समकालीन भारतीय समाज की अर्थव्यवस्था पर निबन्ध | Essay on Indian Society in Hindi!

समकालीन भारतीय समाज में वर्गीय शोषण-आधारित अर्थव्यवस्था और संसदीय लोकतंत्र के राजनीतिक ढाँचे का अंतर्विरोधपूर्ण और क्रियाशील रूप अस्तित्व में है । शोषक-वर्ग लोकतांत्रिक ढाँचे में जनाधिकार को सीमित बनाए रखने और सत्ता के केंद्रों पर अपना प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष अंकुश बनाए रखने के लिए क्रियाशील रहते हैं ।

बुनियादी जनाधिकार और राजनीतिक निर्णय-निर्धारण में जनता की भागीदारी के अधिकार सीमित बने हुए हैं । इसके बावजूद भारतीय संसदीय लोकतंत्र की न्यूनतम शर्त बुनियादी जनाधिकार और प्रतिनिधि-निर्वाचन में जनता की निश्चित भागीदारी है, जो अपने विधिक स्वरूप और औपचारिक संस्थाओं में सीमित होने के बावजूद शासन की नीतियों को जनता से मान्यता और औचित्य लेने की अनिवार्यता तय करता है तथा जनता की आकांक्षा के सतत दबाव का वाष्पन देता है ।

राज्य मूलत: दमन का एक यंत्र है, फिर भी यह लोकतंत्र अंधाधुंध दमन पर अंकुश रखने का माध्यम बनता है । क्षेत्रीय विषमता के कारण विभिन्न स्वरूपों के इलाकों में भारतीय कृषि-क्षेत्र विभाजित है । कूर सामंती संबंधों से लैस भूमि के स्वामित्व के अतिकेंद्रीकरण का कृषि क्षेत्र, सिंचाई साधनों की प्रचुर उपलब्धता, आधुनिक तकनीक और साधनों से युक्त पूँजीवादी विकास की दिशा रखनेवाला कृषि क्षेत्र और सिंचाई विहीन व भूमि-स्वामित्व के अल्पकेंद्रीकरणवाला क्षेत्रीय शोषण का चरम शिकार कृषि क्षेत्र, इन तीन तरह के कृषि इलाकों का अस्तित्व भारतीय समाज में सामान्यत: मिलता है ।

यह भारतीय समाज औद्योगिक दृष्टि से पिछड़े और विकसित क्षेत्रों में स्पष्टत: विभाजित है । खान और जंगल की बहुलतावाला इलाका अपने आम आबादी के हित में नहीं, पूँजीपतियों और व्यापारियों के हित में संचालित हो रहा है ।

खान और जंगल के इलाके की आबादी शोषण और उपेक्षा की शिकार है । अर्थव्यवस्था के इन विभिन्न हिस्सों में निश्चित अंतरसंबंध हैं । बाजार पर अपने प्रभुत्व के माध्यम से पूँजीपति-वर्ग अपने अनुकूल सस्ती कीमत पर कच्चा माल खरीदते हुए और ऊँची कीमत पर उद्योग-निर्मित कृषि-उपयोगी साधन को बेचते हुए कृषि क्षेत्र से पूँजी-दोहन की प्रक्रिया चला रहा है ।

कृषि-क्षेत्र का प्रभुत्वशाली वर्ग कृषि उत्पादन में लगे श्रम का शोषण कर रहा है । इस तरह पूँजीपति-वर्ग और धनी किसान शोषण के हिस्से में असमान हिस्सेदारी के बावजूद अंतत: कृषि क्षेत्र में लगे श्रम का शोषण कर रहा है । खदान और जंगल की व्यवस्था राजकीय स्वामित्व और निजी स्वामित्व, दोनों माध्यमों से मुख्यत: पूँजीपतियों के हित में ही संचालित हो रही हैं ।

समकालीन भारतीय समाज का राजनीतिक ढाँचा ‘औपचारिक लोकतंत्र’ का है । लोकतांत्रिक तत्त्व और प्रणाली औपचारिक संस्थाओं में सीमित है । राज्य संचालन के लिए नीति-निर्धारण करनेवाले निकाय के निर्माण के लिए वयस्क मताधिकार पर आधारित जन-प्रतिनिधियों के चुनाव की प्रक्रिया अनिवार्य राजनीतिक प्रक्रिया है ।

देश के हर व्यक्ति को संविधान द्वारा बुनियादी अधिकार प्राप्त हैं । इन बुनियादी जनाधिकारों के संदर्भ में यह मान्यता अस्तित्व में है कि इन अधिकारों से नागरिकों को सामान्य परिस्थिति में वंचित नहीं किया जा सकता है ।

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राजनीतिक कार्यपालिका, नौकरशाही, सेना, पुलिस और न्यायपालिका राज्यसत्ता के इन संस्थाओं के ढाँचों के निर्माण तथा कार्यपद्धति और कार्यनीति में जनता की भागीदारी एवं प्रभाव का सीमित अवसर है । इन सीमाओं के बावजूद बुनियादी जनाधिकार और बालिग मताधिकार का सांविधानिक प्रावधान राजतंत्र के लोकतांत्रिक स्वरूप को ही अभिव्यक्त करता है । इसे ‘तानाशाही’ नहीं कहा जा सकता ।

भारतीय समाज का मौजूदा वर्गीय स्वरूप ब्रिटिश शासन की शोषण-प्रक्रिया, उस शोषण के खिलाफ आर्थिक शक्तियों के संघर्ष और आजाद भारत में इन वर्गों के विकास की प्रक्रिया का परिणाम है । इन कारणों में सबसे प्रभावी है ब्रिटिश शासन की शोषण-प्रक्रिया ।

समकालीन भारतीय लोकतंत्र का प्रमुख आधार है ब्रिटिश शासन के खिलाफ आजादी का राष्ट्रवादी जन-आंदोलन और उस दौरान विकसित लोकतांत्रिक शक्ति । ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ जिस समय क्षेत्रीय राजनीतिक सत्ता का केंद्र बनी, ब्रिटेन औद्योगिक क्रांति के कारण अपने विकास के सर्वाधिक संभावनायुक्त दौर से गुजर रहा था ।

