हनुमान जी का जन्म | Birth of Shree Hanuman!

पुंजिदस्थला नाम की एक अति सुंदर अप्सरा थी । देवराज इंद्र ने उससे धरती पर जन्म लेने के लिए कहा और उसे आदेश दिया कि वह पवनदेव के समान वेगवान और देवाधिदेव महादेव के समान शक्तिशाली पुत्र उत्पन्न करे, जो भगवान श्रीराम का सर्वाधिक सहायक हो ।

पुंजिदस्थला ने देवराज ईद्र की आज्ञा पाकर वानरराज कुंजर की पुत्री के रूप में जन्म लिया । वह अत्यत रूपवती थी और इच्छानुसार कोई भी रूप धारण कर सकती थी । महामनस्बी वानरराज कुंजर ने अपनी पुत्री का नाम अंजना रखा और युवा होने पर उसका विवाह यूथपति वानरराज केसरी से कर दिया । दोनों पति-पत्नी सुखपूर्वक विहार करने लगे ।

एक दिन की बात है कि अंजना ने एक अति सुंदर मानव युवती का रूप धारण किया और वह एक पर्वत शिखर पर विचरण करने लगी । उस समय वहा शीतल, मद और सुगंधित मलयानिल बह रही थी । उस मादक पवन के स्पर्श से उसके मन में काम-भाव प्रकट होने लगे । तभी उसके अद्‌भुत सौंदर्य पर पवनदेव मोहित हो गए । उन्होंने उसे अपने अंक में भर लिया ।

पवनदेव के स्पर्श से देवी अंजना चौंक पड़ी और बोली, ”अरे! तुम कौन हो ? मुझे क्यों इस प्रकार अपने अंक में भर रहे हो और मेरा आलिंगन कर रहे हो ? क्या तुम नहीं जानते कि मैं पतिव्रता स्त्री हूं । मेरा धर्म भ्रष्ट करके तुम क्यों पाप के भागी बनना चाहते हो ? क्या तुम्हें मेरे शाप का भी भय नहीं है ? तुम प्रत्यक्ष रूप में मेरे सामने आओ ।”

अंजना की बात सुनकर पवनदेव उसके सामने प्रकट हो गए और बोले, ”हे देवी! मैं पवनदेव हूं । देवराज इंद्र की आज्ञा से पृथ्वी पर आया हूं । हम यहां भगवान विष्णु के अवतार श्रीराम की सहायता के लिए वानर रूप में जन्म ले रहे हैं । मैंने मानसिक रूप से तुम्हारा आलिंगन किया है और मानसिक रूप से ही तुम्हारे साथ समागम भी किया है । इसलिए तुम्हारा पातिव्रत-धर्म मैंने नष्ट नहीं किया है ।

मेरे संसर्ग के कारण तुम्हें एक अत्यंत पराक्रमी, महातेजस्वी, धैर्यवान, महाबली और आकाशचारी पुत्र प्राप्त होगा, जो अपनी इच्छा से कहीं भी गमन कर सकेगा और विशाल से विशाल पर्वत को भी अपने हाथों पर उठा सकेगा । वह श्रीराम का परम भक्त होगा और समय पड़ने पर उनका सबसे बड़ा सहायक होगा ।”

पवनदेव के वचनों को सुनकर देवी अंजना हर्षित हो उठी और उसने पवनदेव को प्रणाम किया । पवनदेव के जाने के उपरांत देवी अंजना अपने निज गृह लौट आई और समय आने पर उसने एक अत्यंत स्वस्थ बालक को जन्म दिया ।

बालक के जन्म पर यूथपति वानरराज केसरी के दल में भारी उत्सव मनाया गया और वानरों ने खूब उछल-कूद मचाई । धीरे-धीरे बालक बड़ा होने लगा ।

बालक का हनुमान नाम पड़ना:

