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समाज-सेवा पर अनुच्छेद | Paragraph on Social Service in Hindi Language!

ऐसी मान्यता है कि मनुष्य योनि अनेक जन्मों के उपरान्त कठिनाई से प्राप्त होती   है । मान्यता चाहे जो भी हो, परन्तु यह सत्य है कि समस्त प्राणियों में मनुष्य ही श्रेष्ठ है । इस पृथ्वी पर जन्म लेने वाले समस्त प्राणियों की तुलना में मनुष्य को अधिक विकसित मस्तिष्क प्राप्त है जिससे वह उचित-अनुचित का विचार करने में सक्षम होता है ।

पृथ्वी पर अन्य प्राणी पेट की भूख शान्त करने के लिए परस्पर युद्ध करते रहते हैं और उन्हें एक-दूसरे के दुःखों की कतई चिन्ता नहीं होती । परन्तु मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । मनुष्य समूह में परस्पर मिल-जुलकर रहता है और समाज का अस्तित्व बनाए रखने के लिए मनुष्य को एक-दूसरे के सुख-दुःख में भागीदार बनना पड़ता है ।

अपने परिवार का भरण-पोषण, उसकी सहायता तो जीव-जन्तु, पशु-पक्षी भी करते हैं परन्तु मनुष्य ऐसा प्राणी है, जो सपूर्ण समाज के उत्थान के लिए प्रत्येक पीडित व्यक्ति की सहायता का प्रयत्न करता है । किसी भी पीड़ित व्यक्ति की निःस्वार्थ भावना से सहायता करना ही समाज-सेवा है ।

वस्तुत: कोई भी समाज तभी खुशहाल रह सकता है जब उसका प्रत्येक व्यक्ति दुःखों से बचा रहे । किसी भी समाज में यदि चंद लोग सुविधा-सम्पन्न हों और शेष कष्टमय जीवन व्यतीत कर रहे हों, तो ऐसा समाज उन्नति नहीं कर सकता ।

पीड़ित लोगों के कष्टों का दुष्प्रभाव स्पष्टत: सपूर्ण समाज पर पड़ता है । समाज के चार सम्पन्न लोगों को पास-पड़ोस में यदि कष्टों से रोते-बिलखते लोग दिखाई देंगे, तो उनके मन-मस्तिष्क पर भी इसका बुरा प्रभाव पड़ेगा । चाहे उनके मन में पीड़ित लोगों की सहायता करने की भावना उत्पन्न न हो, परन्तु पीड़ित लोगों के दुःखों से उनका मन अशान्त अवश्य होगा ।

किसी भी समाज में व्याप्त रोग अथवा कष्ट का दुअभाव समाज के सम्पूर्ण वातावरण को दूषित करता है और समाज की खुशहाली में अवरोध उत्पन्न करता है । समाज के जागरूक व्यक्तियों को सपूर्ण समाज के हित में ही अपना हित दृष्टिगोचर होता है । मनुष्य की विवशता है कि वह अकेला जीवन व्यतीत नहीं कर सकता ।

जीवन-पथ पर प्रत्येक व्यक्ति को लोगों के सहयोग की आवश्यकता पड़ती है । एक-दूसरे के सहयोग से ही मनुष्य उन्नति करता है । परन्तु स्वार्थि प्रवृति के लोग केवल अपने हित की चिन्ता करते हैं । उनके हृदय में सम्पूर्ण समाज के उत्थान की भावना उत्पन्न नहीं होती । ऐसे व्यक्ति समाज की सेवा के अयोग्य होते हैं ।

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समाज में उनका कोई योगदान नहीं होता । समाज सेवा के लिए त्याग एवं परोपकार की भावना का होना आवश्यक है । ऋषि-मुनियों के हमारे देश में मानव-समाज को आरम्भ से ही परोपकार का संदेश दिया जाता रहा है । वास्तव में परोपकार ही समाज-सेवा है ।

किसी भी पीड़ित व्यक्ति की सहायता करने से वह सक्षम बनता है और उसमें समाज के उत्थान में अपना योगदान देने की योग्यता उत्पन्न इस प्रकार समाज शीघ्र उन्नति करता है । वास्तव में रोगग्रस्त, अभावग्रस्त, अशिक्षित लोगों का समूह उन्नति करने के अयोग्य होता है ।

समाज में ऐसे लोग अधिक हों तो समाज लगता है । रोगी का रोग दूर करके, अभावग्रस्त को अभाव से लड़ने के योग्य बनाकर, अशिक्षित को शिक्षित ही उन्हें समाज एवं राष्ट्र का योग्य नागरिक बनाया जा सकता है । निःस्वार्थ भावना से समाज के हित के लिए किए गए । ही समाज की सच्ची सेवा होती है ।

सभ्य, सुशिक्षित, के पथ पर अग्रसर समाज को देखकर ही वास्तव में को सुख-शांति का अनुभव प्राप्त हो सकता है । इस पृथ्वी पर जन्म लेने वाले अन्य जीव-जन्तुओं और मनुष्य में यही अन्तर है । अन्य जीव-जन्तु केवल अपने भरण-पोषण के लिए परिश्रम करते हैं और निश्चित आयु के उपरान्त समाप्त हो जाते हैं ।

अपने समाज के लिए उनका कोई योगदान नहीं होता । परन्तु समाजिक प्राणी होने के कारण मनुष्य समाज के उत्थान के लिए भी कार्य करता है । मनुष्य के सेवा-कार्य उसे युगों तक जीवित बनाए रखते हैं । कोई भी विकसित समाज सदा समाज-सेवकों का ऋणी रहता है ।

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