स्वामी दयानन्द सरस्वती पर अनुच्छेद | Paragraph on Swami Dayanand Saraswati in Hindi

जन्म और बचपन:

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स्वामी दयानन्द का जन्म गुजरात के एक संभ्रान्त ब्राह्मण परिवार में हुआ था । उनके माता-पिता बड़े धार्मिक विचारों के थे । वे शिवलिंग की पूजा करते थे । उनका बचपन का नाम मूलशंकर था ।

शिवरात्रि की घटना:

जब वै बालक ही थे, अपने पिता के साथ भगवान् शिव की पूजा के लिए मंदिर में गए । उस दिन महाशिवरात्रि का पर्व था । उन्होंने समूची रात जागरण किया । मध्य रात्रि के बाद बालक मूलशंकर ने देखा कि शिवालेग पर एक चूहा उछल-कूद कर रहा है ।

ऐसा देखकर वे मन ही मन सोचने लगे कि यह मूर्ति जो छोटे-से चूहे की शरारतों से अपनी रक्षा स्वयं करने में असमर्थ है, वह भगवान कैसे हो सकती है । उनके मन मे तरह-तरह के सन्देह आने लगे । अगले दिन प्रात: काल उन्होंने इस विषय में अपने पिता से बात की । उन्हें कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला ।

उनका भ्रमण:

यह संदेह उनके मन में सदा उठता रहा । इसके निराकरण के लिए एक दिन एकाएक ही उन्होंने घर छोड़ दिया । उत्तर की तलाश में जगह-जगह भटके । वे अनेक साधु सत्तों और महात्माओं की शरण में गए और अपने प्रश्नो के उत्तर जानने का प्रयास किया, ताकि उनका संदेह दूर हो सके ।

लेकिन कोई मी उन्हें संतोषजनक उत्तर न दे सका । वे बहुत समय तक जंगलों और हिमालय पर्वत पर योग्य शिक्षक की तलाश में घूमते रहे, लेकिन उन्हें ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं मिला, जो उनके संदेह को दूर कर सकता ।

विरजानन्द का शिष्यत्व:

अन्त में वे मथुरा पहुंचे । वहीं उनकी भेंट एक प्रकाण्ड विद्वान् सन्यासी से हुई । वे अधे थे और उनका नाम विरजानन्द था । विरजानन्द मूल-शकर की बुद्धि और प्रतिभा से बड़े प्रभावित हुए । उन्होंने उन्हें अपना शिष्य बना लिया । बड़ी रुचि से धर्म ज्ञान देना प्रारभ कर दिया ।

मूलशंकर को अपने प्रश्नो के संतोषजनक उत्तर मिल गए और सारा संदेह मिट गया । उन्होंने अपने गुरु की सहायता से वेदों और शास्त्रों का अध्ययन किया । जब वे मनचाहा ज्ञान प्राप्त कर चुके, तो उन्होंने अपने गुरु का आशीर्वाद लेकर उनसे विदा ली । उनके गुरु ने उन्हें नया नाम दयानन्द दिया । वे इसी नाम से मशहूर हुये ।

उनके कार्य:

उन्होंने देश से अज्ञान और अधविश्वास समाप्त करने का बीड़ा उठाया । इसी उद्देश्य के उन्होंने समूचे भारत का भ्रमण किया भार जगह-जगह पार भाषण दिए । उनके भाषण बड़े प्रभावशाली होते थे, जिन्हें सुनकर अनेक व्यक्ति उनके अनुयाधो बन गए ।

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लेकिन अनेक वृद्ध उगैर-रूढ़िवादी लोग उनके कट्टर दुश्मन हो गये क्योंकि ये अपने भाषणों में मूर्तिपूजा का विरोध और विधवा-विवाह का समर्थन करते थे । लेकिन स्वामी दयानन्द बड़े साहसी और निडर व्यक्ति थे । वे अपना प्रचार कार्य बड़ी मुस्तैदी से करते रहे ।

जहाँ भो वं जाते, वही के विद्वान् पंडितों को ईश्वर के एकत्व, मूर्तिपूजा, विधता-विवाह तथा वेदों पर शास्त्रार्थ करने की चुनौती देते । उनका मत था किए कदा में सच्चा ज्ञान भरा हुआ है लेकिन पुराणो में मात्र दन्तकथायें हैं ।

उन्होंने आर्य समाज की स्थापना की । जहा भी वे जाते वहाँ इसकी शाखायें खुलने लगीं । उन्होने हिन्दी में वेदी की समीक्षा की और अपने ग्रन्थ को ‘सत्यार्थ प्रकाश’ नाम दिया । वे पहले भारतीय थे जिन्होंने हिन्दी की हिमायत की । वे छुआछूत तथा अन्य सामाजिक कुरीतियों के घोर विरोधी थे ।

उपसंहार:

ज्यो-ज्यों आर्य समाज का प्रचार बढ़ता गया, त्यों-त्यों उनके दुश्मनों की सज्जा भी बढ़ती गई । अत में उनके दुश्मनों ने धोखे से स्वामी दयानन्द को जहर पिला दिया । वे जहर के प्रभाव को बरदाश्त न कर सके और उनके जीवंत रहने की आशा शेष नहीं रही । चेहरे पर मुस्कान लिए अजमेर में उन्होंने यह शरीर छोड़ दिया ।

वे निश्चय ही एक महान् सत और समाज-सुधारक थे । वे वेदों का अनुसरण करने का आग्रह किया करते थे । उन्होंने अपने जीवन का बलिदान देकर देश को जागृत करने में जो सेवा की है, उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता । उन्होंने भारत का गौरव बढ़ाया । भगवान् उनकी आत्मा को शांति दे ।

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