1. प्रस्तावना:

पृथ्वीराज चौहान चाहमान वंश का सबसे अधिक प्रतापी एवं चर्चित सम्राट था, जिसे पृथ्वीराज तृतीय तथा रायपिथौरा भी कहा जाता है । उत्तरी भारत में उसके व्यक्तित्व एवं चरित्र पर कई कहानियां एवं लोक गीत प्रचलित हैं, जिनका वह नायक है । उसकी वीरगाथाओं एवं रोमांचकारी कृत्यों का वर्णन कवियों और लेखकों द्वारा किया गया है ।

2. जीवन वृत्त एवं उपलब्धियां:

पृथ्वीराज चौहान सोमेश्वर तथा कर्पूर देवी का पुत्र था । विद्वानों के अनुसार उसका जन्म 1166 को हुआ था । 1168-69 में उसके पिता सोमेश्वर अपनी पत्नी तथा 2 पुत्रों के साथ शाकम्भरी चले गये और वहां अपने पूर्वजों के सिंहासन पर आसीन हो गये ।

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उसके पिता ने पृथ्वीराज को युवराजों-सी शिक्षा व सैन्य शिक्षा प्रदान की । 1177 को जब उसके पिता स्वर्गवासी हुए, तो पृथ्वीराज का राज्याभिषेक 15 वर्ष की अवस्था में हो गया । उसकी माता कर्पूर देवी उसकी संरक्षिका बन गयीं । उसने भुवनायक मल्ल को सेनापति तथा कदंबवास को मुख्यमन्त्री बना दिया ।

1 वर्ष के बीच पृथ्वीराज का चचेरा भाई उसके विरुद्ध 1178 में विद्रोह कर बैठा । उसने गुडपुर पर अपना अधिकार कर लिया । पृथ्वीराज की सेना के साथ युद्ध करते हुए उसका चचेरा भाई नागार्जुन अपने प्राणों से हाथ धो बैठा । पृथ्वीराज ने गुडपुर पर प्रभुत्व स्थापित कर नागार्जुन के साथियों का सिर कटवाकर नगर द्वार पर लटकवा दिया ।

इसी वर्ष मुहम्मद गोरी ने मारवाड़ पर आक्रमण किया । गुजरात नरेश चालुक्य द्वारा मुहम्मद गोरी को पराजित किये जाने की खबर पाकर पृथ्वीराज बहुत प्रसन्न हुआ । पृथ्वीराज ने अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए 1182 में चंदेल नरेश परमार्दी पर आक्रमण किया, जिसमें आल्हा-उदल नामक 2 वीर भी पृथ्वीराज का सामना करते हुए शहीद हो गये ।

पृथ्वीराज ने महोबा और कालंजर पर अपना अधिकार कर लिया । 1187 में पृथ्वीराज ने चालुक्य नरेश भीम द्वितीय पर आक्रमण कर युद्ध स्थगित कर सन्धि कर ली । अजमेर और दिल्ली पर पृथ्वीराज का अधिकार था । पृथ्वीराज का समकालीन गहड़वाल नरेश जयचन्द अपने समय का शक्तिशाली शासक था ।

पृथ्वीराज उसके साथ मैत्री-भाव रखना चाहता था, किन्तु वह पृथ्वीराज के प्रति द्वेष-भाव और शत्रुता रखता था । इसका कारण जयचन्द की पुत्री संयोगिता थी, जो अपूर्व सुन्दरी थी । पृथ्वीराज के शौर्य एवं वीरता पर मुग्ध थी । अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध वह पृथ्वीराज से विवाह करना चाहती थी ।

जब जयचन्द ने संयोगिता के विवाह हेतु स्वयंवर का आयोजन किया, तब पृथ्वीराज को नहीं बुलाया । यहां तक कि उसने अपने दरवाजे पर पृथ्वीराज की गोबर की प्रतिमा बनवाकर खड़ी कर दी थी । पृथ्वीराज छद्‌म वेश में अपने सैनिकों के साथ बाहर खड़ा संयोगिता की प्रतीक्षा कर रहा था ।

