श्री हनुमान जन्म का आधार |The Birth Concept of Shree Hanuman in Hindi!

स्वयंभू ब्रह्मा जी के मानस पुत्र पुलस्ल जी थे । उनकी पत्नी का नाम गौ था । उससे उन्हें कुबेर (वै श्रवण) नामक पुत्र हुआ । परंतु वह अपने माता-पिता को छोड़कर ब्रह्माजी की सेवा में लगा रहने लगा ।

ब्रह्माजी ने उसे यज्ञों का स्वामी बना दिया और उसे राजाधिराज की उपाधि प्रदान की । उसने राक्षसों से भरी लंका में एक सोने की लंका बनाई और उसे अपनी राजधानी बना लिया । ब्रह्माजी ने उसे इच्छानुसार विचरण करने वाला एक ‘पुष्पक’ नाम का विमान भी दिया ।

यह सब देखकर पुलस्ल को बड़ा क्रोध आया । उन्हें लगा कि ब्रह्मा जी ने उनके पुत्र को छीन लिया है । तब अपने योगबल से अपने आपको एक दूसरे शरीर से प्रकट किया । अपने इस आधे शरीर के कारण पुलत्त्व जी ‘विश्रवा’ नाम से विख्यात हुए । वे वैश्रवण (कुबेर) पर सदैव कुपित रहते थे । उसे हर समय भारी आघात पहुंचाने का प्रयत्न करते रहते थे ।

जब कुबेर को इस बात का पता चला तो उसने अपने पिता को प्रसन्न करने के लिए तीन सुंदर राक्षस कन्याओं को उनकी सेवा में भेजा । वे तीनों सुंदरियां नाच-गाने में अत्यंत निपुण थीं । वे तीनों अपने मादक हाव-भाव से वि श्रवा को रिझाने लगीं । वे अपने-अपने तरीके से छिपकर महात्मा विश्रवा को संतुष्ट करने लगीं । वे तीनों सुंदरियां पुष्पोत्कटा, राका और मालिनी के नाम से जानी जाती थीं ।

उन तीनों से विश्रवा मुनि ने अलग-अलग पराक्रमी और अत्यंत मायावी संतानें उत्पन्न कीं । पुष्पोत्कटा के दो पुत्र रावण और कुम्भकर्ण उत्पन्न हुए । वे अत्यंत बलशाली और दुराचारी प्रवृत्ति के थे । राका के गर्भ से एक पुत्र खर और एक पुत्री शूपर्णखा का जन्म हुआ ।

तीसरी मालिनी से सबसे अधिक सुंदर, धर्मरक्षक, विनयशील और सत्कर्मों से युक्त एक पुत्र विभीषण का जन्म हुआ । रावण इनमें सबसे बड़ा था । विद्वान था । बुद्धि और चातुर्य बल में उसके दस सिर थे । इसीलिए उसे दशानन भी कहा जाता था । उत्साह, बल और पराक्रम में उसकी बराबरी करने वाला उस काल में कोई दूसरा नहीं था ।

जबकि आकार-प्रकार में कुम्भकर्ण बड़ा भयानक था । खर धनुर्विद्या में सबसे बढ़-चढ़कर था । वह मांसाहारी और ऋषि-मुनियों का द्वेषी था । शूर्पणखा अत्यंत कुरूप थी, पर अपनी मायावी शक्ति से वह कोई भी रूप धारण कर लेती थी । वह अपनी इच्छापूर्ति के लिए ऋषियों को तंग किया करती थी ।

विश्रवा मुनि ने रावण के मन में उसके भाई कुबेर के प्रति बेहद ईर्ष्या का भाव भर दिया था । रावण को कुबेर का ऐश्वर्य फूटी आखों नहीं सुहाता था । तब उसने घोर तपस्या करके ब्रह्मा जी और भगवान आशुतोष शिव को प्रसन्न किया ।

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एक पैर पर एक हजार वर्ष तक खड़े होकर उसने पहले ब्रह्माजी को प्रसन्न किया । फिर उसने अपने मस्तकों को काट-काटकर अग्नि में आहुति देकर भगवान शिव को प्रसन्न किया । वर मांगने पर उन्होंने रावण को गंधर्व, देवता, असुर, यक्ष, राक्षस, सर्प, किन्नर तथा भूतों आदि से उसे अवध्य कर दिया ।

