आर्थिक नीति: परिवर्तित परिदृश्य में पर निबन्ध | Essay on Economic Policy : Changes in the Landscape in Hindi!

प्रस्तावना:

वर्तमान भारतीय अर्थव्यवस्था को मिश्रित अर्थव्यवस्था के नाम से भी पुकारा जाता है क्योंकि हमारी अर्थव्यवस्था र्मे उत्पादन के दो क्षेत्र हैं: प्रथम, सार्वजनिक क्षेत्र और द्वितीय, निजी क्षेत्र ।

भारतीय अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र की उपस्थिति कोई नवीन प्रयोग नहीं है । सार्वजनिक क्षेत्र उत्पादन और वितरण कार्यो को प्रत्यक्ष रूप से सम्पन्न करता है । इस दृष्टि से आर्थिक विकास में इसकी भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण रही है ।

चिन्तनात्मक विकास:

वस्तुत: भारतीय अर्थव्यवस्था आज निर्णायक परिवर्तन के दौर से गुजर रही है । विगत चार दशकों से हम ऐसे मार्ग का अनुसरण कर रहे हैं जिसमें यह अपेक्षा की गई थी कि सार्वजनिक क्षेत्र बिकास हेतु इंजन का कार्य करेगा किन्तु 1970 के दशक के मध्य में सार्वजनिक क्षेत्र का आधारभूत ढांचा डांवाडोल रहा है ।

यह ठीक है कि यह क्षेत्र घाटे में चल रहा है, लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि इसके साथ भेदभाव बरता जाए । इन इकाइयों को पुनजीवित एवं सक्षम बनाने की सम्भावना पर तो विचार किया ही जा सकता है । आवश्यकता इसके विकास के लिए कुछ ठोस कदम उठाने की प्रतिबद्धता से है । पिछले कुछ वर्षो में सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण पर बहुत कुछ कहा गया है ।

उदारीकरण की नीति का सरकार द्वारा आइवान किया गया जिससे कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों भारत जैसे देशों में हावी होना चाहती हैं । स्पष्टत: यह कहना भी असत्य नहीं होगा कि किसी नीति चाहे यह आर्थिक हो, सामाजिक क्षेत्र से सम्बंधित हो अथवा राजनैतिक क्षेत्र से, उसमें लोगों की सार्थक भागीदारी अत्यन्त आवश्यक है । तभी कोई राष्ट्रीय नीति अथवा कार्यक्रम सफल हो सकता है ।

उपसंहार:

निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि भारत की आर्थिक व्यवस्था में अनेक उतार-चढ़ाव आये हैं । भारतीय अर्थव्यवस्था के सार्वजनिक क्षेत्र को पूर्णत: असफल कह सकते हैं और न ही निजी क्षेत्र को । यदि हम समाज एवं देश में सार्थक परिवर्तन लाना चाहते हैं तो सर्वप्रथम हमें आर्थिक गतिविधियों से राजनीतिकरण को दूर करना होगा ।

दूसरी ओर सभी क्षेत्रों को सम्यक् प्रयास करना होगा । नई आर्थिक नीति की घोषणा के साथ ही यह विवाद भी आरम्भ हो गया कि यह बजरिये बदलाव निरन्तरता का प्रतिनिधित्व करती है अथवा पहले की नीति से हटकर या कहिए भटकई हुई है । ऐसे विवाद के केन्द्र में सार्वजनिक क्षेत्र के प्रति सरकार के नजरिये का सवाल था ।

इसे पहले की ही तरह ‘पवित्र गाय’ जैसा ही समझा जाता रहा और संविधान के नीति-निर्देशक सिद्धान्त को अनदेखा तक करते हुये इस ‘गाय’ को सरकारी तौर पर ‘जिबह’ कर लिया गया । नई आर्थिक नीति की घोषणा के बाद के बरसों में सार्वजनिक क्षेत्र को ‘जिबह’ तो नहीं किया गया है लेकिन न तो पूर्व सरकार में और न ही वर्तमान सरकार में इसकी भूमिका के बारे में समुचित समझ दिखाई दी है ।

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इसलिए जरूरी है कि समझ के इस अभाव को दूर किया जाए असल में सार्वजनिक क्षेत्रों का सवाल भारत के लिए ही नहीं सारी दुनिया की अर्थव्यवस्थाउ के लिए बहुत महत्वपूर्ण है । अत्यधिक सरकारीकरण से कम्युनिस्ट अर्थव्यवस्था धराशायी हुई तो अत्यधिक निजीकरण भी महत्वपूर्ण क्षेत्रों में भी गैर-जवाबदेही और देश की जरूरतों, जरूरतों से मुंह मोड़ने वाला साबित हुआ है पर सार्वजनिक क्षेत्र का मतलब सिर्फ कम्युनि नहीं है ।

दुनिया में, यूरोप में ही सार्वजनिक क्षेत्र बहुत व्यवस्थित और लाभदायक कर रहे हैं । अपने यहां एक तो रूस की नकल पर होटल और हर क्षेत्र में सरकार ने और दूसरे नेताओं की हर स्तर की दखलअंजादी ने इन इकाइयों को व्यावसायिक व नहीं दिया ।

दर्जनों भारी-भरकम उपक्रम वर्षो बिना प्रमुख के चलते रहे । इसके साथ ही अकुशलता का सारा बोझ बजट और फिर लोगों पर डाल दिया जाता था । लाख करोड़ रुपए निवेश भी नुकसान में जाए और सिर्फ कर्मचारियों का वेतन देने में कमी पड़े तो माना जाएगा ।

पर विनिवेश की बात शुरू में जिन लोगों ने उठाई उनका मन भी बहुत कम शेयर पूंजी के चलते इन भारी भरकम संस्थानों पर कब्जा जमाने की मंशा भी इसमें थी । स्वर्गीय नेहरू ने सार्वजनिक क्षेत्र की अवधारणा को मिश्रित अर्थव्यवस्था के के रूप में सिर्फ इसीलिए नहीं देखा था कि निजी हाथों में शक्ति-सम्पत्ति के संकेन्द्रा किया जाए वरन सार्वजनिक क्षेत्र को सामाजिक न्यायोम्मुखी आत्मनिर्भर अर्थद्ध परिकल्पना राष्ट्रीय क्रांति के तहत की गई थी, के निर्माण के आधार के रूप में ऐसे आधार के रूप में गढा गया था जिससे आर्थिक विकास की मुख्य दिशा को जा सकेगा ।

स्वर्गीय नेहरू की सार्वजनिक क्षेत्र विषयक अवधारणा दो मताग्रहों के विपर्र तो यह सामाजिक न्याय सहित विकास को निजी क्षेत्र के जरिए ‘बाजार’ के अदृश्य किया जा सकता है और जिसमें उपनिवेशवादी देशों के निजी क्षेत्रो की तरफ से मिलेगी । नेहरू को इतिहास की तमीज थी और अपरे दौर की उन धाराओं, उनकी पकड़ थी जो भविष्य की नियामक थी ।

दूसरी हठधर्मिता जिसका नेहरू ने विरोध किया, वह यह थी कि समाजत भी किसी भी परिसम्पत्ति को राज्य के स्वामित्व में ही होना चाहिए । उन्होंने जोर गतिविधियों का बडा हिस्सा, जहां तक उनमें लोगों की भागीदारी की बात है, चाहिए और सार्वजनिक क्षेत्र को अर्थव्यवस्था के अग्रणी क्षेत्र में नये निवेश के जरिए आगे बढ़ाना चाहिए ।

पंडितजी के दृष्टिकोणानुसार सार्वजनिक क्षेत्र को हमारे देश में गतिविधियों का मार्गदर्शक एवं गतिनियामक होना चाहिए । इसीलिए इसकी अर्थव्यवस्था की नेतृत्वकारी भूमिका होनी चाहिए । सार्वजनिक क्षेत्र को आदर्श न सिर्फ बड़े-ऊंचे पैमाने पर वरन् निचले व छोटे स्तर पर न्याय के उद्देश्य की पूर्ति हेतु प्रभावी होना चाहिए ।

सार्वजनिक क्षेत्र को आदर्श नियोक अपने कामगारों-कारीगरों को सेवाओं एवं आम हालात के संदर्भ में बुनियादी को उपलब्ध करवाना चाहिए । सार्वजनिक क्षेत्र के लिए भी जरूरी था कि वह इस प्रकार कार्य करे कि निजी हाथों में आर्थिक शक्ति का संकेन्द्रण न हो ।

