Popular Panchatantra Stories in Hindi!

Panchatantra Story #1. जब सागर सूख गया |

”कमजोर प्राणी को भावुकता के नशे में चूर होकर बलवान शत्रु से नहीं भिड़ना चाहिए । वह युद्ध से ऐसे लौटता है जैसे दांत वाला हाथी । इसलिए मित्र जो भी कार्य करने चलो, पहले से सोचो सागर को सुखाना इतना सरल नहीं ।”

“यह सागर खूनी है…हत्यारा है…हम इससे बदला लेकर रहेंगे ।” टिटिहरी ने अपने मित्रों मोर, सारस, बगुला आदि को बुलाकर कहा । ऐसे में मोर ने उठकर उससे कहा, ”देखो भाई लोगों, जोश में आकर करने से कोई काम नहीं होता, जोश में तो प्राणी अंधा हो जाता है, जोश के साथ होश भी रहे तो फिर सफलता का रास्ता निकल ही आता है ।”

”हम कहते हैं यह सागंर खूनी है, इसने हमारे बच्चों को खाया है क्या यह कम दुःख की बात है ?” ”तुम ठीक कहते हो मित्र, हम तुम्हारे दुःख को अच्छी तरह समझते हैं ।”  ”तो फिर कोई उपाय भी तो करो । आप हमारे मित्र हैं, मुसीबत में मित्र ही मित्र के काम आते हैं ।”

”तुम ठीक कहते हो, हम यथासम्भव तुम्हारी सहायता करेंगे । इस कार्य के लिए हम गरुड़ के पास चलते हैं, उससे मेरी बड़ी पुरानी मित्रता है, फिर गरुड़ भगवान विष्णु का वाहन है, वह हमें भगवान विष्णु तक ले जाएगा, बस विष्मु जी ही इस सागर को दंड दे सकते हैं ।

क्योंकि बुद्धिमानों ने कहा है : मन मिले मित्र, गुणवान नौकर, शक्तिवान स्वामी, इनसे ही प्राणी अपना दुःख कहकर सुखी होता है ।” उसी समय ये सारे पक्षी इकट्ठे होकर गरुड़ जी के पास पहुंचे, मोर ने अपने मित्र गरुड़ को टिटिहरी की दुःख भरी कहानी सुनाई कि कैसे सागर ने इन बेचारों के बच्चों को खा लिया ।

अब सागर तट पर रहने वाले सब पक्षियों को यह डर पैदा हो गया है कि यह सागर एक दिन उन सबके बच्चों को खा जाएगा । यदि सागर ऐसे पाप करेगा तो उसे देखकर और लोग भी खुलकर पाप करेंगे । गरुड़ जी ने भगवान विष्णु के पास जाकर सागर के इस अत्याचार की पूरी कहानी कह सुनाई, और उनसे कहा कि आप इसी समय सागर को सुखाकर उसे उसके पाप की सजा दें, ताकि कल को कोई दूसरा ऐसा पाप करने का साहस न कर सके ।

वैसे तो आपकी दी शक्ति से यह काम मैं भी कर सकता था, मगर मैं आपके काम को कैसे कर सकता हूं । आप तो महाशक्ति हैं, न्याय और अन्याय का निर्णय आप ही के हाथों में है, पापी को उसके पाप की सजा प्रभु के हाथों से ही शोभा देती है, फिर विद्वानों ने कहा है काम को मत करो जिससे अपने स्वामी को दुःख पहुंचे ।

भगवान विष्णु ने गरुड़ के मुख से यह वाणी सुनी तो हंसकर बोले : ‘गरुड़ जी, तुमने बिल्कुल ठीक कहा है, क्योंकि मैंने ही तुम्हें यह ज्ञान दिया था और सेवक द्वारा किए गए पाप का दंड उनके स्वामी को मिलता है । आप सब मेरी प्रजा हैं, आपका दुःख मेरा दुःख है, मैं अभी सागर को इस अन्याय का दंड दूंगा, उसे तुम्हारे मित्र टिटिहरी के अंडे वापस देने होंगे ।

ADVERTISEMENTS:

उसी समय भगवान विष्णु ने उगग्ने अग्निबाण को धनुष चढ़ाया उगैर सागर से कहा : “हे पापी ! इस जीव के अंडे वापस कर दे, नहीं तो तुझे सदा के लिए सुखा दूंगा ।” उसी समय सागर भगवान विष्णु के सामने प्रकट हुआ, उसने हाथ जोड़कर अपने किए की क्षमा मांगी और उसी समय टिटिहरी के अंडे वापस कर दिए ।


Panchatantra Story #2. धर्म और अधर्म |

अधर्मी मित्र ने धोखे से र्श्मचन्द को एक कर चोर सिद्ध करके दिखा दिया तो गांव के लोगों को क्षत दुःख हुअर क्योंकि अधर्मी के पापों को तो सारा नाव अच्छी तरह जानता था ?  वह पाप की कमाई का मालिक बन तो बैठा मयर इसके बदले उसे अपनी जान से हाय धोना पडा । क्यों और कैसे ?

धर्मचन्द और अधर्मचन्द दोनों बड़े ही घनिष्ट मित्र थे, जिनको इस छोटे से शहर में सदा इकट्‌ठे देखा जाता था । यह दोनों इकट्‌ठे ही खाते-पीते, इकट्‌ठे ही सोते, कभी धर्मचन्द अधर्मचन्द के घर सो जाता, तो कभी अधर्मचन्द धर्मचन्द के घर ।

दोनों दोस्तों की सोच में भी वैसा ही फर्क था जैसा कि इनके नामों में, देखने वाले भी इनकी दोस्ती को देखकर हैरान होते थे कि इन दोनों की निभ कैसे रही है । अधर्मचन्द के मन में सदा अमीर बनने की ललक रहती थी ।

वह चाहता था कि उसके पास भी बहुत धन हो, जैसे कि इस शहर के सेठ तोलाराम के पास है, जो भी उसके पास आता है दोनों हाथ जोड़कर कहता : ”सेठजी नमस्कार, सेठ जी प्रणाम ।”  कितनी अकड़ से वह उनके नमस्कार का उत्तर देता है, यह अकड़ है केवल पैसे की ।

जब इंसान के पास अधिक धन आ जाता है तो उसमें अकड़ आ ही जाती है, ऐसी ही भावनाएं अधर्मचन्द के मन में पैदा होती रहती थी । मगर वह बेचारा कुछ भी तो नहीं कर पाता था, केवल मन ही मन में पुटकर रह जाता ।

एक दिन उसने अपने दोस्त धर्मचन्द से अपने मन की बात कह डाली और साथ ही यह भी कहा कि यदि हमें धनवान बनना है तो हमें किसी दूसरे शहर में जाना होगा, इस शहर में तो हम शायद कुछ नहीं कर पाएंगे ।

धर्मचन्द के घर में तो गरीबी का नंगा नाच होता था, वह भी चाहता था कि इतना धन तो कमा ही लाए कि गुजारे लायक घर में हर चीज रखी हो, इस शहर में उनके करने के लिए कुछ भी नहीं रहा । यही कारण था कि उसने अपने मित्र अधर्मचन्द की बात मान ली ।

धर्मचन्द और अधर्मचन्द ने अपना घरबार छोड़ दिया और धन कमाने के लिए परदेस चले गए । इस नए शहर में तो उन्हें कोई भी काम करने में शर्म नहीं थी, फिर वे एक-दूसरे की भावना को भली भांति जानते थे इसलिए मिलजुल कर रात-दिन खूब परिश्रम करने लगे ।

ADVERTISEMENTS:

इस परिश्रम का ही यह फल था कि एक साल में उन्होंने बहुत सारा धन कमा लिया । एक वर्ष के पश्चात उन्हें घर की भी याद आने लगी थी । मां-बाप, बहन-भाई सब ही तो याद आ रहे थे, फिर जिस काम के लिए वे घर से निकले थे, वह काम भी पूरा हो गया था, यही कारण था कि उन्होंने वापस घर जाने का फैसला कर लिया ।

रुपयों को इकट्ठा करके उन्होंने एक बड़ी थैली में डाला और उस थैली को कपड़ों की गठरी के अंदर रबूब अच्छी तरह से बांध दिया ताकि कोई चोर उसे चुरा न ले । क्योंकि उनके रास्ते में एक जंगल पड़ता था, इसलिए उन्हें अपने धन को और भी अधिक सुरक्षा से रखना पड़ रहा था ।

जब वे उस जंगल को पार करने वाले थे तो रात हो गई, वे लोग अपने गांव से अधिक दूर नहीं थे । ऐसे में अधर्मचंद के मन में एक योजना उग गई थी, शायद इतना सारा धन देखकर उसके मन में खोट पैदा हो गया था, उसने धर्मचन्द से कहा : ”भैया, इतना सारा धन गांव में ले जाकर क्या करेंगे, अच्छा तो यही है कि हम इसे उस पीपल की जड़ में गहरा गड्‌ढा खोदकर दबा देते हैं, जब भी हमें जरूरत पड़ेगी आकर निकाल लिया करेंगे ।”

”ठीक है भैया, मुझे भी इतने धन का क्या करना है, जो थोड़ा बहुत मां-बाप के लिए चाहिए मेरे पास है ।” दोनों ने यह बात मान ली । धर्मचन्द बहुत शुद्ध हृदय का था । उसे धन से इतना अधिक लोभ भी नहीं था । घर में रहे या इस जंगल में रहे, उसके लिए दोनों ही बातें बराबर थीं ।

ADVERTISEMENTS:

उसने उरधर्मचन्द से कह दिया, ”भाई जब हम इस धन को मिलकर कमाते थे तो मैंने तुमसे उस समय भी कोई हिसाब नहीं पूछा था, अब तुम अपने हाथों से इसे इसी वृक्ष के नीचे दबा दो, जब भी हमें जरूरत पड़ेगी निकालकर बांट लेंगे ।”

बस उसी समय सारा धन उस पीपल की जड़ के नीचे दबा दिया गया, दोनों मित्र थोड़े-थोड़े रुपये लेकर अपने घर आ गए । धर्मचन्द ने अपने माता-पिता को अपनी कमाई का सारा हिसाब देते हुए कहा था कि अपने खर्च के लिए मैं थोड़े से रुपये आपको दे रहा हूं शेष धन चोरों के डर से हमने जंगल में दबा दिया है ।

उधर अधर्मचन्द के मन में अचानक ही यह विचार आया कि क्यों न मैं ही जंगल में गड़ा सारे का सारा धन निकाल लाऊं, धर्मचन्द को क्या पता चलेगा कि उस धन को कौन ले गया है । मैं उस धन को रात के अंधेरे में निकाल लाऊंगा जब वह पूछेगा तो कह दूंगा कि तुमने ही निकाल लिया होगा, तुम्हारे और मेरे सिवा तो इसका किसी को पता ही नहीं था, जब मैंने इस धन को नहीं निकाला तो सीधी बात है कि तुमने ही निकाला होगा, यही बात सोचकर अधर्मचन्द एक अंधेरी रात में उस धन को निकालने चला गया ।

रात बहुत अंधेरी थी । जंगल में तो यह अंधेरा और भी भयंकर लग रहा था, जंगली जानवरों की आवाजें चारों ओर से सुनाई दे रही थीं, परन्तु अधर्मचन्द को शायद किसी से कुछ डर नहीं लग रहा था । कंधे पर लठ रखे वह अपनी ही पुन में चला जा रहा था ।

ADVERTISEMENTS:

उसने पीपल के बड़े वृक्ष के पास जाकर मिट्टी को खोदना शुरू किया तो सबसे पहले उस धन की थैली पर कुण्डली मारे बैठे एक सांप को देखा । अधर्मचन्द तो धन पाने के लालच में अंधा हो रहा था । उसने अपने लठ से पहले सोप को मार डाला फिर धन की थैली को निकालकर अपने कंधे पर रख घर की ओर चल दिया ।

शीघ्र ही वह अपने घर आ गया और उस थैली को अपने घर में ही जमीन खोदकर दबा दिया । कुछ दिनों के बाद अधर्मचन्द ने धर्मचन्द को बुलाकर कहा, ”भैया, हम क्यों न उस धन को निकालकर आधा-आधा बांट लें, जंगल में इतने दिनों तक उसे ऐसे ही पड़े रहने देना ठीक नहीं है, कभी भी कोई चोर हाथ मार सकता है ।”

धर्मचन्द बेचारे ने उसकी हां में हां मिला दी, उसका मन साफ था तो उसे कहना क्या था ? अब दोनों मित्र उस पेड़ के नीचे पहुंचे तो अधर्मचन्द ने पहले धर्मचन्द से ही कहा कि तुम ही इसे खोदकर धन निकालो, फिर मैं आधा-आधा बांट दूंगा ।

