मात्र व्यक्तिगत लाभ राजनीतिज्ञों का उद्देश्य ” पर निबन्ध!

‘मात्र व्यक्तिगत लाभ ही राजनीतिज्ञों का उद्देश्य होता है’, यह उक्ति आज के भारतीय राजनीतिज्ञों पर चरितार्थ होती हैं । अधिकांश राजनीतिज्ञों के बारे में ऐसा ही सोचा जाता है, कि राजनेता रहस्यमय, अविश्वसनीय चरित्र वाला व्यक्ति होता है, जो लोगों का विश्वास जीतने के लिए नाना प्रकार के प्रपंच करता है ।

उसके अपने कोई स्वतंत्र विचार अथवा आदर्श नहीं होते हैं, उसका तो एकमात्र उद्देश्य स्वार्थपूर्ति और सत्ता की प्राप्ति होता है । समय की बदलती धारा के अनुरूप उसकी ईमानदारी में परिवर्तन आता रहता है । अपने स्वार्थ के लिए राजनीतिज्ञ दल ऐसे बदलते हैं जैसे कोई रोगी बेचैनी से करवट बदलता है । भविष्यवेत्ता और राजनीतिज्ञों में बहुत कम अंतर होता है ।

इनके शब्दकोष का प्रथम अक्षर अवसरवादिता होता हैं । राजनीतिज्ञों की प्रमुखतम चारित्रिक विशेषता यह होती है कि वे प्राय: स्वयं को जनता का सेवक कहते हैं । जनता की सेवा ही उनका परम उद्देश्य है । उनके दो प्रमुख शस्त्र चाटुकारिता और जुड़े हुए हाथ होते हैं । कुछ नेता तो इतने चतुर होते हैं कि वे अपने इन दोनों शस्त्रों का प्रयोग ठीक समय पर करने से जनता को भी बहकावे में ले आते हैं ।

इसका परिणाम यह होता है कि जनता तो अधपेट खाकर, चीथड़ों में लिपटी झोपड़ियों में रहती है और स्वयं को जनता के सेवक कहने वाले नेता महलों में रहते हैं, वातानुकूलित कारों में घूमते हैं और धन और ऐश्वर्यपूर्ण जिन्दगी जीते हैं ।

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श्री जे. एफ. क्लार्क के अनुसार राजनीतिज्ञ अगले चुनाव के संबंध में चिन्तित होता है, जबकि एक राष्ट्रवादी अगली पीढ़ी के बारे में सोचता है । आज राष्ट्रवादियों का युग समाप्त हो गया है और राजनीतिज्ञों का शासन शेष है । विवाह समारोह, शोक सभाओं, धार्मिक सभाओं, आपातग्रस्त क्षेत्रों का दौरा करते समय अपना और अपने दल का प्रचार करने की कला राजनीतिज्ञों को खूब आती है ।

वे अपने भाषणों में विरोधी दल की छवि धूमिल करने के लिए आलोचना और दोषारोपण भी करते हैं । जनता की सुविधाओं से संबंधित सामान्य कार्य जैसे सड़क, धर्मशालाएं, शौचालय, धोबीघाट बनाना, पानी-बिजली की उपलब्धि, बाढ़, अकाल, महामारी से पीड़ित इलाकों में चिकित्सा सुविधा का प्रबंध करना – सभी के पीछे राजनैतिक उद्देश्य रहते हैं ।

जनता की सुविधाओं का प्रबंध नहीं बल्कि निजी लाभ ही उनका मुख्य उद्देश्य होता हैं । इतना ही नहीं राजनीतिज्ञ अपने उद्देश्यों की पूर्ति हेतु लूटमार, हत्या, अपहरण, बलात्कार, डकैती आदि कुकृत्यों में भी सहयोग प्रदान करते हैं । कट्‌टर राष्ट्रवादी मुहम्मद अली जिन्ना, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुख्य स्तंभ थे, जिनका साम्प्रदायिक मुस्लिम लीग से कुछ संबंध नहीं था ।

लेकिन जब उन्हें लगा कि कांग्रेस के साथ रहकर उन्हें कोई पद प्राप्त नहीं हो सकता तो उन्होंने कांग्रेस को छोड़ कर मुस्लिम लीग का नेतृत्व संभाला और पाकिस्तान की माँग पेश की । उनके इस स्वार्थ भरे नेतृत्व का परिणाम लाखों बेकसूर लोगों का रक्तपात अपने घरों से बेदखल होने की पीड़ा, पुनर्वास का कष्ट आदि हुआ ।