इससे रावण बहुत प्रसन्न हुआ और उसने लंका पर चढ़ाई करके कुबेर से उसकी सोने की लंका छीन ली और स्वयं को वहाँ का राजा घोषित कर दिया । सभी मनुष्यभक्षी राक्षसों ने रावण को अपना राजा मान लिया । राजा बनने के उपरांत रावण ने ऋषि-मुनियों, देवताओं, किन्नरों, मनुष्यों, गंधर्वों, यक्षों आदि को परेशान करना प्रारंभ कर दिया और उन पर भयानक अत्याचार करने लगा ।

जो भी उसकी सत्ता को चुनौती देते, वह उन्हें मौत के घाट उतार देता । उनकी धन-संपत्ति छीन लेता, उनकी सुँदर पत्नियों और पुत्रियों को बलपूर्वक अपने रनिवास में डाल देता । इससे धरती पर हा-हाकार मच गया । जनता त्राहि-त्राहि कर उठी ।

ऐसे समय सभी सताए हुए ऋषि-मुनि, देवर्षि, सिद्धगण, अग्निदेव और गौ माता को आगे करके ब्रह्मा जी पास गए और उनसे रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगे, ”भगवन्! हम आपकी शरण में आए हैं । आप हमें लंकापति रावण के अत्याचारों से बचाइए । हमारी रक्षा कीजिए । अन्यथा धरती पर धर्म का विनाश हो जाएगा और कोई भी प्राणी परमात्मा का नाम लेने वाला जीवित नहीं बचेगा ।”

इस पर ब्रह्मा जी ने उन्हें आश्वासन दिया और वे उन्हें तथा इंद्र आदि देवगण को साथ लेकर बैकुण्ठ में भगवान विष्णु के पास पहुंचे । वहां पहुंचकर ब्रह्मा जी ने भगवान विष्णु की स्तुति की और कहा, “हे प्रभो समस्त त्रिलोकी में विश्रवा मुनि के पुत्र रावण का आतंक फैला हुआ है । आप इनकी रक्षा करें ।”

इस प्रार्थना को सुनकर भगवान ने कहा, ”हे ब्रह्मदेव! रावण के अत्याचारों से मैं अनभिज्ञ नहीं हू । मेरा विग्रह अयोध्या के राजा दशरथ के यहां, उनके ज्येष्ठ पुत्र राम के रूप में जन्म ले चुका है । मेरी शक्ति देवी लक्ष्मी ने मिथिला पति राजा जनक के यहां सीता के रूप में जन्म लिया है ।

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मेरे प्रिय शेष जी मेरे भ्राता लक्ष्मण के रूप में जन्म ले चुके हैं और मेरी दो अन्य शक्तियां भी मेरे अनुज भरत तथा शत्रुप्न के रूप में जन्म ले चुकी हैं । मेरा वह विग्रह ही रावण का वध करेगा । उस समय रावण से युद्ध करते समय मुझे तुम सभी की आवश्यकता पड़ेगी ।

इसलिए तुम सब भी वन्य जातियों के रूप में किष्किंधा साम्राज्य के आरण्यों और वहाँ की पर्वत श्रेणियों के मध्य जन्म लो ।” “जो आज्ञा प्रभो!” ब्रह्मा जी ने कहा और वापस ब्रह्मलोक में लौट आए । वहां आकर उन्होंने सभी देवगण और इंद्र आदि से पृथ्वी पर जन्म लेने के लिए कहा, ”तुम सभी रीछ, वानर और पक्षी आदि के रूप में जन्म लो ।

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वहां जाकर इच्छानुसार रूप धारण करने वाले महापराक्रमी बलवान पुत्र उत्पन्न करो । तुम सभी को देवकार्य की सिद्धि के लिए पृथ्वी पर जन्म लेना है, इस बात का सदैव ध्यान रखना ।” ”जो आज्ञा ब्रह्मदेव!” कहकर सभी देवगण वहां से विदा हो गए ।

उसके बाद वे सभी वानर, रीछ और पक्षियों के रूप में वहां उत्पन्न हुए और उन्होंने अनेकानेक महाबली पुत्र उत्पन्न किए । वे बड़ी-से-बड़ी चट्टानों को अपनी मुष्टिका के प्रहारों से विदीर्ण कर डालते थे और सिंह के समान गर्जना करके शत्रु का हृदय दहला देते थे ।

वे अपने पैने नाखूनों और दांतों से शस्त्रों का काम लेते थे । सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का उन्हें पूर्ण ज्ञान था । मायावी विद्या में वे पारंगत थे ।  पर्वतों तक को हिला देने की शक्ति उनमें थी, बड़े से बड़े वृक्षों की तो बिसात ही क्या थी ? वे उन्हें चुटकी बजाते उखाड़ लेते थे और अपने हाथों पर उसे सिर के ऊपर उठाकर शत्रु पर प्रहार करने दौड़ पड़ते थे ।