धर्मचन्द उस मिट्टी को खोदता रहा, मगर वहां क्या था जो उसे मिलता…मिट्टी ही मिट्टी तो रह गई थी । अधर्मचन्द । इसमें तो हमारा धन है ही नहीं ।” ”कौन ले गया उसे ?” ”मैं क्या जमा ! भैया, मैं तो उस दिन के बाद से इधर आया भी नहीं, यह सब कुछ तो मैंने तुम्हारे विश्वास पर ही छोड़ा हुआ था ।”

ADVERTISEMENTS:

“धर्मचन्द अधिक सयाने मत बनो और मुझे इतना पागल भी मत समझो जो यह भी नहीं समझ सकता कि उस धन को तुम निकालकर ले गए हो, क्योंकि उस धन का तुम्हारे और मेरे सिवा और किसी को पता ही नहीं था…जब मैंने उसे नहीं निकाला तो फिर बात साफ है कि तुमने ही उसे निकाला है ।”

“अधर्मचन्द । यह तुम क्या कह रहे हो ?” ”वही जो सत्य है, जिसे तुम मुझसे छूपा रहे हो ।” ”भैया अधर्म ! मैं तुम्हारे साथ धोखा करूंगा या चोरी करूंगा, नहीं…नहीं…ऐसी तो मैं कल्पना र्भो नहीं कर सकता ।” धर्मचन्द चोरी तो तुमने ही की है ।”

”नहीं…मैंने अपने जीवन में कभी झूठ तक नहीं बोला’ तो चोरी कहां से करूंगा ।” ”सारे चोर ऐसे ही कहते हैं, अब इसका फैसला तो राजा के सामने ही होगा, मैं तुम्हें इतनी आसानी से यह धन नहीं हड़पने दूंगा धर्मचन्द ।” क्रोध से भरा अधर्मचन्द राजा के पास चला गया और नकली औसू बहाता हुआ  बोला : ”मैं तो लुट गया महाराज, बरबाद हो गया, मेरी जिंदगी भर की कमाई, मेरा ही मित्र चोरी करके अपने घर ले गया ।”

राजा ने पूरी बात सुनकर उसी समय सैनिकों को बुलाकर कहा कि जाओ धर्मचन्द को पकड़कर लाओ । बेचारा, भला इंसान धर्मचन्द जो अपना धन भी गंवा बैठा था और साथ में चोर भी बना शीघ्र ही राजा के सामने खड़ा था । उसकी आखों में बेबसी के आंसू छलक रहे थे, परन्तु वह बेचारा कुछ भी नहीं कह पा रहा था, पापी के आगे धर्म क्या कर सकता था ।

धर्मचन्द कुछ नहीं बोल रहा था जबकि अधर्मचन्द जोर-जोर से कह रहा था : ”यही है वह चोर…जिसने मेरा दोस्त बनकर मुझे लूट लिया…मेरी सारी कमाई अपने घर ले गया ।” धर्मचन्द ने रोते-रोते कहा, ”महाराज, मैं निर्दोष हूं मैं चोर नहीं हूं मैंने जीवन भर किसी का एक रुपया भी चोरी नहीं किया ।”

राजा ने उन दोनों की ओर देखा और फिर कुछ देर तक सोचने के बाद अपना फैसला सुनाते हुए कहा : ”देखो धर्मचन्द और अधर्मचन्द ! तुम दोनों में से कोई भी अपने को चोर मानने के लिए तैयार नहीं । अब इसका एक ही तरीका है ।”

”क्या महाराज?” दोनों एक साथ बोल उठे । ”हम उस पेड़ के पास स्वयं जाकर पूछेंगे कि असली चोर कौन है ।” “हां…हां…महाराज, मुझे मंजूर है ।” धर्मचन्द झट से बोल उठा । “हां…हां…महाराज मुझे भी मंजूर है ।” अधर्मचंद ने भी सीना ठोककर कहा ।

दोनों ही इस फैसले से खुश नजर उग रहे थे, धर्मचन्द बेचारे को तो यह पता था कि पीपल का पेड़ तो देवता होता है, वह तो कभी भी झूठ नहीं बोल सकता । और अधर्मचन्द ? उसे यह विश्वास था कि मैंने चोरी की है तो इस चोरी की रकम को हजम करने की शक्ति भी मेरे पास है । उसने घर आते ही अपने पिता को सारी बात बताई ।

पिता भी तो आखिर चोर का ही बाप था, धन तो उसने ही अंदर छुपाकर रखा था फिर वह अपने बेटे से अलग कैसे हो सकता था, षड्‌यंत्रकारी बाप-बेटे ने यह योजना रातों-रात बना डाली की पीपल के नीचे एक बड़ा सा गड्‌ढा खोदा जाए, उसमें वह अपने पिता को बंद करके बैठा देगा, जैसे ही राजा उस वृक्ष के नीचे आकर पूछेगा कि चोर कौन हए तो उसका पिता झट से जवाब देगा-धर्मचन्द चोर है, वही धन की थैली निकाल कर ले गया है ।

दोनों बाप-बेटों ने उस बेचारे ईमानदार और सीधे आदमी के विरुद्ध पूरी तरह से षड्‌यंत्र रचा था, जिससे बच निकलने का कोई रास्ता ही नहीं बचा था । राजा अपने मंत्रियों और सैनिकों को लेकर जंगल के उस बड़े पीपल के वृक्ष के पास आया और राजा ने स्वय वहां खड़े पीपल से पूछा : ”है पीपल देवता ! तुम्हारी जड़ में छुपा धन कौन निकालकर ले गया है- धर्मचंद या अधर्मचंद ?”

पीपल बेचारा क्या बोलता । हां, अधर्म के पापी पिता ने जो जड़ के नीचे छुपा बैठा था राजा की बात का उत्तर देते हुए कहा, ”महाराज ! वह सारा धन धर्मचन्द चोरी करके ले गया है ।” अब बेचारा धर्मचन्द क्या कर सकता था, जब पीपल ने ही कह दिया तो वह अपने आप को कैसे निर्दोष सिद्ध करे ।

गांव वाले भी यह सुनकर हैरान रह गए कि धर्मचन्द जैसा भला आदमी भी चोरी कर सकता है । किसी को इस बात का तो पता नहीं था कि सही बात क्या है, स्वयं धर्मचन्द बेचारे को विश्वास नहीं हो रहा था कि यह वृक्ष उसका झूठा नाम क्यों ले रहा है, जबकि उसने आज तक किसी वृक्ष को बोलते नहीं सुना था ।

जंगल का यह पहला वृक्ष है जो अपने आप बोल रहा है, आज तक तो किसी वृक्ष ने इस प्रकार उत्तर ही नहीं दिया था, परन्तु आज…? धर्मचन्द बेचारे का दिमाग काम नहीं कर रहा था । वह बिना बात के ही चार बन गया था ।

‘हे भगवान !’ वह मन र्हो मन मेँ ईश्वर से प्रार्थना करने लगा : ‘क्या तेरी दुनिया में ऐसा भी होता है, कि एक निर्दोष को दोषी बना दिया जाता है । हे प्रभु ! यदि सत्य की सदा जीत होती है तो फिर आज आप ही मेरी सहायता को आओ, लोगों को यह चमत्कार दिखा दो कि सत्य की विजय होकर रहेगी ।’

उसी समय धर्मचन्द ने अपनी आत्मा से यह आवाज सुनी : ‘धर्मचन्द ! इस वृक्ष की जड़ में आग लगाकर देखो कि सच क्या है और-झूठ क्या ?’ उसी समय धर्मचन्द ने आसपास से सूखी लकड़ियां इकट्ठी करके उस गड्‌ढे पर रख दी, फिर उसमें आग लगाने की तैयारी करने लगा तो अधर्मचन्द ने चिल्ला कर कहा:

”अरे ओ मूर्ख! यह तू क्या करने जा रहा है, पीपल देवता को आग लगा रहा है, यह तो महापाप है ।” ”जो पीपल झूठ बोले, उसे मैं देवता नहीं समझता इसलिए इस पीपल की अग्निपरीक्षा भी लेनी जरूरी हो गई है ।” तभी उरधर्मचन्द फिर जोर से चिल्लाते हुए राजा की उगेर मुंह करके बोला,  ”महाराज! इस पापी चोर को रोको, पीपल में आग लगाना तो महापाप है ।”

इससे पहले कि राजा कुछ बोलता धर्मचन्द उन लकड़ियों को आग लगा चुका  सब लोग उगश्चर्य से उसकी ओर देख रहे थे, पीपल की जड़ों में भयंकर आग लगी हुई थी । उसी समय आग में से…किसी के रोने और चीखने की आवाजें आने लगी:  ”बचाओ…बचाओ…बचाओ…मैं मरा ।”

राजा ने अपने सैनिकों से कहा : ”इस आदमी को बाहर निकालो ।” उस आग में से एक अधजले आदमी को बाहर निकाला गया । गांव वालों ने झट से उस आदमी को पहचान लिया, यह तो अधर्मचन्द का पिता है । ”अरे दीपचन्द तुम इस आग में…”सबके मुंह खुले के खुले रह गए ।”

“मगर यह सब क्या है दीपचंद । तुम आग में क्यों जले ?” अधजले दीपचन्द ने अपने पापी बेटे की सारी कहानी सुना दी । राजा ने उसी समय आदेश दिया कि इस पापी-झूठे अधर्मचंद को इस वृक्ष पर फांसी पर लटका दो और यह सारा धन धर्मचन्द को दे दिया जाए ।


Panchatantra Story #3. प्रेम अमर है |

”वह राजकन्या है और तुम एक साधारण युवक, वह भी छोटी जाति के, भला कभी धरती पर रहने वाला आकाश पर पंचने के सपने भी देखता है ?”  “मेरे दोस्त! प्रेम तो दिल से होता है, दिल पर किसी का अधिकार नहीं ।”

एक जुलाहे का बेटा, दूसरा राजा का सारथी । यह दोनों ही मित्र इकट्‌ठे एक शहर में रहते थे, दोनों में बहुत ही प्यार था । इन दोनों की मित्रता भी खूब थी, लोग अक्सर यही कहा करते थे कि कहां एक जुलाहा और कहां एक राजा का सारथी ।

वे लोग सच्ची दोस्ती को क्या समझेंगे, जिन्होंने कभी दोस्ती की ही नहीं । जुलाहे के बेटे का नाम कालू था और सारथी का नाम था-शामू । शामू न केवल राजा का रथ चलाता था, बल्कि राजा के हाथी का महावत भी था ।

उसी की कृपा से कालू ने भी हाथी को साधना सीख लिया था, साथ ही रथ चलाना और घुड़सवारी यह सब काम उसने शागू से ही सीखे थे । अब तो वह नाम का ही जुलाहा रह गया था, काम तो कुछ और ही करता था, हालांकि उसके पिता ने उसे जुलाहे का काम सिखाने के लिए बहुत ही प्रयत्न किए परन्तु कालू को वह काम पसंद नहीं था ।

वह तो बचपन से ही अपने मित्र के साथ पाठशाला जाता था, वहीं पर उसने शिक्षा प्राप्त की थी । एक दिन कालू बाजार सें गुजर रहा था तो लोगों को शोर मचाते देखकर रुक गया, सब लोग भागते हुए कहते जा रहे थे : ”हट जाओ…हट जाओ…राजकन्या की सवारी आ रही है ।”

राजकन्या से लोग इतना क्यों भारा रहे हैं, उसके लिए सैनिक लोग रास्ता क्यों साफ करवा रहे हैं । यह बात कालू की समझ में तो नहीं आई, परन्तु वह एक मकान की ओट में राजकुमारी की सवारी देखने के लिए जरूर खडा हो गया । राजकुमारी की सवारी आई…।

कालू उसकी सुंदरता को देखकर ऐसा मोहित हुआ कि उसे अपना भी होश नहीं रहा । सवारी आई और चली गई । मगर कालू वहीं खड़ा रहा फिर राजकुमारी के रूप-सौन्दर्य के विषय में सोचते-सोचते ही उस पर मूर्छा सी छाने लगी और स्वयं को संभालने का प्रयत्न करने के पश्चात् भी वह लहराकर धरती पर गिर पड़ा ।

थोड़ी देर के पश्चात् उसका दोस्त शामू उधर से गुजरा तो उसने बेहोश पड़े कालू को देखा । वह उसे उठाकर घर ले गया, और उसके मुंह पर गुलाब जल के छींटे मारे जिससे कालू को होश आ गया । उसके मित्र शामू ने पूछा, ”भाई, तुम्हें क्या हो गया था, जो वहां बेहोश पड़े थे ?”