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बचपन में हनुमान जी बड़े चंचल स्वभाव के थे । वे अपनी माता अंजना के साथ इधर-उधर घूमते रहते थे । कभी पेड़ों पर छलांग लगाकर डालियों पर लटकते और झूलते तो कभी पर्वत शिखरों पर चढ़ जाते । वन में स्वादिष्ट फलों को तोड़कर खाना और पेट भर जाने पर आधे-अधूरे फल को फेंक देना, उनका रोजमर्रा का काम था ।

कभी-कभी वे अपने साथी बालकों के साथ खूब उधम मचाते । सारे वन में उनकी किलकारियां गूंजती रहतीं । एक बार वे अपनी माता अंजना के साथ वन में घूम रहे थे कि अचानक उनका साथ छूट गया । उन्होंने अपनी माता को बहुत खोजा पर वे उन्हें कहीं दिखाई नहीं दी । कोई संगी-साथी भी नजर नहीं आ रहा था ।

अब उन्हें भूख भी जोरों से लगने लगी थी । भोर का समय था । तभी उनकी दृष्टि वृक्षों के मध्य झिलमिलाते उदित होते लाल सूर्य पर पड़ी । बालक हनुमान ने सोचा कि यह कोई फल है । आज इसे ही खाना चाहिए । ऐसा सोचकर वे उसकी ओर दौड़ पड़े ।

लेकिन वे जितना उसकी ओर दौड़ते, वह उतना ही दूर हो जाता था । धीरे-धीरे सूर्यदेव ऊपर उठने लगे । हनुमान भी पेड़ों पर चढ़ते हुए ऊपरी सिरे पर पहुंच गए और फिर उन्होंने सूर्यदेव को कोई बड़ा फल समझकर उसकी ओर वायु वेग से छलांग लगा दी ।

हनुमान को आकाश में उड़ते देखकर देव-दानव, यक्ष-गंधर्व सभी आश्चर्य से उस बालक को देखने लगे । वे सोच रहे थे कि जब बाल्यकाल में ही इस बालक का यह हाल है तो युवा होने पर यह क्या करेगा ? दूसरी ओर वायुदेव ने जब अपने पुत्र को सूर्य की ओर उड़ते देखा तो वे चिंतित हो उठे । उन्हें लगा कि यह बालक अनजाने में ही सूर्य की ओर जा रहा है ।

सूर्यदेव की प्रचण्ड तपिश का इसे कोई ज्ञान नहीं है । सूर्य के निकट पहुंचने पर तो यह झुलस जाएगा । ऐसा सोचकर उन्होंने आकाश में जल से भरे हुए बादलों को उत्पन्न कर दिया । जिनके कारण सूर्य की तपिश उस तक छनकर आने लगी । परंतु हनुमान को इन सबसे कोई मतलब नहीं था ।

वह तो हर हाल में सूर्य को पकड़ कर खाना चाहता था । ज्यों-ज्यों वह उसके निकट पहुँच रहा था, त्यों-त्यों उसकी भूख बढ़ती जा रही थी । सूर्यदेव ने पवन पुत्र को अपनी ओर आते देखा तो उन्होंने अपनी तेज रश्मियों को समेट लिया । उन्हें वह बालक बड़ा अद्‌भुत लगा । हनुमान ने तीव्र गति से छलांग लगाई और सूर्यदेव के रथ पर जा चढ़ा ।

सूर्यदेव ने हनुमान को स्नेह से अपनी गोद में उठा लिया और उसे स्वादिष्ट फल खाने के लिए दिए । सूर्यदेव की गोद में चढ़े होने के कारण सूर्यदेव का प्रकाशित कुछ भाग हनुमान की छाया से ग्रसित हो गया और धरती पर अंधेरा छा गया ।

तभी आकाशचारी सिंही का पुत्र राहु चौंक पड़ा । उसने सोचा कि आज तो सूर्य को ग्रसने का समय नहीं है, फिर उसे किसने ग्रस लिया है ? वह तो मेरा भोजन है । ऐसा सोचकर वह सूर्यदेव के निकट पहुंचा और उसने हनुमान को सूर्य की गोद में देखा तो बौखला गया ।