अत: कंपनी को लगातार ब्रिटेन के व्यापारिक और औद्योगिक हितों की सिद्धि के लिए तैयार होने पर मजबूर किया जा रहा था । अंतत: कंपनी की वास्तविक सत्ता ब्रिटिश सरकार के हाथ में आ गई, जो कुल मिलाकर अंग्रेजी पूँजीपतियों का प्रतिनिधित्व करनेवाली थी ।

अंग्रेजी ने भारत में अपनी राजनीतिक सत्ता और नियंत्रण का विस्तार ब्रिटिश पूँजीवाद के विकास के लिए आवश्यक पूँजी और माल की खपत के लिए फैले बाजार की जरूरत के लिए किया । अपनी इस जरूरत के लिए ब्रिटिश शासन ने भारत के पत्राभाविक विकास को अपनी शोषणकारी नीतियों द्वारा कुंद कर किया ।

भारत की आर्थिक संरचना को बलात् नष्ट कर साम्राज्यवादी और औपनिवेशिक हितों के अनुकूल नई आर्थिक संरचना का आरोपण किया । अधिकतम राजस्व वसूली और शासन-समर्थक दलाल, सामाजिक शक्ति खड़ी करने के उद्‌देश्य से ब्रिटिश शासन ने परंपरागत भारतीय भूमि-व्यवस्था को समाप्त कर विभिन्न क्षेत्रों में क्रमश: तीन विभिन्न स्वरूपों की भूमि-व्यवस्था आयोजित की-स्थायी बंदोबस्ती, रैयतवाड़ी एवं महालबारी । इन तीनों भूमि-व्यवस्थाओं में विद्यमान कुर शोषण-पद्धति का दुष्परिणाम कुछ लोगों के हाथ भूमि-केंद्रित होने और बड़ी संख्या में किसानों के भूमिहीन बनाए जाने के रूप में आया ।

स्थायी बंदोबस्तवाले इलाकों में जमीन का केंद्रीकरण सबसे ज्यादा हुआ । ब्रिटिश शासन के अधीन देशी रियायतों में भी केंद्रीकरण बड़ा । नील, चाय, रबर तथा कंपास की व्यावसायिक खेती के कारण भी किसानों का शोषण बढ़ा और बड़ी संख्या में भूमिहीन मजदूरों का सृजन हुआ ।

व्यावसायिक खेती की शुरुआत अंग्रेजों ने ब्रिटिश पूँजीवाद को चुनौती न देनेवाले कृषि-उत्पादनों से अधिक लाभ कमाने के दृष्टिकोण से की थी । ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति में भारतीय पूँजी की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है । ब्रिटिश पूँजीवाद के विकास के लिए बाजार-विस्तार की जरूरत पूर्ति हेतु स्थापित भारतीय हस्त-शिल्प को एकपक्षीय मुक्त व्यापार, भयंकर प्रभेदकारी नीति और कूर दमन के बल पर शिल्पकारों को नष्ट किया गया ।

स्पष्टत: भारतीय उद्योग-धंधों के विनाश का कारण ब्रिटिश तकनीकी श्रेष्ठता नहीं, विनाशकारी ब्रिटिश-नीति थी । शोषण के अगले दौर में औपनिवेशिक लूट से एकत्र धन के लाभप्रद निवेश के लिए ब्रिटिश पूँजी की भारत में घुसपैठ की शुरुआत हुई ।

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ब्रिटिश पूँजी का मूल चरित्र भारत में आधुनिक औद्योगिक विकास का विरोध था, ब्रिटिश पूँजी-निवेश की मुख्य दिशा भारत को कच्चे माल के निर्यातक और तैयार ब्रिटिश माल के बाजार के रूप में विकसित करने की थी ।

आधुनिक उद्योगों में पूँजी निवेश को अवरुद्ध करने की नीति ब्रिटिश शासन और पूँजीपति-वर्ग द्वारा प्रयोग में लाई जाती रही । भारतीय मुद्रा पूँजी के अभाव के बावजूद व्यापारिक और महाजनी संचय का औद्योगिक पूँजी में रूपांतरण हुआ । इस भारतीय पूँजी के साथ ब्रिटिश सरकार लगातार भेदभाव बरतती रही ।

ब्रिटिश शासन द्वारा खड़ी की गई औपनिवेशिक शोषण-संरचना तथा शोषक आर्थिक शक्तियों के खिलाफ विभिन्न वर्ग-संघर्षों ने स्वतंत्रता पश्चात् भारतीय अर्थव्यवस्था के वर्ग-संबंधों तथा आर्थिक संरचनाओं को तय करने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई ।

जमींदारों, साहूकारों और ब्रिटिश आर्थिक नीतियों के खिलाफ चले प्रारंभिक किसान-संघर्ष वीरतापूर्ण शहादतों के बावजूद असंगठित और स्थानीय स्वरूप के होने की वजह से अपना विकासशील सातत्य नहीं बनाए रख सके, दबा दिए गए ।

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फिर भी इन संघर्षों ने जमींदारों, साहूकारों और ब्रिटिश शासन के खिलाफ सामाजिक वातावरण बनाने तथा अपने हित में चंद कानूनी प्रावधान पाने की सीमित सफलता हासिल की । बाद के किसान-संघर्ष संगठित स्वरूप में विकसित हुए और इस स्वरूप के बावजूद राष्ट्रीय समन्वय की दिशा में अग्रसर हुए राष्ट्रवादी-स्वतंत्रता आदोलन से अपना संबंध बनाया ।

इन संघर्षों में एक विकासशील सातत्य था और मालगुजारी को कम करने जैसे मुद्‌दों से विकसित होते हुए जमींदारी उमूलन जैसे बड़े बदलाव के मुद्‌दों तक आ पहुँचे थे । विभिन्न वर्गों की संयुक्त सक्रियता पर आधारित आजादी का राजनीतिक दोलन और जमींदारी उन्तुलन का संघर्ष-इन दो मोरचों पर साथ-साथ संघर्ष की स्थिति से किसानों के संघर्ष और शक्ति-विस्तार पर एक सीमा बनी रही थी, पर मजबूत राष्ट्रीय समन्वय-विकासशील सातत्य और आजादी के आंदोलन में जमींदार-वर्ग की मामूली उपस्थिति और प्रभाव की वजह से किसान एक मजबूत सामाजिक शक्ति के रूप में स्थापित होता गया था ।