”यह बात मत पूछो मेरे मित्र, यह बताने की बात नहीं है ।” ”क्या मुझसे भी कुछ चोरी रखोगे ?” ”चोरी नहीं भैया, मुझे सच्ची बात कहते हुए जरा शर्म लगती है, यानी मेरा मुंह छोटा है और बात बड़ी है ।” ”समझ लो कि तुम्हारा मुंह बड़ा है, अब वह बड़ी बात मुझे बता दो ।”

”क्यों मजबूर करते हो दोस्त, यदि सत्य सुनोगे तो मुझे पागल कहोगे ।”  ”अब बता भी दो मित्र, क्यों पहेलियां बुझा रहे हो ।” “बताता हूं, बताता हूं…जरा अपने सीने पर हाथ रख लो, फिर सुनो मेरी बात, मैंने जबसे राजकुमारी को देखा है, तब से ही मेरी हालत खराब हो गई है । अब बताओ कि तुम मेरी कोई मदद कर सकते हो या तुम समझते हो कि मैं पागल हूं ।”

”कालू भाई…मैं तुम्हें पागल तो नहीं समझता, परन्तु यह कहे बिना नहीं रह सकता कि तुम धरती पर रहकर आकाश पर पहुंचने के सपने देख रहे हो । जो शायद सम्भव नहीं है ।” ”यदि तुम भी यही कहते हो तो मैं अपनी जिंदगी को मौत के हवाले करके मुक्ति पा लूंगा ।”

”नहीं…नहीं…तुम ऐसा नहीं करोगे दोस्त ।” ”तो क्या तुम मुझे उस राजकुमारी से एक बार मिलवा सकते हो ?” “हां, तुम्हारी जिंदगी यदि ऐसे ही बच सकती है तो मैं अपनी जान पर खेलकर भी तुम्हें उससे मिलवा दूंगा ।” ”कहीं तुम मेरा दिल रखने के लिए ऐसा तो नहीं कह रहे ?”

”नहीं मित्र…मेरा विश्वास करो ।” ”तो बताओ कि एक जुलाहा राजकुमारी तक कैसे पहुंचेगा ?” ”अरे पगले ! अक्ल बड़ी कि भैंस ? देख बुद्धिमानों के लिए बुद्धि बड़ी होती है, बुद्धिहीनों के लिए भैंस बड़ी चीज होती है । अब मैं अपनी बुद्धि के बल पर तुम्हें उस राजकुमारी तक पहुंचा दूंगा ।”

”वह कैसे ?” ”आज रात मैं तुम्हारे लिए एक लकड़ी का उड़ने वाला गरुड़ बनाता है फिर तुम्हारा विष्णु रूप बनाकर तुम्हें उस गरुड़ पर बैठाऊंगा, फिर तुम उस गरुड़ पर सवार होकर राजकुमारी के महलों की छत पर जा उतरना ।  “राजकुमारी बहुत सीधी-सादी है, वह तुम्हें भगवान विष्णु का रूप समझकर भागी-भागी तुम्हारे पास आएगी, बस तुम उसे अपनी मीठी-मीठी बातों से बहलाना और फिर…।”

”वाह मित्र…वाह…मान गए तुम्हारी बुद्धि को ।” रात तक लकड़ी का उड़ने वाला गरुड़ तैयार हो गया था, कालू को भगवान विष्णु का रूप देकर उसे उस गरुड़ पर बैठाकर राजमहलों की छत पर उतार दिया गया, तो राजकुमारी ने उसे विष्णु जी समझकर प्रणाम किया…तभी उस नकली विष्णु ने कहा : “हे राजपुत्री, मैं तुम्हारे लिए अपनी लक्ष्मी को सागर तल में छोड़कर यहां आया हूं इसलिए तुम अपने आपको खुशी से मेरे हवाले कर दो ।”

राजकुमारी ने आश्चर्य से विष्णुरूपी कालू को देखकर कहा, ”हे प्रभु ! मैं आपके योग्य ही कहां हूं ।” ”हम जिसे योग्य समझ लें, उसे किसी दूसरे से कुछ भी कहने का अधिकार नहीं प्रिये मैं तुम्हें इसलिए अपनी पत्नी बनाने आया हूं क्योंकि पिछले कई जन्म पूर्व तुम ही मेरी राधा थी ।”

”भगवन, यदि तुम वास्तव में ही मेरे हो तो फिर मुझे मेरे पिता से क्यों नहीं मांग लेते, उनकी आज्ञा के बिना तो मैं कुछ नहीं कर सकती ।” ”देखो राजकुमारी ! मैं भगवान के रूप में किसी भी प्राणी के सामने नहीं जाता इसलिए अच्छा यही है कि तुम मुझसे गंधर्व विवाह कर लो, नहीं तो मैं तुम्हें ऐसा शाप दूंगा कि तुम्हारा सारा परिवार नष्ट हो जाएगा ।”

”नहीं…नहीं…प्रभु ! मेरे परिवार को नष्ट मत करो, मैं आपसे गंधर्व विवाह करने के लिए तैयार हूं ।” राजकुमारी डर के मारे बुरी तरह से कांप रही थी…उसने उसी समय अपने आपको नकली भगवान की बांहों में दे दिया ।

कालू ने छत पर ही राजकुमारी के साथ उसके यौवन का भरपूर आनन्द लिया और फिर सुबह होते ही उसे मसली हुई कली की भांति छोड्‌कर अपने नकली गरुड़ पर बैठ कर जैसे आया था, वैसे ही चला गया ।  बेचारी राजकुमारी को क्या पता था कि उसके यौवन के साथ खिलवाड़ करने वाला कोई भगवान नहीं बल्कि एक मामूली सा इंसान कालू है ।

अब तो कालू रोज रात को भगवान का रूप धारण कर उस गरुड़ पर सवार होकर आता, पूरी रात राजकुमारी के साथ आनन्द लेता और सुबह होते ही चला जाता । ऐसी बातें कभी नहीं छुपतीं, महल की दासियों ने राजकन्या के मुख पर किसी पुरुष के दांतों के निशान और चेहरे पर विचित्र किस्म की छाया देखी जो किसी कुंवारी कन्या के नहीं बल्कि विवाहिता के मुख पर होती है, तो उन्हें कुछ ऐसा संदेह हुआ जिसके बारे में राजा को न बताना अपनी मौत को ही निमन्त्रण देना था ।

सारी दासियां इक्कठी होकर राजा के पास पहुंची और राजकुमारी के बारे में सब बात साफ-साफ बता दी, तो राजा बेचारा कहने लगा : ”कन्या पैदा होना भी बड़ी चिंता की बात है, उसे किसे दान दिया जाए यही बार-बार सोचना पड़ता है । यदि कन्यादान कर भी दिया जाए तो यह चिंता रहती है कि न जाने उसे सुख मिलेगा कि नहीं ।”

राजा के मन को बहुत ही कष्ट हुआ उसने अकेले में अपनी रानी को सारी बात बताकर कहा, ”देवी, जिस भी पापी ने हमारी बेटी र्की भावनाओं से खिलवाड़ किया है, सबसे पहले तुम उसका पता लगाओ ।” ”ठीक है प्राणनाथ, मैं आज ही इस बात की खोज करवाती हूं ।” कहकर रानी उसी समय राजकुमारी के महल की ओर चल दी ।

जैसे ही वह अपनी बेटी के पास पहुंची तो उसके गालों पर किसी पुरुष के काटने के निशान साफ दिखाई दे रहे थे । उसके होंठ भी सूखे-सूखे से लग रहे थे । यह देखकर रानी ने क्रोध भरे स्वर में कहा, ”अरे पापिन, ओ कलंकिनी ! यह तुमने क्या किया ?

क्यों राजघराने के माथे पर कलंक का टीका लगाया…क्यों किया यह पाप तूने ! किसकी मौत आई थी जो उसे महलों तक खींच लाई ? उसका नाम बता, नहीं तो याद रख, तेरे माता-पिता दोनों ही शर्म के मारे किसी को मुंह दिखाने के लायक न रहेंगे ।” तभी राजकुमारी ने अपने सिर को झुकाते हुए कहा, ”एक विष्णुरूपी प्राणी गरुड पर सवार होकर रोज रात को महल की छत पर आता है । वही मेरा पति है रानी मां । उसने मुझसे गंधर्व विवाह किया है ।”

रानी ने जैसे ही अपनी बेटी के मुख से भगवान विष्णु की बात सुनी तो वह खुशी-खुशी राजा के पास गई और उसे अपनी बेटी तथा भगवान विष्णु के इस मिलन की पूरी कहानी सुना दी, और राजा से यह भी कहा कि हम रात को महल की खिड़की मे खड़े होकर भगवान विष्णु के दर्शन करेंगे, क्योंकि भगवान विष्णु ने किसी भी प्राणी के सामने न आने को कहा है ।

राजा-रानी दोनों ही इस बात को लेकर बहुत झई प्रसन्न हो रहे थे कि आज रात भगवान विष्णु के दर्शन करके जन्म-जन्म के पाप धो डालेंगे, उनके लिए यह दिन बिताना भी बहुत भारी पड़ रहा था । रात की प्रतीक्षा में दोनों पति-पत्नी बैठे थे । रात होने पर भी नींद नहीं आई ।

और फिर-उन्होंने रात के अंधेरे में आकाश से एक गरुड़ को छत पर उतरते देखा । राजा-रानी की आखें खुशी से फैल गई थी । राजा ने अपनी रानी का हाथ दबाते हुए कहा, “प्रिये ! हम से भाग्यशाली इस संसार में भला और कौन होगा जिनकी पुत्री को भगवान ने स्वयं उगकर अंगीकार किया, उग्ब तो हमारे पास ऐसी शक्ति आ जाएगी कि हमें कोई भी हरा नहीं सकेगा, अब मैं सबको हराकर विश्व सम्राट बन जाऊंगा… हा…हा…हा…।”

राजा अपने आप खुश होने लगा था । राजा ने अपनी बेटी को सुबह होते ही उरपने पास बुलाकर उसे बहुत प्यार किया फिर उससे बोला : ”देख बेटी ! आज रात प्रभु से यह वरदान मांगना कि मेरे पिता सब राजाओं को हराकर विश्व सम्राट बन जाएं ।” ”ठीक है पिताजी, आज रात मैं भगवान विष्णु यानी अपने पति से यही वर मांगूंगी ।”

हुआ भी यही, उसी रात जब विष्णु रूपी जुलाहा आया तो राजकुमारी ने उसके आगे पान-सुपारी, नारियल तथा अन्य खानपान का सामान रखते हुए कहा : ”हे प्रभु, हे प्राणनाथ ! आप मेरे पिता को यह वरदान दे दो कि वे सदा विजय प्राप्त करते रहें, कोई भी राजा उन्हें हरा न सके ।”

तभी कालू जुलाहे ने जो नकली भगवान बना हुआ था, अपना हाथ उठाकर कहा,  ”तथास्तु! हमारी धर्मपत्नी की हर इच्छा पूरी होगी ।” सुबह के समय राजकुमारी ने अपने पिता को बताया कि भगवान ने हमें विजय का वरदान दे दिया है, आप जो जी चाहे करें ।

तुरन्त ही राजा वीर सिंह ने अपने पुराने शत्रु राजा अमर सिंह पर हमला कर दिया । क्योंकि राजा अमर सिंह उसे अनेक बार हरा चुका था । अब जैसे ही उसे भगवान विष्णु का वरदान प्राप्त हुआ तो उसने राजा अमर सिंह से बदला लेने के लिए उस पर भयंकर आक्रमण कर दिया ।

परन्तु भाग्य के यह खेल निराले थे । वीर सिंह को जब अपनी हार का मुंह देखना पड़ा तो कालू जुलाहा समझ गया कि अब उसके इस नाटक का डा फूटने ही वाला है, इसलिए अब मुझे कोई नया नाटक करना होगा, जिससे अमर सिंह हार जाए और वरि सिंह की जीत हो ।

विद्वानों ने कहा भी है की : बिना जहर के सांप को बड़ा फन फैलाना चाहिए, जहर हो या न हो पर मौत तो भयंकर लगती है । गाय के लिए ब्राह्मण, ब्राह्मण के लिए स्वामी, स्वामी के लिए नारी अथवा अपनी सम्पत्ति के लिए जो प्राण त्याग करता है उसे अक्षयलोक प्राप्त होता है ।

चन्द्रमंडल में स्थित सूर्य का राहु द्वारा ग्रहण होता है । शरणागत के साथ तेजस्वियों को मुसीबत भी सराहनीय होती है, इसी प्रकार नकली विष्णु ने राजकुमारी से कहा,  ”अपने पिता को कहना कि अमर सिंह पर फिर से आक्रमण करें, अब मैं उसका विनाश करके ही अन्न-जल ग्रहण करूंगा ।”

राजकुमारी ने अपने पिता से सारी बातें कह दीं, तो राजा को इस वरदान को पाकर बड़ी प्रसन्नता हुई । उसने एक बार फिर से अपनी हारी हुई सेनाओं को तैयार किया । अब की बार राजा स्वयं सब से आगे चल रहा था, परन्तु उसके ठीक पीछे कालू जुलाहा लकड़ी के गरुड़ पर चढ़ा युद्ध के लिए चल रहा था, उसने प्रतिज्ञा की थी कि उरपने इस प्रेम के लिए वह युद्ध में विजय प्राप्त करके ही आएगा ।

