हनुमान की भक्ति और महिमा | The Devotion and Fame of Hanuman!

शुभ मुहूर्त में प्रभु श्रीराम का राजतिलक किया गया । अयोध्या के राजसिंहासन पर प्रभु श्रीराम, सीता जी और उनके पास खड़े लक्ष्मण, भरत और शत्रुप्न को देखकर सभी अयोध्यावासी और प्रभु के साथ आए अतिथि आनंद और हर्ष से झूम उठे ।

उन्हें तरह-तरह के बहुमूल्य उपहार प्राप्त हुए । ऋषि-महर्षियों ने उन्हें आशीर्वाद दिया और नगरवासियों ने उनके लिए मगल गान किया । पूरी अयोध्या इस अवसर पर भव्य रूप से सजाई गई थी और सभी को राज्य की ओर से उपहार वितरित किए गए थे ।

अंत में प्रभु ने अपने अत्यत निकट सभी अतिथियों का सम्मान किया । युवराज अंगद, लंकेश विभीषण, वानरराज सुग्रीव, ऋक्षराज जाम्बवत, निषादराज गुह, नल, नील आदि को विविध बहुमूल्य उपहार प्रदान किए गए । मुनियों और ब्राह्मणों को भरपूर दान दिया और उन्हें प्रत्येक रीति से प्रसन्न किया । उसी समयप्रभु श्रीराम ने महारानी सीता के गले में एक बहुमूल्य मुक्ताहार पहनाया ।

उस समय सीता जी ने देखा कि प्रभु ने सभी को कुछ न कुछ दिया पर पवनपुत्र हनुमान जी को अभी तक कुछ नहीं दिया । हनुमान जी तो चुपचाप प्रभु के श्री चरणों में बैठे उन्हें ही देख रहे थे । उन्होंने एक बार भी सिर उठाकर नहीं देखा था कि प्रभु किसको क्या दे रहे हैं ।

तभी सीता जी ने अपने गले से प्रभु का दिया मुक्ताहार निकाला और प्रभु की ओर देखा । प्रभु ने उनका आशय समझकर कहा, ”सीते तुम जिसे चाहो, इसे दे दो ।” अपने स्वामी का आदेश पाते ही सीता जी ने वह मुक्ताहार पवन पुत्र हनुमान जी को दे दिया ।

उस बहुमूल्य हार के गले में पड़ते ही हनुमान जी के कठ की शोभा बढ़ गई । हनुमान जी ने सोचा कि माता सीता ने यह हार उन्हें प्रदान किया है तो इसमें अवश्य ही कुछ विशेषता होगी । ऐसा सोचकर हनुमान जी ने उस मुक्ताहार को अपने गले से उतारा और उसे ध्यान से देखना प्रारंभ कर दिया । परंतु उसमें उन्हें कोई विशेषता दिखाई नहीं दी ।

उन्होंने सोचा कि संभवत इन मुक्ताओं के भीतर प्रभु विराजमान हों । ऐसा सोचकर उन्होंने मोती के दानों को अपने मुख में डालकर दांतों से तोड़-तोड़कर देखना शुरू कर दिया । जब उनके भीतर उन्हें प्रभु श्रीराम और माता सीता की छवि दिखाई नहीं दी तो उन्होंने उन्हें फेंकना शुरू कर दिया ।

ADVERTISEMENTS:

यह दृश्य देखकर सभी आश्चर्य से हनुमान जी की ओर देखने लगे कि ये क्या कर रहे हैं ? इतने बहुमूल्य मुक्ताहार के दानों को वे अपने दांतों से तोड़कर देखते हैं और फेंक देते हैं । सभी सभासदों का धैर्य जाता रहा । लोग कानाफूसी करने लगे, ”बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद ! इतना बहुमूल्य उपहार है ये, पर ये हनुमान जी तो इसे तोड़े डाल रहे हैं ।”

तब विभीषण जी ने अधीर होकर हनुमान जी से पूछा, ”हे पवनपुत्र ! आप यह क्या कर रहे हैं ? इतने बहुमूल्य मुक्ताहार को आपने नष्ट कर डाला ।” हनुमान जी बोले, ”लंकेश्वर ! इस हार का मेरे लिए भला क्या मोल है ? जबकि मेरे प्रभु श्रीराम और माता सीता की छवि इन दानों में है ही नहीं । मैं इन दानों को तोड़कर यह देख रहा हूँ कि क्या इनके भीतर इनकी छवि विद्यमान है ।

पर इनके अंदर भी वह छवि नहीं है । इसलिए मेरे लिए ये व्यर्थ हैं । तभी मैं इन्हें फेंक रहा हूं ।” हनुमान की बात सुनकर विभीषण क्षुब्ध हो उठे और बोले, ”अगर इन अमूल्य मोतियों में प्रभु की झांकी नहीं है तो क्या आपके हृदय में है ?”

हनुमान जी ने तत्काल उत्तर दिया, ”लंकेश्वर ! मेरे प्रभु निश्चय ही मेरे हृदय में विराजते हैं । यदि वे नहीं हैं, तो इस शरीर का भी कोई मूल्य नहीं है । मैं इसे तत्काल नष्ट कर दूंगा ।” ”ऐसी बात है तो फिर हमें प्रभु के दर्शन अपने हृदय में कराओ पवनपुत्र !” दरबार में चारों ओर से आवाजें आनी प्रारंभ हो गई ।

उनकी बातें सुनकर हनुमान जी ने अपने दोनों हाथों के नाखूनों से अपना सीना चीर दिया और उच्च स्वर से कहा, ”जय श्रीराम !” घोर आश्चर्य के साथ सारी सभा ने आखें फाड़-फाड़कर देखा कि प्रभु श्रीराम सीता जी सहित उनके हृदय में सिंहासन पर विराजमान हैं । लंकेश्वर विभीषण घोर ग्लानि में डूब गए । उसी समय पूरी सभा ‘जय श्रीराम’ ‘जय रामभक्त हनुमान’ के नारों से गूंज उठी ।

भगवान श्रीराम तत्काल अपने सिंहासन से उतरे और उन्होंने आगे बढ्‌कर हनुमान जी को अपने हृदय से लगा लिया । उनकी आखों से प्रेमाश्रु उमड़कर हनुमान जी के शीश को भिगोने लगे । वे बोले, ”वत्स हनुमान ! तुमसे बढ्‌कर इस संसार में मेरा कोई अन्य भक्त नहीं है । तुम मुझे भरत, शत्रुप्न और लक्ष्मण से भी अधिक प्रिय हो ।”

प्रभु श्रीराम के कर स्पर्श से हनुमान जी का शरीर पहले जैसा ही स्वस्थ और सुदृढ़ हो गया । पूरी राजसभा ने हृदय से स्वीकार किया कि हनुमान जी श्रीराम और महारानी सीता के अनन्य भक्त हैं । वे पूरी तरह से राममय हैं ।

तदुपरांत कुछ दिन अयोध्या निवास करके प्रभु श्रीराम की आज्ञा से लंकेश्वर विभीषण, वानरराज सुग्रीव, युवराज अंगद, ऋक्षराज जाम्बवंत, नल, नील, निषादराज गुह व अन्य अतिथिगण अपने-अपने स्थान को चले गए । वानरराज सुग्रीव और उनकी महारानियां तथा अन्य वानर, लंकेश्वर विभीषण के साथ ही किष्किंधा नगरी के लिए पुष्पक विमान से गए ।

परंतु हनुमान जी वहां से नहीं गए । उन्होंने श्रीराम के चरणों में रहकर ही जीवन व्यतीत करने तथा उनकी सेवा करने का व्रत लिया था । उसे प्रभु श्रीराम को स्वीकार करना ही पड़ा । हनुमान जी ने प्रभु श्रीराम से प्रार्थना की, ”स्वामी ! इस संसार में जब तक और जहां भी आपकी पावन कथा का प्रचार होगा, तब तक और वहां-वहां मैं आपके आदेशों का पालन करते हुए इस पृथ्वी पर रहना चाहता हूं ।”

