सुकरात पर निबंध | Essay on Socrates in Hindi

1. प्रस्तावना:

सुकरात ग्रीस के एक बहुत बड़े चिन्तक व दार्शनिक थे । वे तर्कशास्त्र के प्रणेता था । उनके जीवन का उद्देश्य यह था कि उन्होंने जो कुछ भी ज्ञान प्राप्त किया था, वह उसे ग्रीकवासियों को देना चाहते थे, जिसके माध्यम से उनमें ऐसे सद्गुणों का संचार हो सके, जिससे वे राज्य के श्रेष्ठ नागरिक बन सके, किन्तु उनके विचारों को न समझ पाने वाले अज्ञानियों ने उन्हें जीते-जी विष पीने पर मजबूर किया।

पांचवीं शताब्दी में एथेन्स के इतिहास में सुकरात एक ऐसे अलौकिक, दार्शनिक विचारक होने के साथ-साथ विलक्षण व्यक्तित्व थे, जो दर्शनशास्त्र को स्वर्ग से पृथ्वी पर उतार लाये थे । भले ही लोगों ने उन्हें पागल, सनकी, कुरूप कहकर उनका उपहास किया, किन्तु उनका उपहास करने वाले उनके व्यक्तित्व की विशालता का स्पर्श तक नहीं कर पाये थे । सही मायनों में वे श्रेष्ठ राजनीतिज्ञ तथा धर्मगुरु भी थे

2. जीवन चरित्र:

सुकरात का जन्म ई० र्पू० 470 में एथेन्स के सीमाप्रान्त के एक गांव में हुआ था । उनके पिता का नाम सोफ्रोनिसकस था । वे एक शिल्पकार थे । अत: सुकरात ने भी उनसे शिल्प विद्या सीखी थी । सुकरात की माता दाई का काम किया करती थी । सुकरात का मन कुछ ही दिनों में शिल्प विद्या से ऊब गया था ।

जैसे-जैसे अध्ययन के आधार पर उनका ज्ञान व तर्क का क्षेत्र विस्तार पाता गया, वैसे-वैसे सुकरात का मन सत्य की खोज में भटकने लगा । जैसे ब्रह्माण्ड का स्वरूप क्या है? मृत्यु के बाद मनुष्य कहां जाता है? सुकरात ने अपने जीवन में गणित, ज्योतिष, दर्शन आदि अनेक विषयों का अध्ययन किया था । उनका व्यक्तित्व विचारों से जितना सुन्दर था, उतना ही बाह्य दर्शन से अनाकर्षक था ।

कहा जाता है कि गंजे सिर, चपटी नाक, गोल चेहरे वाले, बड़ी आखों, मोटे होठ वाले ऐसे कद्दावार व्यक्ति थे, जो एथेन्स की सड़कों पर ज्ञान और चिन्तन में खोये हुए पूरे वर्ष बड़ी सी ऊनी चादर शरीर पर लपेटे नंगे पांव, बढ़ी हुई दाढ़ी के साथ घूमा करते थे । वे अधिकांश समय शिष्यों, जिज्ञासियों, ज्ञान-पिपासुओं से घिरे रहते थे ।

किसी भी सड़क की गली, चौराहे पर खड़े होकर उपदेश देते हुए जनता को जैसे आत्मज्ञान ही दिया करते थे । उन्होंने लोगों को सत्य का मार्ग दिखलाते हुए यही कहा कि- ”समाज की संकीर्णता, परम्परावादिता, रूढ़िवादिताओं तथा अन्ध-मान्यताओं से बाहर निकलकर प्रत्येक व्यक्ति को यह सोचना चाहिए कि मनुष्य एक महान् प्राणी है ।

कवि हो या मजदूर, राजनेता हो या व्यापारी उन्हें यह सोचना चाहिए कि व्यक्ति धन, बल, शक्ति और उपलब्धियों के आधार पर महान् नहीं होता है ।” उन्होंने तत्कालीन शासकों से भयभीत हुए बिना अपने विचारों को निर्भीकता के साथ जनता के सामने रखा ।

वे देश के नवयुवकों को सभ्य और सदाचारी नागरिक बनने पर जोर देते थे । राजा के कर्तव्य-कर्म पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा था- ”राजा देवता का स्वरूप नहीं है । वह तो प्रजा की सेवा के लिए नियुक्त हुआ है । दुर्भाग्यवश एथेन्स की शासन व्यवस्था में प्रजातन्त्र की एवज में तानाशाही चल रही है ।”

सुकरात के राजनीति सम्बन्धी विचारों के कारण एथेन्स के तत्कालीन तानाशाह शासक और उनके चाटुकारों ने सुकरात तथा उनके 4 मित्रों को षड्‌यन्त्र में फंसाकर गिरफ्तार करने का आदेश दिया । सुकरात ने इसको मानने से इनकार कर दिया । उन्होंने यह भी कहा- ”इस राज्य में जिन धार्मिक देवी-देवताओं की पूजा होती है, वे वास्तव में कपोल कल्पना है । इस विश्व पर तो केवल उसका शासन है, जो हमें प्रकृति की अलौकिक, चमत्कारिक गतिविधियों में दिखाई पड़ता है ।”

