रवींद्रनाथ टैगोर का जीवन-दर्शन पर निबन्ध |Essay on Rabindranath Tagore’s Life in Hindi!

प्राचीन मनीषियों जैसा सुगठित शरीर, लंबी श्वेत दाढ़ी, घनी-पतली भौंहें सिर पर भारतीयता की द्योतक जटाएँ उन्नत ललाट, ममता और करुणा से प्लावित आँखें, अपने ही ढंग का अद्‌भुत चोगा मानो कुछ कहना चाहते हों, ऐसा था स्वरूप गुरुदेव का ।

रवींद्रनाथ टैगोर भारत के उन देदीप्यमान रत्नों में से एक हैं, जिन्होंने भारत के चेहरे को पढ़ने का प्रयास किया, जिन्होंने भारत के खोए हुए आत्म-विश्वास को ढूँढने का प्रयास किया, जिन्होंने मानवता की कष्टों से राहत, छुटकारे और बोध के लिए अपना संपूर्ण जीवन अर्पित कर दिया, जिन्होंने भारत के वेदों और उपनिषदों की म्रियमाण संस्कृति को नवीन जीवन और चेतना देकर अंतरराष्ट्रीय प्रांगण में खड़ा किया, जिन्होंने देश के रग-रग में ‘उत्थितव्यम्’, ‘जाग्रतव्यम्’ और ‘बोधितव्य’ की भावना का संचार किया, जिन्होंने प्रकृति की मंद सिहरन और रहस्यमय रूप से तादात्म्य स्थापित किया, जिन्होंने कला को सौंदर्य का बोध दिया, जिन्होंने सौंदर्य को गति दी और जिन्होंने गति को शिव तक पहुँचाया ।

गुरुदेव का जन्म ७ मई, १८६१ को कलकत्ता के एक प्रसिद्ध और संपन्न घराने में हुआ था । उनके पिता महर्षि देवेंद्रनाथ टैगोर (१८१७-१९०५) एक गंभीर विचारक, असाधारण प्रतिभा-संपन्न ‘ब्रह्म समाज’ के मार्गदर्शकों में थे । रवींद्रनाथ की शिक्षा आजकल की प्रचलित शिक्षा-प्रणाली के अनुसार नहीं हुई ।

उन्हें नगर के अशांत वातावरण में शांति न मिली । प्रकृति की गोद में बैठकर उन्होंने उसके मूक स्पंदनों और विचारों को समझा । टैगोर ने घर में ही वेदों, उपनिषदों तथा विश्व की श्रेष्ठ रचनाओं का अध्ययन किया । उन्होंने २४ वर्ष की अवस्था में पिता से घर का कार्य-भार ग्रहण किया । अवकाश के समय में वे साहित्य-सृजन में लगे रहे ।

गुरुदेव ने लगभग ३०-४० गद्य तथा लगभग ४०-५० पद्य विधाओं में रचनाएँ कीं । साहित्य का प्राय: कोई भी अंग गुरुदेव की लेखनी से बच न सका । उपन्यास, आख्यायिका, निबंध, गीत, भजन, नाटक इत्यादि में गुरुदेव ने असाधारण सफलता प्राप्त की ।

गुरुदेव का सारा जीवन साधना और तपस्यामय था । ज्यों-ज्यों उनपर साहित्य और कला का प्रभाव पड़ता गया त्यों-त्यों उनके जीवन में सादगी, अपरिग्रह और तापस-गुणों का प्रवेश होता गया । गुरुदेव ने बंग-साहित्य को नूतन विचार प्रवाह- धारा प्रदान की । गुरुदेव के एक भी शब्द व्यर्थ नहीं । छोटे-छोटे वाक्यों में वे असीम भाव-सौंदर्य भर देते थे ।