यहां यह याद रखा जाना चाहिए कि पंडितजी ने अपनी अवधारणानुसार सार्वजनिक क्षेत्र के सम्बन्ध में एक आम सहमति बनवा ली थी । उन्होंने न सिर्फ समतामूलक एवं देशभक्त पूंजीपाइत् को वरन् मजदूर संघों एवं वामपंथ के दूरंदेशी हिस्सों से सार्वजनिक क्षेत्र को न सिर्फ स्वीकृत करवाया वरन उन्हे उसका चैंपियन भी बनवाया ।

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तबसे अब तक के घटनाक्रम ने उस महान नेता की सोच के अनुसार बने सार्वजनिक की अवधारणा के औचित्य एवं उसकी अपरिहार्यता को सिद्ध किया है । यदि सार्वजनिक क्षेत्र होता तो विश्व अर्थव्यवस्था में भारत का वह स्थान नहीं होता जो आज है । न तो हमारा लोकतांत्रिक ढांचा ही खड़ा रह पाता ओर न ही समतावादी विकास ही संभव हो पाता ।

पिछले पांच बरसों एवं आज की अर्थव्यवस्था में जो कुछ हम कर रहे हैं उससे सुधार सम्भव ही नहीं होता यदि सार्वजनिक क्षेत्र नहीं होता । विदेशी पूंजी को आकर्षित एवं निजी उद्यमिता को नई सक्रिय भूमिका सौंपना संभव नहीं होता यदि स्वतंत्रता प्राप्ति के का आर्थिक विकास नहीं हुआ होता । तब क्यों, सही ही, यह पूछा जा सकता है कि नयी ऑ। नीति की क्या जरूरत थी ?

नई आर्थिक नीति के पीछे तीन स्पष्ट कारण रहे हैं । प्रथम, सम्पूर्ण आर्थिक तंत्र राजनीतिकरण एवं नौकरशाहीकरण ने खतरनाक नकारात्मक स्वरूप अख्तियार कर लिया दूसरे, विश्व अर्थव्यवस्था से खासकर विज्ञान एवं प्रविधि के क्षेत्र में अधिक एकीकरण की जरूरत थी ।

बहुराष्ट्रीय निगमो एवं विकसित पूंजीवादी देशों के अधिक सहयोग जिसमें बाजार की ता की ओर अधिक अन्तरण शामिल है, की जरूरत पड़ी । तीसरे, जहां सोवियत संघ के विघट ‘निर्देशित अर्थव्यवस्था’ की मारक कमजोरी को उजागर किया वहीं चीन ने बाजार चालित आ तत्र की ओर विचलन के लाभों को प्रदर्शित किया ।

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इसका निश्चयं ही, यह अर्थ हुआ कि सार्वज् क्षेत्र के कामकाज में सुधार लाया जाए और उसकी भूमिका पर पुनर्विचार किया जाए । इसका अर्थ सार्वजनिक क्षेत्र को नजरअंदाज करना और उसे बलि का बकरा बनाना भी ना सकता ।

यह सही है कि सार्वजनिक क्षेत्र कुछ ऐसी गतिविधियों में लग गया जो र्ख्यव्यवर नेतृत्वकारी भूमिका के लिहाज से कतई गैर-जरूरी थी । साथ ही यह भी सच है कि सार्बर क्षेत्र एक प्रकार से निजी क्षेत्र की बीमार इकाइयों के स्थानान्तरण वास्ते ‘पिंजरा-पोल’ बन रह गया ।

इससे भी आगे निजी क्षेत्र का विकास हुआ उसमें विविधता भी आई तथा बह कार्यों को भी कर सकता था जो अभी तक नहीं करता था और उसके आगे के विस्तार के उन क्षेत्रों में भी बढना जरूरी हो गया जो अभी तक सार्वजनिक क्षेत्रों के लिए आरक्षित थे ।

साथ ही, सूचना-जानकारी आधारित एवं प्रवर्तित आर्थिक विकास के महत्व की और जो निश्चयात्मक विचलन हुआ उसके चलते भी सार्वजनिक क्षेत्र की गतिविधियों में भी तदनुरूप ब लाना भी जरूरी हो गया था । कुछ मामलों मे इसमें कतर-ब्योंत करना और कुछ मामलों में लिए नई जिम्मेदारियों को लेना जरूरी हो गया था ।

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खासकर पर्यटन, होटल एवं दीर्घावधि-उप सामग्रियों के क्षेत्र में से सार्वजनिक क्षेत्र का बाहर आना जरूरी हो गया और सर्वोपरि, जिसे संसाधन विकास कहते हें अर्थात शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, आवश्यक उपभोक्ता वस्तुओं का सार्वजनिक वितरण और नई प्रविधियो के विकास, प्राप्ति एवं प्रयोग जैसे क्षेत्रों में सार्वजनिक क्षेत्र का प्रसार जरूरी हो गया है ।

सार्वजनिक क्षेत्र की कार्यप्रणाली में भी गुणात्मक बदलाव होना जरूरी हो गया है । इस मे विशेषज्ञों की एक से अधिक रपटें खासकर अर्जुन सेन गुप्ता समिति और स्वर्गीय सुखमीय चत्न की अध्यक्षता वाली आर्थिक सलाहकार समिति की रपटें सरकार के पास हैं ।

इनकी सिफा का मुख्य जोर सार्वजनिक क्षेत्र के गैर-राजनीतिकरण एवं नौकरशाही चंगुल से उसे कृमि और सर्वाधिक स्वायत्तता प्रदान करने पर है । यह निश्चय ही त्रासद स्थिति है कि नई अ नीतियों को लागू करने से न तो पहले और न ही बाद में इन रपटों पर विचार तक किया गया है, उनकी सिफारिशों पर कार्यवाही करने की बात तो दूर है ।

इधर स्टॉक एक्सचेजों में सार्वजनिक उद्यमों के शेयरों को बेच कर उन्हें वास्तविक ममें सार्वजनिक बनाने की बचकानी बात की जा रही है । कुछ विनिवेश किया तो गया है अभी तक कोई खास सफलता नहीं मिली है ।

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विनिवेश से जरूरी नहीं है कि सार्वजनिक क्षेत्र ओं मे सार्वजनिक हो जाएगा या फिर विनिवेश से उसका निजीकरण हो जाएगा । सरकार 49 प्रतिशत या कम की ‘इक्विटी’ रखते हुए भी सार्वजनिक उद्यमों पर नियत्रण रख सकती है ।

आखि निजी क्षेत्र के कुछ प्रतिष्ठानों, कंपनियों यथा टिस्को में सरकारी वित्तीय संस्थाओं के 40 प्रतिशत तक शेयर हैं परन्तु इस उद्यम की मिलकीयत पूरी तरह से निजी हाथों में है । तथापि विनिवेश से प्राप्त धन सरकारी खाते में बजट घाटे को पूरा करने वास्ते जमा करने के बजाए उसी सार्वजनिक इकाई को ही वापिस किया जाना चाहिए ।

इसलिए सार्वजनिक क्षेत्र की रक्षा का मतलब मात्र और मुख्यत: उसमें कार्यरत काम ? हितों की रक्षा ही नहीं है । न ही इसका मतलब अक्षमता, राजनीतिज्ञों एवं नौकरशाहों के और बहुत से मामलों में जरूरत से अधिक कामगारों के होने से पैदा यथास्थितिवादी सि रक्षा किया जाना ।

निश्चय ही सार्वजनिक क्षेत्र के कामगारों को प्रबंधन की स्वेच्छाचारि गलतियों से संरक्षण दिए जाने की जरूरत है । वह तो न्यूनतम, सामान्य ट्रेड यूनियन कार्यवाही है लेकिन दुर्भाग्यवश ही सही, सार्वजनिक क्षेत्र को अपने उन कुछ कामगारों से भी बचाव जरूरी है जिनमें सार्वजनिक उद्देश्यों के प्रति आदर का भाव तनिक भी नहीं है ।

सार्वजी को अपने कुछ ऐसे कथित समर्थकों से भी बचाया जाना जरूरी है जो उसे मात्र रोल जरिया समझते हैं और साथ ही उसे एक ऐसा नियोक्ता भी समझते हैं जिसे निजी मालिकों के मुकाबले ज्यादा एवं आसानी से धमकाया-दबाया जा सकता है ।

बावजूद अपनी सभी कमजोरियों के सार्वजनिक क्षेत्र ने भारत को आत्म-निर्भर बनाने दबी-पिछड़ों के लिए अर्धमान अवसरों का देश बनाने में तथा एक वैश्विक ताकत बनाने में योगदान किया है । सार्वजनिक क्षेत्र इससे भी बेहतर प्रदर्शन कर सकता है । हमारी राष्ट्रीय और वैश्विक हालात में नुकसानदेह बदलाव के संदर्भ में सार्वजनिक क्षेत्र को निश्चय ही और बेहतर प्रदर्शन करना चाहिए ।