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वह वहां से भागा-भागा देवराज इँद्र के पास पहुंचा और उनसे कहा, ”देवराज! आपने सूर्य और चद्र को मुझे अपनी भूख शांत करने के लिए दिया था । लेकिन मैं देख रहा हूं कि वहां एक विशाल वानर बालक सूर्य पर चढ़ा बैठा है ।” ”यह तुम क्या कह रहे हो ?” देवराज इंद्र चौंककर अपने आसन से उठ खड़े हुए । “मैं सत्य कह रहा हूं देवराज ! आपको यदि मेरा विश्वास न हो तो चलकर देख लीजिए ।” राहु ने उत्तर दिया ।

देवराज इंद्र तत्काल अपने ऐरावत पर सवार होकर सूर्यलोक पहुंचे तो उन्होंने हनुमान को सूर्य की गोद में चढ़कर फल खाते हुए देखा । उसी समय राहु ने हनुमान को ललकारा, ” ऐ वानर! कौन है तू ? क्या तुझे मेरा भी भय नहीं है ?” हनुमान ने राहु और इंद्र को अपने सामने देखा तो वह उछलकर उन्हें पकड़ने लपका । हनुमान के भयंकर वेग को देखकर इंद्र और राहु दोनों घबरा गए ।

घबराहट में ईद्र ने हनुमान की ओर अपना वज फेंका तो वह सीधा जाकर हनुमान के चेहरे से टकरा गया । उससे बालक की ठोड़ी टूट गई और वह घायल होकर धरती पर जा गिरा । सूर्यदेव ने उस बालक को नीचे गिरते देखकर ईद्र से कहा, ”देवराज! आपने यह क्या किया ? यह बालक पवनदेव का पुत्र है ।

आपने बिना सोचे-समझे इस नादान बालक पर अपना वज्र चला दिया । यह ठीक नहीं हुआ ।” ”सूर्यदेव! मैंने समझा कि यह कोई राक्षस है, जो आपको तंग कर रहा है ।” इंद्र ने अपनी सफाई दी, ”पर आप चिंता न करें । इसे कुछ नहीं होगा । इसकी हनु ठोड़ी पर वज्र का आघात लगा है । यह शीघ्र ठीक हो जाएगा और त्रिलोक में हनुमान के नाम से ख्याति प्राप्त करेगा ।”

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इतना कहकर देवराज वहां से अंतर्धान हो गए । दूसरी ओर वायुदेव ने जब अपने पुत्र को इँद्र के वज्र प्रहार से घायल होकर नीचे गिरते देखा तो उन्होंने उसे अपनी बांहों पर संभाल लिया और उसे लेकर वे एक बड़ी गुफा में प्रवेश कर गए ।

वहां पहुंचकर वायुदेव ने अपने आपको समेट लिया । इससे त्रिलोक का वायुमण्डल नष्ट हो गया । सभी जीवों को सांस तक लेने में कठिनाई होने लगी । सर्वत्र हाहाकार मच गया । किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि यह क्या हो रहा है ?

देवताओं और सभी प्राणियों की अवस्था देखकर देवराज इंद्र तत्काल समझ गए कि यह सब वायुदेव के कुपित होने की वजह से ही हो रहा है । यदि थोड़ी देर तक यही स्थिति रही तो सृष्टि का विनाश हो जाएगा । देवराज इंद्र तत्काल देवगण को साथ लेकर ब्रह्मा जी के पास पहुंचे और उनको पूरी बात बताई ।

देवराज इंद्र की बात सुनकर ब्रह्मा जी सोच में पड़ गए । कुछ पल चिंतन करने के उपरांत उन्होंने कहा, ”देवराज! तुमने बिना सोचे-समझे वज्र का अनुचित प्रयोग किया है । तुम जानते हो कि वायुदेव ही समस्त जीवों के प्राण हैं । उनको कुपित करके कोई भी जीव, जीवित नहीं रह सकता ।