गुरुदेव ने ‘गीतांजलि’, ‘दी गार्डनर’, ‘साधना’, ‘दी क्रिसेंट’, ‘मून’, ‘चित्र’, ‘दी किंग ऑफ दी डार्क चैंबर’, ‘दी पोस्ट-ऑफिस’, ‘एटले’, ‘नेशनलिज्म पर्सनैल्टी’, ‘लवर्स गिफ्ट रेमेनिर्सेस’, ‘दी रेक’, ‘गोरा’, ‘लेटर्स फ्रॉम ए बोर्ड आईसोर’, ‘ब्रोकेन हाइज’ आदि अनेक कृतियों का प्रणयन किया ।

सन् १९१२ से १९२० की उनकी विश्व-यात्राएँ विशेष रूप से उल्लेखनीय रहीं । विश्व ने उनके अनमोल विचारों को समझा और उन्हें उत्कृष्ट स्थान दिया । सन् १९१३ में उन्हें साहित्य की उत्कृष्ट सेवा के लिए विश्व विख्यात नॉबेल पुरस्कार से सम्मानि किया गया । विदेशियों के सम्मान का प्रमाण इस पुरस्कार से बढ़कर और कुछ नहीं हो सकता था ।

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कलकत्ता विश्वविद्यालय ने उन्हें डीलिट की उपाधि से विभूषित किया । ७ अगस्त, १९४१ को इस महान-विश्वकवि का शरीरांत हो गया । रवींद्र यद्यपि मौलिक विचारक थे, तथापि उनकी रचनाओं में पंद्रहवीं और सोलहवीं शताब्दियों में जीवन और प्रेम के वैष्णव कवियों की सुकुमार चेतनाओं की गहरी छाप है ।

कबीर के रहस्यवाद से भी वे प्रभावित थे । वेद और उपनिषद् की छाया उनकी रचनाओं पर पड़ी है । उपनिषद् का दर्शन टैगोर की धार्मिक कविताओं और गंभीर चिंतन के निबंधों में संगृहीत है । टैगोर ने इन संपूर्ण रचनाओं के दार्शनिक भावों को लेकर अपने विलक्षण प्रतिभा के रंग में रंजित कर दिया था ।

टैगोर मानवता के असीम पुजारी थे । उनकी दृष्टि में मनुष्य विधाता की अनुपम कृत्ति है । विश्व में उसका स्थान संदिग्ध नहीं । जीवन और मृत्यु की सीमा के अंतर्गत मानव-कर्त्तव्य आत्म-चिंतन, प्रेम और कर्तव्य-निष्ठा में है । इसी में जीवन की शांति और वास्तविक सुख है ।

टैगोर-साहित्य उपनषिद् की प्रस्तावना है । उनका अध्यात्म उपनिषद् की नींव पर खड़ा है । टैगोर की दार्शनिक विचारधाराओं के अनुसार मानव ईश्वर से पृथक् नहीं । हमारी आत्मा ब्रह्म की आत्मा से पृथक् नहीं । संसार ईश्वर की कृति नहीं, वरन् ईश्वर का स्वरूप है; अत: मानव का ईश्वर से पार्थक्य नहीं हो सकता ।

प्रकृति-बाह्य संसार हो ईश्वर है । इस बाह्य संसारू के ज्ञान से ही हम अपने आत्म को पहचान सकते हैं । आत्म की पहचान मस्तिष्क के विकास से ही संभव है । प्रकृति की पूर्णता में योगदान ही व्यक्तिगत आत्म-चिंतन का मार्ग है । संसार में वही महान् हुआ है, जिसने आत्म-त्याग और समाज-सेवा की है । मानवता से प्रेम करना ही मानव का प्रथम कर्तव्य है ।

टैगोर ने विश्व को मानवता का संदेश दिया । उन्होंने मानवजाति की एकता पर बल दिया । एकता वही है, जो नैसर्गिक विभिन्नता से अनुप्राणित और परिपूर्ण हो । टैगोर के दृष्टिकोण में मानवजाति के पूर्ण विकास के लिए सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक विभिन्नताएं आवश्यक हैं ।

विभिन्न विद्वानों की दृष्टि में टैगोर:

“He was far rather spiritual leader. The poet was also seer.”