ADVERTISEMENTS:

हनुमान जी की बात सुनकर प्रभु श्रीराम ने मुस्कराकर उन्हें आशीर्वाद दिया और कहा, ”तथास्तु ! ऐसा ही होगा पवनपुत्र! तुम सदैव इस धरती पर रहोगे और मेरे साथ ही रहोगे ।” श्रीरामचरित मानस में संत तुलसीदास ने एक जगह कहा है:

हनुमान सम नहिं बड़भागी । नहिं कोउ रामचरन अनुरागी । गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई । बार-बार प्रभु निज मुख गाई ।। -(उत्तरकाण्ड, दोहा-49, चौपाई- 3/5)

हनुमाव जी की चुटकी:

जगजननी माता सीता जी से हनुमान जी जरा भी संकोच नहीं करते थे । एक बार उन्होंने माता सीता से पूछा, ”माते आपने अपनी मांग में यह सिंदूर क्यों लगाया हुआ है ?” सीता जी ने हंसते हुए कहा, ”इस सिंदूर के लगाने से तुम्हारे स्वामी प्रभु श्रीराम की आयु-वृद्धि होती है ।”

हनुमान जी सोच में पड़ गए । सीता जी ने मुस्कराकर पूछा, ”वत्स ! क्या सोचने लगे ?” ”कुछ नहीं माता श्री !” हनुमान जी ने उन्हें प्रणाम किया और अपने निवास पर आ गए । वही आकर उन्होंने अपने सारे शरीर पर तेल लगाया और सिंदूर से अपना सारा शरीर पोत लिया ।

ADVERTISEMENTS:

उसके बाद वे सीधे भगवान श्रीराम के पास दरबार में जा पहुंचे । उन्हें देखकर सभी ठहाका मारकर हंसने लगे । श्रीराम ने हनुमान जी से पूछा, ”पवनपुत्र ! तुमने यह क्या रूप बनाया है ?” हनुमान जी ने कहा, ”स्वामी ! माता सीता ने अपनी मांग में सिंदूर लगाया हुआ है ।

मैंने उनसे पूछा था कि उन्होंने वह सिंदूर क्यों लगाया है तो उन्होंने मुझे बताया कि इससे स्वामी की आयु बढ़ती है । इसीलिए मैंने भी अपने सारे शरीर पर सिंदूर लेप लिया । यह सोचकर कि उनके जरा से सिंदूर लगाने से जब आपकी आयु बढ़ती है तो मेरे द्वारा सारे शरीर पर सिंदूर लगाने से मेरे स्वामी अर्थात आपकी आयु बहुत लंबी हो जाएगी ।”

हनुमान जी के सरल स्वभाव और उत्तर को सुनकर सारे दरबारी चकित रह गए । प्रभु श्रीराम ने मुस्कराकर कहा, ”आज मंगलवार का दिन है । आज के दिन जो लोग मेरे भक्त प्रिय हनुमान के शरीर पर सिंदूर का लेप करेंगे, उन्हें मेरा प्रेम अवश्य प्राप्त होगा और उनकी सभी मनोकामनाओं की पूर्ति होगी ।”

पवनपुत्र हनुमान जी ने प्रभु के चरण पकड़ लिए और अपने प्रेमाश्रुओं से उन्हें भिगोने लगे । प्रभु श्रीराम ने सिंहासन से उठकर हनुमान जी को अपने हृदय से लगा लिया । वे बोले, ”वत्स हनुमान ! मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हू । मैं नहीं जानता कि मैं किस प्रकार तुम्हारा प्रिय करूँ, जिससे तुम्हें सुख और शांति प्राप्त हो ।”

ADVERTISEMENTS:

हनुमान जी ने कहा, ”प्रभो ! मैं तो निरंतर आपकी सेवा में रहना चाहता हूं । आपकी सेवा करके ही मुझे सुख-शांति प्राप्त होती है । मैं तो हरदम उस पल की प्रतीक्षा किया करता हूं कि आप मुझे कोई सेवा का अवसर प्रदान करें ।

परंतु यहाँ आकर तो मैं देखता हू कि मेरे लिए जैसे कोई काम ही नहीं है । आप जो भी काम बताते हैं, वह या तो राजकर्मचारियों को बताते हैं या फिर प्रिय भरत, लक्ष्मण और शत्रुप्न को ही बताते हैं । मेरा तो अवसर ही नहीं आता ।

मैं किस प्रकार आपकी सेवा करूँ । इसी कारण मेरा मन सदैव उद्विग्न रहता है । मेरी माता सीता जी भी मुझे कोई काम नहीं बताती । मैं सारे दिन, सारी रात खाली बैठा रहता हूं । ऊपर से प्रिय भरत, लक्ष्मण और शत्रुप्न आज माताश्री से कह रहे थे कि सारी सेवा मैं ही करता हूँ । उन्हें तो सेवा का कोई अवसर ही प्राप्त नहीं होता ।

इस पर माताश्री ने भी यही कहा कि मेरे कारण उन्हें भी प्रभु की सेवा का अवसर नहीं मिल पाता । क्योंकि मैं हर समय आपके सामने हाथ जोड़े खड़ा रहता हूं ।” ”हां! यह तो विचारणीय विषय है वत्स!” श्रीराम मुस्कराकर बोले, ”हम ऐसा करते हैं कि आज हम सीता से विचार-विमर्श करके शथ्या त्याग से पुन: शथ्या तक जाने के काल तक की एक सेवा तालिका बना लेते हैं ।

ADVERTISEMENTS:

उन सेवाओं को हम सभी के बीच में बाट देंगे । ताकि किसी को भी कुछ प्रतिवाद करने का अवसर न मिले । क्यों हनुमान! ठीक रहेगा न ?” ”जैसी प्रभु की इच्छा!” हनुमान जी हाथ जोड़कर बोले, ”आप मुझे जो भी सेवा का अवसर देंगे, उसे मैं प्राण-प्रण से पूरा करूंगा ।”

रात्रि में, प्रभु श्रीराम ने सीता जी से विचार-विमर्श करके एक तालिका बना ली । लेकिन उसमें प्रिय हनुमान का कहीं नाम नहीं था । दूसरे दिन उस तालिका पर प्रभु ने हस्ताक्षर करके राजमुद्रा लगाई और सभी भाइयों और राजकर्मचारियों में वितरित कर दी ।

हनुमान जी उस तालिका से पूरी तरह अनभिज्ञ थे । राजदरबार में प्रभु के उपस्थित होते ही हनुमान जी जब प्रभु की चरण सेवा के लिए आगे बढे तो भरत, लक्ष्मण और शत्रुप्न ने उन्हें रोक दिया और कहा कि प्रभु ने सेवा तालिका बना दी है और सभी को काम बांट दिया गया है ।

इस तालिका में तुम्हारा नाम कहीं नहीं है । इसलिए तुम प्रभु की सेवा से अलग ही रहो । हां ! इसके अलावा कोई सेवा तुम्हारी दृष्टि में हो तो तुम वह कर सकते हो । हनुमान जी ने कुछ पल सोचा और बोले, ”इस तालिका में भगवान श्रीराम को जंभाई आने पर चुटकी बजाने की सेवा का उल्लेख नहीं है ।

यदि आप कहें तो मैं वही सेवा ग्रहण कर लूं ? प्रभु को जब जंभाई आएगी मैं चुटकी बजाया करूंगा ।” ”ठीक है!” लक्ष्मण ने कहा, ”तुम यह सेवा कर लो ।” ”फिर मेरी इस सेवा पर भी प्रभु के हस्ताक्षर और राजमुद्रा लग जानी चाहिए ।” हनुमान जी ने कहा ।