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तुमने उन्हें कुपित किया है । अब तुम ही उन्हें प्रसन्न करो । अन्यथा विनाश हो जाएगा ।” ब्रह्मदेव की आज्ञा पाकर सभी देवगण और इंद्र गुफा में छिपे बैठे वायुदेव के पास पहुंचे । उस समय वे अपने अचेत पुत्र के जख्मों को साफ करके, वन की कुछ पत्तियों को पीसकर उसके जख्म पर उसका लेप कर रहे थे ।

सभी देवगण और देवराज इंद्र हाथ जोड़कर वहां चुपचाप खड़े हो गए और मन ही मन वायुदेव की स्तुति करने लगे । पहले तो उन्हें देखकर वायुदेव ने उपेक्षा से अपना मुंह फेर लिया, लेकिन जब उन्होंने अपनी स्तुति बंद नहीं की तो उन्होंने इंद्र की ओर देखा और रोष में कहा, ”तुम क्या समझते हो इंद्र; कि तुम्हारे वज प्रहार से मेरा…पुत्र मर जाएगा ?”

”हे पवनदेव!” इंद्र ने व्याकुल होकर कहा, ”जिस बालक में तुम्हारा अंश विद्यमान है और जिसने स्वयं श्रीहरि की इच्छा से जन्म लिया है उसे भला कौन मार सकता है । मुझसे अनजाने में तुम्हारे पुत्र के प्रति जो अपराध हुआ है उसके लिए मैं बहुत शर्मिदा हूं । मुझे खेद है कि मैं तुम्हारे पुत्र को पहचान नहीं सका । क्या मुझे क्षमा नहीं करोगे ?”

देवराज इंद्र की विनय भरी बातें सुनकर पवनदेव का क्रोध शांत हो गया और उन्होंने प्राण वायु को मुक्त कर दिया । प्राण वायु के मुक्त होते ही बालक हनुमान उठकर खड़ा हो गया और हैरानी से वहां खड़े देवगण को देखने लगा । देवराज इंद्र पर दृष्टि पड़ते ही बालक हनुमान क्रोध में भरकर इंद्र से बोला, ”तुमने ही मुझ पर प्रहार किया था ।

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तब मैं असावधान था । पर अब मैं तुम्हें युद्ध के लिए ललकारता हूं । आओ, मुझसे युद्ध करो ।” देवराज इंद्र सकपका गया और पवनदेव की ओर देखने लगा । तब पवनदेव ने अपने पुत्र को शांत करते हुए कहा, ”पुत्र; ये देवराज इंद्र हैं । भूलवश ये तुम पर प्रहार कर बैठे । अब उसी के लिए क्षमा याचना करने आए हैं ।”

बालक ने हाथ जोड़कर देवराज ईद्र को प्रणाम किया और कहा, ”आप मुझसे बडे हैं देवराज! आप मुझसे क्षमा मांगकर मुझे अपराधी न बनाएं । मैंने ही बालहठ में अपराध किया है जो नादानी में सूर्यदेव को फल समझ बैठा । मेरी इस धृष्टता के लिए आप मुझे क्षमा करें ।”

देवराज इंद्र ने मुस्कराकर पवन पुत्र को हृदय से लगा लिया और उसे अपने हाथों से एक गदा देकर कहा, ”वत्स! यह दिव्य गदा मेरे वज्र से भी अधिक शक्तिशाली है । यह मैं तुम्हें देता हूं । मेरे वज्र प्रहार को यह गदा निरस्त कर देगी और मेरे हाथ से छूटे वज्र से तुम्हारी हनु ठोड़ी टूट गई है, इसलिए आज के बाद तुम हनुमान के नाम से जाने जाओगे ।”