“Tagore is one of the philosophers who were great poets and he is one of the few poets that have themselves gives expression to their philosophy.” —P.T. Raju

“Tagore was the greatest prophet of educational renaissance in modern India. —H.B. Mukherjee

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“Tagore revolutionized ideals of education without breaking with tradition.” —Humayun Kabir

The unfolding of the petals which implies distinctness, so the v rose of humanity is perfect only when the divers races and nations have developed their distinct characteristics to perfection yet all re­main attached to the stem of humanity by the band of brotherhood.”

”टैगोर को विश्वास था कि पूर्व और पश्चिम का, अपनी विभिन्न विशेषताओं को रखते हुए भी, अंतिम उद्‌देश्य एक है । इंग्लैंड के एक प्रीतिभोज में जहाँ इंग्लैंड और आयरलैंड के महान् विद्वान् उनका स्वागत करने के लिए एकत्र हुए थे, कहा था:

“I have learned that, though our tongues are different and our habits are dissimilar at the bottom of our hearts are one. The monsoon clouds generated on the banks of the Niles, fertilizes the far distant shore of the ganges, ideas may have to cross from east to western shores find a welcome in men’s hearts and fulfill their promise. East is east and west is west, to God forbid that it should be otherwise, but the twain must meen in amity, peace and mutual understanding their meeting; will ‘ be all the more fruitful because of their differences; it must lead both to holy wed-lock the common alter of humanity.”

राष्ट्रीय वैचारिक दर्शन:

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रवींद्रनाथ टैगोर परम देशभक्त थे । उन्होंने देशभक्ति पर कितनी ही कविताएँ लिखी हैं । मातृभूमि केवे आराधक थे औरस्वदेश-प्रेम से उनका हृदय परिपूर्ण था, परंतु उनकी राष्ट्रीयता में संकीर्णता और विदेशियों के प्रति द्वेष नाममात्र को भी नहीं था ।

उन्हें संकीर्णता से घृणा थी । वे भारतीय जनता को जाग्रत् करने के चेतन-प्रहरी थे । वे राजनीतिज्ञ भी थे, परंतु उनकी राजनीति वाग्वितंडा में ही नहीं समाप्त हो जाती थी । उनकीराजनीति चरित्र-निर्माणसेसंबंधरखतीहै ।

विश्वकेकिसी भीब्यक्तिकोउनकी राष्ट्रभक्तिपूर्ण कविताओं से आपत्ति नहीं । उनकी कविताएँ प्यार, उत्साह और मानवता का संदेश देती हैं । अपनी एक कविता में उन्होंने कहा था:

“Let the promises and hopes.

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The deeds and words of my country be true, my God.”

‘Keep watch India’  उन्होंने कहा था:

“Come with thy treasure of contentment,

The sword of fortitude and meekness crowning thy forehead.”

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अपने जीवन के अंतिम श्वास तक यह महापुरुष सामाजिक एकता और विश्व शांति-स्थापना के लिए प्रयत्नशील रहा, जो सांस्कृतिक आदान-प्रदान और मानव-एकता से प्राप्त हो सकती है । महर्षि टैगोर का विश्वास था कि मानव जाति अपने को विनाश से तभी बचा सकती है, जब वह पुन: उस आध्यात्मिकता में वापस आए जो संपूर्ण धर्म का प्राथमिक आधार है ।

विवेकानंद की भांति वे सोचते थे, भारत विश्व का पथ-प्रदर्शक मात्र नहीं, वरन् उसे भी विश्व से बहुत कुछ प्राप्त करना है । वे ऐसे आधुनिक विश्व का निर्माण करना चाहते थे, जो सुखमय और नवीन हो और जिसका आधार प्राचीनता हो:

“Where the mind is without fear and head is held high, where knowledge is free,

Where the world has not been broken up into fragments narrow domestic walls,

Where worlds come out from the depth of truth,

Where tireless striving stretches its arms towards perfection,

Where the clear stream of reason has not lost its way into the dreary desest sand of dead habits.

Where the mind is led forward by the, into ever widening thought and action.

Into heaven of freedom, my father, let my country awake.”