भगवान रूपी जुलाहे को देखकर सब हैरान थे, वह देखने में आम लोगों को जुलाहा कालू ही नजर आ रहा था । लड़ाई शुरू हो गई थी । दोनों और से खूब मारकाट हो रही थी । ऐसे में देवलोक में बैठे भगवान विष्णु ने अपने वाहन गरुड़ को अपने पास बुलाया और बड़े प्यार से बोले : ”हे गरुड़ ! क्या तुम जानते हो कि धरती पर एक जुलाहा राजकुमारी को पाने के लिए लकड़ी के गरुड़ बैठकर मेरा रूप धारण किए हुए है ?”  ”हां प्रभु, मैं उसकी इस चालबाजी को जानता हूं ।”

”तो अब हमें क्या करना चाहिए ?”  ”वह जुलाहा तो आज मरने का निश्चय करके युद्ध के लिए निकला है, लगता है वह सीधा मौत के मुंह में जाएगा, उसके मरने पर राजकुमारी और राजा यही कहेंगे कि साधारण से लोगों ने भगवान विष्णु को मार डाला…इसका परिणाम यह होगा कि लोग भगवान की पूजा बंद कर देंगे ।”

“हां…हां…मामला गंभीर है ।”  भगवान विष्णु बोले : ”हे गरुड़ । तुम जल्दी से उस लकड़ी के गरुड़ में प्रवेश कर जाओ मैं जुलाहे के शरीर में प्रवेश करता हूं ।”  जुलाहे ने महाराज के प्राणों की कितनी बार रक्षा की, जिधर उस जुलाई, की तलवार घूमती, उधर ही शत्रु सेना की लाशें बिछ जाती ।

अंत में राजा अमर सिंह भी उस भगवान विष्णु की शक्ति वाले बुला, के हाथों से मारा गया । राजा वीर सिंह की विजय के साथ ही अब जुलाहे की पहचान भी हो गई थी, मगर राजा वीर सिंह को इस बात की खुशी र्थो कि उसने इस जुलाहे की मदद से अपने शत्रु को हरा दिया…उसने खुशी से राजकुमारी की शादी कालू से करके उसे अपने महलों में ही रख लिया ।


Panchatantra Story #4. बदनसीब |

“भाग्य में है या नहीं यह सब तुम्हारे हाथ में है, क्योंकि तुम भाग्य के स्वामी हो, मैंने अपना हर काम पूरा कर दिया है तुम कहो तो अपने कम स्वयं पूरे करो, उठो हिम्मत से काम लो ।”

वास्तव में ही रामदीन बदनसीब था, क्योंकि जब से उसने आखें खोली थी तब से उसने गरीबी के सिवा और किसी चीज का मुंह नहीं देखा था । जब छोटे-छोटे बच्चे भूख के मारे उसके सामने आकर बिलखने लगते तो उसकी आत्मा पानी से निकली मछली की भांति तड़प उठती थी ।

वह ईश्वर की मूर्ति के आगे अपने दोनों हाथ उठाकर कहने लगता : ”हे ईश्वर, तुम मुझे जितने मर्जी दुःख दे दो, परन्तु मेरे बच्चों को तो न तड़पाओ, इन मासूम और निर्दोष बच्चों का क्या दोष है, क्यों तड़पा रहे हो इन्हें ।” ईश्वर भी कहां सुनता था, बेचारा रामदीन तड़प कर रह जाता ।

बेबसी की जिंदगी से तंग आकर उसने कइ बार सोचा था कि इस जीवन से तो कहीं अच्छा है कि वह आत्महत्या कर ले, परन्तु इन बच्चों को देखकर उससे आत्महत्या भी तो नहीं हो पाती थी । एक दिन उसका एक पुराना मित्र शंकर शहर से आया तो उसके शाही ठाठ-बाट देखकर रामदीन को बड़ा आश्चर्य हुआ…शंकर, जो कुछ साल पहले गांव में फटे-पुराने कपड़े पहने फिरा करता था, जिसके घर में खाने के लिए रोटी भी नहीं थी, आज वही शंकर कितना धनवान बन गया था ।

शंकर उसके घर के अंदर आया तो बच्चों को रोते देखकर बोला, ”अरे रामदीन, तेरी जिन्दगी नहीं बदली, देख तो सही, तूने घर की क्या हालत बना रखी है, बच्चे भूख से तड़प रहे हैं ।” ”क्या करूं शंकर भाई, मैं तो खुद ही इस जीवन से तंग आ गया हूं । यह गरीबी मेरा पीछा ही नहीं छोड़ती ।”

“छोड़ेगी, पहले तो यह थोड़े से रुपये रख ले, इन बच्चों को खाना खिला ।”  ”मगर शंकर मैं यह रुपये तुझे वापस नहीं कर पाऊंगा, इसलिए इन्हें न दे ।”  ‘ओ मूर्ख इन्सान ! तेरे से यह रुपये वापस कौन मांगेगा, तूने बचपन में मुझे भाई कहा था न, तेरी मां मुझे अपने हाथ से रोटी खिलाती थी ।

आज यदि भगवान ने मुझे चार पैसे दिए हैं तो क्या मैं अपने बच्चों को उनमें से कुछ नहीं दे सकता ।’ ”ठीक है, आज तो भैया तू दे देगा कल कौन देगा ?” ”कल भी होगा, परसों भी होगा, नरसों भी होगा, यह सब कुछ हो जाएगा…मगर एक काम करना होगा ।” ”क्या ?” ”अब तुम मेरे साथ शहर चलोगे ।” ”मैं तुम्हारे साथ शहर चलूंगा…?” ”हां…हां ।” ”लेकिन…यह सब…।”

“लेकिन-वेकिन को छोड़ दे रामदीन, अब तो तुम्हें मेरे साथ शहर चलना ही होगा, इस गांव में तेरे लिए कुछ नहीं रखा, अपने पिता की बातों को भूल जा, उन्होंने जैसे-तैसे मेहनत मजदूरी करके अपना समय काट लिया अब तो गांव में वह काम भी नहीं रहा, इन बच्चों को भूखा मारने से तो अच्छा है कि तू शहर में चल, वहां पर मैं तुझे काम दिला दूंगा ।”

शंकर की बात मानकर रामदीन उसके साथ शहर चला आया । उसने उसे एक दुकानदार के पास काम भी दिला दिया । एक वर्ष तक रामदीन खूब मन लगाकर काम करता रहा । उसी का यह फल था कि उसने काफी धन जमा कर लिया ।

एक वर्ष के पश्चात रामदीन ने घर वापस आने की तैयारी कर ली । उसने अपने रुपयों को एक पोटली में बांधा और सूर्य की पहली किरण के साथ ही शहर से गांव की ओर चल पड़ा । शहर से उसके गांव तक का रास्ता काफी बीहड़, कठिन व डरावना था क्योंकि रास्ते में एक बहुत घना जंगल पड़ता था ।

उस जंगल में काफी खूंखार जानवर भी रहते थे । जंगल में चलते-चलते उसे रात हो गई, रामदीन ने सोचा कि रात के समय इस जंगल में सफर करना ठीक नहीं, इसलिए उसने रात काटने के लिए एक घने वृक्ष का सहारा लिया । थके हुए इन्सान को नींद भी जल्दी उगती है ।

रामदीन बेचारा भी काफी थका हुआ था, इसलिए उसे भी लेटते ही नींद आ गई । नींद में ही उसने दो प्राणियों को अपने ऊपर झुके हुए देखा, उनमें से एक बोला : ”अरे, क्या तुम नहीं जानते कि इस आदमी को तुमने भोजन और कपड़े के सिवा कुछ नहीं लिखकर दिया था, फिर इसके पास इतना धन क्यों और कहां से आया ?”

”भाई मेरे ! यह आदमी बहुत ही ईमानदार और परिश्रमी है । इसने यह धन परिश्रम करके कमाया है ।” ”कमाया है, यह तो हम दोनों जानते हैं, लेकिन इसके नसीब में यह लिखा कहां हैं ।” ”तो फिर ?” ”जो इसके नसीब में नहीं उसे यह कैसे ले लेगा ।”

”हा…हा…हा…।” दोनों हंसते हुए चले गए । सुबह उठकर रामदीन ने अपने रुपयों की थैली को देखा…तो वहां न थैली थी न रुपये, वह बेचारा अपना सिर पकड़ कर रह गया…साल भर की सारी कमायी कोई लेकर चलता बना । अब वह अपने घर कैसे जाएगा, अपने बीवी-बच्चों को क्या मुंह दिखाएगा ?

बहुत देर तक अकेला बैठा रामदीन रोता रहा, किन्तु उस जंगल में उसके रोने की आवाज सुनने वाला दूर-दूर तक कोई न था । कितनी देर तक वह गरीब अपनी बदनसीबी पर आसू बहाता रहा, आखिरकार उसके आसू भी समाप्त हो गए, तो उसने एक बार फिर से शहर जाने का फैसला कर लिया ।

शहर जाकर बेचारा रामदीन फिर मेहनत-मजदूरी करने लगा । एक साल फिर बीत गया, उसने अपनी कमाई का धन फिर से एक थैली में डाला और गांव के लिए चल पड़ा, पहले की भांति ही उसने उस जंगल के घने पेड़ के नीचे रात काटने का निर्णय लिया और हरी-हरी घास पर बड़े आनन्द से सो गया ।

जैसे ही रामदीन सोया तो उसे पहले की भांति ही दो प्राणी नजर आए, दोनों ही उसके ऊपर झुके हुए थे, उनमें से एक ने कहा : ”भैया परिश्रम ! एक बार फिर यह इतना धन कमा लाया, कुछ समझ नहीं आता जो चीज इसके नसीब में नहीं वह तुम इसे क्यों देते हो ।”

”बस…बस भाई, जो आदमी इतना परिश्रय करेगा वह तो धन कमाएगा ही, यह बेचारा गरीब दिन-रात मेहनत करता रहा है, फिर धन क्यों न कमाए ? यह बेचारा कोई चोर-डाकू तो है नहीं, मजदूरी करके ही…इसने यह सारा धन इकट्ठा किया है ।

तुम जानते ही हो कि मैं हर परिश्रमी आदमी को उसका फल देता हूं और तुम…”मैं तो नसीब हूं भाग्य हूं…जब तुम अपना काम पूरा कर लेते हो तोमेरा काम शुरू होता है, तुमने इसकी मेहनत का फल इसे दे दिया, जब मैंने इसके नसीब में यह लिखा ही नहीं तो…।”

यह कहते हुए उस आदमी ने उसके सिर के नीचे रखी रुपयों की थैली निकाली और दोनों चलते बने । रामदीन एकदम से घबरा कर उठा, उसने उठकर जैसे ही अपने रुपयों वाली थैली को देखना चाहा तो उसका दिल एकदम से डूबने लगा ।

रुपयों की थैली वहां नहीं थी : ”हे भगवान यह मेरे साथ क्या अन्याय हो रहा है । मेरी साल भर की कमाई एक रात में ही क्यों हवा बनकर उड़ जाती है । अब तो मैं कमा-कमाकर बहुत थक गया हूं, अब मेरे शरीर में इतनी शक्ति भी नहीं रही कि मैं और इतना कड़ा परिश्रम पुन: कर सकूं…अब तो इस जीवन से मरना ही अच्छा है । मौत…मौत…।”

यह कहते हुए रामदीन ने अपनी धोती को कसकर गले में बाधा…और उसी वृक्ष से बांध कर आत्महत्या करने की चेष्टा करने लगा । उसी समय आकाश से एक आवाज आई, ”हे भले मानव ! यह मत भूल कि मैंने धरती पर तुझे जीने के लिए भेजा है और तुझे यह भी बता दूं कि जन्म से पूर्व ही मैंने तेरा नसीब भी लिख दिया था ।

मगर एक तुम हो कि धन के पाते ही मुझे भी भूल गए, यह भी भूल गए कि तुम्हें कोई जन्म देने वाला भी है, धन कमाते ही तुम ईश्वर को भूल गए…ओ मूर्ख प्राणी ? केवल धन ही तो जीवन नहीं है । फिर तुझे आत्महत्या करने का अधिकार ही क्या है ?

