ओटो वॉन बिस्मार्क पर निबंध | Essay on Otto von Bismarck in Hindi

1. प्रस्तावना:

19वीं शताब्दी के इतिहास में बिस्मार्क का नाम जर्मनी के एकीकरण के लिए विशेष प्रसिद्ध रहेगा । बिस्मार्क ने अपनी विलक्षण योग्यता एवं प्रतिभा से जर्मनी को यूरोप के प्रथम श्रेणी के देशों में अग्रिम पंक्ति में ला खड़ा किया ।

यद्यपि उसका शासन निरंकुश था, तथापि उसकी राजनीतिज्ञ एवं कूटनीतिडा योग्यता ने उसे जर्मनी की जनता के बीच आदर का पात्र बना दिया । वास्तव में वह एक युग पुरुष था । वह एक महान् देशप्रेमी, अवसरवादी राजनीतिज्ञ, साम्राज्यवाद का विरोधी शासक था ।

हेजर के अनुसार-जर्मनरूपी जहाज का चालक बिस्मार्क राजनीति में नेपोलियन महान तथा लुई चौदहवें के पश्चात् सबसे अधिक प्रभावशाली शासक था ।” जी०बी० स्मिथ के अनुसार- ‘ ‘शासक के रूप में बिस्मार्क घमण्डी होते हुए भी सर्वश्रेष्ठ स्थान रखता था । वह समय को देखकर चलने वाला प्रशियन जाति का सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति था । यद्यपि उसमें कुछ कमियां थीं, तथापि वह एक श्रेष्ठ राजनीतिइा था ।’

2. जीवन वृत्त एवं उपलब्धियां:

बिस्मार्क का वास्तविक नाम ऑटोवान बिस्मार्क रकानहौसिन था । उसका जन्म 1 अप्रैल 1815 को बेंडेनबर्ग के सम्भांत परिवार में हुआ था । बचपन से ही उसे गांव का प्राकृतिक जीवन बहुत रास आता था । वह तैराकी, घुड़सवारी, शिकार तथा निशानेबाजी का शौकीन था ।

विश्वविद्यालयी जीवन में वह पढ़ाई के साथ-साथ अपने कुछ असभ्य आचरण से लोगों को नाराज कर दिया करता था । अपनी शिक्षा बर्लिन विश्वविद्यालय में पूर्ण की । वह न 845 में पोनीरेनिया की विधान सभा का सदस्य और 1845 में बर्लिन की शाही सभा का सदस्य बना । 1849 में वह प्रशिया के प्रथम सदन का सदस्य चुना गया ।

1851 में उसे संघ की विधान सभा फ्रेंकफर्ट में प्रशिया का प्रतिनिधि बनाकर भेजा गया 11859 में वह प्रशिया का राजदूत नियुक्त हुआ । कुछ वर्ष रूस में राजदूत रहने के उपरान्त 1862 में फ्रांस में राजदूत के रूप में रहा । 1862 में ही उसे प्रशा सम्राट ने अपना प्रधानमन्त्री घोषित किया । बर्लिन में प्रधानमन्त्री का पद संभालने के बाद उसने जर्मनी के एकीकरण का महानतम कार्य किया ।

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1871 तक उसने जर्मनी की विभिन्न समस्याओं को दूर करने हेतु अपना सक्रिय प्रयत्न जारी रखा । उसने ”लौह और लहू ‘ की नीति पर राष्ट्र को संगठित किया । अवसरवादिता एवं कूटनीतिज्ञ बुद्धि से जर्मनी की एक-एक समस्याओं को सफलतापूर्वक निपटाया । उसने फ्रेंकफर्ट की सन्धि के आधार पर जर्मन साम्राज्य के लिए नये संविधान का निर्माण किया ।

बिस्मार्क ने जर्मनी के सम्राट को प्रभुत्वसम्पन्न न रखकर उसे संघ का अध्यक्ष बनाया । उसने जर्मनी के प्रधानमन्त्री, अर्थात् चांसलर के पद की व्यवस्था की । वह सम्राट, व्यवस्थापिका सभा तथा दोनों सदनों के प्रति उत्तरदायी था । उसकी सहायता के लिए सचिव रहते थे । बिस्मार्क 20 वर्षों तक जर्मनी का चांसलर रहा ।

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इस दौरान उसने निरंकुश शासन की स्थापना की । वह जर्मनी के विभिन्न राज्यों को मिलाना चाहता था । उसके इस मार्ग में विभिन्न कानून बाधा बनकर सामने आ रहे थे । अत: उसने सम्पूर्ण राज्य में 1871 से एक ही फौजदारी कानून लागू करवाया । सभी राज्यों के लिए एक ही राष्ट्रीय न्यायालय की स्थापना की । जर्मन साम्राज्य के विभिन्न राज्यों में विभिन्न प्रकार की मुद्राओं का प्रचलन था ।

सभी राज्यों में ”मार्क” नामक सिक्के प्रचलित किये, जिस पर जर्मन सम्राट कैसर विलियम प्रथम का चित्र अंकित करवाया । राज्यों में प्रचलित विभिन्न बैंकों का अन्त कर ‘इंपीरियल बैंक’ की स्थापना की, जिसे सभी राज्यों और नगरों में खोला । देश में जर्मन भाषा को अनिवार्य बनाया । विभिन राज्यों के रेल, डाक, तार, टेलीफोन पर केन्द्रीय नियन्त्रण रखा । रोमन कैथोलिकों के संघर्ष को समाप्त किया ।