शैक्षिक अवधारणा:

टैगोर विश्व की शिक्षा प्रणाली विशेषत: भारत की शिक्षा प्रणाली से दुःखी थे । उनका विचार था-हमारी पाठशालाएँ शिक्षा प्रदान करने के कल-कारखाने हैं और अध्यापक लोग इस कल-कारखाने के एक प्रकार के पुर्जे हैं ।

जैसे ही कारखाना प्रारंभ होता है, पुर्जे कार्य करना प्रारंभ कर देते हैं, वैसे ही जैसे पाठशाला प्रारंभ होती है, शिक्षक की जुबान चलने लगती है और जैसे ही पाठशाला रूपी कारखाना बंद हो जाता है, शिक्षक की जुबान बंद हो जाती है ।

गुरु और शिष्य की परिपूर्ण आत्मीयता के संबंध में भीतर से ही शिक्षा-कर्म सजीव देह में रक्तस्रोत की भांति चल सकता है । जीवन की सर्वश्रेष्ठ वस्तु को हम पैसा देकर नहीं खरीद सकते अथवा आशिक भाव से ग्रहण नहीं कर सकते । उसे हम स्नेह, प्रेम और मुक्ति से ही आत्मसात् कर सकते हैं ।

यही मनुष्य के पाकयंत्र का जारक रस है, इसी की सहायता से हमारा मानसिक भोजन होता है । यही जैव-सामग्री को जीवन के साथ मिला सकता है । उनका मत था-हमारी पाठशालाएँ एक प्रकार का इंजन हैं । वे भिन्न वस्तुओं को आपस में जोड़ अवश्य सकती हैं, परंतु उनमें जीवन नहीं डाल सकतीं । हइमें हमारी पाठशालाओं से निर्जीव शिक्षा मिलती है । हमारी पाठशालाएँ जाति से रस नहीं चूसती हैं और जाति को फल भी नहीं देती हैं ।

हमारे शिक्षक व्यापारी हैं । वे याचक हैं । विद्यार्थी समझता है कि शिक्षक ‘शिक्षा’ बेचता है और पैसा प्राप्त करता है । परिणामस्वरूप शिक्षक को स्वाभिमान बेचना पड़ता है । वह शिक्षार्थियों के पीछे फिरता है, जबकि शिक्षकों के निकट विद्यार्थियों को जाना चाहिए । प्रेम, विश्वास अथवा सम्मान की वस्तुएँ खरीदी नहीं जा सकतीं । पाठ्‌यक्रम की शिक्षा ही पर्याप्त नहीं; उसे विद्यार्थी का प्रेम प्राप्त करना चाहिए ।

जब शिक्षक समझेगा कि विद्यार्थी में जीवात्मा फेंकनी है ज्योति जगानी है, अमूल्य जीवन सुधारना है तब कहीं विद्यार्थी सत्य-रूप में स्वाभिमानी बन सकेंगे । पाठ्‌यक्रम के साथ-साथ हमें हृदय में भी स्थान प्राप्त करना चाहिए जब वह मिल जाएगा तब संपूर्ण चेष्टाएँ तथा युक्तियाँ सफल होंगी ।

रवींद्रनाथ को कृत्रिमता और आडंबर से घृणा थी । वे प्रकृति के असीम पुजारी थे । उनका मत था- ”नगर हमारा प्राकृतिक निवास स्थान नहीं है । नगर हमें जीवन तथा रस से परिपूर्ण प्रकृति की गोद से छीनकर अपने तपे हुए पेट में डालकर पचा डालते हैं और झुलसा देते हैं ।”

अग्नि, वायु जल, मिट्‌टी आदि से बने हुए जगत् को ध्यानपूर्वक देखना, उसकी महत्ता को समझना ही वास्तविक शिक्षा है । यह शिक्षा नगरों के शोभायमान विद्यालयों तथा पाठशालाओं में नहीं दी जा सकती, क्योंकि यहाँ शिक्षा देने के कारखानों में हम विश्व को एक प्रकार की कल अथवा मशीन समझना ही सिखा सकते हैं ।