औद्योगिक मजदूर भी संगठित हो चुके थे । अपनी माँगों पर संघर्ष की परंपरा भी इस वर्ग ने विकसित कर ली थी, पर इस वर्ग के साथ दो विशिष्ट स्थितियाँ जुड़ी हुई थीं, जिनका प्रभाव इस पर लगातार पड़ रहा था । औद्योगिक मजदूर राष्ट्रीय आदोलन की मुख्यधारा की शक्ति कांग्रेस, सोशलिस्ट पार्टी और राष्ट्रीय आंदोलन के संदर्भ में बदलते निर्णय करते रहनेवाली साम्यवादी पार्टी-इन दो खेमों में बुरी तरह विभाजित था ।

राष्ट्रीय आंदोलन में पूँजीपति-वर्ग समर्थन और सहयोग की भूमिका के माध्यम से अपना प्रभाव बढ़ाते रहने के लिए सफलतापूर्वक प्रयासरत था । इन दोनों परिस्थितिगत जटिलताओं के प्रभावस्वरूप औद्योगिक मजदूर-वर्ग एक सामाजिक शक्ति के रूप में स्थापित होने के बावजूद पूँजीपति-वर्ग के लिए चुनौती पैदा करने वाली हद तक शक्तिशाली नहीं बन पाया था ।

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आजादी के आंदोलन के काल में विकसित हो रही इन आर्थिक शक्तियों की वस्तुगत स्थिति ही आजाद भारत की आर्थिक व्यवस्था और वर्ग-संबंधों का निर्धारक तत्त्व बनी । समकालीन लोकतांत्रिक राजतंत्र, ब्रिटिश औपनिवेशिक साम्राज्यवादी शोषण के लिए खड़ी की गई शासन-संरचना को समाप्त करने के उद्‌देश्य से चले राष्ट्रवादी स्वतंत्रता आंदोलन से विकसित लोकतांत्रिक शक्तियों की बुनियाद पर खड़ा हुआ है ।

ब्रिटिश शासन के पहले की समाज की राजनीतिक व्यवस्था निरंकुश थी । ग्राम-पंचायत और जाति-पंचायत की स्वायत्त संस्थाएँ ग्रामीण समाज में न्याय संस्था के रूप में भी काम करती थीं । ब्रिटिश शासन ने इस संरचना को ध्वस्त कर औपनिवेशिक शासकीय ढाँचा खड़ा किया । शासन-नीतियाँ ब्रिटेन में तय होती थीं और उन नीतियों पर शासन चलाने का पूरा तंत्र-न्यायालय, सेना-पुलिस, नागरिक-प्रशासक का ढाँचा भारत पर आरोपित किया गया था ।

अंग्रेजों ने शासन का जो संयंत्र विकसित किया था, उसका आशय भारत की राष्ट्रीयता का विकास करना कतई नहीं था, वरन् अंग्रेजों ने राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय भावना को कमजोर करने की कोशिश अंत तक जारी रखी । भारत को एक राष्ट्र के रूप में विकसित करने की जगह ब्रिटिश हित-साधन के एक विशाल भूखंड की मान्यता पर ही भौगोलिक रूप में केंद्रीय शासन की प्रक्रियाएँ चलती रहीं ।

ब्रिटिश हितों के अनुरूप ही विजित प्रदेशों को प्रत्यक्ष शासन अथवा ब्रिटिश शासन-अधीन रजवाड़ों की व्यवस्था में लाया गया । अपने शासन के अंतिम काल में भी ब्रिटेन ने सत्ता का हस्तांतरण करने के लिए भारत को एक राष्ट्र के रूप में स्वीकार नहीं किया और सांप्रदायिकता को आधार बनाकर देश को दो स्थायी राष्ट्रों में बाँटने में अपनी निर्णायक भूमिका निभाई ।

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उन्नीसवीं सदी के पाँचवें दशक से ही लोकतांत्रिक चेतना से भरपूर राजनीतिक समूह विकसित हो रहे थे । विधानमंडलों में ज्यादा भारतीय प्रतिनिधित्व, विधानमंडलों में बहस और निर्णय-निर्धारण में अवसर या अधिकार ब्रिटिश शासन की कर-नीति की आलोचना और कर-नीति में सुधार, जनप्रतिनिधित्व पर आधारित स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं का निर्माण-ये मुद्‌दे प्रारंभिक राजनीतिक गतिविधियों की मुख्य अभिव्यक्तियों थीं ।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और नागरिक अधिकारों के खिलाफ उठाए गए ब्रिटिश शासकीय कदमों का भी इन राजनीतिक समूहों द्वारा विरोध होता रहा । ये राजनीतिक गतिविधियों सन् १८५७ के जनविद्रोह और अन्य पूर्ववर्ती की अपेक्षा इस संदर्भ में अपना विशिष्ट चरित्र रखती थीं कि इनके पीछे संगठित दीर्घकालीन और लोकतांत्रिक सोच की पृष्ठभूमि काम कर रही थी ।

सन् १८८३ तक अधिकांश राजनीतिक समूहों में ब्रिटिश शासन के अधीन सारे क्षेत्रों की गतिविधियों के बीच संरचनात्मक समन्वय बनु चुका था । १८८४ में ‘इंडियन नेशनल कॉन्फ्रेंस’ द्वारा आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन इस बोध की ही अभिव्यक्ति थी । कांग्रेस का गठन प्रमुखत: राष्ट्रीय संगठन की अनिवार्यता के बोध का ही निष्कर्ष रूप था । आरंभ से ही कांग्रेस नेतृत्व के पास ब्रिटिश शासन द्वारा जारी आर्थिक शोषण की पूरी प्रक्रिया की गंभीर समझ थी ।

