़ी अर्थव्यवस्था की कल्पना करना ही मूर्खत होगी । परन्तु क्या हम अपने कीमती संसाधनों से निर्यात बढाने को अपनी सर्वोच्च राष्ट्रीय प्राथमिकता बनाने को भी विवेकसगत, जनहितकारी विकास का सबसे मजबूत पाया मान लें ?

इस तरह हम मजदूरों तथा आम लोगों के लिए जरूरी वस्तुओं की उपलब्धि अंतरराष्ट्रीय विनिमय द्वारा नहीं बढा सकते है । विश्व बाजार भारतीयो के दैनिक इस्तेमाल की चीजों की आपूर्ति या इस काम के लिए आवश्यक पूजीगत और मध्यवर्ती सामान की आपूर्ति में न तो सक्षम है और न ही किफ़ायती स्त्रोत ।

अधिकांश औद्योगिक देशों का जीवन-स्तर इतना आगे बढ़ा हुआ है, और उत्पादन इतने पूंजी और ऊर्जा गहन हैं कि उनसे प्राप्त सामान हमारे यहा आकर न तो पड़ता पड है और न ही हमारी जरूरतो, आय और मांग के रूप तथा जलवायु और सामाजिक ढाचे है और न ही हमारे संसाधनों के समुचित उपयोग का आधार प्रदान कर सकता है ।

हमारे आकार, संसाधनों की विपुलता और विविधता, हमारी औसत आमदनी के नीचे स्तर तथ प्रभाव से निर्धारित माग के स्वरूप, हमारी सांस्कृतिक विरासत, उद्योगीकरण की दौड़ में हमारी विलम्बित प्रविष्टि आदि बातों के कारण हमारे यहां विदेशी व्यापार की एक सीमित ही हो सकती है ।

इसी प्रकार हमारे यहां विदेशी बचत और निवेश हमारे विकास के मुख प्रेरक या निर्धारक नहीं बन सकते हैं । जितना ज्यादा महत्व हम ऐसे विदेशी आर्थिक संबंधों पर देंगे, हम उतने ही अपने विकास के जनाधार को सीमित करेगे, दूसरे विकासमान सम्कक्ष विभिन्न आर्थिक स्थिति वाले तीसरी दुनिया के देशों से कटेंगे और धनी तथा पुराने औद्द्योगीकृत देशों के दबदबे में फंस जायेगे ।

ये धनी देश हमारे सस्ते श्रम, प्राकृतिक ससाधनों और पर प्रतिकूल, हानिकारक प्रभाव डालने वाली तकनीकों से पैदा किये माली को खरीदन असमान अंतरराष्ट्रीय मौद्रिक व्यवस्था तथा विदेशी विनियम दर निर्धारण प्रणाली के वे हमारे सामान को कौडियों के भाव खरीदने में सफल होते रहे हैं ।

पर हम जनीन मानवीय विकास के लिए उनसे प्राप्त आयात, पूजी और तकनीकें बहुत ज्यादा उपयोग् संभावना नहीं रखते हैं । अपने प्राकृतिक और मानवीय ससाधनों का दोहन करके, नि और वह भी बहुत-सी रियायते और महंगे प्रोत्साहन प्रदान करके हम अपने यहां रोजगार बहुत सीमित मात्रा में ही बढा सकते हैं ।

विदेशो से ज्यादा से ज्यादा जुडना और आयघ सामान, वित्त तथा तकनीकों को आर्थिक समृद्धि का साधन बनाना हमारे सम्पन्न वर्ग स्वार्थ है और उसे राष्ट्रीय प्राथमिकता मानना जनहितकारी व्यापक आधार वाले विकार भारतीय के हितो पर सीधा हमला है एक छिपा हुआ प्रहार ।

हमारी आजादी का मकसद इस तरह स्वेच्छा से उपनिवेशवादी नीतियों को अपनाना नहीं था । वर्तमान समय मे भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया तेजी पर है । विश्व बैंक, मुद्रा कोच व्यापार सगठन तीनों की सम्मिलित सिफारिश है कि विकासशील देश जल्द से जल्द रि में अंगीभूत हो जाए ।

विश्व बैंक के मुताबिक यदि तीसरी दुनिया के देश तेज रफ अर्थव्यवस्था में अगीभूत नहीं होते तो वे विकास के दौर में पिछड जाएंगे । विश्व बैंक है कि आने वाले दस वर्षों के दौरान तेजी से अगीभूत होने वाले और धीमी गति से वाले देशो के बीच आय का फासला बहुत बढ़ जाएगा । उनका अध्ययन बतलाता ।