हमारी शिक्षा को दीवारों से घेरकर, द्वार से रोककर, दंड आदि देकर घंटे-घंटियों से सचेत करके कितना और कैसा ही विचित्र रूप दे दिया गया है । हम अपने बच्चों को अनावश्यक रूप में अशक्त और कमजोर बना देते हैं, वे पराश्रयी और अकर्मण्य बन जाते हैं । परमात्मा की इच्छा है कि हमारे बच्चे इस विशाल खुले जगत् के रिक्त स्थान में धीरे-धीरे उन्नति करें ।

माता के गर्भ में दस-दस मास रहकर बच्चे विद्वान् नहीं हुए । उस दोष के लिए उन्हें परिश्रम का कठोर दंड मत दो । उन पर दया करो । इसीलिए हमें वन और जंगलों की आवश्यकता है । हम आदर्श विद्यालय स्थापित करना चाहते हैं, तो हमें नगर से गाँवों में खुले आकाश के नीचे विशाल मैदान में प्राकृतिक वृक्षों के मध्य उनका प्रबंध करना चाहिए ।

जीवनदर्शन:

रवींद्रनाथ टैगोर मूलत: एक कवि थे । उनकी कविताओं में उनके जीवन-दर्शन का स्पष्ट परिचय मिलता है । जैसाकि डॉ. (श्रीमती) कीर्ति देवी ने उल्लेख किया है-

”उनका दर्शन कवि-कल्पना है, हृदय की वेदना है, अध्यात्म का तर्कयुक्त निरूपण नहीं था ।”

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रवींद्रनाथ की कृतियों और उनके विचारों के अध्ययन से उनका दार्शनिक व्यक्तित्व उभर उठता है, जिनमें प्रमुख है:

(१) ईश्वर और ब्रह्म, (२) आत्मा और जीव, (३) सत्य और ज्ञान, (४) जगत् और प्रकृति, (५) प्रेम-साधना, (६) धर्म और नैतिकता ।

१. ईश्वर और ब्रह्मा:

रवींद्रनाथ ने अपना विचार व्यक्त किया है- ”हमें ईश्वर को उसी प्रकार अनुभव करना चाहिए जिस प्रकार हम प्रकाश का अनुभव करते हैं । उसका अनुभव संसार में प्रत्येक क्षण होनेवाली क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं में होता है । ऐसा इसलिए कि ये सभी ईश्वरीय इच्छा से संबंधित और प्रेरित होती हैं ।”

वे ईश्वर और ब्रह्म को तर्क से जानने की सलाह नहीं देते । उनका तो कहना है-ईश्वर और ब्रह्म को प्रेम और अनुभूति से जानने का प्रयत्न करना चाहिए । यही कारण है कि वे शंकराचार्य के तर्क और निर्गुण अद्वैत ब्रह्म के विचार से सहमत नहीं होते ।

रवींद्रनाथ टैगोर ब्रह्म-विग्रह का मानवीयकरण करके देखते हैं । मानवीय आधारों पर ही वे ब्रह्म-साक्षात्कार की शिक्षा देते हैं । वे मानव को ब्रह्म का ही एक विग्रह मानते हैं । ईश्वर और ब्रह्म में उनकी पूरी आस्था है । वे दोनों के प्रति आस्तिक और सगुणवादी विचार रखते हैं । उनका मानना है कि ईश्वर से मानव को जोड़ने वाले दो भाव हैं और वे हैं- प्रेम और आनंद ।

२. आत्मा और जीव:

रवींद्रनाथ टैगोर जीव की आत्मा को ब्रह्म से अलग मानते हैं । वहीं यह भी मानते हैं कि आत्मा यद्यपि स्वतंत्र है तथापि उसकी स्वतंत्रता ईश्वर की इच्छा पर निर्भर है । उनका विचार है कि जीव-आत्मा का लक्ष्य ब्रह्म में लीन होना नहीं है, बल्कि अपने को पूर्ण बनाना है । उपनिषद्-सिद्धांतों के आधार पर उन्होंने आत्मा के तीन रूप निर्धारित किए हैं, जो हैं- (१) अस्तित्व और रक्षा-भावना, (२) अस्तित्व का ज्ञान (३) आत्माभिव्यक्ति

