Here is an essay on ‘Inequality in India’ especially written for school and college students in Hindi language.

भारतीय व्यवस्था में यदि देखा जाये तो कई स्तर पर कई स्थानों पर व कई कार्यो में गहन असमानता है जो समाज में किसी न किसी रूप में आम आदमी की भावना बनकर निकल रहा है, भारतीय व्यवस्था में जो गहन असमानता देखी जा सकती है वो है आम व खास की असमानता सरकारी व गैर सरकारी सेवा में असमानता और तो और यात्री गाडियों तक में असमानता, शिक्षा में असमानता, चिकित्सा में असमानता और हद तो तब हो जाती है जब खान-पान व रहन-सहन में भी गहन असमानता देखने को मिलती है तो आम आदमी का हृदय द्रवित हो जाता है और वह कुठित होकर या तो चुपचाप अपने भाग्य को कोसता है या फिर असमानता की इस खाई को पाटने के लिए रास्ते तलाशता है जो रास्ते वह नागरिक तलाशता है वे गैर कानूनी और अपराध की दुनिया से होकर गुजरते हैं ।

इन रास्तों पर चलते हुए वे नागरिक या तो पुलिस व्यवस्था व न्याय व्यवस्था के द्वारा व्यवस्थित हो जाते हैं अन्यथा पुलिस व्यवस्था और न्याय व्यवस्था के शिकार हो जाते हैं परिणाम जो भी हो लेकिन वे नागरिक भारतीय व्यवस्था के असमानता रूपी घटक को समानता रूपी घटक में तब्दील करने की प्रक्रिया में ही अपना सब कुछ समाप्त कर इस दुनिया से विदा हो जाते हैं ।

कोई व्यक्ति जब सड़क पर पैदल चल रहा होता है और उसके पास से कोई साइकिल पर चढकर निकलता है तो उसको अपने पैदल चलने का आभास होता है उसे आभास होता है कि वह पैदल चल रहा है तथा दूसरा व्यक्ति साइकिल से जा रहा है ।

इसके अलावा जहां कोई व्यक्ति साइकिल से जा रहा होता है तो उसके नजदीक से कोई बाइक सवार निकलता है तो ही उसको अपनी साइकिल पर चलना याद आता है जो उसको आभास कराता है कि वह साइकिल सवार है तभी उसके मन में कुछ असमानता की भावना जागृत होती है और जब कोई बाइक सवार सड़क पर जा रहा होता है तो उसके पास से जब कोई कार गुजरती है तो उसे अपनी बाइक पर चलना याद आता है कुछ ऐसी ही स्थिति उस समय उत्पन्न होती है जब कोई साधारण कार सवार सड़क पर चलता है और उसके बराबर से कोई लग्जरी कार गुजरती है तो ही उसको अपनी साधारण कार में चलने का आभास होता है अन्यथा तो सभी अपनी-अपनी सवारी में बैठकर अपने आप को सर्वश्रेष्ठ समझ बैठते हैं उनको सामाजिक असमानता का आभास तभी होता है जब उन्हें अपने से श्रेष्ठ व्यक्ति श्रेष्ठ साधन दर्शित होते हैं ये ही वे कारक हैं जो भारतीय व्यवस्था में असमानता के भाव पैदा कर सामाजिक असमानता की खाई मे वृद्धि करने का कार्य कर रहे हैं ।

भारतीय संविधान में अनुच्छेद-14 भारत के प्रत्येक नागरिक को समानता का अधिकार प्रदान करता है लेकिन उसके बाद भी भारतीय समाज में असमानताओं का अम्बार है जो समाज में आम आदमी को कुंठित कर असमानता की भावना पैदा करने का कार्य कर रहे है ।

स्थान चाहे कोई हो कहीं भी आपको असमानता देखने को मिल ही जायेगी आप यदि रेलगाड़ी से यात्रा कर रहें हो तो उसमें भी आपको कई श्रेणियाँ जैसे सामान्य श्रेणी, शयनयान श्रेणी, वातानुकूलित श्रेणी और तो और वातानुकूलित में भी प्रथम श्रेणी, द्वितीय श्रेणी आदि अनेको श्रेणियां मिलती हैं ।