यह जीवन तुम्हारा अपना नहीं, मेरा है । मैं ही जीवन देता हूं…मैं ही लेता हूं…अब तू सीधी तरह अपने घर जा…चिंता छोड़ दे, धन जोड़ने से इंसान को शांति नहीं मिलती । अब तू घर जा, मैंने तेरे खाने-पीने की जिम्मेदारी ले रखी है, फिर तू क्यों चिंता में मरा जा रहा है ।

जा…घर जा…चिंता छोड़ दे, तू जहां भी जाएगा तेरा नसीब तेरे साथ जाएगा । रोने-धोने और चिंता करने से कुछ नहीं होता ।” इस आकाशवाणी को सुनकर रामदीन वापस अपने घर की ओर चल पड़ा । जैसे ही वह घर पहुंचा तो उसकी पत्नी (और बच्चे सबके सब बड़े खुश नजर आए, सबने नए वस्त्र पहन रखे थे…रामदीन को देखते ही सब खुशी से झूम उठे…उसने पत्नी से पूछा, ”भाग्यवान ! यह सब क्या है ? यदि तुम मेरे आने पर इसलिए खुश हो रहे हो कि, मैं शहर से तुम्हारे लिए बहुत-सा धन कमा के लाया हूं तो तुम भूल जाओ, क्योंकि मेरा तो सारा धन चोर ले गए…।”

यह सब सुनकर उसकी पत्नी और बच्चे मुस्कराने लगे । ”अरे, तुम सब लोग हंस रहे हो…मैं अपना सब कुछ दो बार लुटवा चुका हूं । अब तो हम सबको रोना चाहिए…।” ”बापू…बापू…हम क्यों रोएं…हम तो हंसेंगे जब हमारे घर में इतना धन आ गया तो हम क्यों न हैंसे…हा…हा…हा…।”

”मगर यह धन आया कहां से?” रामदीन का मुंह खुला का खुला रह गया ।  ”एक सा! बाबा दो थैलियां दे गए थे, रुपयों से भरी थैलियां…।” ‘वाह रे नसीब…मैं कितना बदनसीब था और यह बच्चे…?’


Panchatantra Story #5. पापी |

”देखो भाइयों! ब्राह्मण क्य अहित करना जे पाए है मयर अपने हाथ में आए शिकार क्ते छोड़ना भी हमारे पेशे के विरुद्ध है अब हमें कोई ऐसा रास्ता निकालना चाहिए जिससे सांप मी मर जाए और ज्ञठी भी न दूटे ।” और फिर सचमुच उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से ऐसी बाल वली कि ब्राह्मण देवता अमित हो उठे ।

पापी…पापी…पापी-जिधर देखो आजकल पापी ही पापी नजर आ रहे हैं, धर्म का तो जैसे नाश ही होता जा रहा है, तिलकधारी ब्राह्मण दान में मिली बकरी को उरपने साथ लिए अपने ही मुंह से बोलता जा रहा था । वैसे तो तोताराम पंडित आज बहुत खुश था, क्योंकि उसे बहुत दिनों के पश्चात् यह बकरी दान में मिली थी, परन्तु न जाने क्यों उसे राह चलते हुए डर सा लग रहा था, क्योंकि इस जंगल में चोरों व ठगों का राज था, आते-जाते किसी भी यात्री को वे लूट व ठग लेते थे ।

फिर तोताराम ने अपने मन को समझाते हुए कहा : “मुझ ब्राह्मण को भला कौन ठगेगा ? चोर भी इन्सान ही होते हैं, ब्राह्मणों की तो उन्हें भी जरूरत पड़ती है, आदमी कितना भी पापी क्यों न हो, वह ब्राह्मण का अहित कभी नहीं करता ।”

पंडित तोताराम अपनी बकरी को लिए चला जा रहा था कि तभी जंगल में छुपे चार ठगों ने उसे देख लिया, उसके पास दूध देने वाली मोटी-ताजी बकरी को देखकर उनके मुंह में पानी भर आया । ”आह! क्या बढ़िया शिकार भेजा है प्रभु ने ।” एक ठग ने अपने साथी से कहा ।

”भैया, शिकार तो मोटा है मगर है तो ब्राह्मण के पास, अब हम किसी ब्राह्मण को मारकर भला कैसे बकरी हथिया सकते हैं । यह तो सबसे बड़ा पाप होगा । हम सीधे नरक की आग में जलाए जाएंगे ।” उसी समय तीसरा ठग बोला, ”भाइयों बकरी तो हमें हःर हाल में लेनी है, मगर इसके लिए बुद्धि से काम लेना होगा ।”

”तो फिर क्या करना चाहिए, हमें ?” ठगों का सरदार बहुत तेज बुद्धि का था । उसने झट से कहा : ”देखो भाइयों मैंने रास्ता तो निकाल लिया है ।” ”क्या, जरा जल्दी से बताओ सरदार ।” फिर ठगों के सरदार ने बारी-बारी से उन तीनों के कान में जो कहा उसे सुनकर सब के सब ठग खुशी से झूम उठे ।

योजनानुसार दो ठग एक स्थान पर जाकर खड़े हो गए और बाकी के दो आगे चढ़े गए । जैसे ही पंडित तोताराम उन ठगों के करीब आया तो उन दोनों ठगों ने आगे बढ़कर कहा : ”राम-राम पंडित जी ।” “पाय जाएं महाराज ।” दूसरा ठग बोला ।

”राम-राम…भैया यजमान…राम-राम सदा सुखी रहो…आनन्द करो…।”  ”पंडितजी! आज यह कुत्ता क्यों लिए जा रहे हैं ?” “ओ मूर्ख इंसान, यह कुत्ता नहीं, बकरी है जो गांव के प्रधान ने मुझे दान में दी है ।” ”पंडित जी, असल में उगपके साथ धोखा हुआ है ।”

”कैसा धोखा ?” ”यही कि आपको बकरी के स्थान पर कुत्ता दान में दे दिया गया ।” ”क्या यह कुत्ता है?” तोताराम सोच में पड़ गया । वह कभी बकरी की ओर देखता तो कभी उन दोनों आदमियों की ओर देखने लगता । किसी ने ठीक ही कहा है कि संदेह के घेरे में फंसकर आदमी अपनी अक्ल से हाथ धो बैठता है ।

तोताराम अपनी बकरी को लेकर थोड़ा आगे बढ़ा था तो उसने आगे खड़े दो आदमियों को देखा जो दूर-पूरकर उसे देख रहे थे । उन्हें देखकर पंडित तोताराम सोचने लगा कि यह कौन लोग हैं जो मेरी ओर घूर कर देख रहे हैं । ”पंडित जी प्रणाम ।” उनमें से एक ने कहा ।

”प्रणाम भाई, कहो, कैसे हो ?” ”सब ठीक है पंडितजी, लेकिन आज आप यह क्या लिए जा रहे हैं।”  “भैया, बकरी है, दान में मिली है ।” ”पंडित जी, यह बकरी नहीं, कुत्ता है ।” ”यह तुम क्या कह रहे हो, बकरी को कुत्ता बताते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती ।”

”शर्म तो उस आदमी को आनी चाहिए जिसने आपके साथ धोखा किया है, गरीब ब्राह्मण को सीधा-सादा जानकर उसे बकरी के स्थान पर कुत्ता ही दान में दे डाला-राम…राम…कैसा घोर कलिएयूउग आ गया है, लोग ब्राह्मणों के साथ भी धोखा करने लगे हैं ।”

”भैया, यह तो बकरी है, बकरी…।” पंडित बेचारा जोर से चिल्लाया । ”पंडित जी, आपके चिल्लाने से कुत्ता बकरी तो बन नहीं सकता, फिर हमें आप से और आपके इस दान से क्या लेना-देना है, हम तो सत्य बोलते हैं ।”

पंडित तोताराम समझ गया कि उसके साथ धोखा ही हुआ है, उसने क्रोध में आकर बकरी को जंगल में ही छोड़ दिया और मुखिया को कोसता हुआ अपने घर को चल दिया । इस प्रकार ठगों ने अपनी चालाकी से पंडित से बकरी हथिया ली ।


Panchatantra Story #6. पछतावा |

शिकारी ने जब जाल समेत ही उड़ते हुए कबूतरों को देखा तो पहले वह उनके पीछे भागा और फिर थक हार कर अपना इसर पकडू कर बैठ हश्र उसके साथ इतना बड़ा धोखा हो जाएगा, उसने इस बात अई कल्पना भी नहीं गै थो शिकार करने वाला आज छुद ही शिकार हो गया था ।

बरगद के एक पेड़ पर बैठे सैकड़ों छोटे-बड़े पक्षी एक लम्बे समय से रहते चले उसे रहे थे । इन पक्षियों का प्रेम इतना अधिक था कि वे सबके सब अपने दुःख-सुख के समय एक हो जाते थे । एक दिन एक शिकारी उस वृक्ष के नीचे आराम करने के लिए आया तो उसने वृक्ष पर बैठे पक्षियों को देखा तो सोचने लगा कि यदि वह अपना जाल इस वृक्ष के नीचे लगा दे तो उसमें बहुत से पक्षी फंस सकते हैं ।

इससे बढ़िया शिकार करने का अवसर कब मिलेगा, एक तो इस वृक्ष की छाया में आराम करने का अवसर मिलेगा और जब तक मैं आराम करूंगा तब तक यह शिकार भी फंस जाएगा । वृक्ष पर बैठे एक बूढ़े कौए ने इस शिकारी को आते देखकर ही समझ लिया कि हम में से बहुत से पक्षियों की जानें जाने वाली है ।

तभी उसने सब पक्षियों को बुलाकर कहा : “भाइयों इस वृक्ष के नीचे बैठा आदमी बहुत बड़ा शिकारी है, कुछ ही देर में यह हमें अपने जाल में फंसाने के लिए दाना डालेगा, उस दाने को तुम जहर समझना, क्योंकि इस दाने को चुगने का अर्थ है-जाल में फंसना । इसलिए भाइयों आज तुम लोग होशियार रहना ।”

कौए की बात सनकर सब पक्षी समझ गए थे कि यह शिकारी उन्हें अपने जाल में फांसने के लिए आया है । वे सब के सब चुपचाप वृक्ष पर बैठे शिकारी के जाने की प्रतीक्षा करते रहे । क्रुछ ही समय पूर्व जंगली कबूतरों का एक झुंड भी उस वृक्ष पर आकर ठहरा था ।

सामने बिखरे दाने को देखकर उनके मुंह में पानी भर आया । वे बेचारे भूखे थे, भूखे के सामने अन्न पड़ा हो तो उसकी भूख और भी बढ़ जाती है । यही हुआ उन कबूतरों के साथ, भूख से अबे होकर वे शिकारी द्वारा बिछाए गए चावलों पर टूट पड़े ।

शिकारी ने इतने सारे कबूतरों को जाल में फंसते देखा तो वह बहुत खुश हुआ । सब के सब कबूतर जाल में फंस गए तब उन्हें उस कौए की बात याद आई कि यह धोखा है । धर्मपुत्र युधिष्ठिर जैसे वीर ज्ञानी भी लोभवश शकुनि की चाल में फंस गए थे ।

सत्य बात तो यह है कि जब भी इन्सान पर कोई मुसीबत आती है तो उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है । अपनी ही भूल के कारण कबूतर भी शिकारी के जाल में फँस गए थे । शिकारी जोर-जोर से हंस रहा था, कबूतर रो रहे थे, उन्हें अपनी मौत सामने नजर आ रही थी ।

कबूतरों के सरदार ने अपने साथियों को इस. प्रकार उदास बैठे देखकर कहा : ”अरे मूर्खों इस प्रकार उदास क्यों बैठे हो, संकट के समय धबराने से काम नहीं चलता, दुःख के समय तो बुद्धि से काम लेना चाहिए, बुद्धिमान लोग सुख और दुःख को समान ही समझते है जैसे सूर्य का रंग सुबह उरौर शाम दोनों समय एक ही प्रकार का लाल होता है ।

इसलिए हमें इस दुःख से बचने के लिए हिम्मत से काम लेकर इस जाल समेत ही उड़ जाना चाहिए…हिम्मत…हिम्मत…यदि हमने इस समय हिम्मत से काम न लिया तो मृत्यु हम से अधिक दूर नहीं ।” अपने सरदार के इस जोश भरे भाषण को सुनकर सब कबूतरों में एक नई शक्ति उग गई, उन्होंने उसी समय जाल समेत उड़ना शुरू कर दिया, शिकारी ने जब देखा कि कबूतर तो उसका जाल भी लेकर उड़ रहे है तो वह रोता-पीटता उन उड़ते हुए कबुतरों के पीछे भागा ।

उसे यह आशा थी कि शायद कबूतर जाल समेत नीचे गिर पड़ेंगे, परन्तु कबूतर तो नहीं गिरे किन्तु शिकारी बेचारा ठोकर खाकर ऐसा गिरा उसके कि उसके मुंह से खून बहने लगा । कबूतर इतने बड़े जाल को लेकर कब तक उड़ते, कबूतरों के सरदार का एक पुराना दोस्त चूहा इसी जंगल में रहता था ।