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पाकिस्तान का निर्माण हुआ जिन्ना को उसके जनक और पहले राष्ट्राध्यक्ष का दर्जा मिला । लेकिन इतिहास में उनका नाम सद्‌भावना से नहीं लिया जाता । आज के भारतीय नेताओं की स्थिति भी ऐसी ही हो गई है, वे अपने स्वार्थ के लिए जनता के हित को ताक में रख देते हैं ।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद का भारतीय राजनैतिक इतिहास ऐसे ही राजनीतिज्ञों की कहानियों से भरा हैं जिन्होंने अपनी शक्ति का दुरुपयोग स्वार्थसाधना में किया है । आज अधिकांश राजनीतिज्ञ सम्पत्ति निर्माण, कर की चोरी, अनैतिक औदू अवैध तरीके से धन प्राप्ति आदि में जुटे हुए हैं ।

गरीब राजनीतिज्ञ लोकप्रियता हासिल करते ही लाखों की सम्पत्ति का मालिक बन जाता है । उसके पुत्र तथा संबंधी मिलों के मालिक और भूमिपति बन जाते हैं । बिना किसी अन्तर्विरोध के यह कहा जा सकता है प्राय: सभी राजनीतिज्ञ किसी सामाजिक अथवा आर्थिक आदर्श एवं नियमों में विश्वास नहीं करते हैं, उनके सामने तो यही स्पष्ट नहीं होता है कि वे किस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए लड़ रहे हैं ।

उनका काम केबल सत्ता प्राप्ति और उसको बनाए रखने के लिए उल्टे-सीधे सभी उपाय करना होता है । जब उन्हें लगता है कि उनका दल उनकी आकांक्षाओं को पूरा करने में असमर्थ हैं तो वे दूसरे दल के एकनिष्ठ सदस्य बन जाते हैं । हरियाणा के नेता श्री आया राम का उदाहरण इस संदर्भ में विशेष उल्लेखनीय है । उन्होंने एक अवसर पर दिन में तीन बार दल बदला इसलिए उनके विजय में यह उक्ति ‘आयाराम गयाराम’ मशहूर हो गई थी ।

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दलबदलू राजनीतिज्ञ को जब यह लगता है कि उसका लाभ दूसरे दल में रहकर पूरा नहीं हो सकता है, तो वह तीसरे दल में इसी प्रकार चौथे, पाँचवें दल में शामिल हो जाता है । सत्ता प्राप्ति की एक दूसरी प्रचलित प्रक्रिया दल में विभाजन की है । दल में कुछ सदस्य ऐसे भी होते हैं, जो नेता के रूप में उभरने की आंकाक्षा रखते है । चूँकि एक दल का एक ही नेता हो सकता है, इस प्रकार विवाद उत्पन्न होते हैं और फलत: दल विभाजित हो जाता है ।

जो कोई दल घोषित उद्देश्यों को प्राप्त करने और अपने सहयोगियों को संगठित करने में असफल रहता है, तो ये महत्वाकांक्षी सदस्य इसका आरोप दल के नेता पर थोप देते हैं, जनता में उसके प्रति दुर्भावना फैला देते हैं और जनता से सहयोग प्राप्त कर पुराने दल के नाम के अनुरूप ही नए दल की स्थापना करते हैं और घोषणा कर देते है कि उन्हीं का दल मौलिक है । नए दलों के उद्‌भव से दलों में प्रतिस्पर्धा की भावना तीव्र गति से फैल जाती है, और राजनीतिज्ञ नए-नए प्रलोभन देकर जनता को आकर्षित करते हैं ।

वर्तमान भारतीय नेताओं की छवि उजली नहीं है, सभी स्वार्थ, निजी आकांक्षाओं से प्रेरित हैं । लेकिन यह तस्वीर का केवल एक रूख है । भारत एक महान देश है, जहाँ बालगंगाधर तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले, गांधी जी, जवाहर लाल नेहरू, सुभाष चन्द्र बोस, लाल बहादुर शास्त्री, बल्लभ भाई पटेल जैसे महान राजनीतिज्ञों और राष्ट्रवादियों का जन्म हुआ है ।

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भारत का राजनैतिक क्षितिज उन्हीं आदर्शो की लालिमा से रंजित है जिनका उद्देश्य देशहित के लिए जीना और देशहित के लिए मरना था । उन्हीं के प्रयासों के कारण भारत की स्वतंत्रता का स्वप्न वास्तविकता में बदल सका और एकात्मक प्रभुत्वसम्पन्न प्रजातांत्रिक गणतंत्र के रूप में उभरा । हम उनकी निस्वार्थ सेवा भावना के सदैव ऋणी रहेंगे ।

‘मात्र व्यक्तिगत लाभ राजनीतिज्ञों का उद्देश्य’ यह उक्ति वर्तमान राजनीति और राजनीतिज्ञों के चरित्र का हिस्सा बन चुकी है । राजनीतिज्ञों का ध्यान देश हित पर नहीं स्वहित पर केन्द्रित होता है । यह हमारे नैतिक पतन का सूचक हैं ।

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