जिन्हें भारतीय रेलवे की ही देन कहें या भारतीय व्यवस्था की, जो कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में आम भारतीय नागरिकों के मन को कुंठित करने का कार्य कर रही है । जिससे सामाजिक असमानता का भाव दृष्टिगोचर होता है जो दिखाता है कि भारतवर्ष में समाज में कई श्रेणियां रेलवे श्रेणियों की तरह उपस्थित हैं जिनमें उच्च श्रेणी, मध्यम श्रेणी व निम्न श्रेणी दर्शित होती है जिनसे सिद्ध होता है कि भारतीय व्यवस्था में ही असमानता रूपी दीमक घर कर गयी है जो धीरे-धीरे इस व्यवस्था को ही खोखला कर रही है अन्यथा एक ही रेलगाडी में एक ही देश के नागरिकों के लिए एक जैसे गन्तव्य तक पहुंचने के लिए एक जैसी ही व्यवस्था अर्थात ”समान व्यक्ति, समान साधन” के सिद्धान्त के अन्तर्गत समानता के अधिकार का पालन होना चाहिए था ।

समान व्यक्ति असमान साधन तो परिणाम होगा समाज में असमानता, अशान्ति और अपराध । जिस प्रकार भारतीय रेलगाड़ी में यात्रा व्यवस्था असमानता की व्यवस्था का शिकार है उसी प्रकार की असमान व्यवस्था शिक्षा व्यवस्था में भी दृष्टिगोचर होती है यदि गहन विश्लेषण करें या न करें परिणाम जाने अनजाने भारतीय समाज को भुगतने पड़ रहे हैं जब एक गरीब का बच्चा तो सरकारी विद्यालय में एक या दो अध्यापकों द्वारा जमीन पर चटाई पर बिठाकर पढ़ाया जाता है दूसरी ओर अमीर का बच्चा घर से ही गाड़ी के द्वारा प्रसिद्ध शहरी विद्यालय में वातानुकूलित कमरों में बिठाकर उच्च प्रशिक्षित विषय अध्यापकों द्वारा पढाया जाता है तो क्या यह आम भारतीय नागरिक जो इस देश की व्यवस्था और अर्थ व्यवस्था का अंग है सहन कर पा रहा है कदापि नहीं और इस असमानता के दुष्परिणाम देश के सम्मुख उपस्थित       हैं ।

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तभी तो आये दिन अपहरण, फिरौती, जबरन वसूली, हत्या, लूटपाट की घटनाओं के रूप में उन आम भारतीय नागरिकों के उदगार प्रकट हो रहे हैं जो इस सभ्य भारतीय समाज के लिए तो घातक है ही साथ ही घातक है उस भारतीय व्यवस्था के लिए जो इस देश में समानता का अधिकार देकर असमानता के कर्त्तव्य कराकर इस भारतीय समाज को विघटित करने का कार्य कर रहे हैं ।

जो इस देश को अच्छा नागरिक देने के स्थान पर अपराधी पैदा कर रही है । इसके लिए जिम्मेदार है भारतीय व्यवस्था और उससे भी अधिक जिम्मेदार है भारतीय नागरिक जो इस व्यवस्था में संशोधन कराने के स्थान पर इस व्यवस्था के साथ ही चलना अपनी नियति मान बैठे हैं ।

यदि असमानता की बात को और आगे बढ़ाया जाये तो चिकित्सा क्षेत्र एक ऐसा क्षेत्र है जहां असमानता की तो हद पार होती है जबकि माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा परमानन्द कटारा बनाम भारत संघ के वाद  में स्वास्थ एवं चिकित्सा सहायता प्राप्त करने का अधिकार मूल अधिकारों की श्रेणी में रखा गया है लेकिन वास्तविक अर्थ में यदि देखा जाये तो देश का आम नागरिक सस्ती चिकित्सा सुविधाओं से भी महरूम है देश की आजादी के तिरेसठ वर्ष बाद भी आम भारतीय चिकित्सा सुविधाओं का लाभ नहीं ले पा रहे हैं या यूँ कहिए कि उनको सरकारी चिकित्सा सुविधाओं का लाभ नहीं मिल पा रहा है । सरकारी अस्पतालों विशेषकर एम्स या दूसरे बड़े सरकारी अस्पताल जिनमें चिकित्सा सुविधाओं का लाभ उठाने में धनाढय परिवार, नेता व अफसर सर्वाधिक संख्या में हैं ।