सार्वजनिक क्षेत्र को ‘पवित्र गाय’ समझा जाना बंद किया जाना चाहिए । इस हे तर्क एवं तथ्य मौजूद हैं । हमारे सार्वजनिक क्षेत्र ने हमारी राष्ट्रीय जरूरतों की पूर्ति में महत्वपूर्ण योगदान किया है । जहां गरीबी की रेखा से नीचे के लोगों की सख्या में कमी आई है वहीं एक बड़ा मध्यम वर्ग खडा हो गया है ।

विभिन्न कारणों से सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका के बारे में भी बदलाव हो है जो राजीव सरकार के समय से शुरू हो गया और राव सरकार के वक्त बेहद मुखर हो स्कूटर्स इडिया लिमिटेड एवं उत्तर प्रदेश हेडेकसे लिमिटेड को कौडियों के मोल पर निजी को दे देने के प्रयास हुए तो बाद में सार्वजनिक उद्यमों से विनिवेश में पर्याप्त सतर्कता नहीं गई और विनिवेश से प्राप्त धन को उसके विकास में लगाने के बजाए सरकार के बजट की पूर्ति मे लगाया गया ।

अत: सार्वजनिक क्षेत्र के विचार के उद्‌भव से लेकर अब की रि का वर्णन करते हुये उसे न तो ‘पवित्र गाय’ समझा जा सकता है और न ही बलि का बब हमारे देश में कभी-कभी बहुत अच्छी योजनायें बनती हैं, बहुत सोच-समझकर कार्यक्रम किये जाते हैं और इनके क्रियान्वयन की भी विस्तृत व्यवस्था की जाती है ।

फिर भी कुछ बाद मूल्याकन करे तो पता चलता है कि फील्ड स्तर पर जो हो रहा है वह उस सोच से अलग है, जो योजना या कार्यक्रम बनाते समय प्रकट की गयी थी । कुछ अन्य कार्यक्रम सरकार के स्तर पर हो या स्वयंसेवी संस्थाओं के स्तर पर या मिले-जुले रूप में काफी भी हो जाते हैं, पर इस सफलता के बावजूद कोई व्यापक स्तर का माहौल नहीं बन पत्र कोई ऐसी लहर नहीं उमडती है जो इस कार्यक्रम की अपनी सीमित सफलता के आगे बडी जगाये ।

दूसरे शब्दों में कहें तो समाज में अपने उद्देश्यों के प्रति एक ऐसी जोड़ने वाली और समझ का अभाव है जो विभिन्न सार्थक प्रयासों को दिशा दे सके तथा लोगों में एक ऐसी ला सके कि समाज को बेहतर बनाने की एक मुहिम वास्तव में चल रही है तथा हम स हिस्सेदार बन सकते है ।

जब तक ऐसी कोई व्यापक भावना समाज में नहीं आती है तब तक् परियोजनाये भी अपने तक ही सिमट कर रह जायेगी तथा अपने से ही कहीं बड़ी किर का हिसा नहीं बन सकेंगी । वर्तमान विश्व एक अजीब स्थिति में है- सबसे विकसित और अमीर देशों में जहां बाहरी चकाचौंध बढती जा रही है, वहां कई स्तरों पर आर्थिक संकट भी विकट रूप धारण है ।

भूतपूर्व सोवियत संघ व यूरोप के अन्य साम्यवादी देशो में तो खैर यह आर्थिक सर स्पष्ट रूप से सामने आ ही चुका है, अमरीका जैसे चोटी के पूंजीवादी देशों में भी गंभीर समस्याएं मौजूद हैं और बहुम कम लोग यह जानते हैं कि यह बेहद अमीर देश विश्व अधिक कर्ज में डूबा हुआ देश है ।

यूरोप के कुछ देशों में बेरोजगारी की समस्या विकट न कर चुकी है तो आर्थिक दृष्टि से सर्वाधिक शक्तिशाली देश जापान में बैंकिंग व्यवस्था को लेकर गंभीर सवाल खडे हैं । हॉलैंड और जर्मनी जेसे देश बहुत समृद्ध माने जाते हैं, पर साथ ही का संकट वहां इतना गंभीर हो रहा है कि उनके भविष्य के बारे में कठिन सवाल खड़े हो रहे हैं ।

अलग-अलग व्यवस्थाओं और परिस्थितियों से जुड़े इस संकट के मूल में जाएं, तो कारण स्पष्ट रूप से नजर आता है वह ये कि आर्थिक विकास के लक्ष्यों के बारे में भ्रम है, अनिश्चय है और इस भटकाव के कारण किसी भी रास्ते पर चला जाये या व्यवस्था को अपनाया जाये, अंत में न तो आर्थिक समस्याओं का कोई स्थायी हल मिलता है और न ही पर्यावरण के को और उग्र बनने से रोका जा सकता है ।

अत: आर्थिक विकास की लस्थविहीनता को दूर आज एक बहुत ही महत्वपूर्ण और आवश्यक कार्य हो गया है । पिछले कुछ अर्से से हमारे देश में निजीकरण की वकालत करने वालों की बाद गयी । हालांकि, इन लोगो द्वारा पेश की जाने वाली ज्यादातर दलीलें, विश्व बैंक की प्रचार से ही निकली दलीलें होती हैं, फिर भी उनका प्रचार इतना जबरदस्त है कि इनमें से कुछ मुख्य दलीलों पर एक-एक नजर डाल लेना उपयोगी होगा ।

पहली और अक्सर सुनाई देने वाली दलील यह है कि सामाजिक कार्यो पर अपने; बढाने के लिए और ढांचागत क्षेत्र के बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सों में निवेश के लिए राज्य को साधनों की जरूरत है । लेकिन इसके लिए टैक्स बढ़ाने का सहारा नहीं लिया जा सकता है अबल तो इस तरह से अतिरिक्त साधनों का जुटाया जा सकना ही संदेहास्पद है फिर इस तरह साधन जुटाये भी जा सकते हों, तो इसका अर्थव्यवस्था पर बहुत ही बुरा असर आखिरकार, अप्रत्यक्ष करों का बोझ बढाने से गरीबों पर चोट पड़ती है और दूसरी ओ करों का बोझ बढाना, विदेशी निवेशों को दूर भगाता है और आमतौर पर अर्थव्यवस्था का हाथ खिंचना शुरू हो जाता है ।

इसे देखते हुए सार्वजनिक स्वामित्व वाली परिसम्पा बेचने का रास्ता बहुत काम का साबित हो सकता है । इससे शासन को अतिरिक्त साध का एक व्यावहारिक तथा ‘सुरक्षित’ रास्ता मिल जाता है और इसके जरिये वह तरह सामाजिक रूप से जरूरी खर्चे कर सकता है ।

दूसरे शब्दों में इस दलील के हिसाब से निजीकरण के जरिये वास्तव में राज्य में एक तरह की परिसंपत्तियों को दूसरी तरह की परिसम्पत्तियों में तब्दील किया जा है, जो राज्य हाथों में होनी ही चाहिए । इसमें बुनियादी क्षेत्र के अत्यत महत्वपूर्ण हिस्से पर आते हैं क्योंकि, इन क्षेत्रों में निवेश निजी क्षेत्र की प्राथमिकताओं में बहुत ही है और अगर राज्य ऐसी परिसंपत्तियों का निर्माण नहीं करता है तो ऐसी परिसपत्तियां नहीं ।

इस तरह निजीकरण वह साधन है जिसके जरिये एक तरह की परिसंपत्तियों तरह की परिसंपत्तियों में तब्दील किया जाता है । इस तर्क के हिसाब से निजीकरण करने वाले सभी लोग, ऐसे लोग हैं जो या तो ऐसे सामाजिक रूप से जरूरी कामों ज्यादा खर्च हो इसके ही खिलाफ हैं या फिर करों का बोझ सिर्फ इसलिए बढ़वाना कि विकास पर चोट पड़े या फिर गरीबों पर चोट पड़े ।

जाहिर है कि यह दलील सरासर झूठी है । मान लीजिए कि कोई शासन न तो करता है और न ही कोई अतिरिक्त कर राजस्व जुटाता है । इसके बावजूद वह आवश्यक खर्चो में एक निश्चित राशि के बराबर की बढ़ोतरी करता है । इसके लिए वह बैंकिंग वेवस्था लेता है और इस प्रकार अर्थव्यवस्था के चलन में मौजूद मुद्रा का परिमाण हैं ।