पवनदेव ने अन्य देवगण का परिचय हनुमान से कराया तो बालक हनुमान ने सभी को आदरपूर्वक प्रणाम किया । इस पर प्रसन्न होकर वहां अग्निदेव के रूप में प्रकट सूर्यदेव ने बालक हनुमान के सिर पर हाथ फेरकर कहा, ”वत्स! जब शास्त्रों के अध्ययन की तुम्हारी आयु आ जाएगी, तब सभी शास्त्रों का मैं तुम्हें अध्ययन कराऊंगा । तुम उत्तम कोटि के ज्ञानी और मनस्वी होंगे ।”

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वरुणदेव ने कहा ”वत्स । मेरे किसी पाश और जल से कभी तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी । तुम चिरंजीवी होंगे ।” यमराज ने कहा, ”वत्स! किसी भी संग्राम में कोई तुम्हें पराजित नहीं कर सकेगा । भगवान आशुतोष महादेव शिव ने मुझे निर्देश दिया है कि मैं तुम्हें सभी प्रकार के आयुधों से अवध्य होने का वरदान दूं । अत: मेरी छाया मृत्यु कभी तुम्हें स्पर्श नहीं कर पाएगी ।”

उसी समय ब्रह्मा जी ने वहाँ प्रकट होकर कहा, ”हे वायुदेव! तुम्हारा यह पुत्र देव कार्य के लिए धरती पर आया है । भगवान आशुतोष महादेव की जिस पर कृपा हो, श्रीहरि जिसके रक्षक हों, उसे कोई भी शत्रु हताहत नहीं कर सकता । यह बालक अपनी इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ होगा । इसकी गति अत्यंत तीव्र होगी । यह महान यशस्वी होगा ।”

सभी देवगण पवन पुत्र हनुमान को वर देकर अंतर्धान हो गए । पवनदेव हनुमान को लेकर अंजना के पास आए और उसे सारी बातें बताकर चले गए । ‘शिव महापुराण’ में हनुमान जी को शिव का पुत्र कहा गया है । वहां कहा गया है कि एक बार भगवान विष्णु के मोहिनी रूप को देखकर भगवान शकर कामासक्त हो गए थे । तब उनका शक्तिपात हो गया ।

ऋषियों ने उस शक्ति को पत्ते पर रखकर गौतमी पुत्री अंजना के गर्भ में स्थापित कर दिया । तब शंकर भगवान की शक्ति से ही हनुमान का जन्म हुआ था और सूर्य को फल समझकर ग्रहण करने तथा इंद्र द्वारा वज प्रहार करने से ही उनका नाम हनुमान पड़ा था । बाद में सूर्यदेव ने ही हनुमान को सभी शास्त्रों की शिक्षा प्रदान की थी ।

बालक हनुमान का उत्पात और ऋषियों का शाप:

देवताओं से वर प्राप्त करके बालक हनुमान और भी अधिक शक्तिशाली हो गए । अपने साथी वानरों के साथ वे वन में रहने वाले ऋषि-मुनियों के आश्रमों में जाकर खूब उत्पात मचाने लगे । वे उनके सूखने के लिए डाले गए वस्त्रों को फाड़ डालते, उनकी यज्ञ सामग्री को बिखेर देते, मालाओं को तोड़ डालते और उनके द्वारा एकत्र किए फलों को उठाकर ले जाते ।

हनुमान और उनकी वानर सेना से ऋषि-मुनि बहुत परेशान रहते थे, पर वायु पुत्र होने के कारण वे उनसे कुछ कहते भी नहीं थे । उनकी सभी शैतानियों और उत्पातों को वे चुपचाप सहन कर लेते थे । परंतु एक दिन जब हनुमान जी ने भूगु ऋषि के वंशज एक महर्षि की ताम्रपत्रों पर लिखी पोथी को फाड़ डाला तो उन्हें बहुत क्रोध आया ।