आम नागरिक और गरीब लोग उक्त सरकारी अस्पतालों की चिकित्सा सुविधाओं से अभी भी वंचित हैं आंकड़े ब्यां करते हैं कि इन अस्पतालों में सर्वाधिक लाभ लेने वाले लोग अधिकतर नेता, अफसर व धन कुबेर ही हैं गरीब जनता की पहुंच अभी भी सरकारी चिकित्सा सुविधाओं से कोशों दूर है गरीब लोग आज भी झोला छाप कहे जाने वाले डाक्टरों की सेवा पर ही निर्भर हैं देश की 75 प्रतिशत आबादी गांवों में निवास करती है लेकिन उसके बावजूद देश के गांवों में कितनी सरकारी अस्पताल हैं कितनी प्रसूति अस्पताल और कितने एम.बी.बी.एस. डाक्टर गांवों में डाक्टरी प्रेक्टिस कर रहे हैं तो उक्त सभी प्रश्नों के उत्तर लगभग शुन्य में मिलेंगे क्योंकि कोई भी एम.बी.बी.एस. डाक्टर गांवों में जाने के लिए तैयार नहीं है ।

बेशक वह डाक्टर किसी गांव का ही रहने वाला क्यों न हो लेकिन वह भी अपनी प्रेक्टिस शहर में ही करना चाहेगा । क्योंकि गांवों में न तो इतनी सुविधाएँ हैं और न ही शहर के बराबर पैसा जिस कारण से कोई भी डाक्टर गांवों में जाने को तैयार नहीं है और देश की पिच्छेत्तर प्रतिशत आबादी अप्रशिक्षित झोला छाप डाक्टरों पर ही निर्भर है जो जीवन को मौत में तब्दील करते देर नहीं लगाते हैं उससे भी भयानक स्थिति देश के गांवों की महिलाओं की है ।

जो गांव शहरों से चालीस-पचास किलोमीटर दूर हैं । उन गांवों की अधिकतर महिलाएं प्रसव पीड़ा के दौरान कई बार मौत से दो-चार होती हैं । कुछ खुशनसीब होती हैं जो प्रसव पीड़ा के दौरान समय से शहर की अस्पताल पहुंच जाती हैं और जच्चा बच्चा की जान बच जाती है ।

कुछ बदनसीब भी होती हैं जो शहर पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देती हैं क्योंकि गांवों में तो कोई चिकित्सा सुविधा होती नही, गांवों में तो वही पुरानी परम्परा वाली दाई होती है जो अज्ञानतावश महिलाओं की जान से खिलवाड़ करती हैं ।

हमें गर्व होता है जब हम अपनी आजादी का जश्न मनाते हैं और पाते हैं कि तिरेसठ वर्ष बाद भी आज इस देश की जननी प्रसव पीड़ा के समय मौत को गले लगा लेती हैं । लेकिन भारतीय व्यवस्था कुछ भी आज तक गांवों के लिए नहीं कर सकी जबकि वास्तविकता ब्यां करती है कि प्रत्येक चुनाव में विधान सभा का चुनाव हो या लोक सभा का चुनाव । वह शहरी भारतीय जनता जो देश की सरकारी शिक्षा, चिकित्सा आदि का लाभ उठाती है ।

चुनाव के समय अपने घरों से बाहर निकलकर वोट डालने में अपनी समय की बर्बादी मानती है और वोट तक डालने नहीं जाते । देश की राजनीतिक पार्टियों को शुक्रगुजार होना चाहिए ऐसी भारतीय ग्रामीण जनता का जो चुनाव में सर्वाधिक रूचि दिखाती है और वोट डालकर देश की सरकारें चुनती है लेकिन दुर्भाग्य इस देश की ग्रामीण जनता का जो तिरेसठ साल बाद भी चिकित्सा, शिक्षा से वंचित है और दादा आदम के जमाने की चिकित्सा पद्धति पर ही अधिकतर ग्रामीण जनता का स्वास्थ्य टिका हुआ है बाकी की कमी को पूरा करने का कार्य करते हैं ग्रामीण क्षेत्रों में जमे हुए झोला छाप डाक्टर जो ग्रामीण जनता की जिन्दगी से खेलने का कार्य कर रहे हैं ।

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जबकि दूसरी ओर शहरी जनता के लिए निजी प्रैक्टिस करने वाले एम.बी.बी.एस. डाक्टर तो उपलब्ध हैं ही, साथ ही उपलब्ध हैं सरकारी अस्पताल जहां सस्ता इलाज होता है और उसका लाभ उठाने में भी शहरी जनता, धनाढय, नेता व अफसर ही अग्रणी हैं जिससे देश की चिकित्सा व्यवस्था में भी असामनता नजर आती है जो देश के गरीब नागरिकों के मन में असमानता के भाव पैदा करने का कार्य करती है ।