इस स्थिति में यह रास्ता अर्थव्यवस्था के लिए नुकसानदेह ही साबित होगा कम अर्थव्यवस्था में कुल मांग बढ़ रही होगी । अब अगर अर्थव्यवस्था में पहले से ही बिना या उपयोग में न आ पा रहे साधनो के रूप में मुद्रा के इस बड़े हुए परिमाण को खपाने मौजूद हो तो बात दूसरी है, वरना इस रास्ते को अपनाने से मुद्रास्फीति पैदा होगी और चोट खासतौर पर गरीबों पर पड़ेगी ।

निजीकरण का रास्ता, राज्य द्वारा किये जाने वांझे खर्चो की भरपाई के लिए बैंकिंग प्रणाली से राज्य द्वारा ण लिये जाने यानी घाटे की वित्त व्यवस्था के मुकाबले बेहतर उसी सु हो सकता है जब यह तरीका सकल मांग में गिरावट भी पैदा कर रहा हो ।

लेकिन निजीकरण से कुल माग में गिरावट तभी आ सकती है जब राज्य के स्वामित्व वाली परिसंपत्तियों के खरीददार पूंजीपति, अपनी इन खरीददारियों के लिए साधन या तो अपने उपभोग में कटौती करके या निवेश को घटाकर ।

लेकिन इस तरह की खरीददारियों के लिए साधन जुटाने के वास्ते, निवेश में कटौती करना भी, कोई बहुत अच्छी बात नहीं होगी । इससे मुद्रास्फीति तो नह लेकिन कुल मिलाकर निवेश का अनुपात निवेश के लिये शासन के अपना खर्चा बढ़ा देने के बावजूद, का ज्यों बना हुआ होगा ।

इस तरह अगर राज्य के स्वामित्व वाली परिसंपत्तियों को. के लिए साधन जुटाने के लिए निजी उपभोग में कटौती की जा रही हो तभी यह कहा जा है कि निजीकरण, शासन द्वारा किये जाने वाले खर्चे के लिए साधन जुटाने का एक साधन हो सकता है ।

निजीकरण की मुहिम में क्या कोई भी राज्य के स्वामित्व वाली परिसम्पत्तियों को, अपने में कटौती करके खरीदता है ? इसके बजाए इस तरह की परिसम्पत्तियों के निजी खरीददार, बेंकों से लेकर ही ऐसी परिसंपत्तियां खरीदते हैं ।

लेकिन ऐसा होने का तो कुल असर जो उस सूरत में मांग के बढ़ने का होता, जब खुद राज्य ने निजीकरण का सहारा लेने अपने खर्च के लिए साधन जुटाने के वास्ते, बैंकों से ण लेने का सहारा लिया होत् शब्दों में कहें तो राज्य सीधे-सीधे बैंक से मिसाल के तौर पर 100 करोड़ रुपये उस खर्च कर रहा हो या फिर बैंको से कोई निजी पूंजीपति इतना ही उधार ले रहा हो, ता राजकीय स्वामित्व वाली कुछ संपत्ति खरीद ले इन दोनों ही स्थितियों का मुद्रास्फीति के लिहाज से एक जैसा ही असर होगा ।

इसलिए शासन के खर्च की भरपाई के साधन के रूप में निजीकरण के रास्ते को किसी तरह से, घाटे की वित्त व्यवस्था से बेहतर नहीं माना जा सकता है । निजीकरण के पक्ष में एक और दलील अक्सर सुनने को मिलती है जो वास्ता दलील का ही थोड़ा-सा परिवर्तित रूप है ।

इसमें कहा जाता है कि निजीकरण के जरिये जुटाये जाने वाले साधनों का उपयोग सरकार के कर्जों को उतारने के लिए किया जाना चा राज्य पर भविष्य में आने वाली तृण संबंधी देनदारियों का बोझ घटाया जा सके और वर्षो में उत्पादक निवेश तथा सामाजिक खर्चो के लिए उसके हाथों मे कहीं ज्याद जाएं ।

इस दलील के हिसाब से मान लीजिए कि सरकार पर 100 रुपये का कर्ज पर हर वर्ष 10 रुपये का ब्याज चुकाना पड रहा है । अब अगर राज्य 100 रुपये मूल्य की अपनी परिसपत्तियों को बेच देता है और इस कर्ज को उतार देता है, तो कर्ज से जुडी यह देनदारी खत्म हो जायेगी और आने वाले वर्षो में इस तरह बचने वाली 10 रुपये की राशि, दूसरे और सामाजिक रूप से कहीं उपयोगी कामों के लिए उपलब्ध होगी ।

जाहिर है कि यह तर्क भी सरासर गलत है । किसी भी परिसंपत्ति की कीमत उससे हो सकने वाली कमाइयों पर निर्भर करती है । अगर राजकीय स्वामित्व वाली कुछ इकाइयों वर्षो में 10 रुपये सालाना से कम कमाई की आशा की जाती है तो उसकी कीमत भी से कम ही होगी । इसी बात को दूसरी तरह से भी कह सकते हैं कि किसी परिसंपत्ति अगर 100 रुपया है और उससे 100 रुपये का कर्ज उतारने की उम्मीद की जा रही है प्रत्याशित सालाना आमदनी कम से कम 10 रुपया तो होनी ही चाहिए ।

अगर वाकई तो राज्य की वित्तीय स्थिति पर निजीकरण का असर कुल मिलाकर नकारात्मक ही है । इसकी वजह यह है कि अगर इन परिसंपत्तियों को बेचने से भविष्य का 10 रुपर बोझ खत्म हो रहा होगा तो भविष्य की 10 रुपये साल का बोझ खत्म हो रहा होगा तो भविष्य की 10 रूपये सालाना या उससे ज्यादा की आमदानी भी घट रही होगी ।

अब अगर हम तस्वीर के दोनो पहलुओं को देखें तो निजीकरण का असर कुल मिलाकर नकारात्मक ही दिखाई देगा । यह नकारात्मक असर उस हद तक और बढ़ जाएगा तक निजीकरण के लिए पेश की गयी परिसपत्तियो की कीमत बाजार में उनकी कीमत से नीचे या कम लगायी जा रही होगी ।

स्मरणीय है कि इन परिसम्पत्तियों की कीमत कम करके लगाया जाना ऐसी हेराफेरी है जो मुद्रा कोष विश्व बैंक द्वारा थोपे गये निजीकरण कार्यक्रमों के दौरान हर जगह देखने में आयी है । हमारी दलील सिर्फ इसी सूरत में गलत हो सकती है कि हम यह मान लें कि राजकीय क्षेत्र में रहते हुए किसी भी परिसंपत्ति से होने वाली आय, हर हाल में निजी क्षेत्र में उसी परिसंपति से होने वाली आय से कम होगी और एक निजीकरण के ही रास्ते से इन परिसंर्पा वाली आमदनी बढायी जा सकती है ।

सिर्फ इसी शर्त के साथ यह माना जा सकत लीजिए किसी परिसंपत्ति की बाजार में कीमत 100 रुपये है, क्योंकि उससे 10 रुपया साल या उससे ज्यादा मुनाफे की निजी क्षेत्र को प्रत्याशा है, तो सार्वजनिक क्षेत्र में रहते हुए इसमें सिर्फ 5 रुपया साल की ही आय हासिल होगी और उससे राज्य के साधनों में 5 रुपया साल की शुद्ध बढ़ोतरी हो रही होगी क्योंकि ऋण सबंधी भुगतान की मद से 10 रुपये बच रहे होंगे जबकि संभावित आय की मद में सिर्फ 5 रुपया साल जा रहे होंगे ।

अगर किसी तरीके से चाहे कु कर या प्रबंधन सुधार आदि के जरिये राज्य की इन परिसंपत्तियों से अपनी आय बढ़ा कर सकता है (वह ऐसा करना ही न चाहे तो बात दूसरी है) तब भी निजीकरण से राज्य के राजस्व की हानि ही हो रही होगी ।

इस तरह चाहे जिस तरफ से भी देखें, निजीकरण के पक्ष में दिया जाने वाला वित्तीय तर्क सरासर बकवास साबित होता है । बेशक इस बेतुकी दलील को सच साबित करने के तथा निजी क्षेत्र की आमदनियों के अंतर की दलील दी जा सकती है ।