इसमें किसी ने भी आपत्ति नहीं की और प्रभु से उस तालिका में हनुमान द्वारा उनके जंभाई आने पर चुटकी बजाने की प्रार्थना स्वीकार करा ली गई । तब हनुमान जी प्रभु के सामने वीरासन की मुद्रा में चुटकी तानकर बैठ गए और प्रभु का मुख देखने लगे । पता नहीं प्रभु को कब जंभाई आ जाए, इसलिए उन्हें हरदम सावधान रहना था ।

प्रभु राजकाज पूरा करके उठे तो हनुमान जी भी उनके साथ उठ लिए । वे चले तो हनुमान जी भी चुटकी ताने उनकी ओर देखते हुए चल पड़े । प्रभु रनिवास में जाकर बैठे तो वे भी उनके सामने बैठ गए । वे हर पल, हर घड़ी प्रभु का मुखारविन्द निहारते रहते थे ।

पता नहीं प्रभु को कब जंभाई आ जाए और उन्हें चुटकी बजानी पड़ जाए । उन्हें तो बस अपनी सेवा की ही चिंता थी । प्रभु के भोजन के समय भी वे वहीं पर खड़े रहे और एकटक अपने प्रभु का मुख देखते रहे । प्रभु श्रीराम अपने प्रिय हनुमान की चतुराई को मन ही मन समझ रहे थे । पर वे कुछ बोल नहीं रहे थे ।

परंतु हर समय प्रभु के सामने हनुमान जी को खड़ा देखकर देवी सीता, भरत, लक्ष्मण और शत्रुप्न बहुत परेशान थे कि उन्होंने हनुमान जी की यह बात क्यों मान ली । रात्रि आई और प्रभु शयन के लिए अपने शयनकक्ष में जाकर शथ्या पर लेट गए तो हनुमान जी पास ही चुटकी ताने खड़े हो गए ।

आधी रात आने पर देवी सीता ने उन्हें बाहर जाने के लिए कहा तो उन्होंने अपनी सेवा की बात बताई । सीता जी ने समझा-बुझाकर हनुमान जी को वहां से भेज दिया । अब हनुमान जी क्या करे ? प्रभु को जंभाई आने का कोई समय तो निश्चित है नहीं ।

यदि उनके पीछे प्रभु को जंभाई आ गई तो वे अपनी सेवा से वंचित हो जाएंगे और उन्हें इस प्रकार पाप का भागी होना पड़ेगा । ऐसा सोचकर हनुमान जी शयनागार के पास एक ऊंचे छज्जे पर जा बैठे और प्रभु का नाम लेते हुए चुटकी बजाने लगे । उनकी चुटकी बजती रही और वे अपनी भूख-प्यास, निद्रा सब कुछ भूल गए ।

अब जब हनुमान जी की चुटकी बजने लगी तो वचन के अनुसार प्रभु को जंभाई भी आनी थी । उन्हें जंभाई आने लगी । प्रभु की जंभाई अनवरत हनुमान जी की चुटकी के साथ चलती रही । इस दशा को देखकर सीता जी घबरा गईं । लगातार जंभाई लेने से प्रभु का मुख खुला का खुला रह गया ।

”अरे ! यह क्या हो गया ?” सीता जी घबराकर माता कौशल्या के पास भागी-भागी गई और उन्हें बुलाकर लाईं । श्रीराम की यह दशा देखकर माता कौशल्या भी विचलित हो उठीं । एक-एक करके वहां सारे परिजन एकत्र हो गए । भरत, लक्ष्मण, शत्रुप्न, उनकी माताएं और पत्नियां भी दौड़ी-दौड़ी चली आईं ।

तत्काल वसिष्ठ जी को सूचना भेजी गई और राजवैद्य को बुलाया गया । प्रभु का मुख ज्यों का त्यों खुला ही रह गया था । उन्हें औषधियां दी गईं, पर उनके उपचार से कुछ भी लाभ नहीं हुआ । उधर हनुमान जी इन सभी बातों से बेखबर होकर पूरे आनंद के साथ प्रभु का नाम लेते जाते थे और चुटकियां बजा रहे थे । तभी वसिष्ठ जी ने पूछा, ”हनुमान जी कहां हैं ?”

तब सीता जी ने रोते हए कहा, ”प्रभो ! हनुमान जी के साथ बड़ा अन्याय हुआ है । उनकी सारी सेवाएं छीन ली गई थीं । तब उन्हें मांगने पर प्रभु ने जंभाई लेने पर चुटकी बजाने की सेवा दी गई । मैंने रात्रि होने पर उन्हें प्रभु के कक्ष से निकाल दिया । अब वे कहीं भूखे-प्यासे प्रभु के स्मरण में विकल होकर चुटकी बजा रहे होंगे ।”

सीता जी की बात सुनकर वसिष्ठ जी तत्काल हनुमान जी को खोजने निकल पड़े । उन्होंने शयनागार के बाहर एक ऊंचे छज्जे पर बैठे हनुमान जी को कीर्तन करते और चुटकी बजाते देखा तो उन्होंने उन्हें हिलाकर सचेत किया ।

हनुमान जी ने वसिष्ठ जी को देखकर उनके चरण छुए और उनके आग्रह पर प्रभु श्रीराम के शयनकक्ष में आए । वहां उन्होंने प्रभु का खुला मुख और आखों से अश्रु बहते देखे तो व्याकुल होकर उन्होंने चुटकी बजाना बद कर दिया और वे प्रभु के चरणों में गिरने के लिए दौड़ पड़े ।

हनुमान जी के चुटकी बजाना बद करते ही प्रभु का मुख बंद हो गया और उन्होंने स्नेह से हनुमान के सिर पर हाथ फेरा । अब हनुमान जी और प्रभु दोनों ही सिसकियां ले-लेकर रो रहे थे । उनकी दशा देखकर सीता जी बोलीं, ”पुत्र हनुमान ! आज के बाद प्रभु की सभी सेवाएं तुम्हीं किया करोगे । तुम्हारी सेवा में कोई भी किसी प्रकार का दखल नहीं देगा ।”

हनुमान जी ने माता के चरणों में अपना सिर रख दिया और अपने अश्रुओं से उनके चरणों का प्रक्षालन कर दिया । सीता जी ने स्नेह से हनुमान जी के सिर पर हाथ फेरा । सभी उस दृश्य को देखकर अभिभूत हो गए । सभी ने देखा कि प्रभु श्रीराम अब मंद-मंद मुस्करा रहे थे । रात्रि अधिक व्यतीत हो गई थी । भोर होने को थी । उसके बाद सभी ने प्रभु के कक्ष से विदा ली ।

हनुमान द्वारा काशी नरेश की प्राण रक्षा:

एक बार हनुमान जी प्रभु श्रीराम से आज्ञा लेकर अपनी माता अंजना के पास आए हुए थे । उन्हीं दिनों काशी नरेश भगवान श्रीराम के दर्शन करने अयोध्या आ रहे थे । मार्ग में उन्हें नारद जी मिल गए । नारद जी को दो प्रेमियों अर्थात भक्त और भगवान को आपस में लड़ाने में बड़ा आनंद आता था ।

उन्होंने काशी नरेश से कहा कि जब वे प्रभु श्रीराम के दरबार में जाएं तो वहां सभी को प्रणाम करना, पर प्रभु के पास बैठे विश्वामित्र की उपेक्षा कर देना । काशी नरेश ने पूछा कि ऐसा क्यों ? इस पर नारद जी ने उन्हें समझा दिया कि इसका भेद वे बाद में उन्हें बताएंगे । काशी नरेश नारद जी का बड़ा मान करते थे । उन्होंने उनकी बात मान ली ।

काशी नरेश प्रभु श्रीराम के राजदरबार में पहुंचे और उन्होंने सभी को प्रणाम किया, पर विश्वामित्र की उपेक्षा कर दी । जब वे वहां से चले आए तो विश्वामित्र ने राम से कहा कि इस काशी नरेश ने उन्हें प्रणाम न करके उनका अपमान किया है । तुम्हारे राज्य में मेरा ऐसा अपमान हो और तुम चुप रहो, क्या यह उचित है ?