माना जाता है कि भारत देश कृषि प्रधान देश है लेकिन कृषि प्रधान देश होने के बाद भी आज भारत के लोग भूख से मर रहे हैं उनको दो वक्त की रोटी नसीब नहीं होती जबकि देश के गोदामों में भरा हुआ अनाज खुले आकाश के नीचे सड़ रहा है तो कमी किसकी है भारत की जनता की या भारतीय व्यवस्था की ।

एक तरफ तो देश की गरीब जनता दो वक्त की रोटी के लिए तरस रही है और दूसरी ओर देश का एक वर्ग उससे कहीं अधिक अनाज पालतू जानवरों की खुराक बना रहा है जो इस देश की गरीब जनता के लिए तो उनके अधिकारों का हनन जैसा ही है साथ ही समाज में एक असमानता का वातावरण तैयार हो रहा है ।

ऐसे गरीब लोग जो दो वक्त की सुखी रोटी के लिए तरस रहे हैं या भूख से मर रहे हैं तो क्या ऐसे लोगों का गुस्सा देश के धनाढय लोगों के प्रति जाहिर नहीं होगा जो कुछ हद तक इस देश के अनाज का एक भाग पालतू जानवरों के लिए खर्च कर रहे हैं ।

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यह भारतीय व्यवस्था की ही कमी कही जा सकती है जबकि माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी “पी.यू.सी.एल. बनाम भारत संघ” के वाद में निर्णित किया था कि जो लोग खाद्य सामग्री खरीदने में असमर्थ हैं उन्हें भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 के अन्तर्गत राज्य द्वारा मुफ्त खाद्यान्न पाने का मूल अधिकार है । लेकिन ऐसा निर्णय आने के बाद भी सरकारें चैन की नींद सो रही हैं और हम देश की आबादी का एक वर्ग भूख से मर रहा है । तो क्या यह भारतीय समाज में समानता की रोशनी दिखती है या असमानता की ।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद-14 प्रावधान करता है कि भारत में किसी भी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं किया जायेगा ये संवैधानिक प्रावधान है अर्थात भारतीय विधि के समक्ष सभी समान हैं लेकिन फिर भी कुछ असामनता देखने को मिलती है कि संविधान में कहीं ऐसा प्रावधान न होने के बावजूद कि देश-प्रदेश में कहीं कोई वी.आई.पी. होगा अर्थात वेरी इम्पोरटेन्ट पर्सन (बहुत महत्वपूर्ण व्यक्ति) का कहीं संवैधानिक प्रावधान न होने के बावजूद भी भारतीय व्यवस्था में वी.आई.पी. तथा वी.वी.आई.पी. देखने को मिलते हैं । जो देश के अन्य लोगों से असमान होते हैं या दिखते हैं । जबकि संविधान समानता की बात करता है ।

संविधान प्रावधानित करता है कि अनुच्छेद 74 व 75 में मंत्रियों के विषय में कि राष्ट्रपति की सहायता के लिए मंत्री परिषद होगी उनकी नियुक्ति, संख्या, वेतन भतों का प्रावधान संविधान में है लेकिन संविधान में ऐसा कहीं प्रावधान नहीं है कि मंत्री वी.आई.पी. होगा वह अन्य लोगों से असमान होगा उसको अलग लाल बत्ती की गाड़ी होगी या उसके आने पर आम रास्ते रोक दिये जायेंगे या उसको आम जनता से अधिक महत्व दिया जायेगा ।

जब संविधान समानता की बात करता है तो यह समानता मंत्रियों के विषय में लागू क्यों नहीं है संविधान में ऐसा कहीं प्रावधान नहीं है कि मंत्री अपने निजी कार्यो व निजी समारोहों में भी सरकारी गाड़ी व सरकारी मशीनरी का प्रयोग करेगा जबकि विदेशों में देखा गया है कि चाहे कोई मंत्री हो या मिलिट्री चीफ हो या पुलिस चीफ ।

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सभी आम आदमी के साथ ट्रेन, बस आदि में घर से यात्रा कर सरकारी कार्यालय पहुंचते हैं । उसके बाद सरकारी कार्य से सरकारी सेवाओं का लाभ लेते हैं । उसके बाद सरकारी सेवाओं को कार्यालय तक छोड़कर वापिस आम आदमी की तरह अपने साधन के द्वारा घर आ जाते हैं ।