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संयोगिता जयमाला लेकर पृथ्वीराज की मूर्ति तक पहुंची, तो पृथ्वीराज चौहान उसे अपने घोड़े पर बिठाकर अपने राज्य ले भागा और वहां उससे विवाह कर लिया । 1186 में मुहम्मद गोरी द्वारा गुजरात नरेश को पराजित करने के बाद उसकी सीमाएं पृथ्वीराज के राज्य की सीमा को छूने लगीं, तो मुहम्मद गोरी के साथ संघर्ष प्रारम्भ हो गया ।

1191 में सरहिंद पर आक्रमण करके मुहम्मद गोरी ने जब उसे अपने कब्जे में ले लिया, तो पृथ्वीराज और मुहम्मद गोरी की सेनाओं के बीच तराइन के मैदान में भीषण युद्ध हुआ । मुहम्मद गोरी सहित उसकी सेना पीठ दिखाकर भाग खड़ी हुई । पृथ्वीराज ने सरहिंद पर कब्जा करते हुए तराइन के प्रथम युद्ध में विजय हासिल की । युद्ध में हार के बाद भी मुहम्मद गोरी हताश नहीं बैठा ।

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उसने सरहिंद पर पुन: अधिकार कर लिया । 1192 में तराइन के दूसरे युद्ध में मुहम्मद गोरी की शक्तिशाली, उत्साही सेना का सामना करते हुए पृथ्वीराज की थकी हुई सेना बुरी तरह परास्त हो गयी । सरस्वती नदी के तट पर पृथ्वीराज चौहान को बन्दी बना लिया गया और उसे कारागार में मुहम्मद गोरी ने तरह-तरह की यातनाएं देकर उसकी हत्या करवा दी । इस युद्ध के बाद मुसलमानों का चौहान साम्राज्य पर कब्जा हो गया । चौहान वंश दक्षिण की ओर कूच कर गया ।

3. उपसंहार:

पृथ्वीराज चौहान एक वीर योद्धा, विद्यानुरागी और साहित्यकारों का आश्रयदाता था । उसके दरबार में ”चन्दबरदाई” तथा ”जगनिक” जैसे कवि स्थान पाते थे । उन्होंने अपने रचित ग्रन्थों ”पृथ्वीराज रासो” तथा पृथ्वीराज विजय में अपने आश्रयदाता पृथ्वीराज चौहान की वीरतापूर्ण गाथाओं का अत्यन्त आलंकारिक, चमत्कारपूर्ण एवं अतिशयोक्तिपूर्ण अपनी कृतज्ञता ही प्रकट की है ।

पृथ्वीराज चौहान को इतिहासकार सेनानायक तो मानते हैं, किन्तु उसमें राजनीतिक दूरदर्शिता एवं कूटनीति का सर्वथा अभाव था । उसने मुहम्मद गोरी के साथ रक्षात्मक युद्ध लड़ा । तराइन के युद्ध में मुहम्मद गोरी के बुरी तरह घायल होने पर बजाय बख्शने के उसे बन्दी बनाकर दण्ड देना था ।

उसकी सबसे बड़ी भूल यह थी कि उसने पड़ोसी राज्यों से अपने सम्बन्ध खराब रखे । भारतीय शासकों को विदेशी आक्रमणकारियों के विरुद्ध संगठित नहीं कर पाया । राज्य की सीमा की सुरक्षा पर ध्यान नहीं दिया । तराइन के द्वितीय युद्ध में मुहम्मद गोरी से सन्धि-वार्ता में लगा रहा ।

उसकी कूटनीतिक चाल को समझने की दृष्टि यदि उसमें होती, तो उसकी सेना अचानक हुए आक्रमण से इस तरह छिन्न-भिन्न होकर पराजित नहीं होती, किन्तु आगे आने वाले शासकों के लिए यह एक सबक हो सकता है ।

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