रवीन्द्रनाथ टैगोर: भारतीय सांस्कृतिक परम्परा के अग्रदूत पर निबन्ध | Hindi Essay on Rabindranath Tagore!

प्रस्तावना:

रवीन्द्रनाथ टैगोर आधुनिक भारत के ऐसे महापुरुष थे, जिनके जन्म एवं विचारों का भारत पर अत्यधिक गहरा प्रभाव पड़ा । इनके महान विचार ही थे, सामान्य व्यक्तियों से पूर्णत पृथक करते है ।

चिन्तनात्मक विकास:

समस्त प्रतिमाओं के स्वामी रवीन्द्रनाथ टैगोर जी का जन्म में हुआ था । रवीन्द्रनाथ टैगोर उच्च कोटि के कवि थे, इसका प्रमाण उनके द्वारा री प्रख्यात गीताजंलि काव्य संग्रह है । उनके द्वारा प्रतिपादित मान्यताओं एवं विचारों को भारत मँ ही सराहा गया वरन विश्व में भी यह विशेष लोकप्रियता एवं सराहना के महान कवि होने के साथ-साथ यह भारतीय सांस्कृतिक परम्परा के अग्रदूत के रूप किये जाते हैं ।

अत: यह देशभक्त, समाज सुधारक, श्रेष्ठ शिक्षाविद एवं दार्शनिक थे । राष्ट्रवाद, सत्य एवं अहिंसा, ग्रामोत्थान, धर्म एवं राजनीति, शिक्षा व्यवस्था, साथ आदि सभी क्षेत्रों में उनके विचारों एवं कार्यो द्वारा महत्वपूर्ण परिवर्तन लाये गये । खना एवं भाबुकता का पुट सर्वाधिक था यह उनके द्वारा प्रस्तुत किये गये विचार्रो से है । अपनी लेखनी के द्वारा उन्होंने सुप्त समाज को जागृत किया और विद्यमान ब्रिटिश् के शोषण की ए शब्दों में भर्त्सना की ।

उपसंहार:

रवीन्द्रनाथ टैगोर मानवतावादी थे । उन्होंने व्यक्ति के हितों को महत्व दिया । वह राष्ट्र एवं समाज से सर्वोपरि मानव को मानते थे । गरीब लोगों के प्र विशेष सहानुभूति थी । भारतीय नारी को उन्होंने उच्च क्यान देकर गौरव प्रदा आध्यात्मिकता एवं नैतिक आदर्शो एवं मूल्यों को उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवक बुनियादी शिक्षा के वे पक्षधर थे ।

जब कभी भी भारत के आधुनिक काल के सबसे महान एवं सर्वश्रेष्ठ कवियों की है तो रवीन्द्रनाथ टैगोर का नाम सभी के मुख पर स्वत: ही आ जाता हूँ । रवीन्द्रनाए 7 मई, 1861 को कलकत्ता में गंगा तट पर स्थित एक स्थान जीरास्की में हुआ था ।

नका नाम शारदा देवी एवं पिता का नाम देवेन्द्रनाथ ठाकुर था । रवीन्द्रनाथ टैगोर के पूर्व बंग्लादेश के अपने मूल स्थान से कलकत्ता के निकट गोविन्दपुर में आकर बस गये थे, ज् की बस्ती थी । यहाँ के लोगों ने अपने बीच एक ब्राह्मण को पाकर उन्हें ‘ठाकुर’ यानी ई प्रारम्भ कर दिया था और यही सम्बोधन कालान्तर में ‘टैगोर’ बन गया, जिसका प्रर अंग्रेजों ने किया ।

रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपने पिता द्वारा ही अंग्रेजी, वाल्मीकि रामायण, खगोलशास्त्र, संस्कृत एवं उपनिषदों की प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त की थी । टैगोर का विवाह 25 वर्ष की आयु में देवी के साथ हुआ था । इन्होंने बाल्यावस्था से ही काव्य रचना प्रारम्भ कर दी थी ।

संध्या नाम से उनके गीत संग्रह 1882 में प्रकाशित हुआ, जिससे प्रसिद्ध बंगला कथाकार औ राष्ट्रगीत के रचयिता बंकिमचन्द्र चटर्जी अत्यन्त प्रभावित हुये । वस्तुत: यह सर्वतोम्मुखी प्रस्तावनी थे । वह प्रख्यात कवि होने के साथ, एक उपन्यासकार, निबंधकार एवं नाटककार तत्पश्चात्‌कालीन जीवन में उन्होने चित्रकार के रूप में भी ख्याति प्राप्त की ।