वे अपने साथियों सहित उस चूहे के बिल पर उतरे तो उनके सरदार ने बाहर खड़े होकर चूहे को आवाज दी । ”मेरे मित्र जल्दी से बाहर आओ ।” “कौन हो तुम?” ”सदाचारी कबूतर…तुम्हारा दोस्त, मैं इस समय संकट में फंसा हूं तुम जल्दी से बाहर आकर मुझे और मेरे साथियों को बचा लो ।”

मित्र सदाचारी का नाम सुनकर चूहा उसी समय बाहर आया और जैसे ही उसने सदाचारी और उसके साथियों को जाल में फंसे देखा तो आश्चर्य भरे स्वर में बोला : ”अरे वाह मित्र…तुमने तो कमाल ही कर दिखाया, जाल समेत ही सबको उड़ा लाए ।”

”क्या करें दोस्त, आज के युग में यदि हम इतनी हिम्मत से काम न लें तो यह बहेलिये लोग हमारी हड्डियां भी पीसकर खा जाएं ।” चूहा अपने दोस्त की बुद्धि की प्रशंसा करते हुए जल्दी-जल्दी उस जाल को काटने का प्रयास करने लगा स्राथ ही साथ कबूतरों से कहता जा रहा था : ”जो…भी पक्षी भूख के समय दाने को देख लेता है, जाल को भूल जाता है ।

बुद्धिमान लोगों की सुस्ती देखकर तो मैं यही सोचता हूं कि भाग्य बड़ा बलवान है । आकाश पर उड़ने वाले पक्षी भी मुसीबत में फंस जाते हैं । गहरे सागर में रहने वाली मछलियां भी मारी जाती हैं इन चीजों से ही तो हमें पाप और पुण्य का पता चलता है ।”

चूहे ने सबसे पहले तो अपने मित्र सदाचारी कबूतर सरदार के बंधनों को काटना शुरू किया तो उसने कहा : ”भाई, पहले मेरे साथियों को आजाद करो जो मेरे लिए अपना घर-बार छोड़ कर मेरे साथ आए हैं…मैं इनका सम्मान क्यों न करूं ।

विद्वानों ने कहा भी है कि, जो राजा अपने सेवकों का सम्मान करता है, धन की कमी होने पर भी वे लोग अपने राजा का साथ नहीं छोड़ते, मित्र विश्वास ही सब चीजों की जड़ है । तभी तो हाथी अपने झुंड का राजा कहलाता है ।

अब तुम सोचो कि मेरी तरफ का जाल काटते समय यदि तुम्हारा एक भी दांत टूट गया तो मेरे इन साथियों को कौन मुक्त करवाएगा ।” “ठीक है मित्र, पहले मैं तुम्हारे इन साथियों को ही मुक्त करता हूं, फिर सबसे बाद में तुम्हारे बंधन काटूंगा । अच्छे और गुणवान राजा के बारे में कहा गया है कि जो भी राजा अपने नौकरों पर सदा दया दृष्टि रखता है, उनकी योग्यता के अनुसार उन्हें वेतन देता है, वह राजा तीनों लोकों की रक्षा करने की हिम्मत रखता है ।”

बातों-बातों में चूहे ने सारा जाल काटकर उन कबूतरों को मुक्त कर दिया, और फिर अपने बिल में जाते हुए बोला, ”दोस्त, फिर कभी जरूरत पड़े तो अपने इस दोस्त को याद कर लेना ।” ऊपर वृक्ष पर बैठा एक कौआ, कबूतर और चूहे की दोस्ती की पूरी कहानी सुन रहा था । उनकी दोस्ती को देखकर कौए के मन में उगया कि ऐसे अच्छे मित्र को मैं भी अपना मित्र बनाऊंगा ।

सच्चा मित्र वही है जो संकट के समय काम आता है । यही सोचकर कौआ चूहे के पास आया और चूहे को पुकारकर कहा, ”भैया चूहे ! मैंने तुम्हें इन कबूतरों के बंधन काटते देखा, तो मेरे मन में तुमसे मित्रता करने की बात आई । बोलो, तुम मुझसे मित्रता करोगे ।”

”भैया कौए, तुम मेरे शिकारी हो और मैं तुम्हारा शिकार हूं ऐसे में हमारी-तुम्हारी मित्रता कैसे निभ सकती है । विद्वानों ने यह बात कही भी है कि जिनमें धन और कुल की समानता हो उन्हीं में विवाह होता है । निर्बल और बलवान में नहीं । जो लोग अपने से कम बुद्धि वाले लोगों से मित्रता करते हैं, वह मित्रता को बदनाम करते हैं । इसलिए आप जाएं ।”

”भैया चूहे ! मैं तुम्हारे द्वार पर बैठा हूं यदि तुम मुझे अपना मित्र बनाओगे तो ठीक है, नहीं तो मैं यही पर मर जाऊंगा ।” ”नहीं मैं अपने किसी शत्रु से मित्रता नहीं कर सकता ।” ”भैया, आज तक हमने एक-दूसरे से कभी मेलजोल ही नहीं किया तो फिर नफरत क्यों ? इस दुश्मनी का मतलब ?”

”देखो भाई, दुश्मनी दो प्रकार की होती है, एक स्वाभाविक और दूसरी कृत्रिम । कृत्रिम शत्रुता एक बार कृत्रिम गुणों के नष्ट हो जाने से समाप्त भी हो जाती है, परन्तु जन्मजात शत्रुता जान लिए बिना नहीं जाती ।” ”भैया, मुझे इन दोनों प्रकार की शत्रुता के भेद तो बताओ । ताकि मैं भी अपने शत्रुओं की पहचान कर सकूं ।”

”सुनो दोस्त ! यदि किसी कारण से शत्रुता हो जाए तो वह कृत्रिम होती है । वह उस कारण के दूर हो जाने से समाप्त हो जाती है परन्तु स्वाभाविक शत्रुता कभी समाप्त नहीं होती जैसे कि सांप और नेवले की । मांसाहारी और शाकाहारी की । कुत्ते और बिल्ली की, अमीर और गरीब की, सौत और सुहागिन की, शेर और हाथी की, शिकारी और हिरण की, ब्राह्मण और दुष्ट की, यद्यपि इनमें से किसी के भी स्वभाव का अंत नहीं हुआ, फलस्वरूप यह एक-दूसरे को देखकर जलते हैं ।”

चूहे की बात सुनकर कौआ बोला, ”भाई ! यह सब बेकार की बातें हैं, मेरी बात सुनो..? किसी कारण से मित्रता और किसी कारण से ही शत्रुता होती है । संसार में बुद्धिमानों से मित्रता ही करनी चाहिए शत्रुता नहीं, इसलिए तुम मुझसे मित्रता करो, भैया, हम दोनों मिलकर रहेंगे ।”

”भैया नीति का सार सुनो-जो दुष्ट एक ही बार देखे गए से मित्रता करना चाहता है, वह उसी प्रकार मृत्यु को बुलाता है, जैसे खच्चरी गर्भवती होकर मर जाती है । यूं तो मैं गुणी हूं परन्तु मेरे साथ कोई शत्रुता नन्हीं करेगा ऐसा भी नहीं हो सकता, कहा भी गया है: विद्वान जैमिनी मुनि को हाथी ने मार दिया था, और महाविद्वान पिंगलाचार्य को सागर तट पर मगर खा गया ।”

”मेरे भाई बूढ़े, यह सब बातें तो ठीक हैं परन्तु सुनो, उपकार-उपकार से सदाचारी लोग, किसी कारणवश पशु-पक्षियों से पू भय लोभ के सूत्रों में और सज्जनों के दर्शनों से भी मित्रता होती है ।” ”दोपहर से पहले की छाया पहले लम्बी फिर छोटी होती है । फिर धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है ।

दोपहर बाद की छाया धीरे-धीरे बढ़ने लगती है और सुनो…सौगन्ध खाकर मित्रता करने वाले शत्रु पर कभी विश्वास न करो, सुना यह भी गया है कि कसम खाने वाले इन्द्र देवता ने वृत को मार डाला था और विश्वास दिलाकर अपनी विमाता के गर्भ को नष्ट कर डाला ।

अच्छे काम करके मित्रता कर लेना चाणक्य नीति है, और मित्र संगठन द्वारा बल बढ़ाना बृहस्पति नीति है । यह तीन प्रकार की नीतियां कही गई हैं, महापुरुष भी शत्रु की स्त्री पर विश्वास करके नष्ट होता है ।” चूहे के मुख से यह सब बातें सुनकर कौआ समझ गया कि यह ज्ञानी है, इससे मित्रता करके वह बहुत कुछ सीख सकता है ।

उसने चूहे से आखिरी प्रार्थना की, ”भैया, भले ही मुझ से तुम बाहर आकर दोस्ती नहीं करते मगर इतनी तो कृपा करो कि बिल के अंदर से ही मुझसे बात कर लिया करो ।” ”देख भाई कौए, तुम भूल कर भी मेरे बिल के अंदर पांव न रखना ।

विद्वान कह गए है कि शत्रु पहले धीरे-धीरे सरकता है, फिर जोर से फांदता है, जैसे-कामरी पुरुष नारी पर धीरे-धीरे डोरे डालता है ।” कौआ चूहे की वाणी सुनकर खुश हो गया और बोला : ”देखो भाई, में तुमसे मित्रता करना चाहता हूं तुम जो भी कहोगे मैं वही बात मान लूंगा ।”

“ठीके है, आज से हम दोनों भाई मित्र बन कर रहेंगे ।” ”वाह…वाह…चूहे भाई, मैं तुम्हारी मित्रता पाकर धन्य हो गया ।” चूहे और कौए की दोस्ती अब दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी । सच बात तो यह थी कि चूहे को भी एक अच्छा मित्र मिल गया था ।

एक दिन कौआ उदास सा चूहे के पास आकर बोला, ”भैया, अब तो अपना इस स्थान पर मन ही नहीं लगता, क्योंकि इस क्षेत्र में तो अकाल ही पड़ गया है । खाने को कुछ भी तो नहीं मिलता, इस साल वर्षा न होने से सारे तालाब तक सूख गए हैं ।

पीने का पानी कहीं नहीं, भूख के मारे लोगों ने घर-घर में जाल फैला रखे हैं । मैं स्वयं भी एक जाल में फंस गया था, बस किसी न किसी तरह से बचकर निकल ही आया ।” ”अब तुम कहां जाओगे ?” ”दूर घने जंगल में एक बहुत बड़ा तालाब है, वहां पर तुम्हारे जैसा मेरा एक दोस्त कछुआ रहता है, वह मुझे मछलियां खिलाया करेगा ।”

”यदि ऐसी बात है तो मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूं ।” ”मगर ऐसा क्यों, तुम वहां कैसे जाओगे ? वह तालाब तो बहुत दूर है ।”  ”क्या तुम मुझे अपने पंखों पर बैठाकर नहीं ले जा सकते ?” ”क्यों नहीं, तुम्हारे जैसे ज्ञानी मित्र के लिए तो जान हाजिर है चलो, मैं तुम्हें अभी ले चलता हूं । मगर क्या तुम्हें मुझसे डर नहीं लगेगा ?”