लेकिन यह ऐसी दलील है कि जिसकी सच्चाई अब तक तो कोई भी साबित नहीं कर पाया है । बहरहाल आइए अब एक नजर इस दलील पर भी डाल ली जाए कि राजकीय क्षेत्र अनिवार्यत: निजी क्षेत्र के मुक़ाबले अकुशल होता है । अक्सर लोग यह मानकर चलते हैं कि इन दोनों क्षेत्रों में वास्तविक प्राप्ति की करने भर से इस दावे की सच्चाई साबित हो जाती है ।

जबकि वास्तव में यह से गलत है । सच्चाई यह है कि दोनों क्षेत्रों के बीच बुनियादी उत्पाद तथा उत्पाद मिश्र के (भले ही दोनों क्षेत्रों में पहली नजर में एक सा नजर आने वाला, इस्पात जैसा कोई बुानयादा आ रहा हो), मूल्य नीति के, रोजगार नीति आदि के इतने सारे अंतर हैं कि उनकी प्रकट के अंतर से वास्तव में उनकी कुशलता-अकुशलता के बारे में कोई भी नतीजा नहीं निक सकता है ।

अब यह दूसरी बात है कि सार्वजनिक क्षेत्र में जिन मूल्य नीतियों पर चला ज है, उन पर वास्तव में चला जाना चाहिए या नहीं सार्वजनिक क्षेत्र जिन रोजगार नीतियों पर चलता रहा है, उन पर चला जाना चाहिए या नहीं ? यह तय है कि इन सबका कम निजीकरण से कुछ भी लेना-देना नहीं है ।

संक्षेप में सार्वजनिक क्षेत्र में सुधार के मुद्दे का, से कुछ भी लेना-देना नहीं है और निजी तथा सार्वजनिक क्षेत्र के बीच आमदनियों का भ्य सार्वजनिक क्षेत्र में सुधार के पक्ष में तर्क बन सकता है बने ही यह कोई आवश्यक नहीं है: रूप से निजीकरण के पक्ष में कोई तर्क नहीं बन सकता है ।

इसके अलावा एक मुद्दा और है जो बहुत ही महत्वपूर्ण है । मुद्दा यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों या उनके शेयरों को किसके हाथों में बेचा जाए, इसे नियम ही समझना तीसरी दुनिया के देशो में फूड-बैक द्वारा थोपे गये निजीकरण के कार्यक्रम, हमेशा ही भ्रष्टाचार तथा अनुचित तरीकों से जुड रहे हैं और इन सौदों में अक्सर यह देखा गया है की खरीददारों ने सार्वजनिक परिसंपत्तियों के बड़े-बड़े हिस्से मिट्टी के मोल हथिया लिये हैं ओर इन अवैध कमाइयों को स्विट्‌जरलैंड या ऐसे ही दूसरे देशों के बैकों में जमा करा दिस संक्षेप में सार्वजनिक क्षेत्र की परिसंपत्तियां खरीदने वाले कोई उद्यमी नहीं हें पर सार्वजनिक क्षेत्र में चल रही लाभ की ऊची दरें कमाने जा रहे हों ।

अक्सर ही करने वाले नौसिखिए अप्तै सटोरिये होते हैं जो रातों रात कमाइयां करना चाहते बहुराष्ट्रीय निगम होते हैं, जो अतिरिक्त मूल्य का बढा हिस्सा खींचकर बाहर ले जाना चाहते हैं । उनको सार्वजनिक क्षेत्र के मुकाबले ज्यादा ‘कुशल’ बताना तो सच्चाई को पावों होगा ।

हमारे देश में ऐसी बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी तेजी से आ रही हैं जिनके विश्व स्तर बहुत बड़े हैं, अनेक छोटे देशों की राष्ट्रीय आय से भी अधिक उनकी आय है । जब आर्थिक संसाधनों व उसके अनुपात की शक्ति वाली कंपनियां हमारे देश में तेजी तो यह और भी जरूरी हो जाता है कि आर्थिक क्षेत्र में सप्रभुता के प्रति हम बहुर सावधान रहें ।

अब प्रश्न यह उठता है कि आखिरकार बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ इतनी प्रवस्तुत: बहुराष्ट्रीय कंपनियों के भारत प्रवेश पर तमाम बाधाओं-बंदिशों को न कर दिया गया बल्कि उन्हें मनमानी करने की छूट भी दे दी गई । यहां तक कि और खगोलीकरण के जबर्दस्त समर्थक देसी उद्योगपतियो और उनके सीआईआई फिक्की जैसे संगठनों को भी सांप सूंघ गया क्योंकि उन्हें कतई उम्मीद नहीं थी हद तक आगे चली जाएगी कि स्वयं देसी उद्योगों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों की दया पर छोड़ देगी ।

विदेशी निवेश प्रोत्साहन बोर्ड (एफआईपीबी) के कामकाज में पारदर्शिता लाने, लालफ़ीताशाही खत्म करने और विदेशी निवेशकों को आकर्षित करने के नाम पर जारी नए दिशा-निर्देशों विदेशी निवेशकों को न सिर्फ ढांचागत क्षेत्रों में निवेश करने पर सौ प्रतिशत इक्विटी की अनुमति दी गई है बल्कि उन मामलों में भी उन्हें सौ प्रतिशत इक्विटी की अनुमति दे दी गई जहां वे साझा उद्दाम लगाने के लिए भारतीय सहयोगी तलाश करने में असमर्थ रहते हैं ।

अलबत्ता निवेश के बाद तीन से पांच साल के अंदर 26 प्रतिशत इक्विटी किसी भारतीय सहयोगी, साझा या आम जनता में बाटनी होगी । इन दिशा निर्देशो के मुताबिक बहुराष्ट्रीय कपनियों को उन मामलों मैं भी सौ प्रतिशत की इजाजत दे दी गई है, जहा उन्हे अपनी विशेष तकनीक या परिष्कृत तकनीक को रखने की जरूरत महसूस हो रही हो (विख्यात जापानी बहुराष्ट्रीय कंपनी सोनी ने भी इसी पर अनुमति हासिल भी कर ली है) ।

इसके साथ-साथ उन मामलों मे भी बहुराष्ट्रीय निवेश अपनी इक्विटी सौ प्रतिशत तक बढाने की इजाजत देने का वायदा किया गया है जिनमे पार्टनर साझा उद्यम के विस्तार तकनीकी उन्नयन के लिए आवश्यक पूंजी जुटाने में विफर है ।

इसी आधार पर अमेरिकी कपनी दृश्य-पोट ने थापर दृश्य-पोट साझा उद्यम में अपनी 45 प्रतिशत से बढा कर सौ प्रतिशत करने का प्रस्ताव किया है क्योकि थापर समूह पी के लिए आवश्यक पूजी जुटाने मे विफल साबित हुआ है ।

बहुराष्ट्रीय कपनियो की प्रसन्नता का दूसरा कारण भगवती समिति द्वारा प्रस्तावित ठ सहिता (टेकओवर कोड) है जिसके लागू होते ही तमाम देसी कंपनियों पर कब्जा करना हो जाएगा । ऐसा इसलिए कि तमाम देसी कंपनियों में उनके मालिकों की इक्विटी बीस से अधिक नहीं है और उनमे विशाल ससाधनों वाली बहुराष्ट्रीय कपनियों के मुकाबले का न तो माद्दा है और न ही पर्याप्त साधन ।

यही कारण है कि एक बार फिर भारतीय कार्पोरेट जगत में बहुराष्ट्रीय कंपनियों दबदबे और आक्रामक रणनीति के खिलाफ भेडिया आया-भेडिया आया का कोरस शुरू है । देसी उद्योगपतियो और कार्पोरेट घरानों की बेचैनी, घबराहट और नाराजगी का उदार लगाया जा सकता है कि आमतौर पर बहुराष्ट्रीय निगमों व विदेशी पूंजी का कटटर सम: जाने वाले संगठन एसोचैम (जिसकी बहुत-सी सदस्य बहुराष्ट्रीय कंपनिया हैं) की थापर समिति ने उपभोक्ता वस्तुओं के क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की इक्विटी को 40 प्रतिशत तक सीमित रखने की मांग की है ।

नतीजे में एसोचैम विभाजित होने के कगार पर पहुंच गया है क्योंकि बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने थापर समिति की मांग का खुला विरोध किया है जबकि देसी कंपनियों व उनके ने इसका समर्थन किया है । इस तरह भारतीय उद्योग जगत एक ऐसे मोड़ पर आ खड़ा हुआ है जिससे आगे; उसे सूझ नहीं रहा है ।

1991 में आर्थिक उदारीकरण और खगोलीकरण के नव उदारवार के पैकेज को हाथों-हाथ लेने वाले देसी उद्योगपतियों ने शायद यह कल्पना भी नहीं व सुधारो की गति इतनी तेज होगी और दिशा ऐसी कि खुद उनका अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा ।