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उनकी में भाबुकता, वेदना, मर्मस्पर्शिता, का अत्यधिक पुट है । वह हृदय की गहराइयो को सह जाती है । भारतीय नारी को उन्होने उच्चकोटि का स्थान प्रदान किया है । यही कारण है सभी रचनाओ में नारी की भूमिका विशेष रही है । उन्होंने नारी को भारतीय सस्कृति का प्रतीक माना है ।

सन् 1910 में उनके बंगला गीतों का संग्रह ‘गीतांजलि’ के नाम से प्रकाशित हुआ । संग्रह सर्वाधिक प्रसिद्ध है । रवीन्द्रनाथ ने गीताजलि का स्वय ही 1912 में अंग्रेजी किया और इसी वर्ष इसे लेकर लंदन गए । लदन में रवीन्द्रनाथ टैगोर की भेंट विख्यात् ‘विलियन रोथेन्व्हाइन’ से हुई ।

जिन्होंने अपने घर 7 जुलाई, 1912 को गीतांजलि का बी. येट्‌स से कराया । इस अवसर पर अमेरिकी कवि एजरापाउंड, भारत में ‘दीनबंधु’ लोकप्रिय सी. एफ एंड्रयूज, ने सिनक्तैर तथा हेजरी नेविन्सन भी उपस्थित थे । इस सफलता और गीतांजलि को मिली लोकप्रियता एवं सराहना के पश्चात् रवीन्द्रनाथ टै महानतम कवि मान लिये गये ।

नवम्बर 1913 में रवीन्द्रनाथ की गीतांजलि को नीbए प्रदान किया गया, जिससे समस्त भारतीयों की प्रसन्नता का कोई अन्त न रहा । कलकत्ता विश्वविद्यालय से 1913 में उन्होंने डी.लिट् की उपाधि प्राप्त विश्वविद्यालय ने उन्हें न केवल इस सम्मानित उपाधि से ही विभूषित नहीं किया अ गौरव का अनुभव किया ।

रवीन्द्रनाथ जी के ही सुझाव पर बंगला भाषा को कलकत्ता स्तर की परीक्षाओं के पाठ्‌यक्रमों में शामिल किया गया । ब्रिटिश सरकार ने 1913 ‘सर’ की उपाधि प्रदान की । देश में ही नहीं वरन सम्पूर्ण विश्व में उन्हें सम्मान प्राप्त भारतीय जनता में तत्कालीन पराधीनता से मुक्ति दिलाने हेतु अपनी कृतियों के माध्या के बीज प्रस्फुटित किये ।

‘आध्यात्मिक राजदूत’ के रूप में उन्होंने एशिया के देशों, यूरोप का विस्तृत भ्रमण किया और सभी देशों के लोगों को भारतीय संस्कृति एंव सार करा कर देश को गौरवान्वित किया । स्पष्टत: पराधीनता के युग में भी बौद्धिक जगत में भारत का मस्तक ऊँचा उठा दिया ।

रवीन्द्रनाथ टैगोर न केवल उत्कृष्ट कोटि सर्वश्रेष्ठ कवि थे, अपितु दे रवीन्द्रनाथ टैगोर ने स्वदेशी आन्दोलन में भी भाग लिया । उनकी राष्ट्रभक्ति उदार अंतेर्राष्ट्रीय पर आधारित थी, न कि संकीर्णताओं पर । इसीलिए टैगोर जी ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं के अपनाने सम्बंधी आन्दोलन का समर्थन किया ।

वे गाँधी जी की ही भाँति स्वदेशी उद्योगो को बढावा देने के समर्थक थे । ग्राम सुधार कार्यों हेतु उन्होंने शान्ति निकेतन के निकट ‘श्रीनिकेतन’ की स्थापना की । तदान्तर उन्होंने लोककला, लोकनृत्य, लोकगीत, लोकशिक्षा, शिल्पकला और सहकारिता आंदोलन को भी पर्याप्त प्रोत्साहन प्रदान किया ।