कैथोलिकों का दमन करके पोप के नियमों को अवैध घोषित कर दिया । कैथोलिकों को कारागार में डाल दिया । चर्च पर सरकारी नियन्त्रण रखा । देश की आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए नवीन वैज्ञानिक साधनों का उपयोग करवाया । आयात कर में वृद्धि की । सूती कपड़े व रंग के उत्पादन को विशेष प्रोत्साहन दिया । रेलों का राष्ट्रीयकरण किया । विदेशी प्रतियोगिता को समाप्त करने के लिए जर्मन माल की बिक्री के लिए विशेष प्रयत्न किये ।

अपने विरोधी समाजवादियों का उसने बलपूर्वक दमन किया । उन्हें निर्वासन तथा कारावास का दण्ड दिया । बीगारी और वृद्धावस्था व आर्थिक दुर्घटना की स्थिति में पेंशन की व्यवस्था की । कार्य के दौरान श्रमिक की मृत्यु पर उसे 20 प्रतिशत धन दिया जाता और बीमारी पर 29 सप्ताह की छुट्टियां आधी तनख्वाह पर मिलती थीं । स्त्रियों तथा बालकों के काम के घण्टे भी सीमित करके ”रविवार” को छुट्टी का दिन घोषित किया ।

बिस्मार्क ने अपनी विदेश नीति के तहत आस्ट्रिया को पराजित किया तथा 21 जर्मन रियासतों को मिलाकर उत्तरी जर्मन संघ का निर्माण किया । चांसलर पद पर होते हुए भी वह सम्राट विलियम प्रथम की शक्तियों का उपयोग करता था । सम्राट विलियम प्रथम ने कहा था- ”वह पांच गेंदों से खेलने वाला, उनमें से दो को हवा में रखने वाला जादूगर था ।”

बिस्मार्क ने अपनी विदेश नीति के तहत यूरोप में शान्ति का वातावरण बनाये रखा । वह फ्रांस को एकाकी बनाये रखना चाहता था । जर्मनी साम्राज्य के पक्ष में गुटों का निर्माण करके उसने 1879 में त्रिगुटों का निर्माण किया । उसका नाम ”तीन सम्राटों का संघ” रखा । आस्ट्रिया के सम्राट, रूस के जार एवं जर्मनी के सम्राट के मध्य एक समझौता किया । रूस के साथ सन्धि न करने का निश्चय करने के बाद उसने 1887 में रूस से पुन: सन्धि कर ली ।

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वह इंग्लैण्ड को यूरोपीय मामलों से दूर रखना चाहता था । इस तरह वह आस्ट्रिया, रूस, फ्रांस, इंग्लैण्ड, इटली-इन पांचों देशों को मनमाने ढंग से नचा सकता था । कैटल बी० ने बिस्मार्क की विदेश नीति की समीक्षा में लिखा है कि- ”बिस्मार्क ने जर्मनी पर आस्ट्रिया के आक्रमण के समय रूस की तटस्थता, रूस के आक्रमण के समय आस्ट्रिया की तटस्थता, फ्रांस के आक्रमण पर इटली की सहायता और आस्ट्रिया तथा इटली की सहायता रूस और फ्रांस के संयुक्त आक्रमण के समय प्राप्त कर ली थीं ।

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वास्तव में यह बड़ी ही जटिल बाजीगरी थी, जिसको केवल बिस्मार्क ही कर सकता था । सन् 1888 में बिस्मार्क के भाग्य ने अचानक पलटा खाया । जर्मन सम्राट विलियम प्रथम का स्वर्गवास हो गया । उसके बाद उसका पुत्र विलियम द्वितीय सत्तासीन हुआ, जिसकी बिस्मार्क ने बिलकुल भी नहीं बनती थी । उसने बिस्मार्क को हाशिये पर करना शुरू कर दिया था । दोनों में तनाव इतना बढ़ा कि बिस्मार्क ने अपने पद से 20 मार्च 1890 में त्यागपत्र दे दिया ।

विस्मार्क की विदाई का वर्णन करते हुए राबर्टसन ने लिखा है- ”जनता की आखों से आसू बह रहे थे । बिस्मार्क कैसर विलियम प्रथम की कब्र के पास गया और बिलख-बिलखकर रोते हुए फूल चढाता हुआ भावुक मुद्रा में कब्र से बातें करता बर्लिन से चला गया ।” 1898 में बीमार पड़ने के कारण 30 जुलाई को वह महाप्रयाण कर गया ।

3. उपसंहार:

बिस्मार्क ने न केवल जर्मनी के एकीकरण में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था, बल्कि उसने जर्मनी को शक्तिशाली देश होने का गौरव प्रदान किया । बिस्मार्क जैसा राजनीतिज्ञ एवं कूटनीतिज्ञ विश्व में उंगली पर गिनने वाले ही हो सकते हैं । वह अपने देश के लिए जिया और मरा ।

उसने अपने सिद्धान्तों के साथ कभी समझौता नहीं किया । वह कल्पनाजीवी न होकर यथार्थजीवी था । यद्यपि उसमें कुछ अवगुण थे, जो उसकी महानता के समक्ष नगण्य लगते हैं । 19वीं शताब्दी के इतिहास में बिस्मार्क का नाम उल्लेखनीय रहेगा ।

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