लगातार विकसित होते हुए कांग्रेस राष्ट्रवादी लोकतांत्रिक स्वतंत्रता की संघर्षशील शक्तियों के एकताबद्ध होने का मंच बना, स्वतंत्रता आदोलन की प्रमुख राजनीतिक शक्ति स्वतंत्रता संग्राम द्वारा पूर्ण स्वराज्य की कामना करनेवाले इन भूमिगत समूहों को भी राष्ट्रवादी प्रेरणा बनाने के संदर्भ में विशिष्ट भूमिका रही है, पर अपने संघर्ष की रणनीतियों की सीमा की वजह से वे जनभागीदारी का आधार तैयार नहीं कर सके; जनांदोलन के संचालन की स्थिति नहीं पा सके ।

स्वतंत्रता आदोलन के पूरी अवधि के दौरान संघर्ष के मुद्‌दों, दोलन की पद्धति और कांग्रेस में विभिन्न सामाजिक शक्तियों के समीकरण का स्वरूप बदलता रहा । आरंभ में, कांग्रेस में शिक्षित मध्यवर्गीय पेशाजीवी समूह और व्यापारियों की ही प्रमुख भागीदारी थी ।

वह किसान तथा अन्य शोषित वर्ग से सीधा रिश्ता नहीं रखती थी । बाद में, कांग्रेस में अन्य सामाजिक शक्तियों की भागीदारी बढ़ती गई । कांग्रेस ने किसान और औद्योगिक मजदूरों के हितों में संघर्षों से अपना सीधा और सतत जुड़ाव बनाया और उनके संघर्षों को संगठित भी किया ।

शासन में भारतीय भागीदारी बढ़ाने की आरंभिक माँग पूर्ण स्वाधीनता की माँग तक पहुँची । आंदोलन में व्यापक जनभागीदारी बनाने और विभिन्न वर्गों के हित में जुड़ने की पद्धति ने गांधी के नेतृत्व में अपनी परिपक्वता पाई । किसान संघर्ष और औद्योगिक मजदूरों का संघर्ष विकसित होता गया था ।

किसान-औद्योगिक मजदूर मजबूत सामाजिक शक्तियों के रूप में निरंतर स्थापित हुए । राजकीय संरचना को लेकर कांग्रेस में वैचारिक अंतर्विरोध मौजूद थे । एक धारा विकेंद्रित लोकतांत्रिक राज्य संरचना की पक्षधर थी, जबकि दूसरी धारा केंद्रीयकृत संसदीय लोकतंत्र की ।

इस अंतर्विरोध के बावजूद एक सामान्य खाका वयस्क मताधिकार पर आधारित जनप्रतिनिधित्व से बने विधानमंडलोंवाली राजकीय व्यवस्था का तो बनता ही था । समकालीन भारतीय समाज की अर्थव्यवस्था वर्ग-आधारित है । पूँजीपति बड़े व्यापारी, भूपति और धनी किसान इस अर्थव्यवस्था के शोषक वर्ग हैं ।

इन सब शोषक वर्गों के बीच भी पूँजीपति वर्ग सर्वाधिक शक्तिशाली है । राजसत्ता पर भी इन वर्गों की प्रभावी भूमिका है । दूसरी ओर, खेतिहर मजदूर, ठेके पर काम करनेवाला या अस्थायी मजदूर, छोटे किसान, औद्योगिक मजदूर तथा इनके समकक्ष आर्थिक स्थिति रखनेवाले शोषित वर्गों की लंबी शृंखला का अस्तित्व इस व्यवस्था में मौजूद है ।

मध्यम किसान, छोटे व्यापारी-जैसे कई वर्ग भी इस व्यवस्था में हैं । ये वर्ग इस मायने में विशिष्ट हैं कि ये इस आर्थिक व्यवस्था में जहाँ शोषण का शिकार बन रहे हैं, वहीं निम्न वर्गों के शोषण में हिस्सेदार हैं । इन्हें मध्यमवर्ग के रूप में चिह्नित किया जा सकता है ।

जमींदारी उन्तुलन, भूमि-हदबंदी-जैसे कानूनों के बनने के बावजूद राजसत्ता पर अपने प्रभाव के कारण भूपति-वर्ग, धनी किसान-वर्ग भूमि पर अपना वर्चस्व बनाए रखने में सफल रहे हैं । अपने हित में विकास-कार्यक्रम बनाने, लोकतांत्रिक दबावों के कारण बने कृषि- क्षेत्र के अपने हित के विरोधी प्रगतिशील कानूनों पर अमल में रुकावट बनाए रखने तथा छोटे और मध्यम किसानों को मिली सुविधाओं को हड़पने में भी कृषि- क्षेत्र का यह शोषक-वर्ग सफल रहा ।

भूमि-व्यवस्था से देश की क्षेत्रीय असमानता का संबंध तो है ही, असमानता को विकसित करने की मुख्य चालक शक्ति विकास का पूँजीवादी मॉडल है । कृषि-क्षेत्र में पूँजी और तकनीक के उपयोग की असमान नीति अपनाई गई है ।

कृषि-समृद्धि या हरित क्रांति के अंतर्गत जिन मॉडल इलाकों का विकास हुआ है, वे समृद्धिसूचक नहीं, असमानता के आधार हैं । कुछ इलाकों को परंपरागत गतिहीनता में बनाए रखकर वहाँ स्वाभाविक विकास को रास्ता नहीं दिया गया, वरन् पूँजीपति दोहन के विभिन्न स्तर वहाँ भी विकसित किए गए हैं ।

विकसित इलाके पूँजी-निर्माण के माध्यम बने हैं और गतिशीलता से वंचित रह गए इलाके सस्ते श्रम के आधार पर हुए हैं । इन पिछड़े इलाकों में कई अति पिछड़े इलाके अभी भूमि के केंद्रीयकरण की कूर परंपराओं से जकड़े हुए हैं ।

मिश्रित अर्थव्यवस्था, राजकीय आयोजन और कई संरचनात्मक बदलावों के बावजूद औद्योगिक व्यवस्था मूलत: पूँजीवादी है । सार्वजनिक क्षेत्र की संरचना में भी उत्पादन-संबंध स्पष्टत: पूँजीवादी है । यहाँ उत्पादन-साधन का स्वामित्व राज्य में निहित है । मजदूर एक श्रम बेचनेवाली इकाई मात्र है और उत्पादन की दिशा निर्धारित करने का काम उच्च राजकीय नौकरशाही ही कर रहा है ।