1993 में बांबे क्लब द्वारा इस खतरे को समझ कर जो हो-हल्ला मचाना था, वह मचाया गया लेकिन उसमें भी निर्णायक संघर्ष के बजाय जवाबी दबाव पैदा कर राज्य संरक्षण और कंपनियों के साथ मोलतोल की शक्ति हासिल करना ही मुख्य उद्देश्य था ।

ऐसा लग देसी उद्योगपतियों को उस भारतीय राज्य पर पूरा भरोसा था कि वह न सिर्फ अपना संरक्षण देना जारी रखेगा बल्कि बहुराष्ट्रीय निगमों पर भी प्रभावी अंकुश रखेगा, जो अब तक उन्हे फलने. फूलने का पूरा अवसर उपलब्ध कराता रहा है ।

जाहिर है कि यह उनकी भूल थी और उस समर तक भारतीय राज्य कमोबेश बहुराष्ट्रीय निगमों, ब्रेटनबुड संस्थाओं-विश्व बैंक व आईएमएफ बहुपक्षीय व्यापार संगठन-ममूटी- और जी-7 देशों की सम्मिलित चौकडी के प्रभाव में आ चुक था और शासक वर्गो का बहुलांश लातिन अमेरिकी देशों की सरकारों की तरह बिचौलियों की भूमिका से संतुष्ट हो चुका था ।

खगोलीकरण के खेल में, जिसका नियम प्रतियोगिता है, भारतीय उद्योगों को बहुराष्ट्री कंपनियों से प्रतियोगिता करनी ही होगी । ऐसा कैसे हो सकता है कि आप खेल तो खगोलीकर का खेलना चाहते हैं लेकिन नियम संरक्षणवादी प्रोत्साहन का रखना चाहते हैं ?

कहना न हीगा कि अपनी वर्तमान दशा और भविष्य की दुर्दशा के लिए भारतीय कार्पोरेट जगत स्वयं जिम्मेद है । वह अपने ही बुने जाल में फंस गया है । प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का न सिर्फ जमकर गुणगान किया गया है बल्कि कहा गया है ।

देश को प्रतिवर्ष दस बिलियन डालर के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की न सिर्फ जरूरत है बल्कि उसे पचाने की क्षमता भी है । साझा कार्यक्रम में वायदा किया गया है कि इस लक्ष्य को प्राप्त कर के लिए विदेशी निवेश प्रोत्साहन बोर्ड के स्वरूप, कार्यप्रणाली और नियमों में आवश्यक परिव कर उसे ज्यादा पारदर्शी और सक्षम बनाया जाएगा ।

कोई पूछे कि पूंजी की कमी का रोना रोकर विदेशी पूंजी के आगे आत्मसमर्पण करने व। के पास इस कड़वी सच्चाई का जवाब क्या है कि सिर्फ 1993-95 के बीच बड़े मूल्यों पर आर और घटे मूल्यों पर निर्यात के कारण भारत से लगभग 15.7 बिलियन डालर (57 हजार कर रुपए) की पूंजी अमेरिका चली गई ?

यह सच्चाई तीन अमेरिकी अर्थशास्त्रियों-प्रोफेसर जान ल्दानीविच, विलियम डन्ल्यू वेल्यू और साइमन जे पके एक अध्ययन में सामने आई है । विशाल राशि और वह भी सिर्फ एक देश अमेरिका जिससे भारत के कुल व्यापार का बीस प्रति ही होता है चली गई ।

ऐसे में आई.एम.एफ के उस अनाधिकारिक आकलन पर विश्वास न च का कोई कारण नहीं है कि भारतीयों की सौ बिलियन डालर से ज्यादा की राशि विदेशी; में जमा है । क्या इस पूंजी पलायन पर रोक नहीं लगाई जा सकती है ?

बेशक लगाई जा सकती है लेकिन देसी-विदेशी पूंजी के दबाव पर फेरा को समाप्त करने की तैयारी कर रही सरकार ऐसा करेगी, इसकी दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं है । ऐसा इस् कि सरकार ने साफ शब्दों में नई आर्थिक नीति का आधार स्पष्ट करते हुए कहा कि यह ब की शक्तियों पर ज्यादा और राज्य के न्यूनतम हस्तक्षेप पर विश्वास करती है ।

आर्थिक क्षे बाजार की शक्तियां अत्यधिक राज्य हस्तक्षेप की जगह ले रही हैं । एक सफल आर्थिक नीाr अभिन्न अग के बतौर कम घाटा, ज्यादा व्यापार, व्यापक प्रतिस्पर्द्धा, भारी पैमाने पर विदेशी का आगमन ओर सार्वजनिक खर्चो में कटौती पर विशेष ध्यान की बाबत एक राष्ट्रीय सहमति बन चुकी है ।

खगोलीकरण की प्रक्रिया में सबसे पहले राष्ट्रों की संप्रमुता प्रभावित हो रही है । इससे विर और अर्द्ध विकसित देशों के बीच विषमता और बड़ी है । अर्थव्यवस्था को मुक्त करने की प्रक्रिया में आम लोगों का ध्यान सबसे पहले रखना होगा । राज्य के न्यूनतम हस्तक्षेप की पुनर्परिभाषित करना होगा ।

इस दृष्टि से विकास में लोगों की सम्यक् भागीदारी जरूरी में तो बिना औद्योगिक क्रान्ति के ही, इस तरह की सेवाओ के पक्ष में राष्ट्रीय आमदनी विकृत हो गया है । दो-तिहाई लोगों को रोटी देने वाली खेती बाड़ी में ऐसी राष्ट्रीय अ केवल एक-तिहाई से कम हिस्सा उत्पादित होता है और जनता की पहुँच से परे अनावश्ट के रूप मे जो केवल लगभग 23 प्रतिशत लोगों को रोजगार देती है, उसमें राष्ट्रीर लगभग 45 प्रतिशत भाग उत्पादित होता है ।

ऐसे रूप वाली राष्ट्रीय आय की जितनी होगी, जनकल्याण उतना ही घटेगा । इसी क्षेत्र में आम आदमी को न तो उत्पादन में उपभोग मे हिस्सेदारी मिलती है । फलत: बढ़ती राष्ट्रीय आय आम आदमी के लिए बेमा है । इसमें लगे संसाधनों के लाभ से आम आदमी वंचित रह गया है ।

उदाहरण के लि नेताओं की हिफाजत, उनकी पांच सितारा शानोशौकत, आडम्बरपूर्ण प्रशासनिक फिजूल कम्पनियां, उनके प्रवर्तकों तथा प्रबंधकों का अमरीका और यूरोप के जीवन स्तर और वि उपयोग को भी मात देने वाला निजी उपभोग खर्च, राष्ट्रीय आय को बढाता है ।

इसी तरह डॉक्टरों, अभिनेताओ, चार्टर्ड लेखाकरों, वास्तुशिल्पियों, वित्त तथा पूंजी बाजार के बार ऐसे ही अभिजात्यवर्ग के दरबारी कलाकारों, विशेषज्ञों, संस्कृति के नाम पर मानव गरिम स्त्रियों की गरिमा और इज्जत से खिलवाड करने वाले सिनेमा जैसे मनोरंजन उस लोगों की करोड़ों-अरबों से खेलने वाली उपभोग प्रवृत्तियां राष्ट्रीय आय को बढ़ाती इन कामों में हुआ इजाफा गरीब को रोजगार, पेट भर रोटी और तन ढकने भर क में समर्थ होता है वह तो उनको और ज्यादा वंचित करता है ।

क्यों माना जाए ई राष्ट्रीय कहे जाने वाले किन्तु राष्ट्र की करोड़ों जनता के हितों को वाले बढती को हमारे राष्ट्रीय प्रयासो का मुख्य मकसद ?  अब तो पश्चिमी दबदबे वाली. वित्तीय संस्थाओ के कुछ प्रकाशनों में भी यह माना जाने लगा है कि बिना उत्पाद व्यापक जनाधार दिये, बिना उत्पादन बढ़त की तेज दर को उसके स्वरूप और ढके बिना आन्तरिक बाजार के विस्तार को उत्पादन बढ़त तथा उद्योगीकरण के साथ-साथ रूप से जुड़े विकास और सामाजिक परिवर्तन तथा गरीबों की भलाई संभव नहीं राष्ट्रीय कार्यक्रम के निर्धारण के लिए जरूरी है कि हम कुछ मोटे मसलों के और सार्वजनिक जीवन का आधार बनायें ।