उन्होंने संगीत नवीन शैली ‘रवीन्द्र संगीत’ को भी जन्म दिया और परम्परागत भारतीय नृत्यों के संरक्षक के में नृत्य की एक नई शैली भी प्रदान की । यह सत्य है कि वह उग्रवादी राजनीतिक आन्दोर में विश्वास नहीं करते थे, किन्तु जब कभी भी साम्राज्यवादी अंग्रेजी सरकार भारतवासियों अत्याचार एवं शोषणकारी दमन नीति अपनाती थी, तो उनके विरुद्ध आवाज उठाने में भी कदापि भयभीत नहीं होते थे ।

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उन्होंने प्राय: स्वयं को राजनीतिक आन्दोलनों से पृथक् ही रर 13 अप्रैल, 1919 को ब्रिटिश सरकार के अधिकारी जनरल डायर के नेतृत्व में अंग्रेजी सेन द्वारा अमृतसर के जलियावाला बाग में पुरुषों, स्त्रियों एवं बच्चों की सभा पर अंधाधुंध गोली चला किये गए हत्याकाण्ड से धुब्य और चिन्तित टैगोर ने ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रदान की गई दर की उपाधि को वापिस लौटा दिया, जोकि अंग्रेजी सरकार की उनके द्वारा सबसे कठोर भ थी ।

रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा मानव संस्कृति एवं शिक्षा के विकास के क्षेत्र में सबसे वृहद योग शान्तिनिकेतन में स्थापित विश्वभारती स्कूल था, जिसे 22 दिसम्बर, 1921 को विश्वविद्यालय रूप प्रदान किया गया । इस सस्था की स्थापना हेतु उन्होंने तत्कालीन सरकार से किसी प्र की आर्थिक सहायता नहीं ली और लगभग पचास वर्षो तक इस संस्था को अपनी पुस्तकों प्राप्त होने वाली आय और पैतृक सम्पत्ति से चलाते रहे ।

रवीन्द्रनाथ टैगोर जी की मृत्यु 7 आ 1941 को कलकत्ता मे ही हुई । इनकी मृत्यु के पश्चात् विश्वभारती स्कूल का संचालन भार भार सरकार ने अपने ऊपर ले लिया और उसे केन्द्रीय विश्वविद्यालय का रूप प्रदान किया । उल्लेर है कि रवीन्द्रनाथ टैगोर भारतीय संस्कृति के वास्तविक अर्थो में वाहक थे ।

काव्यात्मक कृतियों की भाँति ही उनका जीवन कोमल एवं अनुपम, सौन्दर्यपूर्ण एवं मनोहारी था । उनकी रचनाएँ हमें उनकी उपस्थिति का बोध कराती हैं, भले ही आज वह हमारे बीच नहीं हैं । राष्ट्रपिता महात्मा गांधीजी भी रवीन्द्रनाथ टैगोर को अपना मार्गदर्शक मानते थे और श्रद्धापूर्वक उन्हें ‘गुरुदेव’ कहते थे ।

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टैगोर जी इसी नाम से आज भी कोटि-कोटि भारतीयों के बीच जाने जाते हैं और जाने रहेंगे । रवीन्द्रनाथ टैगोर न तो समाज सुधारक थे, न ही अर्थशास्त्री और न ही राजनीतिज्ञ थे अभिव्यक्ति का माध्यम भी दर्शनशास्त्र न होकर कवित्तमय था, किन्तु इसके बावजूद भी वे सभी कुछ थे ।

प्राय: जीवन के सभी क्षेत्रों में उनकी उपलब्धियों को नकारा नहीं जा सकता । यही है कि उनकी समग्र दृष्टि उन्हें भारतीय समन्वयवादी सांस्कृतिक परम्परा का अग्रदूत बना देती है । उनके विश्वासो एवं विचारों को हम निम्न तथ्यों द्वारा भली-भाँति जान सकते हैं:

स्वतन्त्रता एवं व्यक्तिगत स्वतन्त्रता सम्बंधी विचार:

वस्तुत: रवीन्द्रनाथ टैगोर जी मात्र राजनीतिक स्वतन्त्रता मे ही विश्वास नहीं करते थे वरन् व्यापक स्वतन्त्रता के पक्षधर थे अऐ ही वह आत्मा की स्वतन्त्रता भी कहते थे । टैगोर के मतानुसार यदि हम राजनीतिक सफलत करने में असमर्थ रहते हैं तो हमें स्वतन्त्रता का हरण करने वाली के साथ भी सहयोग नहीं चाहिए । व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के समर्थक वह प्राचीन राजनीतिक विचारधाराओं से ही प्रभावित बने थे ।