आजादी के बाद लागू हुई मिश्रित और आयोजित अर्थव्यवस्था समाजवादी समाज के निर्माण के उद्‌देश्य का परिणाम नहीं, आजादी के समय मौजूद आर्थिक शक्तियों के समीकरण का अनिवार्य परिणाम थीं ।

यह अर्थव्यवस्था राष्ट्रवादी शक्तियों की औपनिवेशिक शोषण के खिलाफ राष्ट्रीय आर्थिक विकास की चेतना और स्वतंत्र रूप से विकसित पूँजीपति-वर्ग के प्रभाव का संयुक्त परिणाम है ।

आजादी के बाद सत्तारूढ़ राष्ट्रवादी शक्तियों में वैकल्पिकआर्थिक दृष्टिकोण अभाव था; साथ ही तेज औद्योगिक विकास के प्रति अंधविश्वासपूर्ण आकर्षण था । पूँजीवाद क्षेत्रीय विषमता को आधार बनाकर विकसित हो रहा है ।

उद्योग, चाहे निजी क्षेत्र के हों या सार्वजनिक क्षेत्र के, उत्पादन के स्थान और खनिज पदार्थ के खनन और दोहन के दृष्टिकोण से इलाके का असमान निर्धारण होता है । क्षेत्रीय शोषण के शिकार इलाके में खान और कारखाने का निर्माण भी उस इलाके के आर्थिक शोषण को तेज ही करता है ।

पूँजीपति-वर्ग ने बाजार पर अपने प्रभाव की वजह से सस्ते मूल्य पर कच्चा माल खरीदकर कृषि-क्षेत्र के अंदर अपने शोषण का आधार तो बनाया ही है, अपने शेयर बेचकर, वित्तीय संस्थाओं और बीमा-कंपनियों के माध्यम से जनता की बचत को अपने उपयोग में भी ले रहा है ।

इस तरह पूँजीपति-वर्ग जनता की आय के शोषण के माध्यम से जनता के श्रम का ही शोषण कर रहा है । आज वह उत्पादन इकाई के अंदर श्रम का शोषण नहीं कर रहा है, बल्कि श्रम को विस्थापित भी कर रहा है और बेरोजगारी पैदा कर रहा है ।

भारत की औद्योगिक प्रणाली में छोटे उद्योगों का विकास वैकल्पिक विकेंद्रित अर्थव्यवस्था के दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि बड़े केंद्रीयकृत उद्योगों के हित में और लोकतांत्रिक व्यवस्था के रूप में किया गया है । छोटे उद्योग राजकीय ऋण पाकर विकसित हए हैं और उन्हें बाजार के लिए राज्य तथा बड़े उद्योगों पर निर्भर रहना पड़ता है ।

अधिकांश छोटे उद्योगों में बड़े उद्योगों के लिए आवश्यक सामान का ही उत्पादन होता है और छोटे उद्योगों में सस्ती मजदूरी एवं कम लागत पर उत्पादित पुरजों को कम दाम पर उपलब्ध कर, पूँजीपति इस दिशा में पूँजी-विनियोग से बच जाते हैं ।

भारत की अर्थव्यवस्था में साम्राज्यवादी पूँजी मजबूत स्थिति में है । बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ और राजकीय समझौतों के माध्यम से कार्यरत साम्राज्यवादी पूँजी तकनीक का चुनाव अधिकाधिक लाभ के लिए करती है; अपने मशीन और पुरजों का बाजार कायम रखने के लिए अपनी पूँजी और तकनीक पर निर्भरता बनाए रखने को बाध्य भी करती हैं ।

साम्राज्यवादी पूँजी का शोषण निरंतर जारी है । भारतीय पूँजीवाद अपने विकास के प्रारंभिक काल में ही औपनिवेशिक शासन के अधीन विश्व पूँजीवाद के संरचनात्मक स्तर पर एकताबद्ध हो गया था । आज भी पूँजी और तकनीक के स्तर पर भारतीय पूँजीवाद सापेक्षत: साम्राज्यवादी पूँजी से कमजोर स्थिति में है ।

इस कारण अपनी स्वतंत्र स्थिति के बावजूद वह साम्राज्यवादी शक्तियों पर निर्भर है । समकालीन भारतीय समाज के राजतंत्र का स्वरूप लोकतांत्रिक है । यह समकालीन लोकतंत्र एक औपचारिक लोकतंत्र है । लोकतंत्र के तत्त्व औपचारिक संस्थाओं में सीमित हैं ।

इस लोकतांत्रिक संरचना में जनता की भागीदारी विधायिका के गठन के लिए प्रतिनिधि चुनाव हेतु वयस्क मतदान तक ही सीमित है । चुनाव में जनता की महत्त्वपूर्ण भूमिका केकारण कार्यपालिका की गतिविधि पर भी एकबडा दबाव होता है ।

न्यायपालिका, नौकरशाही और सेना-पुलिस-राज्य के इन अंगों की संस्थाओं के निर्माण में जनता की आकांक्षा का दबाव कार्यपालिका और विधायिका के माध्यम से कार्यशील होता है । संविधान और संविधान-प्रदत्त बुनियादी जनाधिकार और नागरिक स्वतंत्रता का तत्त्व भी शासन की हर संस्था पर अपना लोकतांत्रिक दबाव बनाए रखता है ।

दलीय प्रणाली की वजह से प्रतिनिधि-चयन में जनता के मत की भूमिका वास्तविक अभिव्यक्ति नहीं बन पाती है । उम्मीदवार दल का होता है; उम्मीदवार तय करने में जनता की कोई भागीदारी नहीं होती और जनता दलीय उम्मीदवारों को मत देने के लिए बाध्य होती है ।