श्रीराम ने कहा, ”गुरुदेव ! यह आपका अपमान नहीं मेरा और मेरे राज्य का अपमान है । मैं आपको वचन देता हूं कि आज शाम तक मैं अपने तीन अक्षय बाणों से काशी नरेश का वध कर दूंगा ।” काशी नरेश ने जब श्रीराम की यह प्रतिज्ञा सुनी तो वे विचलित हो उठे ।

क्योंकि वे जानते थे कि रघुवंशी अपने वचन के पक्के होते हैं । वे तत्काल नारद जी के पास गए और कहने लगे कि उन्होंने तो उनके कहने पर ही ऐसा किया था । पर अब तो उनके प्राणों पर बन आई है । उन्होंने श्रीराम की प्रतिज्ञा के बारे में बताया ।

नारद जी ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा कि उन्हें कुछ नहीं होगा । वे सीधे अंजना जी के पास चले जाएं और जब तक वे वचन न दे दें, तब तक उनके पैर न छोड़ना । काशी नरेश भागे-भागे तपस्विनी अंजना के पास पहुंचे और उनसे बोले, ”मां मेरी रक्षा करो । एक समर्थ व्यक्ति आज शाम तक मेरे प्राण ले लेगा । अब आप ही मुझे उससे बचा सकती हैं ।”

”कौन है वह समर्थ व्यक्ति?” अंजना ने पूछा और कहा, ”मेरा पुत्र हनुमान तुम्हारे प्राणों की रक्षा करेगा । वह चाहे जो भी हो । मैं तुम्हें वचन देती हूं । तुम मुझे उसका नाम बताओ ।” ”माते हनुमान जी भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते । वह बहुत शक्तिशाली है ।” काशी नरेश ने कहा ।

उसी समय हनुमान जी ने वहाँ प्रवेश किया और कहा, ”काशी नरेश ! तुम चिंता मत करो । मेरी मां ने यदि तुम्हारे प्राणों की रक्षा का वचन दिया है तो मैं भी तुम्हें वचन देता हूँ कि स्वयं यमराज भी क्यों न सामने आ जाए मैं तुम्हारे प्राणों की रक्षा करुंगा ।”

काशी नरेश हनुमान और माता अंजना के वचनों को पाकर आश्वस्त होकर बोले,  ”लेकिन पवनपुत्र! इस बार तुम्हें मेरे प्राणों की रक्षा अपने आराध्य श्रीराम से करनी होगी ।” उन्होंने सारी बात हनुमान जी को बता दी । प्रभु श्रीराम का नाम सुनकर हनुमान जी सोच में पड़ गए । पर तत्काल बोले, “मैं अपनी माता के वचन की रक्षा में अपने प्राणों को भी न्योछावर कर सकता हूं काशी नरेश ! तुम विचलित मत हो । तुम्हारे प्राणों की रक्षा अवश्य की जाएगी ।”

उसके बाद हनुमान जी काशी नरेश को साथ लेकर अयोध्या चले आए और उन्हें सरयू के जल में खड़ा करके बोले, ”काशीराज ! तुम्हें आज रात होने तक निरंतर प्रभु श्रीराम सीता के नामों का जाप करना है । कैसी भी विपत्ति सामने आए तुम जाप करना बद मत करना । मैं तुम्हारी रक्षा के लिए यहां उपस्थित रहूंगा । पर अभी मुझे कुछ देर के लिए प्रभु के पास जाना है ।”

ऐसा उसे समझाकर हनुमान जी प्रभु श्रीराम के पास आए और उनसे कहा, ”प्रभो ! मैं चाहता हूं कि जहां कहीं भी आपके नाम का जाप हो रहा है, मैं उसके प्राणों की रक्षा करूं । चाहे स्वयं विधाता ही क्यों न आ जाएं मुझे कोई भी उसके प्राणों की रक्षा से न रोक सके और उनके मारक अस्त्र उस राम नाम का जप करने वाले के पास पहुंचकर निरर्थक हो जाए ।”

श्रीराम ने मुस्कराकर हनुमान जी को वचन दिया कि ऐसा ही होगा । तुम उसकी रक्षा करने में पूरी तरह समर्थ रहोगे । यह मेरा आशीर्वाद है तुम्हें । हनुमान प्रसन्न होकर वहाँ से चले आए और अपनी भारी गदा लेकर सरयू के तट पर उस जगह खड़े हो गए जहां काशीराज प्रभु के नाम का जप कर रहे थे । भीतर ही भीतर वे भयभीत भी थे ।

परंतु हनुमान जी को देखकर उनका उत्साह दूना हो रहा था । वे प्राणों के भय से अनवरत रूप से ‘राम-राम, जै राम, सीता राम’ का जाप किए जा रहे थे । यह बात पूरी अयोध्या में फैल गई कि प्रभु श्रीराम आज सायंकाल तक काशीराज का वध करेंगे और हनुमान जी उनकी रक्षा करेंगे । अयोध्या के नर-नारी, युवा और बाल, वृद्ध सरयू के तट पर एकत्र होने लगे ।

सायंकाल होने पर प्रभु श्रीराम को काशीराज का समाचार मिला तो कुपित होकर उन्होंने अपने तरकश में से तीन बाण निकाल लिए और पहला बाण धनुष पर चढ़ाकर और प्रत्यंचा खींचकर छोड़ दिया । वह बाण तीव्र गति से काशीराज के पास पहुंचा, पर संधान नहीं कर सका । क्योंकि राम नाम क्य जप करने वाले की रक्षा का भार स्वयं प्रभु श्रीराम ने हनुमान जी को दिया हुआ था ।

अंतत: बाण वापस लौट आया और तरकश में समा गया । यह देखकर प्रभु श्रीराम का क्रोध और बढ़ गया । उन्होंने दूसरा बाण छोड़ा । परंतु हनुमान जी के आदेशानुसार काशीराज और भी जोर-जोर से प्रभु के नाम का जाप करने लगे । इसलिए वह भी संधान किए बिना वापस लौट गया और तरकश में समा गया ।

अपने वचन को पूरा होते न देखकर प्रभु श्रीराम और अधिक क्रोधित हो उठे । इस बार वे तीसरे बाण को धनुष पर चक्‌कर स्वयं ही सरयू के तट पर जा पहुंचे । उन्हें आग देखकर हनुमान जी ने काशीराज से कहा, ”हे राजन ! डरो मत । भगवान कभी अपने भक्त क्य विनाश नहीं कर सकते ।

तुम माता भगवती सीता और प्रभु श्रीराम के नाम के साथ-साथ, इस बार मेरे नाम का भी जाप प्रारंभ कर दो और प्रभु जैसे ही सामने आएं तुम देखकर उनके साथ आने वाले ऋषि विश्वामित्र के चरण पकड़ लेना और अपना जाप एक पल के लिए भी न तोड़ना ।”

प्रभु श्रीराम धनुष पर बाण चढ़ाए अपने कुलगुरु वसिष्ठ और शस्त्र गुरु विश्वामित्र जी के साथ वहां पहुंचे, तो काशीराज ने दौड़कर विश्वामित्र जी के चरण पकड़ लिए और ‘जय सिया राम, जय हनुमान’ का जाप करते रहे ।

विश्वामित्र काशीराज की दशा देखकर द्रवित हो गए । उन्होंने प्रभु श्रीराम से कहा, ”रोम! काशी नरेश ने अपने अपराध का प्रायश्चित कर लिया है । मैंने इन्हें क्षमा कर दिया है । आप भी इन्हें क्षमा कर दें और बाण को उतारकर तरकश में रख लें ।”