”इस बात का जवाब मैं तुम्हें उसी तालाब पर चलकर दूंगा, जिसमें तुम्हारा मित्र कछुआ रहता है ।” चूहा उसी समय कौए के पंखों पर बैठ गया और कौआ उड़ता हुआ उसे तालाब तक ले गया । वहां जाकर उसने अपने मित्र कछुए को आवाज दी ।

कछुआ अपने मित्र की आवाज सुनकर पानी से बाहर निकल आया, उसने कौए के साथ चूहे को देखा तो पूछने लगा, ”मित्र ! यह तुम्हारे साथ कौन है ?”  ”यह मेरा ज्ञानी मित्र चूहा है । इसलिए इसे अपनी पीठ पर लादकर यहां तन ? लाया हूं ।”

”भाई ! चूहा तो तुम्हारा भोजन है, यदि तुमने इसे मित्र बनाया है तो जरूर कोई खास बात होगी ।” ”दोस्त ! हम तो ऐसे मित्र को जान से भी प्यारा समझते हैं जो कहते हैं कि हम तो यारों के साथ जीते है और यारों के साथ ही मरते हैं ।”

”मगर ऐसा क्यों, क्या चूहे को तुमसे डर नहीं लगा ?” ”यही बात मैंने भी इससे पूछी थी तो इसने कहा था कि इसका उत्तर मैं तुम्हें उस तालाब पर जाकर ही दूंगा ।”“उब तो भैया वह बात बता दो ।” कछुए ने चूहे से कहा ।  उसी समय चूहे ने उन्हें एक कथा सुनाई ।


Panchatantra Story #7. सब से बड़ा रुपया |

जो प्राणी घर आए मेहमान को देखकर इधर-उधर नीचे-ऊपर झाकने लय्रे उसके घर में जो लोग जाते हैं दे बिना सीप के बैल होते हें । जहां पर सम्मान न हो कोई मीठी बातें करने वाला न हरे बहां तो भूलकर भी नहीं जाना कहिए ।

चूहे ने अपने मित्रों को जो कथा सुनाई वह धनशक्ति की अनोखी कथा थी । चूहे ने अपने साथियों को छोड़कर जंगल में रहना क्यों स्वींकार किया । चूहे ने अल, साथी कौए व कछुए को जो कथा सुनाई, वह इस प्रकार थी: ”सबसे बड़ा मित्र है रुपया, आज के युग में जिधर भी देखो उधर धन की ही पूजा होती है ।”

हरिद्वार के किनारे बने मठ के एक सा! ने अपने दूसरे साधु मित्र से कहा । महात्मा भैरव प्रसाद के पुराने मित्र नीलगिरी जी जब उनके आश्रम में आए थे, तो उन्होंने आते ही उन्हें यह बताया था कि, धर्म की बात तो कहीं नहीं होती धन की बात जरूर होती है । चारों ओर लोभ ही लोभ है ।

तभी भैरव प्रसाद ने अपने मित्र को इस आश्रम की ही बात बताई कि लोभ के वशीभूत छोटी-सी चुहिया भी कभी-कभी इन्सान को परेशान कर देती है, उसे भी खाने का लोभ हो गया है । उसी से तंग आकर मैंने भोजन को खूंटी पर टांगना शुरू कर दिया है ।

उन दोनों की आपसी बात सुनकर मेरे साथियों यानी चूहों ने आपस में सलाह की, इस सा! ने जो चालाकी दिखाई है, उस चालाकी का उत्तर देने के लिए हम सबको मिलकर नई योजना बनानी होगी । सारे चूहे इकट्ठे होकर मेरे पास आए और बोले : ”भाई ! तुम तो बड़े ज्ञानी हो, उन साधुओं ने हमारा भोजन बंद कर दिया है, इसलिए तुम्हीं हमें कोई रास्ता बताओ ताकि हम उस संन्यासी के आश्रम में भूखे न मरें ।”

मैंने उन लोगों की सब बातों को ध्यान से सुना । अंत में सोच-विचारकर उनसे यही कहा कि अब तो मुझे ही आपके साथ जाकर यह रास्ता बताना पड़ेगा । ”इससे अच्छी बात हमारे लिए और क्या होगी ।” सारे चूहे इस बात पर खुश हो गए थे !

अब हम सब इकट्‌ठे होकर साधु के आश्रम में पहुंचे । रात को सा! महाराज ने खूब पेट भरकर खाना खाया, जो खाना बचा उसे थैली में डालकर घंटी पर टांग दिया । जब साधु सो गए तो मैं एक पत्थर का सहारा लेकर उस खूंटी पर चढ़ गया ।

मेरे पीछे दूसरे चूहे भी चढ़ गए, हम लोगों ने खूब पेट भरकर खाना खाया । दूसरे दिन जैसे ही साधु ने अपनी भोजन की पोटली को उतार कर देखा, तो उसमें उसे केवल जूठे भोजन के टुकड़े ही मिले, जिससे दोनों साधुओं को बहुत क्रोध आया ।

फिर क्या था, क्रोध से भरा साधु दूसरे दिन एक लम्बा सा बांस ले आया, वह रात को सोते-सोते भी हमें डराने के लिए उसे हिलाता रहता । उस बांस की आवाज से ही डरकर हम उस भोजन तक नहीं पहुंच पाते थे । दूसरी रात दोनों संन्यासी उगपस में बातें कर रहे थे, तो इस बीच उनका एके संन्यासी मित्र और भी आ गया, जो भैरवप्रसाद का बड़ा पुराना मित्र था, तह भैरवप्रसाद से ज्ञान की बातें करता लेकिन भैरवप्रसाद का ध्यान बार-बार उस बांस की ओर जाता, वह बार-बार उसे हिलाता ।

उसके मित्र ने कहा : ”देखो भैरवप्रसाद ! तुम मेरे द्वारा कही लान की बात को ध्यान से नहीं सुन रहे हो ।” भैरवप्रसाद उसे क्या बताते कि मैं चूहों के कारण आपके तान की बातों को नहीं सुन पा रहा । इसलिए उन्होंने चुप रहना ही उचित समझा ।

भैरवप्रसाद को चुप देखकर उनके संन्यासी मित्र को और भी क्रोध आ गया, उन्होंने वहां से उठते हुए कहा : ”देखो, भले ही अब रात का समय है, मगर मैं अभी और इसी समय तुम्हारे आश्रम को छोड़कर जा रहा हूं ।  अज्ञानी आदमी के पास तो एक पल भी रहना पाप है ।

तुम एक आश्रम के स्वामी बनकर इतने घमंडी हो गए हो के शिष्टाचार भी भूल गए, यह मत भूलो भैरवप्रसाद कि जो आदमी अपने घर उगए मेहमान का सम्मान नहीं करता, वह पापी होता है । अब यह उराश्रम नहीं बल्कि एक नर्क है नर्क, अब तुम ही इस नर्क के स्वामी बनकर रहो ।”

‘बस…बस…मित्र ! ईश्वर के लिए मुझे और शाप मत दो…तुम शायद नही जानते कि मेरी इस चिंता का कारण एक चूहा है, जो हर रोज मेरा भोजन खा जाता है, उसको डराने लिए ही मैं इस बांस को हिलाता रहता हूं ।” ”उस चूहे का बिल कहां है ?” उस साधु ने पूछा और कहा : ”मुझे लगता है कि उसका बिल किसी खजाने के आसपास ही होगा, क्योंकि धन की गर्मी से ही प्राणी का तेज बढ़ता है, इसी कारण वह चूहा इतना ऊंचा कूदता है । भैरवप्रसाद तुम चूहे के आने का रास्ता तो जानते हो ?”

”हां, जानता हूं । वैसे वह अकेला कभी नहीं आता, बल्कि अपने कई साथियों को साथ लेकर आता है ।” ”ठीक है, अब हम सुबह उठकर उसके रास्ते पर मिट्टी डाल देंगे, जिससे उसके आने के मार्ग का पता चल जाएगा ।” मेहमान साधु की बात सुनकर मुझे बहुत चिंता हो गई ।

वह बहुत ही तेज बुद्धि का लग रहा था, मिट्टी डालकर मेरे पाँव के निशानों से वो लोग मेरे घर तक पहुंचना चाहते थे, इससे तो वे लोग मेरे खजाने का पता लगा लेंगे क्योंकि मेरे बिल के नीचे एक बड़ा खजाना था ।  मगर मैं भी इतनी कच्ची गोलियां नहीं खेला था, जो उनके काबू में आ जाता ।

दूसरे दिन से मैंने वह रास्ता ही छोड़ दिया, मैंने एक नया ही रास्ता तलाश कर लिया । उस रास्ते पर मैं अपने साथियों के साथ जा रहा था तो रास्ते में एक बिल्ली मिल गई, चूहों को देखते ही वह उन पर टूट पड़ी, उसने मेरे बहुत से साथियों को मार कर खा लिया ।

बिल्ली को देखते ही सबको अपनी जान के लाले पड़ गए मैं भी अकेला ही एक दूसरे स्थान की ओर चला गया । उस मेहमान साधु ने अपनी चाल से हमारे खजाने का पता लगा लिया, जिसकी गर्मी से मैं इतनी ऊंची चढ़ाई चढ़ जाता था और साथ ही मेरा बिल भी छिन्न-भिन्न कर दिया ।

अब उस मेहमान साधु ने भैरवप्रसाद से कहा न: ”देखो भैरवप्रसाद, मैंने तुम्हारे शत्रु को भगा दिया है, अब तुम शांति से सो सकते हो । अब तुम्हें भोजन की भी कोई चिंता नहीं रहेगी ?” दूसरी रात मैं जैसे-तैसे उस आश्रम तक पहुंचा, भैरवप्रसाद स्वभाववश उस रात भी जब बांस हिलाने लगा तो मेहमान साधु ने उससे पूछा : ”भैया भैरव ! आज तुम बांस क्यों हिला रहे हो, क्या आज भी तुम्हें चूहों के डर के कारण नींद नहीं आती ।”

”वह फिर अपने साथियों को लेकर आश्रम में आ चुका है, इसलिए मैं बांस हिला रहा हूँ ।” ”दोस्त ! अब तुम उससे मत डरो क्योंकि धन के जाने से उसकी उछलने-कूदने की शक्ति भी चली गई है । ज्ञानियों ने कहा है जो प्राणी उत्साही रहता है या अपशब्द बोलता है, वह सब धन का ही प्रभाव होता है ।”

उस साधु की बात सुनकर मुझे क्रोध उग गया उगैर मैं पूरे जोश के साथ उस खूंटी पर जा कूदा, लेकिन उस साधु की बात सत्य सिद्ध हुई, मैं वहां पर पहुंचने से पहले ही धड़ाम से नीचे आ गिरा ।  मुझे इस प्रकार गिरते देखकर साधु बोला, ”देखो भाई ! धन से ही सब बलवान बनते हैं ।

बिना धन के तो यह चूहा भी अपनी जाति के दूसरे चूहों जैसा हो गया, अब इसकी शक्ति समाप्त हो गई, इसलिए दोस्त, अब तुम इसकी चिंता छोड़ो और चैन से सो जाओ ।” उनकी बातें सुनकर मैंने यह जान लिया कि निर्धन होकर जीना बेकार है । चाहे प्राणी में और कितने ही गुण क्यों न हों, यदि धन न हो तो सब गुण भी बेकार हो जाते हैं ।

उसी रात से मेरे बचे-खुचे साथियों ने भी गुझे बेकार समझ लिया । उन्हें पता चल गया था कि मेरी शक्ति बेकार हो गई है, इसलिए मेरा सम्मान करना छोड़ दिया । सब लोग मतलब के साथी हैं । मैंने उन स्वार्थी लोगों का साथ छोड़ दिया और सोचने लगा कि मेरा भी क्या जीवन है ।

जब तक मैं उनकी मदद करता था, वे सबके-सब मेरे आगे-पीछे घूमते थे । सब मुझे चाचा सरदार कहते थे । अब सब ने मेरी ओर देखना तक छोड़ दिया । धन की शक्ति का मुझे अब पता चल रहा है इसलिए मैं भी हार मानने की बात को भूलकर फिर से धन को पाने की बात सोचने लगा हूं ।

मुझे पता था कि उस साधु भैरवप्रसाद के आसन के नीचे धन की एक थैली रखी रहती है, यदि मैं उस थैली को किसी तरह से निकाल कर ले जाऊं, तो मैं एक बार फिर से धनवान बन जाऊंगा, मेरी खोई हुई शक्ति फिर से वापस आ जाएगी ।

निर्धन को भाई-कन्पु, मित्र सभी छोड़ देते हैं, गरीब आदमी यदि अमीर आदमी को कुछ देने भी जाए, तो भी लोग उसे भिखारी ही समझते हैं, ऐसी गरीबी पर तो लानत है । यही सोचकर मैं उस संन्यासी के पास गया और उसके आसन के पास जाकर धन की थैली को निकालने लगा तो उस साधु की अनख खुल गई ।

फिर क्या था, उसने अपना बांस उठाकर मुझ पर जो वार किया कि यदि मैं थोड़ी सी भी चूक कर जाता तो मेरी जान गई थी, धन नहीं मिला तो क्या हुआ जान बची तो लाखों पाए । मुझे उस धन की क्या चिंता होती जो असल में मेरा था ही नहीं, किसी दूसरे की चीज पर मेरा अधिकार ही क्या है ?