इनमें प्रमुख है हम पूर्वाग्रह छोड़े और भय भूलों के कारणों और आधार को समझें । दलिततम, सबसे कमजोर और गरीब ता लोगों के हितों को फौरी, वास्तविक नीतियों और कार्यक्रमों के स्तर पर सर्वोच्च कहने भर को नहीं, ठोस रूप में अर्थात् वर्तमान प्राथमिकताओं और तौर-तरीकों को अलविदा कह दें ।

सम्पन्न और शक्तिशाली वर्गो पर राष्ट्रीय विकास के लिए जरूरी लागत का सबसे ज्यादा भार डालें तथा उन्हे राष्ट्रीय नीतियों, हितों और जवाबदेही के चौखटे में काम कर दें । यह ध्यान रखें कि यह सब गैर-एकाधिकारिक हो । भारत की विशेष स्थिति को पहचान कर बिना किसी एक देश या एक मॉडल त् किये और हमारी अपनी सोच और आम आदमी की भागीदारी और निर्णायक भूमि बनायें ।

राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक क्षेत्रो में एक साथ तथा परस्पर सहयोगी परिवर्तन करें, विकास को अलग-अलग कृत्रिम टुकड़ों में नहीं बांटे । लोगों की सांस्कृतिक, वैचारिक, धार्मिक, भावनात्मक अस्मिता का सम्मान करें तथा सहिष्णुता, उदारता, मानवता तथा शान्ति के मूल्यों को जीवन्त पथप्रदर्शक बनायें और इसके विप बिखराव, धृणा, झूठे दंभ और नकली स्वामिमान की राजनीति को समाप्त करें । इन मूल्यों उपेक्षा का सबसे ज्वलन्त उदाहरण मंदिर-मस्जिद विवाद पर आधारित राजनीतिक पैंतरेबाजी बिना ऐसे झगडों से बचे राष्ट्रीय कार्यक्रम बन ही नहीं सकता है ।

तीसरी दुनिया के हमारे ही पिछड़े तथा अवरुद्ध विकास के पीड़ित देशों खासकर अपने पडोसी देशों के साथ समा तथा त्याग पर आधारित बहुमुखी सहयोग बढ़ाये तथा समूह सात के देशों से बराबरी के अ पर उभयपक्षीय लाभ के आधार पर संबंध रखें न कि उनकी धोंसपट्टी पर आधारित । भारत में शासन सत्ता का राज्यों तथा स्थानीय निकायों के स्तर पर विकेन्द्रीकरण करें । आर्थिक-राजनीतिक, सत्ता पूरी सामाजिक, जवाबदेही स्थापित की जाए ।

राष्ट्रीय कार्यक्रम और प्राथमिकता का निर्माण एक बहुमुखी, बहुपक्षीय जनभागीदरि अभियान होना होगा । इसमे कुछ शुरकाती मूल्यों, व्यवस्थाओं, विचारों और नीतियों को व्यापक विचार-विमर्श, बहस के बाद आम आदमी की भागीदारी सुनिश्चित करके ही स्वीकार किया है, परन्तु यह मान कर कि सच्चे और प्रभावी लोकतान्त्रिक तरीकों से इसमें आवश्यक परिवर्तन होते रहेंगे ।

राष्ट्रीय कार्यक्रम का निर्धारण किसी एक पूर्व निर्धारित, पूर्वमान्य, तथाकथित सर्वक् मॉडल पर आधारित नहीं हो सकता । बदलती परिस्थितियों के साथ-साथ लोकतान्त्रिक तर्र ही इसका निर्माण, प्रचलन, समीक्षा, परिवर्तन और परिवर्धन हो यह इसकी सार्थकता की, ढांचों से बचते रहने की जो प्रगतिशीलता का या पुरातनपंथी पुनर्जागरण का चोला ओ तथा अहंकारी आत्मतुष्टि से बचने की अनिवार्य शर्त है ।

राष्ट्रीय कार्यक्रम निर्धारण की प्रक्रिया समाज-निर्माण, विकेन्द्रित सामुदायिक जीर संस्थापना, विभिन्न व्यक्तियों, व्यवसायों, प्रदेशों और समुदायों को आपस में जोड़ने, परिवर्तन और गहन, व्यापक, जवाबदेह तथा सजग लोकतंत्र की संवृद्धि की प्रक्रिया है ।

जरिये लोगों को जीवन की गुणवता सुधारने, उसे समृद्ध करने और स्वयं निर्धारण के मिलने होंगे । इस तरह के सर्वग्राहय सिद्धांतों, प्रक्रियाओं और संस्थाओं के आधार पर सम पर तात्कालिक और दीर्घकालिक ठोस राष्ट्रीय कार्यक्रम निर्धारित करने होंगे तथा उनके का की व्यवस्था भी करनी होगी ।

इस तरह की सोच के तहत किसी भी ठोस कार्यक्रम की रूपरेखा केवल विशेषज्ञों और द्वारा नहीं तय होकर जन-प्रतिनिधियों, जन-आदोलनों और जन-भागीदारी द्वारा तय होगी फिर भी हमारे वर्तमान समाज के अध्ययन तथा चालू व्यवस्थाओं और नीतियों के अध्ययन के आधार पर कुछ ठोस कार्यक्रम राष्ट्रीय कार्यक्रम के लिए सुझाये जा सकते हैं, एक बतौर ।

इनका महत्व इसी में है कि ये बहस, विवेचन और आदोलन के मुद्दे बनें ताकिम्बन अलग-अलग स्तरों पर इनको परिवर्तित, परिवर्धित तथा समृद्ध करके उन्हें जन-सरोर प्रतिबिम्ब बना सकें । इसीलिए हम जो ठोस सुझाव पेश कर रहे हैं उन्हें बहस की शुरु राज्य शाक्तें का हाथयार बनाय ।

लोकतंत्र को मजबूत और सार्थक बनाने के लिए कुछ बड़े परिवर्तन जरूरी है । लोकतंत्र संचालन और जनादेश को ठोस राज्य सत्ता में परिवर्तित करने के मुइख्य साधन ये राजनीतिक दल कुछ पेशेवर राजनेताओं की निजी सम्पत्ति बन गये हैं ।

इन दलीय के द्वारा देश की भीतरी और बाहरी गैरलोकतांत्रिक ताकतें हमारे शासन पर छा गयी लोकतंत्र को लोक कल्याण के पथ से हटा चुकी हैं । इसलिए राजनीतिक दलों को उनकी तथ आतरिक कार्यप्रणाली का इस तरह नियमन और नियंत्रण करना होगा कि वे लोकतांत्रिक से काम करें, उनमें जवाबदेही हो तथा उनमें निचले स्तर से समय-समय पर नया नेतृत्व रहे ।

करिश्मा, वंशवाद, चमत्कारी व्यक्तित्व, व्यक्तिपूजा तथा नेताओं के एकाधिकार पर पार्टियां, लोकतंत्र और सरकारें अब तक की गैर-बराबरीपूर्ण जनता को साधन मात्र समझ तथा केंद्रीयकृत और व्यक्तिपरक व्यवस्थाओं का प्रतिफल है ।

हमें इन सबसे हटकर स्वयम् शक्तिकरण (कलेक्टिव सेल्फ एम्याँवरमेंट) की तरफ बढ़ना ही होगा । आज की परिाr मे राज्य व्यवस्था तथा राजनीति को सुधारे बिना केवल आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृति अन्तरराष्ट्रीय क्षेत्रों में हस्तक्षेपों द्वारा सामाजिक पुनर्रचना तथा विकास को राष्ट्रीय कार्य ? बनाया जा सकता है ।

एक नयी राजनीति ही एक नये राष्ट्रीय कार्यक्रम का सूत्रपात कर सत्ता का विकेंद्रीकरण, संघीय व्यवस्था की मजबूती राज्यों तथा छोटी प्रादेशिक की बढ़ती ताकत, जहां-तहां विशाल स्तर के संगठन, प्रबंध आदि आवश्यक हों वहां लोन प्रबंध, निरन्तर निगरानी, जवाबदेही तथा विशेषज्ञता का सामाजिक प्रतिबद्धता से समन्वय ऐसी व्यवस्थाओं की परिकल्पना कर उनकी संस्थापना तथा मजबूती के उपाय करने सिलसिले में अंतरराष्ट्रीय, गैर-जवाबदेह, आत्मकेन्द्रित नौकरशाही तथा विशेषज्ञता के हे को समाप्त करना बहुत जरूरी है ।