महर्षि के संतुष्ट हो जाने पर प्रभु श्रीराम का क्रोध भी शांत हो गया । उन्होंने गुरु विश्वामित्र की आज्ञा का पालन करते हुए काशीराज को क्षमा कर दिया । अपने भक्त हनुमान की विजय होते देख, प्रभु श्रीराम मुस्करा दिए । माता अंजना को भी प्रसन्नता हुई कि उनके वचन की लाज बच गई । वे वापस अपने आश्रम में लौट गईं और हनुमान जी प्रभु की सेवा में जा पहुंचे ।

भगवान श्रीराम द्वारा हनुमान जी की प्रशंसा करना:

कुछ समय बाद भगवान श्रीराम ने अश्वमेध-यज्ञ करने का सकल्प किया । महर्षि वसिष्ठ जी ने एक उत्तम नस्ल तथा शुभ लक्षणों वाला अश्व विधिपूर्वक पूजित कराया और उसके मस्तक पर श्रीराम के संदेश वाला एक स्वर्णपत्र बांध दिया ।

उस स्वर्णपत्र में लिखा था कि यह अश्व अयोध्या के राजा श्रीराम का है । जिन क्षत्रिय नरेशों को अपनी शक्ति का अभिमान हो, वे इस अश्व को पकड़ने का साहस करें । अयोध्या की सेना इस अश्व को बलात उससे छुड़ा लेगी ।

अश्व की रक्षा के लिए प्रभु श्रीराम ने एक सेना के साथ अपने छोटे भाई शत्रुप्न को सेनापति नियुक्त किया और हनुमान जी को अपने पास बुलाया, ”पवनपुत्र हनुमान ! तुम्हारे पराक्रम के कारण ही मैंने बड़े-बड़े कठिन कार्य पूरे किए हैं ।

मैंने इस अश्वमेध यज्ञ का आयोजन भी तुम्हारे पौरुष के भरोसे ही किया है । मैं चाहता हूं कि तुम इस अश्व के साथ संपूर्ण सेना के सरक्षक के रूप में जाओ । तुम मेरी भांति ही मेरे अनुज शत्रुप्न की सुरक्षा के प्रति सतर्क रहना ।

यदि शत्रुप्न कभी त्रुटि करें तो तुम उसे समझाना । मैं अपना अनुज तुम्हें सौंपता हूं । यह मुझे अन्यत प्रिय है ।”  प्रभु श्रीराम द्वारा अपनी प्रर्शसा सुनकर और अपने ऊपर उनका विश्वास और भरोसा देखकर हनुमान जी पुलकित हो उठे । उनका सीना गर्व से चौड़ा हो गया और सिर ऊचा उठ गया । उन्होंने प्रभु श्रीराम के चरणों में शीश नवाया और जाने की आज्ञा मांगी ।

श्रीराम ने शत्रुप्न से कहा, ”प्रिय भाई ! हनुमान जी को अपने वडे भाई के रूप में सम्मान देना । इस लोक में ही नहीं, समस्त लोकों में हनुमान जैसा मेरा प्रिय और कोई नहीं है ।” ”भ्राताश्री! आप निश्चित रहें ।” शत्रुघ्न ने कहा, “हनुमान जी जिस तरह आपको प्रिय हैं, उसी प्रकार मेरे लिए भी आदर के पात्र हैं । मैं सदा इनसे सलाह लेकर ही राज्य संधियां और युद्ध करूँगा ।”

दोनों से आश्वस्त होकर प्रभु श्रीराम ने उन्हें विदा किफ्त सभी ‘जय श्रीराम’ के जयघोष के साथ अश्वमेध के अश्व के पीछे-पीछे चल पडे । अपनी प्रशसा से हनुमान जी को अभिमान हो गया । मार्ग में अनेक स्थानों पर श्रीराम की चतुरंगिणी सेना का स्वागत-सत्कार हुआ और श्रीराम को अपना सार्वभौम सम्राट स्वीकार कर राजाओं ने भेंट पूजा करके अश्व को आगे बढ़ने का मार्ग प्रदान किया ।

पवनपुत्र हनुमान शत्रुप्न के साथ तरह-तरह के स्थान, राज्यों और ऋषियों के आश्रम देखते हुए आगे बढ़ते रहे । महर्षि च्यवन का आशीर्वाद लेकर अयोध्या की सेना राजा सुबाहु की चक्रांका नगरी में पहुंची । राजा सुबाहु भगवान विष्णु के परमभक्त धर्मात्मा राजा थे ।

शत्रुघ्न का दमन से युद्ध

आखेट के लिए निकले राजा के पुत्र दमन की दृष्टि उस अश्व पर पड़ी तो उसने उसे पकड़ लिया । शत्रुप्न ने उसे ललकारा तो वीर दमन अश्व छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुआ । तब दोनों के मध्य घोर संग्राम हुआ । सुबाहु के पुत्र दमन के रणकौशल को देखकर शत्रुप्न और उसकी सेना चकित रह गई । वह अकेला ही सब पर भारी पड़ रहा था । परंतु अत में दमन एक बाण के लगने से मूर्च्छित हो गया ।

राजा सुबाहु को जब इस बात का पता चला तो वे स्वयँ रथ पर सवार होकर युद्धभूमि में आए । उनके साथ उनके भाई सुकेतु और पुत्र चित्रांग तथा विचित्र भी आए । दोनों ही युद्ध कला में अत्यंत निपुण थे । उनके साथ भी एक भारी सैन्य बल था । राजा सुबाहु ने अपने पुत्र को रथ में लिटाकर अपनी सेना को क्रौंच व्यूह में खड़ी कर दिया ।

तदपुरांत भयानक युद्ध प्रारंभ हुआ । दोनों ओर की सेनाएं एक-दूसरे को पराजित करने पर लगी थीं । शत्रुप्न ने अपने तीक्षण बाणों से सुबाहु के पुत्र चित्रांग का सिर काटकर धरती पर गिरा दिया । क्षत्रिय का पालन करते हुए राजा सुबाहु और उसके भाई सुकेतु ने भयानक युद्ध किया । शत्रुप्न की सेना उनके रणकौशल को देखकर पीछे हटने लगी । तब अतुलित बलशाली हनुमान को हस्तक्षेप करना पड़ा ।

भयंकर हुंकार करते हुए सुबाहु की सेना पर टूट पड़े । राजा सुबाहु और पवनपुत्र हनुमान के मध्य भयंकर युद्ध छिड़ गया । राजा सुबाहु उन पर तीक्षण बाणों का प्रहार करते, तो अंजना पुत्र हनुमान उन बाणों को मेघ गर्जना करते हुए बीच में ही पकड़ लेते और तोड़ डालते ।

हनुमान ने अपनी पूँछ लंबी करके सुबाहु के रथ को लपेट लिया और हवा में उछाल दिया । राजा सुबाहु अपने पुत्र को लेकर रथ से कूद पड़े और धरती पर खड़े होकर बाण वर्षा करने लगे । उन बाणों से हनुमान जी का शरीर कई जगह से बिंध गया और रक्त बहने लगा । तभी हनुमान जी ने उछलकर सुबाहु की छाती पर पद प्रहार किया ।

उस प्रहार को वे सहन नहीं कर सके और मूर्च्छित होकर गिर पड़े । उसी समय राजा सुबाहु ने अपने सामने विष्णु रूप धारी अयोध्यापति श्रीराम को खड़े देखा तो उनकी मूर्च्छा टूट गई । वे उठ बैठे और उन्होंने खड़े होकर अपने भाई और पुत्र से युद्ध बद करने के लिए कहा । सभी आश्चर्य से राजा सुबाहु की ओर देखने लगे ।

राजा सुबाहु ने कहा, ”आज तो मेरा सौभाग्य सूर्य उदित हुआ है । प्राचीन काल में जब मैं ज्ञान प्राप्ति के लिए तीर्थों का भ्रमण कर रहा था, तब मैं अतितांग मुनि के आश्रम में पहुंच गया था । उन्होंने श्रीराम को भगवान विष्णु का अवतार बताया था ।