जहाँ तक हमारे प्राचीन विचारकों एवं विद्वानों के मत का प्रश्न है तो उन्होंने भी राज्य की अपेक्षा समाज को तथा समाज की अपेक्षा व्यक्ति को अत्यधिक महत्व प्रदान किया है । ठाकुर रवीन्द्रनाथ जी ऐसी व्यवस्था के कड़े विरोधी थे जो व्यक्तियों के प्रति अन्याय और ल की नीति अपनाती है । इसका स्पष्ट प्रमाण टैगोर जी द्वारा ब्रिटिश सरकार को ‘सर’ की उपाधि वापिस लौटाना था ।

सामाजिक समानता और वैयक्तिकता:

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टैगोर जी का मत था कि आथिँक सामाजिक समानता स्थापित करने में सक्षम होती है । इनके मतानुसार प्रत्येक व्य एक स्वतन्त्र प्रतिभा एवं विचारधारा का समावेश होता है और इसी स्वतन्त्र विचारधार के कारण ही वह अन्य लोगो की भाँति एक ही मार्ग का अनुसरण नहीं कर सकता ।

प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार होता है कि वह अपनी योग्यता एवं प्रतिभा के अनुसार अपना विकास अथवा राज्य को इसमे किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए । व्यक्ति के भील क्षमता, व्यक्तिगत रूप से ही विकसित होती है । अत: उसका क्रियात्मक रूप साम सकता ।

धर्म के प्रति निष्ठाभाव:

रवीन्द्रनाथ टैगोर जी धर्मनिष्ठ व्यक्ति थे और इसी ईश्वरीय सत्ता के प्रति परम विश्वास एवं आस्था थी क्योंकि उनका जन्म ही ऐसे समय हुआ था जबकि भारत में पुनर्जागरण की लहर दौड़ रही थी और सर्वत्र सामाजिक सुधार सुनाई पड़ रही थी ।

वे नैतिकता पर आधारित उचित मार्ग को धर्म की श्रेणी में रखते थे । टैगोर जी गीता में दिये गये उपदेशो के अनुरूप कर्म में विश्वास रखते थे और त्याग को मात्र प्रदर्शन मानते थे । उनके धार्मिक चिन्तन में मोक्ष अथवा मुक्ति हेतु कोई स्थान नहीं था सन्यास तथा वैराग्य को वह शक्ति का हास मानते थे । टैगोर जी सच्चे अर्थों में मनवतावादी थे ।

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उनका यह विश्वास था कि ईश्वर कठोर परिश्रम कष्णै वालों के हृदय में निा इसीलिए रवीन्द्रनाथ टैगोर विश्व की समस्त वस्तुओं एवं क्रिया-कलापों में ईश्वरीय तत्त्व की अनुभूति तथा उपस्थिति को स्वीकार करते थे । टैगोर जी धर्म के उस रूप को सर्वोपरि मान के समस्त प्राणिजगत से अनन्यतम प्रेम करना सिखाता है । इसी कारण उन्होंने भौगोलिक सीमा में बाँधकर नहीं रखा था ।

संस्कृति एवं सभ्यता के प्रतीक:

रवीन्द्रनाथ टैगोर जी के अनुसार “प्रत्येक स सस्कृति और सभ्यता होती है और इसी के द्वारा उस समाज में रहने वालों को एवं ऊर्जा मिलती है । इसीलिए सभी समाजों को अपनी संस्कृति एवं सभ्यता पर गर्व होना चाहिए ।” संस्कृति ही व्यक्ति में आदर्शो एवं नैतिक मूल्यो का विकास करती है । टैगोर जी चाहते थे की प्रत्येक व्यक्ति को सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति की परम्परा एवं विचारो को जानना औ चाहिए ।