1993 की अवधि मे उन्नत देशों मे प्रतिव्यक्ति राष्ट्रीय उत्पाद 2.03 प्रतिशत बढा में तेज अगीभूत होने वाले देशों की आय तेज रफ्तार (2.09 प्रतिशत) से बढी । लेकिन और धीमी गति से अंगीभूत होने वाले देशों की आय बढने के बजाय क्रमश: 1.04 0.92 प्रतिशत की दर से घटी ।

मुद्रास्फीति के मामले में भी तेजी से अगीभूत होने वा स्थिति में रहे हैं । इसी अवधि मे धनी देशों में मुद्रास्फीति की दर 363 प्रतिशत थी से समाहित होने वाले देशों को 13.40 प्रतिशत, मध्यम दर्जे के समाहित होने वाले रे प्रतिशत, कमजोर समाहित देश में 23.86 प्रतिशत और धीमी गति से समाहित होने वाले देशों में मुद्रास्फीति 19.89 प्रतिशत थी ।

विश्व बैंक के अनुसार मुक्त बाजार और विदेशी निवेश के तत्त्व ही आर्थिक विकास की निर्धारित करते हैं । नई आर्थिक नीति शुरू करते समय वित्त मंत्री ने कहा था कि 3 वर्षो में इसके लाभदायक परिणाम अर्थव्यवस्था की तरक्की की मार्फत दिखाई पड़ने लगेंगे । लेकिन पांच वर्ष हो गए अर्थव्यवस्था में उन्नति के लक्षण दिखाई नहीं पड रहे हैं ।

कुछ विचारकों का मत है कि सुधारों के साथ इस देश में घोटालों का युग शुरू हो गया है । जब से देश में भ्रष्टाचार के म् प्रकाश में आये हैं तब से यह कहा जा रहा है कि इसके पीछे मुख्य कारण आर्थिक उदासी है । अब यह विवाद का मुददा भी बन गया है कि भ्रष्टाचार, घोटालों तथा आर्थिक उदार: के बीच क्या सम्बध है ।

किन्तु इसका जवाब किसी के पास नहीं है कि यदि उदारीकरण के घोटाले हो रहे है तो 1991 से पहले घोटाले क्यों हुये ? भ्रष्टाचार का मुख्य कारण राजा नेताओं, अपराधियों और उद्योगपतियों की सांठगांठ ही होती है । सभी का उद्‌देश्य पैसा व है जिसमे सब एक-दूसरे की मदद करते है ।

नैतिकता या साधन की पवित्रता की तरफ कोई नहीं देता । अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में परेशानियां नजर आ रही हैं । देश भुगतान संतुलन के मामले में भी अच्छी स्थिति में नहीं है । पिछले साल देश का विदेशी मुद्रा का रिजर्व करीब 4 अरब डॉलर का हो गया ।

रिजर्व बैंक के गवर्नर ने चेतावनी दी है कि देश का विदेशी मुद्रा तेजी से घट रहा है जो एक खतरनाक स्थिति का सूचक है । विगत वर्षो में भारत का व्यापार सतोषजनक नहीं था क्योंकि निर्यात तो तेजी से (20 प्रतिशत की रफ्तार से ब यह 38 अरब डॉलर का हुआ लेकिन आयात इससे भी तेजी से बढा है ।

नतीजतन व्यापार पिछले वर्षों की तुलना में बहुत ज्यादा हुआ । इस वर्ष निर्यात की अच्छी संभावना नहीं व्यापार घाटा बडा हो सकता है । आश्चर्य की बात है कि इस वर्ष जो अच्छा निर्यात हुआ वह उन वस्तुओं की वजह से नहीं जो नई नीति के दायरे में आते हैं ।

बल्कि कृषि उत्पादित त् खासकर चावल के बढ़ते निर्यात के कारण हुआ । आर्थिक आकड़ों को देखने से अर्थव्यव२ खराब स्थिति का अदाजा मिलता है । रोज खबरें आ रही हैं कि शेयर बाजार गिरता जा मुद्रास्फीति की दर लगातार बढती जा रही है ।

विदेशी निवेश आशाजनक नहीं है और ओ विकास दर चिताजनक है । विदेशी कर्ज का बोझ बढ रहा है । यद्यपि पिछले 8 वर्षों से अनुकूल है लेकिन कृषि उत्पादन एक सीमा पर आकर रूका हुआ है । विश्व बैंक अपनी इकोनोमिक मेमोरेंडम जिसे इंडिया डेवलपमेंट फोरम में पेश किया गया, में अवश्य व कि भारत अच्छे रास्ते पर है ।

वास्तव में आर्थिक विकास ने कोई सही रास्ता नहीं पकडा है । ये सारी बाते नई नीति के अल्पकालिक असर वाली हैं । नई आर्थिक नीति का दीर्घकालिक असर सारे राष्ट्रीय जीवन को प्रभावित करेगा का कोई अग इससे अछूता नहीं रहेगा । सबसे पहला बुरा असर आय वितरण पर होगा अंदाजा 1996 की हमन डेवलपमेंट रपट से लगता है ।

