लालबहादुर शास्त्री पर निबन्ध | Essay on Lal Bahadur Sastri in Hindi

1. प्रस्तावना:

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जीवन एक कठोर साधना है और राष्ट्रभक्ति एक कठिन संकल्प । भारत के महान् सपूत लालबहादुर शास्त्री एक ऐसे ही महान् पुरुष थे, जो इस साधना और संकल्प में खरे उतरे । वे एक ऐसे महामानव थे, जिन्होंने अपने उच्चादर्शों से आने वाली पीढ़ियों को नयी प्रेरणा दी । राजनीति के क्षेत्र में उन उदात्त नैतिक मूल्यों को रखा, जो आज भी प्रासंगिक हैं ।

2. जीवन परिचय:

लालबहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर 1904 को मुगलसराय के एक सामान्य परिवार में हुआ था । उनके पिता श्री शारदाप्रसाद श्रीवास्तव एक साधारण अध्यापक थे । वे एक आदर्श शिक्षक होने के साथ-साथ सहृदय एवं उदार चरित्र के व्यक्ति थे, जिनका प्रभाव लालबहादुर पर गहरे रूप से पड़ा था । पिता की आकस्मिक मृत्यु हो जाने पर अल्पायु में ही उन्हें आर्थिक बोझ का सामना करना पड़ा ।

मां रामदुलारी ने लालबहादुर में स्वाभिमान की भावना ऐसी कूट-कूटकर भरी थी कि एक बार 12 वर्ष की अवस्था में अपने साथियों के साथ गंगा पार मेला देखने गये लालबहादुर जब लौटने लगे, तो उनके पास पैसे नहीं थे ।

उन्होंने अपने साथियों को यह बात नहीं बतायी । वे यह कहकर किनारे रुक गये कि वे बाद में आयेंगे । सब मित्रों के चले जाने के बाद उन्होंने गंगा का चौड़ा तट तैरकर पार किया । हाईस्कूल की परीक्षा हरिशचन्द्र रकूल वाराणसी से पूर्ण की ।

3. उनके कार्य:

1921 में गांधीजी के साथ असहयोग आन्दोलन में शामिल हो गये । काशी विद्यापीठ से बी०ए० की उपाधि प्राप्त करने के बाद अपने नाम के आगे बी०ए० न जोड़कर शास्त्री जोड लिया, ताकि इससे भारतीयता की पहचान हो । इसके बाद अपने साथियों के साथ लाला लाजपतराय की पीपुल्स सोसाइटी में शामिल होकर प्रथम कार्य हरिजन उद्धार का किया ।

फिर वे लोकसेवक संघ के आजीवन सदस्य बन गये । इस कार्य से इलाहाबाद आ गये । इलाहाबाद में वे कांग्रेस कमेटी के महासचिव तथा 1930-36 तक अध्यक्ष रहे । उनके संगठन व कार्यक्षमता ने उन्हें बड़े-बड़े नेताओं की श्रेणी में ला खडा किया । 1940 में शासन विरोधी गतिविधियों के कारण उन्हें जेल जाना पड़ा । इस बीच वे 8 बार जेल गये । 10 वर्षों तक उनके तथा उनके परिवार को घोर आर्थिक संकट झेलना पड़ा ।

शास्त्रीजी की कर्तव्यनिष्ठा और योग्यता को देखते हुए 1951 में प्रधानमन्त्री नेहरू ने उन्हें कांग्रेस का महासचिव बनाया । भारतीय गणतन्त्र के लागू होने के बाद उन्हें रेल तथा परिवहन मन्त्री बनाया गया । उन्होंने छोटे-छोटे स्टेशनों का निर्माण करवाया । हजारों मील लम्बी रेल लाइनें बनवायीं । इंजन, मालगाड़ी तथा सवारी गाड़ियों के वर्कशाप बनवाये । तीसरी श्रेणी के यात्रियों को भी सुविधाएं मुहैया करवायीं ।

1952 में आरियालूर रेल दुर्घटना को अपनी नैतिक जिम्मेदारी मानते हुए उन्होंने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया । 1956-57 में उन्हें संचार एवं परिवहन मन्त्री का कार्य सौंपा गया । इसके बाद वे वाणिज्य और उद्योग विभाग के मन्त्री भी बनाये गये । इस पद पर रहते हुए उन्होंने विदेशी व्यापार और लघु उद्योग-धन्धों को बढ़ावा दिया । 26 जनवरी 1964 को उन्हें नेहरूजी की अस्वस्थता के कारण बिन विभाग का मन्त्री बनाया गया ।

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1962 के चीनी आक्रमण से आहत नेहरूजी का देहावसान 26 मई 1964 को हो गया । नेहरूजी की मृत्यु के बाद लालबहादुरजी को सर्वसम्मति से प्रधानमन्त्री चुना गया । अपने शासनकाल में उन्होंने नेपाल की सदभावना यात्रा की । बंगाल और असम का भाषा विवाद, कश्मीर में हजरत बल दरगाह के विवाद सुलझाये ।

प्रधानमन्त्री के रूप में सर्वप्रथम संयुक्त अरब गणराज्य की यात्रा की । एशिया के तटस्थ राज्य सम्मेलन में भाग लिया । भारत की तटस्थ सहअस्तित्ववादी नीतियों का प्रचार किया । काहिरा, करांची जाकर महत्त्वपूर्ण विषयों पर बात की । लंका के प्रवासी भारतीयों की वर्षों से उलझी समस्या को सुलझाने के लिए वे वहां की तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती भंडारनायके से मिले ।

पाकिस्तान को 1965 के युद्ध में कड़ी मात देने के बाद वे रूस की मध्यस्थता पर सन्धि वार्ता करने जनवरी 1965 को ताशकंद गये । वहां पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति अयूब खान ने कोसीजीन की मध्यस्थता में युद्ध सैनिकों और जीती जमीन लौटाने का शान्तिपूर्ण समझौता किया । 11 जनवरी 1966 को स्लो पॉइजन से उनकी आकस्मिक मृत्यु हो गयी ।

4. उपसंहार:

लालबहादुर शास्त्री एक अद्वितीय नेता, कर्मवीर, साहसी, ईमानदार, सादगीप्रिय व्यक्ति थे । अपने जीवनकाल में उन्होंने कभी शासकीय सुविधाओं का दुरुपयोग नहीं किया । वे अपने बच्चों को भी राशन दुकान से आम आदमी की तरह राशन लाने भेजा करते थे । शासन के विभिन्न पदों पर रहते हुए शास्त्रीजी ने अपने दायित्वों का ईमानदारी और पूर्ण निष्ठा से पालन किया ।

उनके जैसा आत्मबल, लगन, शक्ति, वाणी में ओजस्विता किसी में नहीं थी । कहा जाता है कि- ”जो कार्य उन्होंने अपने 18 माह के कार्यकाल में किया, शायद नेहरूजी उसे 18 वर्षों में भी नहीं कर पाये । पाकिस्तान को युद्ध में करारी मात देना उनके सैन्य मनोबल का सशक्त उदाहरण है । वे होते, तो आज कश्मीर समस्या का कोई-न-कोई हल अवश्य निकल गया होता । वे सचमुच ही अपने सिद्धान्त और व्यवहार में महान् थे ।

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