आज की चुनाव-पद्धति का एक मौलिक दोष यह है कि जनता के व्यक्तिगत मत के गणितीय योग को ही संपूर्ण जनता की अभिव्यक्ति माना जाता है । मत देने की प्रक्रिया में जनता की सामूहिक विचार-चर्चा, वैचारिक अंतःक्रिया का न कोई प्रविधान है, न ही परंपरा ।

यह इस संसदीय चुनाव-पद्धति में संभव भी नहीं है और जनता का मत मात्र व्यक्तिगत होता है, जो अधिकांशत: अपूर्ण या असामूहिक होता है । इस चुनाव-पद्धति में सबसे ज्यादा मत प्राप्त व्यक्ति जनप्रतिनिधि होता है; भले ही उससे ज्यादा मत उस उम्मीदवार से अलग गए ही; यानी प्रतिनिधि के अल्पमत के आधार पर भी चयन होने का अवसर है ।

आज की भारतीय राज-व्यवस्था संघात्मक राज-व्यवस्था के रूप में चिह्नित की जाती है, पर स्पष्टत: प्रांत और केंद्र के बीच शासन अधिकारों का विषय वितरण है । केंद्र के पास सत्ता अतिकेंद्रित है और केंद्रित होने का सिलसिला जारी है ।

संघात्मक राज-व्यवस्था को विकेंद्रित ग्रज-व्यवस्था नहीं माना जा सकता; फिर भी यह केंद्रित एकात्मक राज-व्यवस्था से सापेक्षत: बेहतर है । भारत के स्वतंत्र होने के बाद आरंभिक काल से ही जनांदोलनों, क्षेत्रीय असंतोषों के लोकतांत्रिक समाधान की जगह राज्य ने उपेक्षा और दमन की कार्य-शैली प्रमुखता से अपनाए रखी है ।

विभिन्न दल लोकतांत्रिक जनाधार और संगठन की मजबूती के अभाव में जाति-संप्रदाय जैसे सामाजिक स्तर को अपना मत-आधार बनाने के लिए सक्रिय हैं । राजतंत्र कार्यात्मक स्तर पर जनता की अभिव्यक्ति नहीं दे रहा है और जन-असंतोष को दबाने के लिए नागरिक-अधिकारी के क्षरण और लोकतांत्रिक प्रावधानों को सीमित करने की प्रक्रिया में प्रयासरत है ।

राजनीतिक कार्यपालिका विधायिका की भूमिका को लगातार सीमित करने की प्रक्रिया में सक्रिय है । यह तथ्य प्रमाणित करता है कि नागरिक अधिकारों के संकुचन की कोशिश पं. जवाहरलाल नेहरू के शासन काल से ही शुरू हो गई थी ।

इन लोकतांत्रिक शक्तियों के सामान्यत: असंगठित और निष्क्रिय होने के कारण शासन शक्ति के द्वारा लोकतंत्र को खत्म करने के प्रयासों का जोरदार विरोध नहीं हो पा रहा है; फलत: यह सीमित लोकतंत्र भी उत्तरोत्तर संकीर्ण होता जा रहा है । मौजूदा भारतीय समाज में वर्गीय संरचना और औपचारिक लोकतांत्रिक संरचना के बीच विलोम संबंध है और ये दोनों इस समाज में एक साथ मौजूदगी के बावजूद एक-दूसरे के साथ अंतर्विरोध रखते हुए सक्रिय हैं ।

आर्थिक प्रभुत्वशाली वर्ग राजसत्ता पर अपनी प्रभावी भूमिका बनाए हुए है । दूसरी ओर, सीमित स्वरूप के बावजूद लोकतांत्रिक राज-संरचना को आम जनता के हितों का ध्यान एक सीमा तक ही रखना पड़ता है । नीति-निर्धारण में जनता के हितों के लिए विधान बनाने पड़ते हैं ।

निष्कर्षत: शोषक वर्गों की ताकत, लोकतंत्र के केंद्रीयकृत स्वरूप और उसमें केंद्रीयकरणवादी राजनीतिक शक्तियों के प्रभुत्व तथा शोषित वर्ग और लोकतांत्रिक शक्तियों की विस्तारित, किंतु असंगठित और कमजोर स्थिति के परिणामस्वरूप शासन-संचालन प्रधान रूप से शोषक वर्गों के हित में हो रहा है तथा जनता के हित गौण हैं ।

शोषक वर्ग और लोकतांत्रिक शक्तियाँ एक-दूसरे के खिलाफ सक्रिय हैं । लोकतांत्रिक संघर्ष का दमन शोषक-वर्ग का हित है, क्योंकि लोकतांत्रिक चेतना और जनसंघर्ष का विकास अंतत: उस वर्ग की सत्ता-समाप्ति की दिशा तय रखेगा । लोकतांत्रिक शक्तियाँ चरित्रत: शोषित वर्ग के संघर्ष की सहयोगी हैं, क्योंकि लोकतांत्रिक आधार के निरंतर विकास के लिए वर्गीय शोषण की समाप्ति एक अनिवार्य हिस्सा है ।

समानता, स्वतंत्रता और मानवता पर आधारित शोषणविहीन और राजविहीन समाज की स्थापना की अनिवार्य प्रक्रिया यह है कि शोषण, असमानता और परतंत्रता या तानाशाही की हर संस्था, प्रवृत्ति और गतिविधि के खिलाफ सात्यपूर्ण संघर्ष चलाया जाए ।

परिवर्तन के इन विभिन्न अनिवार्य संघर्षों में वर्ग संघर्ष और लोकतांत्रिक संघर्ष का विशिष्ट महत्त्व है । वर्ग संघर्ष समाज में व्याप्त वर्गीय शोषण को समाप्त करने की एक अपरिहार्य प्रक्रिया है, वर्ग संघर्ष के इस विशिष्ट महत्त्व के बावजूद इनकी यह सीमा भी है कि मात्र वर्ग-संघर्ष शोषण के हर आयाम की समाप्ति नहीं कर सकता; राजविहीनता की स्थिति नहीं ला सकता ।