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धर्म सम्बन्धी भ्रामक प्रश्नों का उत्तर देने के लिए उन्होंने प्रश्नोत्तर प्रणाली का प्रयोग किया और कहा कि हम सब अज्ञानी हैं । सबसे बड़ा अज्ञानी तो मैं स्वयं हूं । इसलिए मैं तुम सबमें बुद्धिमान भी हूं; क्योंकि मैं अपनी अज्ञानता के बारे में स्वयं जानता हूं । आत्मा स्वयं ईश्वर है । आत्मा कभी नहीं मरती । शरीर मर जाता है । अत: आत्मा को सर्वश्रेष्ठ गुणों से युक्त बनाओ । यही सत्य है ।

बुद्धि ही सबसे बड़ा सदगुण है । बुद्धिमान व्यक्ति हर परिस्थिति में सन्तुलित रहता है । शिक्षित व्यक्ति उचित-अनुचित का विवेक कर सकता है । अत: सभी लोगों को शिक्षित होना चाहिए। एक बार सुकरात के शिष्यों ने उनसे पूछा कि चन्द्रमा में कलंक और दीपक तले अंधेरा क्यों रहता है?

सुकरात ने कहा- ”तुम्हें दीप का प्रकाश और चन्द्रमा की ज्योति नहीं दिखाई देती । इस संसार में प्रत्येक वस्तु के दो पहलू होते हैं । जो अच्छा देखना चाहते हैं, उन्हें सभी कुछ अच्छा ही दिखाई पड़ता है । जो बुरा देखना चाहते हैं, उन्हें सभी कुछ बुरा ही नजर आता है ।” मूर्ख और बुद्धिमान की पहचान बताते हुए उन्होंने अपने शिष्यों से कहा था कि जो अपने अनुभवों से लाभ न उठाये, वही मूर्ख है । जो अपने अनुभवों से सीखता है, वही बुद्धिमान कहलाता है ।

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एक जागीरदार, जो अपनी सम्पत्ति व जमीन के विस्तार व वैभव की शेखी बघार रहा था । सुकरात ने उसे बड़ी देर तक सुना और पृथ्वी का नक्शा मंगाया और जमींदार से पूछा-अब बताओ, इसमें तुम्हारा ठिकाना कहां पर है? जमींदार ने कहा- ”नक्शे के अनुपात में तो सुई की नोंक के बराबर है । इस ब्रह्माण्ड में तो कुछ नहीं ।”

एक बार सुकरात दर्पण में बार-बार अपना मुंह देख रहे थे, तो उनके शिष्यों ने कहा- ”गुरुवर! आप दर्पण में बार-बार अपना मुखमण्डल क्यों देख रहे हो? आपको तो अपना मुंह देखकर दुःख ही होता होगा, सुकरात ने उत्तर में कहा- ”दर्पण तो सभी को देखना चाहिए, चाहे वह सुन्दर हो या असन्दुर । मुझे अपने कार्यों और विचारों को सुन्दर बनाने के लिए दर्पण देखना चाहिए और प्रकृति ने जिसे सुन्दर बनाया है, उसे अपनी सुन्दरता के अनुरूप ही अच्छे कार्य करने चाहिए ।

इस तरह अपनी तर्कपूर्ण बातों से उन्होंने आत्मा के स्वरूप, प्रकृति के सत्य, ईश्वर तक पहुंचने के मार्ग, मृत्यु की सत्यता तथा शिक्षा, समाज, धर्म, राजनीति आदि विषयों को लोगों तक सचाई से पहुंचाया । सुकरात एथेन्स की कौंसिल के सदस्य भी थे ।

अत: अपनी बातों को पूरी दृढ़ता, सत्यता व न्याय के साथ प्रस्तुत करते थे । एक बार एथेन्स की सेना द्वारा कुछ निर्दोष अपराधियों पर दण्ड लगाकर उन्हें मौत की सजा सुना दी गयी । अकेले सुकरात ने इस निर्णय के विरुद्ध अपना मत दिया ।

404 ई० पू० जब एथेन्स का साम्राज्य अपनी अन्तिम सांसें गिन रहा था, तब सुकरात ने 30 शासकों की आज्ञा को नकार दिया । प्रबल जनमत उनके साथ था । सुकरात का कोई कुछ बिगाड़ न सका । सुकरात के दर्शन व चिन्तन के जिस तेजी से अनुयायी बनते जा रहे थे, उसे देखकर तत्कालीन तानाशाही शासकों और कट्टरपंथी धर्मगुराओं ने सुकरात पर यह आरोप लगाया कि वे देश के नवयुवकों को भ्रमित और भ्रष्ट कर रहे हैं । वे ईश्वर विरोधी हैं ।