व्यक्ति को अपनी संस्कृति की रक्षा हेतु स्वयं के तुच्छ स्वार्थो का त्याग कर देना चाहिए । जब भी समाज द्वारा किसी जन-समुदाय को शोषित किया जाता है अथवा पृथर हे तो इसका तात्पर्य होता है कि उस समाज की संस्कृति एवं सभ्यता खतरे में सभ्यता के माध्यम से टेगोर जी विश्व एकीकरण का स्वप्न देखते थे । मानवतावदि उनका मत था कि समूची मानवता की समृद्धि विविध संस्कृतियों के मूल बिन्दुओं ही सम्भव है ।

पूर्व एवं पश्चिमी सभ्यता का समागम:

सम्भवत: टैगोर जी अपने मानवतावाद, अजराष्ट्रायताव । तथा व्यक्ति की एकरूपता की अवधारणा को मूर्त रूप देने हेतु पूर्व एवं पश्चिमी सभ्यता का मिलन चाहते थे । बिश्वभारती विश्वविद्यालय की स्थापना करते समय उन्होंने कहा था कि इसका उददेश् पूर्व और पश्चिमी के संयुक्त समागम का अध्ययन करना और दो गोलार्द्धों के मध्य विचारो स्वतन्त्र आदान-प्रदान के द्वारा विश्व शान्ति की मूल अवधारणाओं को सशक्त करना है ।

उनका मत था कि जब कभी भी किसी रचना का सृजन किया जाता है तो वह रचना अथवा कृति किसी समाज या व्यक्ति अथवा वर्ग विशेष के लिए न होकर, संसार के समस्त लोगों के लिए होती और समी का उस पर समान अधिकार होता है और यही कारण है कि आज तक विश्व के सम महान साहित्य, कला एवं महापुरुषों के विचार सम्पूर्ण मानव जाति की धरोहर स्वरूप हैं । टैगोर जी का कहना था कि हमें पश्चिम से वैज्ञानिक दृष्टिकोण एवं अनेकता में एकता का विचार अवश्य ग्रहण करना चाहिए ।

मानवतावादी तथा अन्तर्राष्ट्रीयतावादी दृष्टिकोण:

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टैगोर जी का दृष्टिकोण इतना राष्ट्र नहीं था जितना कि मानवतावादी । इसी कारण उनकी मूल भावना अन्तर्राष्ट्रीयतावादी थी । उनके अन्तर्राष्ट्रीयतावाद को ही आध्यात्मिक मानवतावाद कहा जा सकता है । रवीन्द्रनाथ टैगोर प्रत्येक व्यक्ति को विश्व नागरिक मानते थे ।

उनके मतानुसार मनुष्य का होना ही मनुष्य की आवश्यकता है, इसीलिए कठिनाई के समय मनुष्य ही मनुष्य के काम आता है । यही कारण था कि उनके कवि हृदय ने किन्ही ही प्रकार की संकीर्णताओं को प्रश्रय नहीं दिया । सभी मनुष्यों की एक जैसी भावनाएँ होती हैं, इसलिए हमे यह नहीं मानना चाहिए कि हम इस देश के उस देश के नागरिक हैं ।

सभी की संवेदनायें एक ही प्रकार की होती हैं । इसी कारण ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का सिद्धान्त उन्हें सर्वप्रिय था । वह देश अथवा प्रत्येक व्यक्ति को उसकी समर देखते थे । टैगोर जी ने सदैव ही वैश्वीकरण की बात अपनी आध्यात्मिक आस्थाओं के परं ही की है । वह विश्व के सभी व्यक्तियों को एक मानते थे और व्यक्ति-व्यक्ति में अन विरोध करते थे ।

उन्होंने विश्वशान्ति को भी आध्यात्मिक अनिवार्यता के रूप में स्वीकार टैगोर भौतिकवाद को अनैतिक मानते हुये भी उसकी अनुभूति से दुःखी नहीं थे । उनका था कि भारत की समृद्ध सास्कृतिक विरासत, पश्चिम के भौतिकवाद के समाधान हेतु पर यदि हमारी गरीबी का निराकरण भौतिकवादी तत्वों को अपनाने से हो सकता है तो उसे अपनाने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए, किन्तु उसे वास्तविक यथार्थ नहीं मानना चाहिए क्योंकि हमारा कल्याण सन्देहास्पद हो जाता है । हमारे धर्म एवं दर्शन में भी वे सभी तत्व सम जो हमें मानवतावादी बनाये रखने में अत्यावश्यक हैं ।

आर्थिक दृष्टिकोण:

टैगोर जी विद्यमान तत्कालीन आर्थिक व्यवस्था को शोषण पर आधारित व्यवस्था मानते थे क्योकि वह गरीबी और अमीरी के मध्य असमानताओं में वृद्धि कर रही थी । उनका मत था कि वर्तमान समाज के आध्यात्मिक एव नैतिक मूल्यो के हास का कार हुई अर्थलिप्सा की प्रवृति है ।

उन्होने कहा कि प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य मानवता हेतु कार्य करना होना चाहिए । वे किसानो की प्रगति हेतु सहकारी जीवन के समर्थक थे । टैगोर जी ने नोबेल पुरस्कार से प्राप्त राशि को कृषको के हितो की रक्षा हेतु उनमें वितरित कर दी थी ।

वह गाँधीजी के ग्रामोत्थान कायक्रमों के भी समर्थक थे पार थ । रवीन्द्र नाथ टैगोर जी के अनुसार आर्थिक स्वतन्त्रता के बिना राजनैतिक स्वतन्त्रता नगण्य है । उन्होंने भारत के लघु एवं कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहित किया ।

भारतीय गाँवों के प्रशसक थे । यही कारण था कि वह निर्धन किसानों और मजदूरों के वाले शोषण से चिन्तित एव दुःखी हो जाते थे । टैगोर जी ने आर्थिक शोषण का घोर शब्दों में विरोध किया तथा श्रमिको को उनका समुचित पारिश्रमिक दिलाने के पक्षधर थे ।

शिक्षा सम्बंधी विचार:

इसमें कोई सन्देह नहीं है कि वह एक महान शिक्षाविद भी थी । उस समय की अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था को वह अनुपयोगी एवं बधन मानते थे, इसीलिए उसकी भी की । उनके अनुसार शिक्षा का प्रमुख उद्‌देश्य अपनी प्रतिभा की पहचान एवं आत्म से हे ।

ADVERTISEMENTS:

प्रत्येक व्यक्ति स्वय को पहचानकर ही बाह्य जगत से तादाल्म स्थापित करने हो पाता है । विश्वभारती की स्थापना भी इन्हीं उददेश्यों से प्रेरित होकर की गई थी । टैगोर ने शिक्षा के व्यावहारिक एव सैद्धान्तिक दोनों पक्षों पर बल दिया ।

उन्होंने शिक्षा के व्यक्तित्व के विकास हेतु महत्वपूर्ण साधन माना । एक स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ आ करती है, इसीलिए व्यक्ति का केवल बौद्धिक एवं नैतिक विकास ही आवश्यक नहीं आ शारीरिक विकास भी जरूरी है । टैगोर जी ने सदैव ही स्वावलम्बी और आत्मनिर्भर बनाने वाली शिक्षा का समर्थन किया । उनके अनुसार शिक्षण में दण्ड की प्रक्रिया नहीं होनी चर्म विचार में शिक्षक को अपने स्वयं के चरित्र के माध्यम से ही विद्यार्थी को सचरित्रत देनी चाहिए ।

उन्होंने शिक्षा पद्धति में सार्वभौमिकता पर भी विशेष बल दिया । विद्या; न केवल भारतीय सस्कृति की पूर्ण जानकारी होनी चाहिए वरन् विश्व की संस्कृति को भी जानना चाहिए । टैगोर का मानना था कि जब विद्यार्थी अपनी मातृभाषा के माध्यम से ज्ञानोप है, तभी समझो शिक्षा का उद्‌देश्य पूर्ण हो गया है ।

उन्होंने विदेशी भाषाओं के अत्त विरोध कभी नहीं किया । स्त्री शिक्षा के भी वह प्रबल समर्थक थे । उनका मत था कि के बिना परिवार में शान्ति स्थापित नहीं हो सकती । सर्वप्रथम बालक परिवार में माँ ग्रहण करता है, जिनका विकास देश की शिक्षा व्यवस्था का मुख्य लक्ष्य है ।

अत: कहा जा सकता है कि रवीन्द्रनाथ टैगोर जी ने भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी, जिस संस्कृति की पृष्ठभूमि में हम सभी सौ; वह उनकी ही देन है । उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि वह वास्तव में ही स समाज सुधारक, लेखक, महान शिक्षाविद एवं भारतीय संस्कृति के प्रतीक थे ।