इसी तरह लोकतांत्रिक संघर्ष, जहाँ समाज-संचालन से जनता की भूमिका को लगातार बढ़ाते जाने, उस उच्चतम स्वरूप देने की प्रक्रिया है, वहीं यह तथ्य है कि शोषण के हर स्वरूप को मिटाए बिना लोकतांत्रिक सामाजिक आधार को फैलाना, जनता की भागीदारी और निर्णायक भूमिका बनाना तथा राजविहीन समाज बनाना संभव नहीं है, क्योंकि आज समाज में मौजूद हर सत्ता की केंद्रीय अभिव्यक्ति है ।

परिवर्तन की प्रक्रिया की इस मान्यता की तार्किक निष्पत्ति यह बनती है कि वर्ग-संघर्ष लोकतांत्रिक संघर्ष को अपना अंतर्संबंध अनिवार्यत: बनाना होगा; साथ ही अन्य शोषण-विरोधी संघर्षों से अपना संबंध बनाए रखने की कार्य-शैली बनानी होगी ।

समकालीन भारतीय समाज के वर्गीय विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि पूरा समाज वर्गों में स्तरीकृत है । वर्गीय समाज के एक छोर पर पूँजीपति, भूपति, धनी किसान हैं, जिनकी सत्ता और समृद्धि का आधार निम्नवर्ग का शोषण है । दूसरे छोर पर खेतिहर मजदूर, असुरक्षित मजदूर, मेहनतकश पेशाजीवी-समूह, इन वर्गों से इतर गुजर करनेवाले अन्य समूह, छोटे किसान, औद्योगिक मजदूर हैं, जो चल रही कूरतम शोषण-प्रक्रिया के शिकार हैं ।

इन वर्गों के अलावा मध्यम वर्गों का एक खेमा भी है, जो उत्पादन साधन के स्वामित्व, रोजगार, आय और जीवन-स्थिति की दृष्टि से शोषित वर्ग में वर्गीय शोषण का माध्यम कभी-कभी बनते हैं, पर वे वर्गीय व्यवस्था के संचालन में अपनी निर्णायक भूमिका नहीं रख पाते और कभी-कभी वर्गीय शोषण की मार से पीड़ित भी होते हैं ।

इस जटिल वर्गीय स्थिति के कारण ये वर्ग-परिवर्तन की प्रक्रिया के संदर्भ में दोहरा या हुलमुल रवैया रखते हैं । वर्गो की वस्तुगत स्थिति यह निर्धारित करती है कि वर्गीय शोषण की समाप्ति उन्हीं वर्गों के संगठित संघर्ष से संभव है, जिन वर्गों के शोषण की बुनियाद पर वर्गीय व्यवस्था टिकी हुई है ।

प्रारंभिक दौर में वर्ग-संघर्ष क्षेत्रीय स्तर पर ही संगठित करना संभव है । क्षेत्रीय स्तर पर संगठित और संचालित करने की सर्वोत्तम रणनीति है कि चुने गए इलाके के सर्वाधिक शोषित वर्ग को संगठित करने की शुरुआत की जाए और उसी वर्ग के मुद्‌दे पर संघर्ष संगठित किया जाए । संघर्ष का मुद्‌दा क्षेत्र की परिस्थिति और शोषण की प्रक्रिया के आधार पर तय होगा । दूसरा तर्क यह है कि इस पद्धति से संघर्ष का सातत्य बनाए रखना संभव है ।

अन्य वर्गों का संघर्ष या विभिन्न वर्गों का संयुक्त संघर्ष अंतत: मध्यम स्थिति प्राप्त वर्ग को शक्तिशाली बनाएगा; सर्वाधिक शोषित वर्ग अपनी शक्ति बनाए रखने के लिए अपने से नीचे के वर्ग को दबाने की प्रवृत्ति रखेगा और यह उस वस्तुगत स्थिति में संभव भी होगा और इस सर्वाधिक शोषित वर्ग को संगठन और संघर्ष की प्रक्रिया चलानी होगी, जो इस दौर में ज्यादा जटिल और लंबा समय लेनेवाला होगा ।

क्षेत्रीय विषमता के चरम शिकार क्षेत्र में क्षेत्रीय शोषण के खिलाफ व्यापक संघर्ष भी शुरू किया जा सकता है, पर वहाँ भी सबसे ज्यादा ध्यान साधनविहीन और श्रम बचानेवाले वर्ग के संगठन और चेतना-निर्माण पर देना होगा ।

वर्ग-संघर्ष क्षेत्रीय शोषक-वर्ग की आर्थिक सत्ता के कदम-कदम समाप्त करने का कार्यमात्र नहीं करेगा, बल्कि आर्थिक सत्ता के ढहाने के हर कदम को राजकीय मान्यता दिलाने का भी कार्य करेगा । राजकीय मान्यता प्राप्त करने का यह संघर्ष शोषित वर्ग की संघर्षशील शक्ति का राजसत्ता पर प्रभाव अभिव्यक्त करेगा ।

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आर्थिक सत्ता के विकेंद्रीकरण का दृष्टिकोण और इस दिशा में विकास के लिए संघर्ष के मुद्‌दे और संघर्ष-विकास के स्तरों के बारे में सोचना आवश्यक होगा । व्यक्तिगत संपत्ति की समाप्ति वर्गविहीनता के लिए अपरिहार्य है । यह चेतना भी आरंभ से ही बनानी होगी, अन्यथा बाद के दौर में अनावश्यक जटिलताएँ आएँगी ।

समाज-संकलन, राजसत्ता के संचालन का केंद्रीय बिंदु समाज और जनता होना चाहिए और यह तभी संभव है जब इस संचालन-प्रक्रिया में जनता की महत्तम निर्णायक भूमिका हो । दूसरे शब्दों में-समाज-संचालन में हर व्यक्ति की भागीदारी का अधिकार उसका नैसर्गिक अधिकार है । इस मान्यता की यह निष्पत्ति बनती है कि लोकतंत्र सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया के हर दौर में अनिवार्य है । किसी भी तरह की तानाशाही अवांछनीय है ।