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ऐसे आरोप लगाकर 70 वर्षीय सुकरात को मृत्युदण्ड सुनाया गया । न्यायाधीशों की बेंच से 280 व्यक्ति उनके विपक्ष में तथा 220 उनके पक्ष में थे । उस समय एथेन्स में ऐसा कानून था कि मृत्युदण्ड पाने वाला व्यक्ति अपने लिए दूसरा दण्ड प्रस्तावित कर सकता था ।

सुकरात ने इस सुविधा का लाभ उठाते हुए कहा- ”यदि मुझे अपना काम करने की छूट दी जाये, तो मैं अपने लिए कोई दूसरा दण्ड प्ररतावित कर सकता हूं । मैंने जो कुछ भी किया है, वह देश और देशवासियों की भलाई में ही किया है । अत: मुझे जनता के सामने एक धर्मोपकारक का साम्मान पाने का अधिकार मिलना चाहिए ।”

सुकरात पर जुर्माने का प्रस्ताव हुआ । सुकरात ने इसे स्वीकार नहीं किया । मुख्य न्यायाधीश ने बौखलाकर विषपान करने का दण्ड सुनाया । सुकरात ने मृत्यु की इस घोषणा को शान्त भाव से ग्रहण करते हुए कहा- ”ठीक है । अब विदा का समय आ गया है । मेरे लिए मृत्यु है और आपके लिए जीवन । मैंने जो कुछ भी किया है, वह एथेन्स के नागरिकों को सुखी बनाने के लिए किया है । आप लोगों के आदेशानुसार मैं सत्य का साथ नहीं छोड़ सकता ।”

सुकरात धैर्यशाली महामानव भी थे, वे अपने पारिवारिक जीवन में भी उतने ही धैर्य और संयम से काम लेते थे । कहा जाता है कि उनकी दूसरी पत्नी जैथिपी बहुत कर्कशा नारी थी । सुकरात के शिष्यों के सामने भी वह सुकरात को भला-बुरा कहती । यहां तक कि कभी-कभी बर्तन में मैला पानी लाकर सुकरात पर डाल दिया करती थी ।

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सुकरात हंसकर कहते- ”मैं जानता हूं कि वह गरजने के बाद बरसेगी जरूर ।” उनके शिष्य उन्हें जैथिपी के साथ कठोरतापूर्वक पेश आने को कहते । इस पर वे कहते-यदि मैं जैथिपी जैसी कठोर औरत के साथ निबाह सकता हूं, तो मुझे इससे दूसरे अन्य दुष्ट प्रवृति के लोगों के साथ निबाहने में सरलता होती है ।

सुकरात को जिस समय मृत्युदण्ड सुनाया गया था, उस समय एथेन्स में धार्मिक उत्सव चल रहे थे । अत: यह सजा उन्हें एक माह बाद दी जानी थी । इसलिए उन्हें बेड़ियों से जकड़कर कारावास में रखा गया । उनके चेहरे पर सदा की भांति शान्ति तथा गम्भीरता छायी थी ।

उनके प्रमुख शिष्य क्रीटो ने उन्हें मुक्त कर विदेश में शरण दिलाने की बात कही तो सुकरात ने कहा- ”मैं एक राष्ट्रभक्त हूं । यह सही है कि मुझे मृत्युदण्ड गलत दिया जा रहा है, पर फिर भी मैं न्यायालय के निर्णय का अपमान करके कोई अनैतिक उदाहरण प्रस्तुत नहीं करना चाहता हूं । भविष्य में दुनिया स्वयं इस बात का निर्णय करेगी कि सुकरात के साथ अन्याय हुआ था ।”

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कारावास के अन्तिम दिन जब सुकरात के सामने विष का प्याला रखा गया, तो उनकी पत्नी जैथिपी, उनका छोटा लड़का और क्रीटो भी फूट-फूटकर रो रहा था । विषपान करते हुए सुकरात जरा भी अवसादग्रस्त नहीं थे । वे अपने लिए रोते हुए लोगों को शान्त कर रहे थे । विष का प्रभाव धीरे-धीरे सुकरात को जीवनशून्य किये जा रहा था । इस तरह ई० पू० 399 में वे इस संसार को अन्तिम विदा कह गये ।

3. उपसंहार:

इस तरह महान् दार्शनिक, चिन्तक सुकरात अपने सत्य पर अटल रहे । जो सत्य वह अपने एथेन्सवासियों को देना चाहते थे, उसे पूरी ईमानदारी, सत्यता व निर्भीकता से दिया । उनके शिष्य प्लेटो के शब्दों में- ”मेरी दृष्टि में सुकरात अब तक उत्पन्न होने वाले सबसे श्रेष्ठ व्यक्ति थे ।” वे वास्तव में सबसे ज्ञानी, न्यायप्रिय व्यक्ति थे ।

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