परंतु मुझे उन पर विश्वास नहीं हुआ । मुझे लगा कि वे एक साधारण राजा को भगवान विष्णु का अवतार बता रहे हैं । मेरी शंका देखकर मुनि ने मुझे शाप दिया कि तू अभी प्रभु श्रीराम के वास्तविक स्वरूप को नहीं जानता है । तुझे कभी ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता ।

जब भगवान श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ का अश्व तेरा पुत्र पकड़ लेगा और उनके यज्ञ में विप्न का कारण बनेगा, तब ज्ञानमूर्ति पवनपुत्र हनुमान जी के पद प्रहार से ही तुझे तत्वज्ञान की प्राप्ति होगी । सो आज मेरा जीवन धन्य हो गया । मैं ही नहीं, तुम सभी का जीवन धन्य हो गया ।

देखो, स्वयं प्रभु श्रीराम चतुर्भुज विष्णु रूप में मेरे सामने खड़े हैं ।” ऐसा कहकर राजा सुबाहु ने प्रभु श्रीराम के अश्व को छोड़ दिया और शत्रुप्न जी से क्षमा याचना करते हुए उन्हें प्रचुर संपत्ति, हाथी, घोड़े, वस्त्र, बहुमूल्य रत्न आदि भेंट किए ।

उसके बाद उन्होंने प्रभु अनुरागी भक्त हनुमान के दर्शन किए और उनके चरणों में गिरकर बोले, ”हे कपिश्रेष्ठ महावीर ! आपके श्री चरणों के कारण ही आज मुझे प्रभु के दर्शन हुए हैं । मैं आपका यह उपकार कभी नहीं भूल सकता ।” हनुमान जी ने प्रसन्न होकर राजा सुबाहु को उठाकर अपने हृदय से लगा लिया और उन्हें हर तरह से आनंदित करके अश्व सहित आगे बड़े ।

भगवान शिव और हनुमान युद्ध:

देवपुर में भगवान महादेव के परम भक्त धर्मात्मा राजा वीरमणि रहते थे । एक बार क्षिप्रा नदी के तट पर स्थित महाकाल के मंदिर में भक्त वीरमणि की भक्ति से प्रसन्न होकर महादेव ने उन्हें वरदान दिया था कि त्रेतायुग में जब अयोध्यापति श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ का अश्व तुम्हारे राज्य में आएगा, तब वे उसकी सहायता करेंगे ।

राजा भगवान महादेव का वरदान पाकर आश्वस्त था । इसलिए जब श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ का अश्व उनके राज्य में पहुंचा तो उनके पुत्र रुक्मांगद ने उस अश्व को पकड़ लिया । महाराज वीरमणि ने सुना तो वे एक बड़ी सेना लेकर उसकी सहायता के लिए आ पहुंचे ।

क्योंकि उन्हें पता चला था कि श्रीराम के अनुज शत्रुप्न और उनके परम भक्त महाबली हनुमान अश्व की रक्षा के लिए एक बड़ी सेना के साथ अश्व के साथ-साथ चल रहे हैं । महाराज वीरमणि के साथ उनके भाई वीरसिंह, भानजा बलमित्र और राजकुमार शुभांगद भी युद्ध के लिए तैयार होकर आए थे ।

दोनों सेनाओं के मध्य भयानक युद्ध छिड़ गया । पवनपुत्र हनुमान शत्रुप्न की रक्षा के लिए सदैव उनके साथ रहते थे । हनुमान जी ने युद्धभूमि में महाराज वीरमणि के भाई वीरसिंह को अपने वज्रसम मुक्के के प्रहार से मूर्च्छित कर दिया । अपने चाचा को गिरते देखकर रुक्मांगद और शुभांगद दोनों मिलकर हनुमान जी से युद्ध करने लगे ।

परंतु हनुमान जी ने उन्हें भी अपनी पूँछ की मार से आघात पहुंचाकर मूर्च्छित कर दिया । बलमित्र भी इसी प्रकार मूर्च्छित होकर रणभूमि में गिर पड़ा । बदले में राजा वीरमणि हनुमान जी से भीड़ गए । परंतु हनुमान जी ने उन्हें भी मूर्च्छित कर दिया ।

अपने भक्तों को मूर्च्छित होते देखकर स्वयं भगवान शंकर युद्धभूमि में आ डटे । उनके साथ हनुमान जी और शत्रुप्न जी भयानक युद्ध करने लगे । वे महादेव की माया के कारण भ्रमित होकर पहले उन्हें पहचान नहीं सके ।

भगवान शँकर ने एक तीक्षा बाण शत्रुप्न की छाती में भोंक दिया । जिससे वे मूर्च्छित होकर गिर पड़े । उनके अचेत होते ही सेना में हा-हाकार मच गया । यह देखकर हनुमान जी अपनी पूरी शक्ति से त्रिशूलधारी भगवान शिव पर टूट पड़े ।

दोनों ओर से घात-प्रतिघात चलने लगा । भगवान शिव त्रिशूल से वार कर रहे थे और हनुमान जी अपनी गदा का प्रहार करके उन्हें विचलित कर रहे थे । हनुमान जी बोले, ”हे रुद्र ! आप तो प्रभु श्रीराम के भक्त कहे जाते हैं और अब आप ही उनके भक्त पर प्रहार कर रहे हैं ?”

भगवान शिव ने कहा, ”हे कपिश्रेष्ठ तुम वीरों में सर्वश्रेष्ठ वीर हो । तुम्हारा कथन सत्य है कि मैं प्रभु श्रीराम का सदैव स्मरण करता हूँ । मैं उनका भक्त हूं । परंतु राजा वीरमणि भी मेरा भक्त है । उसकी रक्षा करना मेरा धर्म है । यह क्या अनुचित है ?”

हनुमान जी ने कोई उत्तर नहीं दिया और वे उसी प्रकार युद्ध करते रहे । दोनों अपने भक्त और इष्ट के लिए युद्ध कर रहे थे । दोनों के मध्य भयानक संग्राम छिड़ा था । कोई भी हार मानने के लिए तैयार नहीं था ।

अंत में भगवान शिव ने प्रसन्न होकर हनुमान जी से कहा, ”प्रिय हनुमान ! मैं तुम्हारी भक्ति देखकर प्रसन्न हुआ । तुम्हारा पराक्रम अद्‌भुत है । तुम मुझसे कोई वर मांगो ।” हनुमान जी ने कहा, ”प्रभो ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मेरे पक्ष के सभी वीरों को जीवनदान दें ।”

भगवान शिव ने ‘तथास्तु’ कहकर सभी को पुन: जीवित कर दिया । उसी समय भगवान श्रीराम वहां उपस्थित हो गए और भगवान शिव को प्रणाम करके बोले,  ”प्रभो! आपने अपने भक्त की रक्षा में जो शौर्य दिखाया है, वह अद्‌भुत है ।

आप जीवन-मरण के स्वामी है । अब आप उन्हें भी जीवन दें और प्रिय शत्रुप्न के संधि-प्रस्ताव का अनुमोदन कराएँ ।” अपने सम्मुख श्रीराम को उपस्थित देखकर भगवान शिव ने भी उन्हें प्रणाम किया और कहा, ”प्रभो ! आपकी लीला अपरंपार है । आज आपको मनुष्य योनि में देखकर मेरा जीवन धन्य हो गया । यह मेरा सौभाग्य है कि आप स्वयं यहाँ उपस्थित हुए ।

आपके भक्त हनुमान का पराक्रम देखकर मैं अभिभूत हो गया हूं । मेरे सभी भक्त जीवित हैं । यह सारी लीला तो आपके दर्शनों के लिए ही की गई थी ।” तदुपरांत, भगवान शिव ने दोनों पक्षों में संधि करा दी । शत्रुप्न और हनुमान जी राजा वीरमणि का आतिथ्य स्वीकार करके अश्व सहित आगे चल पड़े ।

अश्वमेधीय अश्व की जड़ता:

अश्वमेधीय अश्व घूमता हुआ हेमकूट पर्वत पर स्थित एक अति मनोरम उद्यान में पहुंचा । वहां एकाएक उसका शरीर अकड़ गया और वह जड़ हो गया । उसकी ऐसी दशा देखकर हनुमान जी और शत्रुप्न आदि विचलित हो उठे कि यह क्या हो गया ।

तभी उन्हें वहा एक ऋषि दिखाई दिए । उन्होंने ऋषिवर के पास पहुंचकर अपना परिचय दिया और अपनी समस्या से अवगत कराया । उसे सुनकर ऋषि ने कहा,  ”शत्रुप्न प्राचीन काल में एक ब्राह्मण के दोषी होने पर ऋषियों ने उसे राक्षस हो जाने का शाप दे दिया था ।

बाद में उस ब्राह्मण के अनुनय-विनय करने पर ऋषियों को उस पर दया आ गई और उन्होंने उससे कहा कि जब श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ का अश्व यहा आएगा, तब तुम उसे स्तब्ध कर देना । उसे छुड़ाने के लिए जब वे आएंगे तो वे श्रीराम कथा तुम्हें सुनाएंगे । उस कथा को सुनने से तुम्हारा दोष नष्ट हो जाएगा और तुम सुरलोक को प्राप्त करोगे ।

अत: तुम वहां जाकर उस राक्षस को रामकथा सुनाओ । उससे वह शाप मुका हो जाएगा और अश्व भी अपनी पूर्व स्थिति में आ जाएगा ।”  ऋषि की बात सुनकर वे वापस अश्व के पास आए । वहां आकर हनुमान जी ने गा-गाकर प्रभु श्रीराम चरित्र को सुनाया । उसके सुनते ही उस अश्व का शरीर छोड़कर एक ब्राह्मण देवता बाहर आ गए । सभी ने उन्हें प्रणाम किया ।

हनुमान जी बोले, ”हे देव ! अब तुम सुरलोक को गमन करो ।” ब्राह्मण देव उनका उपकार मानते हुए आकाश मार्ग से सुरलोक को चले गए । अश्व फिर से अपनी पहले वाली स्थिति में आ गया । सभी ऋषिवर को नमन करके आगे बढ़ चले ।

भगवान तो भक्त के वश में होते हैं:

श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा भ्रमण करता हुआ कुंडलपुर पहुँचा । वहां अत्यत धर्मात्मा राजा सुरथ राज्य करते थे । वे रामचंद्र जी के परम भक्त थे । एक बार उनकी रामभक्ति से प्रसन्न होकर धर्मराज ने उन्हें वरदान दिया, ”राजन ! श्रीराम का दर्शन किए बिना तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी और तुम सदैव मृत्यु से निर्भय रहोगे ।”

उन्हें जब पता चला कि श्रीरामचंद्र जी के अश्वमेध यज्ञ का अश्व उनके राज्य में आया है तो उन्होंने उसे पकड़वा लिया । शत्रुप्न जानते थे कि राजा सुरथ के मन में भ्राताश्री रामचंद्र जी के प्रति अनुपम भक्ति है । इसलिए उन्होंने पहले अपना एक दूत राजा के पास भेजा और घोड़ा छोड़ने के लिए कहा । परंतु राजा सुरथ ने उनका प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिया । परिणामस्वरूप दोनों ओर की सेनाओं के मध्य भयानक युद्ध छिड़ गया ।

हनुमान जी ने राजा सुरथ को समझाने का बहुत प्रयास किया कि वे अश्व के रक्षक हैं । उन्हें इस प्रकार हठ नहीं करना चाहिए । लेकिन राजा सुरथ ने उनसे कहा कि यदि मन, वचन और कर्म से उन्होंने प्रभु श्रीराम का सदैव स्मरण किया है तो प्रभु स्वय ही यहां पधारकर मुझे दर्शन दें । वे उनके कहने पर युद्ध रोक देंगे और अश्व छोड़ देंगे ।

हनुमान जी ने मन ही मन प्रभु का ध्यान किया । वे स्वय चाहते थे कि प्रभु स्वयं राजा सुरथ को दर्शन दें । लेकिन वे कुछ कर पाने में पूरी तरह असमर्थ थे । तब महाराज सुरथ ने कहा, ”हे पवनपुत्र ! आप निश्चित रूप से महाबली और प्रभु श्रीराम के परम भक्त हैं ।

परंतु यह भी सत्य है कि आपका बल मेरे सामने नहीं टिक पाएगा । मैं आपको बांधकर अपने नगर में ले जाऊंगा । इसलिए आपको पहले से ही सावधान किए दे रहा हूं ।” हनुमान जी राजा सुरथ की बात सुनकर बड़े प्रसन्न हुए । वे मन ही मन सोचने लगे कि यदि यह राजा मुझे बांधकर ले जाएगा तो प्रभु श्रीराम अपने भक्त को छुड़ाने और दर्शन देने यहां अवश्य आएंगे ।

ऐसा सोचकर वे राजा सुरथ से हल्का-फुल्का युद्ध करने लगे । राजा सुरथ ने मौका पाकर अपने धनुष की डोरी से हनुमान जी को बाँध लिया और उन्हें रथ में डालकर नगर की ओर चल दिए । हनुमान जी को इस प्रकार बांधकर ले जाते देखकर शत्रुप्न और अन्य सेना नायक राजा सुरथ पर टूट पड़े ।

परंतु राजा सुरथ ने अपने बाणों से सभी को घायल कर दिया और वे मूर्च्छित होकर गिर पड़े । महाराज सुरथ संग्राम में विजयी होकर शान से नगर में प्रवेश कर गए । अपनी राज्य सभा में उन्होंने बंधनों में बंधे हुए हनुमान जी से कहा, ”हे पवनपुत्र ! अब यदि मुक्ति चाहते हो तो अपने प्रभु को याद करो । वे ही आकर तुम्हें छुड़ा सकते है ।”

महाराज सुरथ की बात सुनकर हनुमान जी मन ही मन प्रभु श्रीराम का स्मरण करने लगे और कहने लगे कि वे जल्द आए और उन्हें इस बधन से मुक्त कराए । अपने प्राणप्रिय भक्त हनुमान की प्रार्थना सुनते ही प्रभु श्रीराम तत्काल वहाँ प्रकट हो गए ।

उनके पीछे-पीछे राजसभा में लक्ष्मण जी, भरत जी और युद्धक्षेत्र से शत्रुप्न जी भी वहां आ पहुंचे । उन्हें देखकर राजा सुरथ तत्काल अपने सिंहासन से उठा और प्रभु श्रीराम के चरणों में जा गिरा और अपने प्रेमाश्रुओं से उनके चरणों को पखार दिया । प्रभु श्रीराम ने राजा सुरथ को उठाकर अपने हृदय से लगा लिया ।

हनुमान जी के नेत्रों से भी अश्रुधारा बहने लगी । प्रभु ने राजा सुरथ से कहा,  ”राजन! तुमने अपने क्षत्रिय धर्म का पालन करके उत्तम यश को प्रात किया है । मैं तुम पर प्रसन्न हूँ । अब तुम्हारी मनोकामना पूरी हो चुकी है । इसलिए मेरे प्रिय हनुमान को तुम भी मुक्त कर दो ।”

राजा सुरथ ने तत्काल अपने हाथों से हनुमान जी को बधन मुक्त कर दिया और उन्हें हृदय से लगाकर कहा, ”हे कपिश्रेष्ठ मुझे क्षमा करना । प्रभु के दर्शन करने के लिए ही मुझे यह अप्रिय कार्य करना पड़ा ।” ”आपने कुछ अनुचित नहीं किया ।” हनुमान जी ने राजा सुरथ को ग्लानिमुक्त करते हुए कहा, ”इस बहाने आपने मुझे भी प्रभु के दर्शन करा दिए ।”