समकालीन समाज में लोकतंत्र, जनता के लोकतांत्रिक अधिकार सीमित हैं । केंद्रित सत्ता, निहित स्वार्थ की सक्रियता इस बुनियादी तत्त्व-नैसर्गिक अधिकार को लगातार विकसित करने, व्यवस्था-संचालन में अधिकतम और निर्णायक भूमिका स्थापित करने का लोकतांत्रिक संघर्ष-व्यवस्था परिवर्तन का एक महत्त्वपूर्ण संघर्ष है ।

लोकतांत्रिक संघर्ष की ताकत वे सभी शक्तियाँ होंगी, जिनका हित लोकतांत्रिक व्यवस्था में है और वे सभी शक्तियों जिनका मौजूदा शासन-संचालन के साथ अनिवार्य हित संबंध नहीं है, उनका हित लोकतांत्रिक व्यवस्था में है ।

लोकतांत्रिक संस्थाओं, नागरिक स्वतंत्रताओं और बुनियादी जनाधिकारों को सीमित या समाप्त करने की कोशिशों का विरोध, सत्ता के केंद्रीयकरण का विरोध, नागरिक स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक अधिकारों का विकास-निर्णय तथा कार्यान्वयन में जनता की अधिकतम निर्णायक भूमिका पर आधारित विकेंद्रित संस्थाओं और राजनीतिक प्रणाली का निर्माण-लोकतांत्रिक संघर्ष के प्रमुख मुद्‌दे होंगे ।

आज नागरिक अधिकारों का, बुनियादी अधिकारों पर सीमाबन्धन और राजनीतिक संस्थाओं को कमजोर करने की दिशा राज्य द्वारा संचालित हो रही है; अत: आज के लोकतांत्रिक संघर्ष का तात्कालिक दायित्व व्यापक जनमत-निर्माण कर व्यापक जन-आधारित जन-संघर्ष संगठित कर इन अधिकारों और संस्थाओं की बहाली करना है ।

लोकतांत्रिक संघर्ष की अगली दिशा इस लोकतांत्रिक संरचना में बुनियादी और व्यापक परिवर्तन करने की होगी । इस चरित्र के संघर्ष का मुख्य पक्ष आज की केंद्रीयकृत संरचना के खिलाफ जनमत संगठित कर, उसकी जगह जनता की अधिकतम और प्रभावी भागीदारीवाली भूमिका पर आधारित हर स्तर पर विकेंद्रित संस्थाओं का निर्माण होगा ।

‘जिसका संघर्ष, उसका नेतृत्व’ की अवधारणा के पीछे मान्यता यह है कि संघर्ष जिस समूह के हितों पर चल रहा है, उस संघर्ष में उसी समूह का नेतृत्व संघर्ष को अधिकतम मजबूती देगा । रस-अवधारणा के आधार पर प्रारंभ से ही यह भूमिका होगी किसंघर्ष-संचालन की ऐसी पद्धति विकसित हो, जिसमें निर्णय-निर्धारण और क्रियान्वयन में उस समूह के लोगों की भागीदारी बने और बढ़ती जाए ।

परिवर्तन की प्रक्रिया की सफलता के लिए वर्ग-संघर्ष और लोकतांत्रिक संघर्ष का अंत अनिवार्य है । एक-दूसरे से कटकर चले दोनों संघर्ष मात्र एकांगी परिवर्तन कर पाएगे । इस एकांगी परिवर्तन का स्थायित्व भी संदिग्ध ही होगा ।

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लोकतांत्रिक संघर्ष से कटकर चला वर्ग-संघर्ष आर्थिक समता लाने में सफल हो, तब कहीं राजनीतिक व्यवस्था केंद्रित होगी । कुछ लोगों के हाथ राजकीय सत्ता का प्रभुत्व होगा और मूल जनाधिकारों पर राजकीय हस्तक्षेप की स्थिति रहेगी । राजकीय सत्ता की ताकत से आर्थिक केंद्रीयकरण बनाने का प्रयास भी चलेगा । किंतु इस तरह वर्ग-संघर्ष से कटकर चला लोकतांत्रिक संघर्ष लोकतांत्रिक अधिकारों की बढ़ोतरी केबावजूद आर्थिक असमानता समाप्त नहीं कर पाएगा ।

राजनीतिक व्यवस्था पर मजबूत आर्थिक शक्तियों का प्रभाव होगा; बुनियादी जनाधिकार पर सीमा की संभावनाएँ बनी रहेंगी । वर्ग-संघर्ष लोकतांत्रिक संघर्ष का सहयोग देते हुए इसमें अपने मुद्‌दों को मान्य कराने और संघर्ष में शोषित वर्ग की मजबूत भूमिका बनाने का प्रयास करेगा ।

लोकतांत्रिक संघर्ष वर्ग-संघर्ष की मदद करते हुए शोषित वर्ग में लोकतांत्रिक चेतना बनाएगा तथा लोकतांत्रिक संस्थाओं के निर्माण की बुनियाद तैयार करेगा । इस अंतसंबंध के माध्यम से वर्ग-संघर्ष लोकतांत्रिक शक्तियों को अपने पक्ष में खड़ा करेगा और लोकतांत्रिक संघर्ष शोषित वर्ग को जोड़कर अपना आयाम विकसित करेगा; अपने आधार पर क्षेत्र खड़ा करेगा ।

वर्ग-संघर्ष और लोकतांत्रिक संघर्ष का अपना अंतसंबंध लगातार बनाते हुए विकसित और मजबूत करते हुए समाज में मौजूद अन्य अंतर्विरोधों पर भी अपनी आवश्यक भूमिका निभानी होगी । जाति, संप्रदाय और लिंग के आधार पर विभेदीकरण की जो शोषणकारी संस्थाएँ समाज में क्रियाशील हैं, वे समाज की शोषक शक्तियों की ही सहयोगी हैं ।

इन अंतविरोधों के आधार पर संगठित संघर्ष में शामिल शक्तियों में सें इन संस्थाओं की वजह से मौजूद आतरिक अंतर्विरोधों को सुलझाते हुए बढ़ना होगा । सुलझाने की प्रक्रिया इन अंतर्विरोधों में मौजूद शोषणकारी मान्यता, प्रवृत्ति और व्यवहारों पर चोट करने की होगी, न कि बिना प्रहार छोड़ देने की ।

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