नीति तथा व्यवस्था के निर्धारण में राष्ट्रीय सोच, प्रतिबद्धता, जवाबदेही तथा जन् से भावनात्मक जुडाव तथा विभिन्न देशों के अनुभवों से सीखते हुए भी स्पष्ट रूप से में राष्ट्रीय, आत्म-निर्भरता, राष्ट्रीय कार्यक्रम के विभिन्न तत्वों कों लागू करने के लिए तइ अस्मिता की मजबूत पहचान के लिए जरूरी माने जाने चाहिए ।

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इस तरह तीसरी दुनिर के दृष्टिकोण से विकसित ज्ञान के आधार पर नीति-निर्धारण में भी राष्ट्रीय आत्म-निढ़ै ही सटीक राष्ट्रीय कार्यक्रम बनाया जा सकता है । अभी तक हमारी नीति-प्रक्रियाओ विद्वानों के तथाकथित सार्वभौम और वैज्ञानिक सिद्धांत और सोच हावी हो गये हैं ।

आमतौर पर कुछ अपवादों के बावजूद चन्द धनी देशों के हितों को सर्वोपरि मानने वा और मूल्यों पर आधारित रहे हैं । इसलिए इनके द्वारा एक बराबरी तथा न्याय पर व्यवस्था का सिलसिला नहीं शुरू हो रूकता है । राष्ट्रीय कार्यक्रम में आर्थिकेत्तर मूल्यों और पहलुओं को समुचित और समन्वित जरूरी है ।

आर्थिक उद्देश्यों को प्रधानता देकर हमने उपभोगवाद, अधिकाधिक संचय दिया है । यह गैर-बराबरी का अदृश्य पर प्रबलतम आधार है । भारत जैसे देश में इस पश्चिमी मनोवृत्ति की नकल तथा उसके माध्यम से होता सांस्कृतिक हमला एक बहुस चुनौती है जिसके दुकभाव आम आदमी के लिए ठोस स्तर पर भी खतरनाक हैं ।

या पुनरोदयवाद भी इस उपभोक्तावादी खतरे का ही दूसरा रूप या सगी-साथी है । तबका इस पुनरीदयवाद की आड़ में जनता को बांट कर झूठे झगडों में फंसा देता है राष्ट्रीय कार्यक्रम में विकास के आतरिक स्वरूप को, लोगों की जीवन-पद्धति और निर्धारित करने की आजादी को तथा इन विविधताओं को समन्वित करने की व्यवस्था कोई भी प्रयास जो सांस्कृतिक विरासत और विकास के नाम पर समरूपता थोपना विविधता और सांस्कृतिक आजादी को धक्का पहुंचाना चाहता है, वह आर्थिक मनुष्य की पर आधारित उपभोक्तावादी आर्थिक कट्टरपथीपन का सांस्कृतिक विदुपता भरा है ।

भारत के राष्ट्रीय कार्यक्रम में, गरीबी और गैर बराबरी को मिटाने के अभियान में, पद्धति की अवधारणा में इस उपभोगवाद विरोधी, समरूपता विरोधी मन्तव्य का समावेश प्रतीत होता है । इसके ठोस रूपों की पहचान और उन्हें लागू करने के तरीकों की पर लोगों द्वारा अपने आप खोज ही सच्चे सहिष्णु और धर्मनिरपेक्षतावाद का होगा ।

धर्मनिरपेक्षता का यह ठोस सकारात्मक रूप जनता के सपनों से जुडेगा । सविधान द्वारा दिये लोकतांत्रिक अधिकार, कानून-सम्मत शासन, कानून की नजर समानता और जीवित रहने तथा अपने निर्णय लेने की आजादी के मूलभूत मानवीय अधिकाशत: भारतीयो के लिए विशेषकर गांवों तथा गंदी और तंग बस्तियो मे रहने के लिए अभी दूर के ढोल ही हैं ।

ताकतवर लोगों की धोंसपट्टी, हिंसा और आतंक के वक्त, भूमि के उपयोग और स्वामित्व तथा बंधुआ मजदूरी के रूप में ही प्रकट नहीं यह तो उनकी दैनिक नियति है जो महिलाओं को पीड़ित करने के रूप में, दलितों के हकों पर हमले के रूप में, पुलिस-पटवारी तथा सरकारी कारिन्दों की भूपतियों-साहूकारों और स्थानीय दादा लोगों की राजनीतिक तत्वों से सांड-गांव द्वारा आज भी हमारे सविधान की खिल्ली उड़ाते रहते हैं । इस स्थिति का प्रभावी खात्मा राष्ट्रीय एजेंडा की प्राथमिकता होनी चाहिए ।

इस उद्देश्य के लिए पुलिस-पटवारी पर नियत्रण, खासकर स्थानीय गरीबों के जवाबदेही, सामूहिक सुरक्षा, कानून में सुधार, जागृति, आपसी सहयोग आदि के कई ठोस अपनाने होगे । सामाजिक सुरक्षा और रोजगार के विविधतापूर्ण गारंटीशुदा अवसर भी इसमें होंगे । इस सवाल की कानून और व्यवस्था को केवल सम्पन्न और शहरी मध्यम वर्ग करके काफी उपेक्षा हुई है ।

अब ये कानूनी अधिकार और सुरक्षा गरीब के लिए उनके जारी गैरकानूनी हिंसा और धोंसपट्टी के निवारण हेतु सुनिश्चित करना जरूरी है । आम गरीब जनता के जान-माल, आवास और अधिकारी की सुरक्षा के बाद दूसरी और सम्बधित जरूरत उन्हें सामाजिक सुरक्षा और आर्थिक भागीदारी की है ।

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इसके हैं-पारिवारिक स्तर पर खास सुरक्षा, पीने के पानी, प्राथमिक शिक्षा, चिकित्सा, निवास स्थान तथा अधिकार आदि । संसाधनों की कमी तथा अल्प विकास के नाम पर आम आदमी की जरूरतों को तथा उपेक्षित करके या बहुप्रचारित आशिक तथा सीमित गरीब-हितैषी कार्यक्रम शुरू करके अधिकारों और जरूरतों को अब और अधिक नजर-अंदाज नहीं किया जा सकता ।

जरूरत बाड़ी या गांवों के लिए उनके जनसंख्या में अनुपात के अनुसार उनके लिए बजट आवर नहीं, गरीबों के जनसख्या में अनुपात के अनुसार उनके के लिए सरकारी खर्च का उत्पादन पं कार्यक्रमों के लिए आवंटित करके, स्थानीय स्तर की योजनाएं बनाकर, निश्चित तथा स सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था करना है ।

हमारे वर्तमान संसाधनों से यह संभव है । परन्तु भी बचत की दर को बढ़ाकर 30 प्रतिशत करना होगा और सम्पन्न लोगों से बचत प्राप होगी । इन कार्यक्रमों को मजबूत करने के लिए ग्रामीण उद्योगों को प्रोत्साहन देने के क् को आगे बढाने के लिए प्रभावी कदम, स्थानीय श्रम, कच्चेमाल, सरल तकनीक, ऊर्जा परम्परागत साधनों तथा लघु स्तर आदि के आधार पर उठाने होंगे ।

प्राथमिक शिक्षा, स्वास को सबको उपलब्ध कराना होगा, स्थानीय स्तर पर मानव संसाधन विकास तथा उपयोग के पंचायतों तथा नगरपालिकाओं द्वारा बनवाकर लागू करने होंगे । आर्थिक नीति को आत्म-निर्भर, स्वावलम्बी विकास की दिशा में चलाना होगा सर्वविदित बातों का ज्यादा खुलासा करने की आवश्यकता नहीं है, परन्तु इतना स्पष बहुउद्देशीय कंपनियों बडी हिन्दुस्तानी कंपनियों आदि पर सामाजिक नियंत्रण लागू कि उनसे सही मात्रा में कर वसूले बिना, उनकी टैक्स बचाने तथा सामाजिक नियंत्रण से; प्रवृत्ति पर रोक लगाये बिना हमारा कार्यक्रम लागू नहीं हो पाएगा । उनकी राजपीतिक द२ पर भी रोक लगानी पड़ेगी ।

खेती का भूमि-सुधारों पर आधारित, बरानी खेती और खाद्य पदार्थों की उत्पादकता पर हितैषी तरीके से जोर, वनीकरण के विस्तार आदि अनेक कार्यक्रमों का उल्लेख किया है । हमारा मुख्य बिन्दु यह है कि लोगों को अन्तरमुखी विकास में सम्यक भागीदारी अधिकार देकर ही राष्ट्रीय कार्यक्रम अपनी सार्थकता साबित कर सकता है ।

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