जिससे उन मंत्रियों, मिलिट्री चीफ या पुलिस चीफ या अन्य विभागों के चीफों को आम आदमी को होने वाली समस्याओं से रूबरू होने का अच्छा खासा अनुभव भी मिलता है और सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग भी नहीं होता साथ ही एक बहुत बड़ा लाभ जो प्राप्त होता है वो है जनता से सीधा संवाद, जनता के बीच समानता की भावना, न कि भारतीय नेताओं व अधिकारयों की तरह कुछ अलग दिखने की हनक ।

कुछ विशेष दिखने की, कुछ महत्वपूर्ण दिखने की, जो समाज में असामनता की भावना को बढ़ावा देती है जो बढ़ावा देती है समाज के अन्य लोगों में हीनता की भावना को, कोई भी व्यक्ति जो भौतिक सुख सुविधाओं का अधिक उपयोग करता है । वह उस समाज से अलग-थलग हो जाता है ।

जब कोई व्यक्ति या नेता अधिक भौतिकवादी हो जाता है तो वह उस समाज से अलग-थलग हो जाता है जिससे समाज के अन्य लोग अपने आपको उससे हीन समझने लगने लगते हैं । क्योंकि वह नेता अपने आपको अन्य लोगों से अधिक सामर्थ्यवान दिखाता है जिसको या यूँ कहिये अन्य से भिन्न या अलग दिखने की कोशिश करता है जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद-14 का उल्लंघन जान पड़ता है ।

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जब तक इस देश के नेता व अधिकारी अपने आपको अलग दिखायेगे तब तक यहां के लोगों में भी असमानता की भावना जागृत होगी जो समाज को भी तोड़ने का कार्य करेगी जिसका सीधा प्रभाव इस देश की अर्थव्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था व राजनीतिक व्यवस्था पर भी देखने को मिलेगा, जो कदापि उचित नहीं है ।

अधिकतर भारतीय दिखावे का जीवन जीते हैं वे धन, बल का प्रदर्शन करने में अपनी शान समझते हैं जबकि अन्य देशों में ऐसा नहीं है । सम्भवत: भारत में किसी अन्य देश की अपेक्षा अधिक त्यौहार मनाये जाते हैं । जो कुछ हद तक इस देश के विकास को बाधित करते हैं ।

जब सरकारी कर्मचारी कुछ छुट्‌टी तो एक तिहाई महीने में, 5 कार्य दिवसीय सप्ताह के रूप में, बाकी 2 तिहाई कार्य दिवसों में, कुछ त्यौहार, कुछ दिवस, कुछ जयन्तियों के नाम पर छुट्‌टी, बाकी कुछ छुट्‌टी कर्मचारियों द्वारा आपातकालीन अवकाश, चिकित्सा अवकाश के रूप में भी की जाती है ।

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इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि इस देश का सरकारी कर्मचारी कितना कार्य करता है और उसके एवज मे कितना वेतन उठाता है । जबकि निजी क्षेत्र का कर्मचारी महीने में मात्र बामुश्किल 5 अवकाश प्राप्त करता है क्या निजी क्षेत्र को त्यौहार, 5 कार्य दिवसीय, सप्ताह, जयन्तियों आदि मनाने का अधिकार नहीं है ।

आखिर सरकारी कर्मचारी व निजी क्षेत्र के कर्मचारियों को सुविधाओं में भेदभाव क्यों ? या तो सरकारी कर्मचारी की सुविधा में कटौती की जाये नहीं तो निजी क्षेत्र के कर्मचारी को भी सरकारी कर्मचारी के बराबर सुविधा लाभ मिलना चाहिए । अगर ऐसा नहीं है तो ये भारतीय संवधिान में वर्णित अनुच्छेद 14 समानता के अधिकार का अतिक्रमण मानना चाहिए ।

निजी क्षेत्र व सरकारी क्षेत्र में सुविधा असमानता का नुकसान देश को झेलना पड़ रहा है । कोई भी सरकारी कर्मचारी सेवा में आने के बाद अपनी सेवा स्थायी मान लेता है । सुविधाओं का लाभ लेता है और निजी कर्मचारियों की अपेक्षा आधा कार्य करता है । जो इस देश के साथ चोरी है ।

सरकार व नीतिकारों को चाहिए कि या तो समस्त देश में निजी व सरकारी क्षेत्र में असमानता को समाप्त कर एक ही नियमावली लागू की जाये जो निजी व सरकारी दोनों क्षेत्रों पर लागू हो या अपने समस्त कार्यदायी संस्थान निजी हाथों में सौंप दें अर्थात पूर्णत निजीकरण कर दिया जाये सिवाय सेना व पुलिस बल के । अन्यथा निजी व सरकारी सेवा लाभों का यह भेदभाव सतह पर आ जायेगा ।