इस रपट के मुताबिक पिछले 30 वर्षों अमीरो और गरीबी के बीच विश्व आय के बंटवारे का अनुपात बदल कर 30 अनुपा 61 अनुपात 1 हो गया है । इस रपट के दो महत्वपूर्ण निष्कर्ष हैं । पहला, गरीब देशों का विकास अवरुद्ध रहा है और दूसरा, आर्थिक विकास और मानवीय विकास का स्वचालि नहीं है ।

इस रपट की स्पष्ट धारणा है कि सिर्फ आर्थिक विकास से गैरबराबरी दूर न हे । उदारीकरण की नीति विश्व और राष्ट्र दोनो स्तरों पर गैरबराबरी को बढ़ाएगी जिर असर कई ढंग से समाज पर पड़ेगा । उदारवादी नीति इस मान्यता पर आधारित है कि मनुष्य की आवश्यकताएं और करने का उत्पादन कार्य-इन दोनों में कोई स्थानीय भौगोलिक संबंध स्थापित करने नहीं है ।

उत्पादन विश्व बाजार के लिए होगा । इसके दो प्रतिकूल असर भारत जैसे देशो पहला, तेज आर्थिक विकास के साथ-साथ तेज रोजगार का निर्माण नहीं होगा । उत्पादन और पूंजी की असमानता के कारण विकासशील देशो में बेरोजगारी बढ़ने की आशंका है कमजोर देशों में आकस्मिक आर्थिक विभीषिका की आशका बढ़ जाएगी जिसे वे बर्दाश्त पाएंगे ।

यदि किसी वर्ष खाद्यान्न सकट हुआ तो दूसरे देशों पर निर्भर देश तबाह हो रहे भूमंडलीकरण का यह सबसे खतरनाक पक्ष है । कुल मिला कर भूमंडलीकरण स्वावलबई विकास का विकल्प नही है । यद्यपि विश्व स्तर पर पूजी की गतिशीलता बड़ी है लेकि; यह अर्थ नहीं है कि यदि विदेशी पूंजी आई तो इससे सभी राष्ट्रीय संकटो का समाधान जाएगा ।

उत्पादक पूंजी उपनिवेशी काल की तरह उन्नत देशो में ही घूम-फिर कर बढ़ी है । तीसरी दुनिया में जो उत्पादक पूंजी बढी है वह विकास के लिए नहीं, तीसरी दुनिया बटोरने के लिए और इन देशों में उन वस्तुओं का उत्पादन करने के लिए बड़ी है जिन देश किसी कारणवश अपने यहा पैदा नहीं करना चाहते ।

उदारवादी नीति का दूरगामी प्रभाव सत्ता-व्यवस्था के चरित्र पर पड़ने वाला है । वास्तव में इसका भूमंडलीकरण और निजीकरण का स्वरूप राज सक्त को चुनौती के रूप में आय नीति की मान्यता है कि सरकार की जवाबदेही कानून और व्यवस्था तक सीमित रहा देश के आर्थिक साधनो से सरकार का स्वामित्व और नियंत्रण समाप्त होना चाहिए ।

सरकार के चरित्र में तीन स्तरी पर बदलाव होगा । यह तभी होगा, जब अर्थव्यवस्था का संचालन विश्व बैंक और व्यापार सगठन के नक्योकदम पर खड़ा हो जाएगा । संभवत: यह स्थिाइ शताब्दी के शुरू होते आ जाएगी ।

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पहला, राज्य की आर्थिक जवाबदेही समाप्त हो जाएगी कमजोर वर्गो और पिछड़े इलाको के विकास के दायित्व से मुक्त होगी । यह एक वि स्थिति होगी । भारत में कई इलाके और सामाजिक समूह कमजोर हैं । एक जवाबदेह ही इनके विकास के दायित्वो का निर्वाह कर सकती है ।

दूसरा, सरकार के दायित्व को कम करने का अर्थ बाजार की शक्तियों और कार बढाना है । लेकिन अनियंत्रित बाजार न तो तेज आर्थिक विकास कर सकता है और न ही समाज का आधार हो सकता है । ऐसी बाजार व्यवस्था राष्ट्र हित में नहीं है । बाजार व तभी होता है जब इस पर सरकार का नियंत्रण होता है ।

बड़े लंबे अरसे के और अने के उपरात पश्चिमी देशो द्वारा एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना का आविर्भाव हुआ था । पश्चिमी सभ्यता का वर्तमान युग को यही सबसे बड़ा योगदान है । जापान, दक्षिण को पूर्वी एशिया के देशो में तेज आर्थिक विकास इसलिए हुआ क्योंकि वहा की सरकारें; नियत्रित करने में कामयाब रही ।