प्रभु श्रीरामचंद्र जी उनकी बातें सुनकर मुस्करा दिए । उसके बाद राजा सुरथ के आग्रह करने पर प्रभु और उनके साथ आए समस्त वीरों ने उनका आतिथ्य ग्रहण करना स्वीकार किया और उनके द्वारा प्रस्तुत अमूल्य भेंटे स्वीकार कीं । प्रभु के जाते ही शत्रुप्न और हनुमान जी अश्व को आगे करके आगे बढ़े ।

लव-कुश के साथ हनुमान जी का युद्ध:

राज्यारोहण के उपराँत समाज निंदा के भय से प्रभु श्रीराम ने यह जानते हुए भी कि उनकी पत्नी सीता शुद्ध और पवित्र हैं, उनका त्याग कर दिया था । लक्ष्मण जी उन्हें वन भ्रमण के बहाने से वन में ले जाकर प्रभु की आज्ञा से छोड़ आए थे । वहां वन में वे महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में रहती थीं । उन दिनों वे गर्भवती थीं ।

जब उन्हें पता चला कि प्रभु ने उनका त्याग कर दिया है, तब उन्हें बहुत दुख हुआ । वाल्मीकि के आश्रम में रहते हुए उन्होंने ‘लव’ और ‘कुश’ नाम के दो सुंदर पुत्रों को जन्म दिया था । महर्षि वाल्मीकि ने दोनों बालकों को शास्त्रों और धनुर्विद्या में पारंगत कर दिया था और अपने द्वारा रचित ‘रामायण’ कंठस्थ करा दी थी ।

ADVERTISEMENTS:

प्रभु श्रीराम का अश्वमेधीय अश्व जब भ्रमण करता हुआ वाल्मीकि आश्रम के निकट पहुँचा तो उसकी सुंदरता देखकर लव-कुश ने उसे पकड लिया और उस पर लिखे प्रलेख को पढ़कर तो उन्होंने निश्चय कर लिया कि वे बिना युद्ध किए इस अश्व को नहीं देंगे ।

उन्होंने अश्व को एक पेड़ से बांध दिया । उसी समय शत्रुप्न जी के सैनिक वहां पहुँच गए और उन्होंने मुनि बालकों से अश्व को छोड़ देने के लिए कहा । इस पर लव-कुश ने उनसे कहा कि वे इस अश्व से दूर ही रहें । अन्यथा इसे छुड़ाने वाला मृत्यु का ग्रास बनेगा ।

शत्रुप्न को पता चला तो वे आगे आए और अश्व को खोलने के लिए आगे बढ़े । तभी लव-कुश ने उन्हें सावधान करते हुए युद्ध के लिए ललकारा । कुश ने कहा, ”यद्यपि हमें इस अश्व की आवश्यकता नहीं है । परंतु जो राजा अहंकारवश अपनी प्रशस्ति स्वर्ण पत्रिका पर लिखवाकर सभी क्षत्रिय वीरों को चेतावनी देता है, उसका अहंकार तोड़ने के लिए ही हमने यह अश्व पकड़ा है ।

यदि साहस है तो इसे हमसे छुड़ा ले जाओ ।” लव ने भी कुश की बात का समर्थन किया । इस पर शत्रुप्न ने अपनी सेना को युद्ध करने का आदेश दे दिया । दोनों ओर से भयानक बाण वर्षा होने लगी । लव-कुश के तीक्षा बाणों ने शत्रुप्न की सेना को तितर-बितर कर दिया ।

शत्रुप्न के बाण भी उनके बाणों का सामना नहीं कर सके । तब हनुमान जी भयानक गर्जना करते हुए उनकी ओर झपटे और लव को उन्होंने अपनी पूँछ में लपेट लिया तथा कसना प्रारंभ कर दिया । उसी समय लव ने अपनी मुष्टिका का प्रहार उनकी पूछ पर किया तो हनुमान जी ने तिलमिलाकर पूंछ ढीली कर दी ।

लव उनके बंधन से छूट गए । तदुपरात लव-कुश के भयानक बाणों ने हनुमान जी को भी रक्त-रंजित कर डाला । वे मूर्च्छित होकर गिर पड़े । लव ने तब आगे बढ़ते हुए शत्रुप्न को भी अपने बाणों से छलनी कर दिया और उनके रथ को तोड़ डाला ।

उधर आश्रम में जब एक अश्व के लिए लव-कुश द्वारा एक बड़ी सेना के साथ युद्ध किए जाने का समाचार पहुंचा तो सीता जी व्याकुल हो उठीं । वे तत्काल महर्षि वाल्मीकि और अन्य आश्रमवासियों को साथ लेकर युद्ध-स्थल पर पहुंचीं ।

वहां का दृश्य देखकर वे चिंतित हो उठीं । लव-कुश ने हनुमान जी व शत्रुप्न को अपने वरुण पाश से बांध रखा था और वे उन्हें लेकर आश्रम की ओर आ रहे थे । साथ में अश्वमेध यज्ञ का अश्व था । बाकी सेना युद्धक्षेत्र में या तो घायल पड़ी कराह रही थी या वहां से भाग खड़ी हुई थी ।

सीता जी ने अपने दोनों पुत्रों को सकुशल देखकर चैन की सांस ली, पर शत्रुप्न और हनुमान जी को बंधन में बंधे देखकर वे व्याकुल हो उठीं । उन्होंने आगे बढ्‌कर कहा, ”पुत्रो ! तुम यह क्या कर रहे हो ? ये दोनों अत्यंत पराक्रमी और आदर के पात्र हैं । इन्हें तत्काल छोड़ दो ।”

ADVERTISEMENTS:

अपनी माता की आज्ञा पाकर लव-कुश ने शत्रुप्न और हनुमान जी के बंधन खोल दिए और कहा, ”माते अयोध्या के राजा राम के अश्वमेध यज्ञ का यह घोड़ा हमने पकड़ा है । उन्होंने इस अश्व के माथे पर लगी स्वर्ण पत्रिका में लिखा है कि सच्चे क्षत्रिय ही इस अश्व को पकड़े, अन्यथा उनके सम्मुख नतमस्तक होकर उनकी अधीनता स्वीकार करें ।

उस राजा की यह धृष्टता हमें स्वीकार नहीं है । इसीलिए हमें युद्ध करना पड़ा ।” सीता जी ने कहा, ”पुत्रो तुमने बड़ा अनुचित कार्य किया है । तुम्हें पता नहीं है कि वह अश्वमेध यज्ञ तुम्हारे पिता का है । अयोध्या के राजा श्रीराम ही तुम्हारे पिता हैं और ये शत्रुप्न तुम्हारे चाचा हैं तथा ये पवनपुत्र हनुमान तुम्हारे पिता के परमभक्त हैं । मैं भी इन्हें अपना पुत्र मानती हूं ।”

शत्रुप्न और हनुमान जी ने आगे बढ्‌कर सीता जी और महुर्षि वाल्मीकि के चरण स्पर्श किए और स्नेह से लव-कुश की ओर देखने लगे । वे कह रहे थे, ”माते महर्षि वाल्मीकि के उपदेशानुसार ही हमने क्षत्रिय धर्म का पालन किया है । अब हम आपकी आज्ञा से इस अश्व को छोड़ देते हैं ।”

लव-कुश ने अश्व को छोड़ दिया तो सीता ने हनुमान से कहा, ”वत्स हनुमान ! तुम जैसा अतुलित बलधारी वीर इन बालकों से कैसे पराजित हो गया ?” हनुमान जी ने सीता जी के सामने हाथ जोड़कर कहा, ”माते हम पराजित कैसे हो गए ? पुत्र तो पिता की आत्मा होता है ।

ये दोनों कुमार मेरे स्वामी के अंश हैं । इस प्रकार ये भी मेरे स्वामी हैं । लगता है मुझे अपने बल का अहंकार हो गया था । इसीलिए स्वामी ने मेरे अहंकार को तोड़ने के लिए यह लीला रची थी ।” उसके बाद सभी वहां से विदा हो गए ।

Home››Lord Hanuman››