अर्थात निजी व सरकारी के इस भेदभाव को जल्द से जल्द समाप्त किया जाना अति अवश्यक है इसके लिए सम्पूर्ण देश में निजी व सरकारी क्षेत्र के लिए एक ही नियमावली होना आवश्यक है तभी निजी व सरकारी के भेद को समाप्त किया जा सकेगा ।

भारत को अगर त्यौहारों का देश कहा जाये तो अनुचित नहीं होगा क्योंकि शायद ही विश्व के किसी देश में इतने त्यौहार मनाये जाते हों । वर्ष में 12 महीने या 365 दिनों में से लगभग 60-65 दिन रविवार होते हैं बचे 300 दिन, जिनमे जहाँ 5 दिवसीय कार्य सप्ताह है तो लगभग 60-65 दिन और कम हो जाते हैं ।

बचे लगभग 240 दिन जिनमें से 14 आक्समिक अवकाश होते हैं कोई 30 दिन का चिकित्सा अवकाश भी चल जाता है । बचे 196 दिन । अब जयन्ती, पुण्यतिथि और त्यौहारों को लगाकर कुल मिलाकर लगभग 36 दिन । जो अब 160 दिन का कार्य बनता है ।

वर्ष के 365 दिनों में से 160 दिन कार्य दिवस तथा 205 दिन अवकाश में । उनमें भी औसतन रोजाना प्रत्येक सरकारी कर्मचारी लच टाईम, चाय टाईम, गुटका व पान टाईम, धुम्रपान टाईम तथा लेट टाईम को लगाकर 2 से 3 घंटे प्रतिदिन चोरी करता है जो लगभग 400 घंटे अर्थात 50 दिन बनता है ।

कुल मिलाकर 365 दिनों में से 110 दिन ही एक सरकारी कर्मचारी कार्य करता है बाकी 255 दिन अवकाश आदि में बिता देता है जिससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि सरकारी कर्मचारी का देश के विकास में कितना योगदान है जबकि निजी क्षेत्र का कर्मचारी 365 दिनों में से 60-65 साप्ताहिक अवकाश, 14 दिन आक्समिक अवकाश के रूप में बाकी 290 दिन निजी क्षेत्र का कर्मचारी कार्य करता है ।

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अर्थात निजी व सरकारी कर्मचारी के कार्य दिवसों में 180 दिन का महान अन्तर है जो इस देश की अर्थव्यवस्था व विकास को किसी न किसी रूप में प्रभावित कर रहा है । 5 दिवसीय कार्य सप्ताह विदेशों की नकल है जो विकसित देश हैं जहां न तो इतनी ज्यन्ती है, न ही इतनी पुण्यतिथि और न ही इतने त्यौहार ।

वहां की परिस्थितियों के अनुसार 5 दिवसीय कार्य सप्ताह उचित हो सकता है लेकिन भारतीय परिस्थितियों में जहां त्यौहारों, जयन्तियों व पुण्यतिथियों की अधिकता है वहां ये सब अनुचित है । जहां अभी अर्थव्यवस्था विकास की ओर अग्रसर है ।

भारत में त्यौहारों, ज्यन्तियों व पुण्यतिथियों पर अवकाश घोषित करना अपनी अर्थव्यवस्था को पीछे ले जाना है । केवल राष्ट्रीय पर्व को ही अवकाश घोषित किया जाना चाहिए । धार्मिक पर्व पर नहीं । क्योंकि भारतीय संविधान कहता है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है जिसका तात्पर्य है कि सरकार किसी भी धर्म को पोषित नहीं करेगी ।

सभी को अपने-अपने धर्मो को मनाने की स्वतंत्रता होगी । इसलिए देश में किसी भी धार्मिक पर्व पर चाहे वह किसी भी धर्म का है अवकाश घोषित नहीं किया जाना चाहिए । लेकिन पर्व मनाने की स्वतंत्रता होनी चाहिए ।

अब ये जनता के ऊपर निर्भर करता है कि वह किस प्रकार व्यवस्था बनाये, अवकाश ले, चाहे जो भी तरीका अपनाये लेकिन देश हित सर्वोपरि होना चाहिए तभी ये देश विकसित देशों की श्रेणी में होगा अन्यथा तो जैसे चल रहा है वैसे ही चलता रहेगा कोई कुछ नहीं कर सकता ।

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