तीसरा, नई आर्थिक नीति का सत्ता व्यवस्था के चरित्र पर प्रभाव राजनीति की मार जब से साम्यवादी व्यवस्था की हार और बाजार व्यवस्था की जीत हुई है, राजनैतिक धरा प्रभावित है । राजनीति सिद्धातविहीन होती जा रही है । जब से आर्थिक उदारवाद ने ज् है, भारत में क्षेत्रीय राजनीति का उफान सा आ गया है ।

आज देश में 7 राष्ट्रीय दलो के कुल 436 राजनैतिक पार्टिया है । पार्टियों का लक्ष्य मात्र सत्ता हासिल करना हो गया है किसी विचारधारा के तहत देश की शासन व्यवस्था को संचालित करना नहीं । प्रजातंत्र के लिए यह खतरनाक है ।

जिस ढंग से अर्थव्यवस्था आगे बढ़ रही है, इसका व्यापक असर देश के सांस्कृतिक पर होने वाला है । यह नीति एक विश्वास पर टिकी है कि आने वाले दिनो में समूची मानव एक भूमंडलीकृत गांव में रहेगी, यहां भौतिक समृद्धि की बहुलता होगी और लोगो को अन व्यक्तिगत आजादी होगी ।

जो लोग यह समझते हैं कि तीसरी दुनिया के देश भी पश्चिमी औदृ देशों की तरह भौतिक सुख का भोग करेगे गलत हैं क्योंकि साधनों की सीमा के कारण यह नहीं है । आज 20 प्रतिशत लोग विश्व के 80 प्रतिशत साधनों का इस्तेमाल कर रहे हैं ।

यदि; दुनिया के देश भी वस्तुओं और सेवाओं के उपभोग का वही स्तर प्राप्त करना चाहेंगे तो लिए प्राकृतिक साधन कहां से आएंगे क्या प्रकृति इसको बर्दाश्त कर पाएगी ? उपभोगका सभ्यता को समाप्त कर देगा । जब प्रत्येक आदमी अधिक से अधिक उपभोग की तमन्ना तो आने वाले दिनो मे विश्व समाज को आपसी सघर्ष और विश्व युद्ध से नहीं बचाया जा है ।

अति आधुनिक समाज, जिसकी कल्पना अलवीन टाफलर करते हैं, बीमार लोगों का है, सभ्यता का तीसरा मोड़ नहीं । जब तक लाभ की भावना को सहयोगी चरित्र से नहीं जाएगा, आने वाले दिनो में मनुष्य सुखी नहीं हो सकता है । उसके विपरीत नई विश्व छीनाझपटी वाला समाज तैयार करने में लगी है ।

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नई आर्थिक नीति की विशेषता है कि वह जीवन को एकरूपता की ओर ले जाएगी । उसे शुरू होकर यह एक ऐसी संस्कृति की सूत्रधार है जो विश्व की विभिन्न संस्कृतियों के कर एक संस्कृति का निर्माण करेगी । मानव जाति विभिन्न समूहों में जीवन बसर करती प्रत्येक समूह अपने स्थानीय वातावरण के आधार पर पीढी दर पीढी के प्रयास से एक शैली का निर्माण करता है ।

इसी जीवन शैली की अच्छी परंपराओं से संस्कृति बनती व्यवस्था में अनियंत्रित प्रतियोगिता के कारण व्यक्ति का अर्थलोलुप संस्कार होगा और गैरबराबरी के कारण समाज में विद्वेष, क्रोध और हिंसा की प्रवृत्ति बढेगी । सांस्कृतिक की तलाश लोगों को मानवीय गुणों से वंचित करेगी ।

आर्थिक व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता से इंकार नहीं किया जा सकता है । लेकिन सुधारवादी ढांचा भारत जेसे देश के लिए हानिकारक है । कारण है कि जगतीकरण का ढांचा राष्ट्रीयता की भावना को कमजोर करने वाला है । यदि दो तत्वों का समावेश होत आर्थिक सुधार लाभदायक हो सकता हे ।

पहला, मनुष्य की आवश्यकताओं का उनकी भी उत्पादन क्षमता से सामंजस्य स्थापित कराने की कोशिश होनी चाहिए । किसी देश का आर्थिक सबंध सीमित होना चाहिए । यही बाजार की निरंकुशता को रोकेगा और जी विविधताओं को संजो कर रखेगा ।

दूसरा, सरकार को कम खर्चीला और अधिक कार्यकुशल जाना चाहिए । बाजार के राष्ट्र निर्माण में सही भूमिका अदा करने के लिए यह जरूरी है । इन्हीं मानदंडों के आधार पर सुधारवादी नीति राष्ट्र के उपयुक्त विकास का माहौल तैयार कर सकती है ।

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