अपने पद प्रहारों से धरती को हिला देने तथा विशाल सागर को लांघ जाने की अद्‌भुत क्षमता उनमें थी । आकाश में उमड़ते-घुमड़ते बादलों को छिन्न-भिन्न कर देने की झंझावात सरीखी तीव्र गति उनमें थी । इस प्रकार के सहस्रों वानर और रीछ ऋक्षवान् पर्वत की कंदराओं में निवास करने  लगे ।

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वहां आस-पास जितने भी वन थे वे सभी उनसे भर गए थे । भयानक गिद्धों की एक विलक्षण प्रजाति ने वहां के विशाल वृक्षों पर अपना बसेरा बना लिया था । लंकापति रावण के अत्याचार यद्यपि जंबू द्वीप (भारत) में बढ़ते जा रहे थे, पर उसका साहस किष्किंधा की इन पर्वत शृंखलाओं और वनों की ओर आने का नहीं होता था ।

वे प्राय: मध्य जंबू द्वीप और उत्तर दिशा की ओर ही अपना उत्पात मचाते रहते थे । अधिकतर वे मध्य भारत में ही अपनी गतिविधियों का केंद्र रखते और विंध्याचल के इसी ओर पड़ने वाले आश्रमों को नष्ट-भ्रष्ट करते रहते थे । वह अपनी तलवार की शक्ति से यहां के निवासियों को अपना सेवक बनाता था और जो उसकी बात नहीं मानता था, वह उसकी गरदन उड़ा देता था ।

उस समय किष्किंधा साम्राज्य का अधिपति वानर जाति का एक यूथपति इंद्रकुमार बाली था । वह अपने छोटे भाई सुग्रीव के साथ यहां रहता था । समस्त वानर और यूथपति उन दोनों भाइयों की सेवा में रहते थे । उन यूथपतियों में वानरराज कुजर और वानराज केसरी भी थे ।

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वानरराज कुंजर की एक अति सुंदर पुत्री अंजना थी । उसका विवाह वानरराज केसरी के साथ हुआ था । हनुमान जी अंजना और केसरी की ही संतान थे । वे भी सुग्रीव और बाली की सेवा में रहा करते थे । रीछों का राजा जाम्यवान भी इसी आरण्यक में रहता था ।

उसके पास भी रीछों की एक विशाल सेना थी । वह बाली के भाई सुग्रीव का परम मित्र था । हनुमान की मित्रता भी बाली से अधिक सुग्रीव के साथ थी । क्योंकि ये तीनों ही हमउम्र थे । हनुमान जी के जन्म के विषय में पुराणों में जो कथाएं प्राप्त होती हैं, उनमें मतभेद प्राप्त होता है ।

सभी ने अपने-अपने तरीके से हनुमान जन्म की कथा को कहा है । लेकिन मुख्य रूप से उनके जन्म के विषय में दो प्रकार की मान्यताएँ हैं । कुछ लोग उन्हें शिव का पुत्र मानते हैं और कुछ पवनदेव का । अधिकांश लोग हनुमान जी को पवन पुत्र ही मानते हैं ।

हनुमान जी भले ही शिव पुत्र रहे हों अथवा पवन पुत्र, परंतु इसमें दो राय नहीं है कि हनुमान जी में शिव-शक्ति और वायु -शक्ति, दोनों का ही समावेश पूरी तरह से था । संभवत: विद्वानों ने उन्हें शिव और वायु का पुत्र कहा है और इसके विषय में अलग-अलग कथाएं भी प्रस्तुत की हैं । अगले अध्याय में हनुमान जन्म की कथा का विस्तार से विवेचन किया जाएगा ।

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हमारी मान्यता है कि हनुमान जी अंजना और वानरराज केसरी की ही संतान थे । उन्होंने अपनी साधना और तप से भगवान शिव और वायुदेव, दोनों को प्रसन्न करके अद्‌भुत और विलक्षण शक्तियां प्राप्त की थीं । जिस प्रकार एक गुरु अपने प्रिय शिष्य को अपना ही पुत्र कहता है, उसी प्रकार हनुमान जी भी भगवान शिव और पवनदेव के पुत्र थे । सूर्यदेव जिस बालक के शिक्षक हों, वह तेजस्वी भला क्यों नहीं होगा ?

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