३. सत्य और ज्ञान:

रवींद्रनाथ टैगोर ने सत्य की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए लिखा है- ”संसार का सत्य उसके जड़ पदार्थों में नहीं है, प्रत्युत उसके माध्यम से अभिव्यक्त होनेवाली एकता में है । हमारा वस्तुओं का समस्त ज्ञान उन्हें विश्व के संबंध में जानना है-उसके संबंध में, जो कि परम सत्य है । वे तथ्यात्मक ज्ञान के आधार पर ‘सत्य ज्ञान’ को मानते हैं ।

४. जगत् और प्रकृति:

वे ‘माया’ की सत्ता को मानते हैं और नहीं भी । उनका कहना है कि चूँकि जगत् में माया के विस्तार को देखा-समझा जा सकता है; अत: जगत् की वास्तविकता को नकारा नहीं जा सकता । वे प्रकृति में जड़ और चेतन सभी को पाते हैं, इसलिए उनका कहना है कि प्रकृति को जानना-समझना चाहिए । उनका विचार है- ”मनुष्य भी अपना संतुलन खो देगा, यदि वह सर्वव्यापी प्रकृति की गोद छोड्‌कर मानवता के ही रास्ते पर चले ।”

उनकी काव्य-कृति ‘वसुंधरा’ का परिशीलन किया जाए तो ज्ञान होगा कि प्रकृति के सभी उपादान-पल्लव, पुष्प, दिवा, रात्रि आदि मनुष्य के लिए परमावश्यक हैं । मानव-जीवन के सकारात्मक, नकारात्मक दोनों पक्ष प्रकृति पर ही निर्भर करते हैं ।

५. प्रेमसाधना:

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रवींद्रनाथ टैगोर भक्ति में प्रबल आस्था रखते हैं-फिर भक्ति का अस्तित्व प्रेम के अभाव में होता ही नहीं । इससे सुस्पष्ट होता है कि वे प्रेम-साधना को स्वीकार करते हैं, दोनों ही धरातलों पर-वैचारिक और व्यावहारिक ।

उनकी काव्य-कृतियाँ गूढ़ हैं, जो प्रेम-साधना की परिचायक हैं । अपनी-रहस्यात्मकता को बनाए हुए वे विश्व का आह्वान करते हैं कि प्रेम से बढ़कर कुछ भी नहीं है । एक-दूसरे से प्रेम करो । उनका तर्क है कि प्रेम से लय होता है और लय से लीनता । वे प्रेम के उभय पक्षों के प्रति आस्था रखते हैं-संयोग प्रेम-साधना और वियोग प्रेम-साधना ।

६. धर्म और नैतिकता:

‘धर्म’ और ‘नैतिकता’ को परिभाषित करते हुए टैगोर ने स्पष्ट शब्दों में कहा है-

”मेरा धर्म मानव का धर्म है, जिसमें अनंत की परिभाषा ‘मानवता’ है ।” नैतिकता के प्रति अपना विचार वे इस रूप में व्यक्त करते हैं- ”पशु का जीवन नैतिकता से रहित होता है, किंतु मनुष्य में नैतिकता की व्याप्ति अवश्य होनी चाहिए ।”

जहाँ तक धर्म और नैतिकता की बात है, दोनों का एक-दूसरे से घनिष्ठ संबंध है । उनके अनुसार-सच्चा धर्म नैतिक चेतना को उन्नत बनाता है । यही कारण है कि वे धर्म और नैतिकता को एक ही दृष्टि से देखते हैं । वे क्षणिक और वासनामय सुख के विरोधी हैं । वे आध्यात्मिक और आत्मिक सुख को ‘वास्तविक सुख’ की संज्ञा देते हैं । उनका मानना है कि दुःख के पोषण से नैतिकता में अभिवृद्धि होती है ।