उन्होंने हनुमान को शाप दिया, ”अरे मूर्ख वानर! तू जिस बल पर इतना इतरा रहा है, उसे तू भूल जाएगा और तुझे यह तब तक याद नहीं आएगा, जब तक कोई नेरी शक्ति का तुझे स्मरण नहीं कराएगा । आज के बाद तेरी सारी उछल-कूद बंद हो जाएगी ।”

हनुमान ने महर्षि की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया । पर दूसरे दिन से उसने देखा कि उसकी सारी गतिविधियां शांत हो गई हैं । उछल-कूद करने का उसका मन ही नहीं करता था । वह चुपचाप जाकर ऋषियों के आश्रम में बैठ जाता और उनके गाए मंत्रों को सुनता रहता ।

वे ऋषि अपने बच्चों और शिष्यों को शास्त्रों का अध्ययन कराते तो वह भी सूर्योदय के समय उनके पास जाकर बैठ जाता और सूर्यास्त होने के उपरांत ही अपने घर वापस लौटता । धीरे-धीरे हनुमान युवा हो गए । उनके चेहरे और शरीर पर एक अजीब सी आभा दिखाई देने लगी । वह ऋषियों को सूर्योपासना करते हुए देखा करता था, तो उसने भी सूर्य को जल देना प्रारंभ कर दिया ।

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उसके माता-पिता उसमें यह परिवर्तन देख रहे थे । परंतु उसे आयु का प्रभाव जानकर वे उससे कुछ कहते नहीं थे । एक रात हनुमान ने स्वप्न में सूर्यदेव को देखा । वे उससे कह रहे थे, ”केसरी नंदन! उठो और किष्किंधा पर जाओ । वहां महाबली बाली और सुग्रीव नाम के दो वानर राज्य करते हैं ।

सुग्रीव बाली का छोटा भाई है । वह अपने भाई से भयभीत रहता है । उसे एक अच्छे मित्र की जरूरत है । तुम उसके पास जाकर मित्रता करो । शीघ्र ही अयोध्या के दो राजकुमार श्रीराम और लक्ष्मण वहां आने वाले हैं । उन्हें तुम्हारी सहायता की जरूरत पड़ेगी । श्रीराम की सहायता के लिए ही इस धरती पर तुम्हारा जन्म हुआ है । वे श्रीहरि के अवतार पूर्ण ब्रह्म हैं ।”

प्रात: काल होने से कुछ पहले ही हनुमान ने यह सपना देखा था । उसकी उत्सुकता बढ़ गई । उसने अपने स्वप्न की बात अपनी माता और पिता को बताई तो वानरराज केसरी ने कहा, ”पुत्र! प्रातःकाल का स्वप्न सच्चा होता है । वानरराज बाली को मैं अच्छी तरह से जानता हूं । मैं प्राय: उनके दरबार में जाता रहता हूं । इस बार मैं तुम्हें भी वहां ले चलूंगा । वह मेरा मित्र है ।”

हनुमान अपने पिता की बात से संतुष्ट हो गए । लेकिन अब हर समय वे श्रीराम के बारे में ही सोचने लगे । कौन हैं वे वन में वे किसलिए आ रहे हैं ? उन्हें मेरी सहायता की जरूरत क्यों पड़ेगी धीरे-धीरे श्रीराम की एक भव्य आकृति उनके मन-मस्तिष्क पर छा गई और वे हर समय उन्हीं का चिंतन करने लगे ।

तभी एक दिन वानरराज केसरी हनुमान को अपने साथ लेकर किष्किंधा नगरी की ओर चले गए । वहां जाकर उन्हें पता चला कि सुग्रीव भारी संकट में है और इन दिनों वह अपने कुछ साथियों के साथ ऋष्यमूक पर्वत पर रह रहा है । बाली ने उसे राज्य से निकाल दिया है । ऋष्यमूक पर्वत पर बाली नहीं जा सकता है, इसीलिए वह वहां रह रहा है । वानरराज केसरी हनुमान को लेकर वहां पहुंचे ।

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