इसलिए मैंने अपनी जान बचते ही सब चिंताएं छोड़ दीं । जो अपने पास है वही अपना है, दूसरे की ओर झांककर देखने का क्या लाभ है, मित्रों, भले ही मैं साधु का धन लेने में सफल नहीं हो सका, परन्तु मुझे इतना बड़ा ज्ञान का खजाना मिल गया, जिसे न कोई चोर छीन सकता है न वह कहीं गुम हो सकता है ।

उन ज्ञानी साधुओं से मुझे यह सारा ज्ञान प्राप्त हुआ, जिसके कारण मुझे तुम्हारे जैसे अच्छे मित्र मिले हैं । आज मैं जो कुछ भी हूं केवल उन ज्ञानियों की कृपा से ही हूं । धन मेरे पास नहीं पर ज्ञान तो है । चूहे की सारी कहानी सुनकर कछुआ बोला : ”मित्र तुम्हारा मन शुद्ध था, तुम ज्ञानी थे, तभी तो भूखा होते हुए भी इसने तुम्हें रास्ते में नहीं खाया ।

बुद्धिमानों ने कहा है कि धन को देख जिसका दिल न मचले, सुख-दुःख में जो एकसी रहे, मुसीबत के समय दोस्तों के काम आए, वही सच्चा ज्ञानी होता है ।  उसी का सब सम्मान करते हैं, प्रभु के नजर में भी वही लोग अच्छे होते हैं उन्हीं का कल्याण होता है ।

तुम्हारा जो धन गया उसकी चिंता क्यों करते हो, उसे भूल जाओ । समझो कि वह तुम्हारा नहीं था, चिंता छोड़ो । आओ हम तीनों मित्र मिलकर आज से अपना नया जीवन शुरू करते हैं, मित्र से बड़ा धन और हो भी क्या सकता है ।”


Panchatantra Story #8. लोभ पापी का शत्रु है |

गीदड़ ने जैसे ही सुअर और शिकारी को देखा, उसके मुह में पानी भर आया । वह खुश होकर बोला ”अब तो अपने कई दिन के भोजन का प्रबन्ध हो गया । कुछ दिन आराम से खाने को मिलेगा और आराम से लेने क्तै भी ।”

एक शिकारी सारा दिन भटकने के पश्चात् जब निराश सा जंगल से गुजर रहा था तो उसने सामने से आते एक जंगली सूअर को देखा तो उसका मन खुशी से नाच उठा कि चलो कुछ तो मिला । लेकिन वह सूअर भी कुछ कम न था, उसने अपने शत्रु शिकारी को पहचान लिया था, इससे पहले कि वह शिकारा उसका शिकार करता सूअर ने उस पर हमला कर दिया ।

सूअर का हमला इतना भयंकर था कि शिकारी के लिए संभलना ही कठिन हो गया, देखते ही देखते शिकारी खून से लथपथ धरती पर ढेर हो गया । मरते-मरते शिकारी ने अपनी कमर से लटकते हुए खंजर को निकाल कर सूअर के पेट में घोंप दिया ।

सूअर के मुंह से एक दर्द भरी चीख निकली और वह भी शिकारी के साथ ही ढेर हो गया । शिकारी और सूअर दोनों मरे पड़े थे । शिकारी जो जंगली जानवरों को मारने निकला था, अब वह खुद ही मरा पड़ा था, उसके पास ही उसके तीर बिखरे पड़े थे और कमान भी पड़ी थी, जौ सूअर के हमले में टूट गई थी ।

घूमता हुआ एक गीदड़ वहां आ पहुंचा, जब उसने वहां पर पड़े सूअर और शिकारी के लाशों को देखा तो वह खुशी से नाच उठा और अपने आपसे ही कहने लगा : ‘आज न जाने सुबह-सुबह किस भले प्राणी का मुंह देखकर चला था, जो एक नहीं दो-दो शिकार मिल गए । अब तो अपने को कई दिन का भोजन मिल गया, खूब पेट भर के खाएंगे और खूब आराम से सोएंगे ।’

गीदड़ उनके पास ही बैठ गया, वह कभी सूअर की मोटी लाश को देखता जिसके शरीर पर मोटा-मोटा मांस था, कभी शिकारी को देखता जो सूअर के सामने बच्चे की तरह लग रहा था दुबला-पतला । पास ही शिकारी के तीर बिखरे पड़े थे उनके साथ ही पड़ी थी टूटी कमान ।

इस कमान की तंद भी तो चमड़े की ही थी । तीन-तीन प्रकार का मांस था, वह सोच रहा था कि पहले किसे खाए-किसे न खाए । जब किसी के सामने अधिक भोजन पड़ा हो तो उसका मन भी शांत सा हो जाता है, उसे खाने की भी कोई जल्दी नहीं होती…वह यही सोचता है कि खाना ही तो है जब चाहेंगे, खा लेंगे ।

गीदड़ कुछ देर तो इधर-उधर घूमकर देखता रहा कि कोई उसका शत्रु तो नहीं आ रहा, जो आकर उसके शिकार पर हाथ साफ कर जाए । कमजोर प्राणी तो सदा शक्तिशाली लोगों से डरते ही रहते हैं, यही कारण था कि गीदड़ धड़कते हुए दिल से इधर-उधर देख रहा था ।

फिर वह शिकारी और सूअर की लाशों के निकट उग गया, उसने सूअर के पेट में लगे खंजर को बाहर निकाल कर देखा उस पर अनेक छोटे-छोटे मांस के टुकड़े लग रहे थे । लालची गीदड़ ने जैसे ही उस खंजर पर लगे खून और मांस के टुकड़ों को देखा तो उसके मुंह में पार्ना भर उगया । उसने सोचा, चलो पहले इसे ही खा लेता हूं ।

गीदड़ ने तेज खंजर को मुंह में डालकर मांस के टुकड़ों को खाना शुरू किया तो खंजर की तेज नोंक टूटकर उसके सांस के साथ ही अंदर चली गई । लालची गीदड़ ने उसे र्भो मांस समझकर खाना शुरू किया तो वह लोहे का टुकड़ा जल्दबाजी में उसके गले में फंस गया… देखते ही देखते गीदड़ की भा वहीं पर मौत हो गई । सब कुछ धरा का धरा रह गया ।


Panchatantra Story #9. त्याग |

पति की बात सुनकर पत्नी कठोर बचनों से बोली “तुम्हारे जैसे सुस्त और भूखे प्राणी के घर में भला किसी क्ते भोजन कहा से प्राप्त होगा । मैं जब से आई हूं दुःख के सिवा कुछ नहीं देखा ।

जब अई कुछ कहती हूं तो यही उत्तर मिलता है । त्याग,त्याग ।” वर्षा का मौसम था । एक राह चलते ब्राह्मण ने एक गरीब ब्राह्मण के घर में रात को विश्राम करने की अनुमति मांगी तो पंडितजी ने उससे नम्रता से कहा कि आप चाहें तो दो रात रह सकते हैं, अपना ही घर समझो ।

सुबह जब वह सोकर उठा तो उसने दोनों पति-पत्नी की बातें .सुनी, ब्राह्मण अपनी पत्नी से कह रहा था : ” हे भाग्यवान, कल शुभ मकर संक्रांति है, मैं तो दान प्राप्त करने के लिए दूसरे गांव जाऊंगा, मेरे बाद में तुम किसी भी पंडित को भगवान सूर्य के नाम तिल दान कर देना ।”

पति की बात सुनकर पत्नी क्रोध भरे स्वर में बोली : ”आप जैसें भूखे पंडित के यहां किसी को भोजन या तिल कहां से मिल सकते हैं ? आज तक इस घर में रहते हुए मुझे तो सुख का भोजन मिला नहीं, जब से आई हूं भूख का नंगा नाच ही आपके घर में देख रही हूं कभी न अच्छा खाने को मिला, न अच्छा पहनने को मिला ।”

पत्नी की बातें सुनकर पंडित बोला, ”प्रिया लक्ष्मी ! यह सब कहना ठीक नहीं है, इंसान को सदा यह सोचना चाहिए कि यदि उसके पास खाने की एक रोटी है, तो उसे उसमें से आधी किसी भूखे को दे देनी चाहिए, क्योंकि चाहने पर धन और यश किसे मिलते हैं ? और यह भी याद रखो कि- जो फल अमीरों को बहुत दान देने से मिलता है, ऐसा फल गरीबों को किसी भूखे को आधी रोटी खिलाने से ही मिल जाता है ।

दानी से तो हर आदमी खुश रहता है, जैसे मीठे पानी के कुएं से सब लोग पानी पीकर खुश होते हैं, परन्तु खारे पानी वाले कुएं के पास कोई भी नहीं जाता । दान देना सबसे शुभ कार्य माना जाता है, अपनी श्रद्धा अनुसार दान देते रहना चाहिए ।

मानव को कभी भी अधिक लोभ नहीं करना चाहिए, लोभ बुरी चीज है । लोभ का अंत बुरा होता है । इसलिए प्रिये लक्ष्मी, धैर्य रखी, आज जो दान की बात सोचोगी तभी तो प्रभु हमें कुछ देंगे ।” अपने पति पंडित रामलाल की बातें सुनकर लक्ष्मी बहुत ही प्रभावित हुईं ।

उसने कहा : ”प्राणनाथ ! मैंने थोड़े से तिल पहले से ही संभालकर रखे हुए हैं, बस उन तिलों को ही किसी गरीब पंडित को दान कर दूंगी ।” पत्नी की बात सुनकर रामलाल दूसरे गांव चला गया, उसके जाने के पश्चात् उसकी पत्नी ने अंदर से तिल निकालकर साफ किए और सुखाने के लिए पूप में रखकर वह अंदर जाकर अपने काम में लग गई ।

इसी बीच एक कुत्ते ने आकर उन तिलों पर पेशाब कर दिया । लक्ष्मी ने देखा, उसके तो तिल भी उस कुत्ते ने भ्रष्ट कर दिए हैं, अब वह क्या करे । लक्ष्मी बहुत चालाक औरत थी, उसने सोचा इन तिलों को लेकर मैं किसी के घर जाती हूं और उससे कहूंगी कि मुझसे साफ किए हुए काले तिल ले लो और इसके बदले में सफेद तिल दे दो ।

यही सोचकर वह अपनी पड़ोसन के घर गई, उसको अपने साफ तिलों के बदले में गंदे तिल मांगते देखा, तो उसके बेटे ने अपनी मां से कहा : ”माता जी इन तिलों को मत लेना, देखो न जो कोई अपने अच्छे तिल देकर गंदे तिल मांगता है…तो समझ लो इसमें जरूर कोई चाल है ।”

बूढ़ी औरत ने अपने बेटे की बात को सुना तो समझ गई कि दाल में कुछ काला जरूर है, उसने तिऋऊल बदलने से मना कर दिया, लक्ष्मी अपना सा मुंह लेकर आ गई ।


Panchatantra Story #10. अतिथि से घृणा मत करो |

कबूतर बेचारा अकेला बैठा रो रहा था । उसकी कबूतरी न जाने कहां चली गई । घर सूना हो गया, पत्नी के बिना तो उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता था । कबूतरी…कबूतरी मेरी…कबूतरी…तुम कहां हो ?

मंगलू शिकारी बेचारा जंगल में अकेला खड़ा सोच रहा था कि वह इस घने जंगल में उग्ब किस से बात करे, कब तक अकेला खड़ा इधर-उधर पागलों की भांति जागता रहे अकेलापन जब उसे सांप की भांति डसने को आ रहा था कि ऐसे में उसने एक कबूतरी को पकड़कर अपने पिंजरे में बंद कर लिया और सोचने लगा कि चलो एक से दो भले ।

उसी समय आकाश पर काले बादल मंडराने लगे । बिजली चमकने लगी । बादल गर्जने लगे, साथ ही बहुत तेज वर्षा होने लगी । आंधी-तूफान, वर्षा ने पूरे जंगल को हिलाकर रख दिया, इस तूफानी वर्षा से बचने के लिए वह एक घने वृक्ष के नीचे जाकर खड़ा हो गया और तूफान के रुक जाने की प्रतीक्षा करने लगा ।

जब बहुत देर तक वर्षा न रुकी तो वह वृक्ष की जड़ के पास बैठ गया ताकि वर्षा से बचा रहे । लम्बे इन्तजार के पश्चात् उसे भूख ने तंग करना शुरू कर दिया । भूख के मारे तो उसका बैठना भी कठिन हो रहा था । वह ईश्वर से यही प्रार्थना कर रहा था कि ऐसे में उसके खाने का प्रबंध कर दे ।

उसी वृक्ष के ऊपर एक कबूतर रहता था वह अकेला ही बैठा रो रहा था, क्योंकि अभी तक उसकी पत्नी (कबूतरी) नहीं आई थी । इस भयंकर तूफान में, उसकी कबूतरी न जाने कहां होगी, कैसे होगी ? उसके बिना तो उसका घर ही सूना पड़ा था । उसे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था ।

दुखी कबूतर ऊंची आवाज में रोने लगा था । पिंजरे में बंद कबूतरी ने जब अपने पति के रोने की आवाज सुनी तो वह जोर से बोली : ”मेरे अच्छे पति…मैं तुम्हारे दुःख को समझ रही हूं मगर मैं क्या करूं, मैं तो इस समय शिकारी के पिंजरे में बंद हूं यह शिकारी इस समय मेरा शत्रु है, लेकिन वह हमारे घर में आया अतिथि भी तो है…वह स्वयं तो सर्दी में ठिठुर रहा है, परन्तु मुझे बचाकर रखा है ।

ऐसे मेहमान की तो सेवा करनी पड़ेगी । हमें इस समय शत्रुता के भाव को मन से निकाल देना होगा ।” ‘अपनी पत्नी की बातें सुनकर कबूतर का मन बहुत प्रसन्न हुआ । वह उसी समय वृक्ष से नीचे उतर कर आया और बोला: ”हे परदेसी ! भले ही आप शिकारी हैं इसलिए हमारे शत्रु भी हैं, परन्तु आप हमारे मेहमान भी तो हैं, मैं आपकी हर प्रकार की सेवा के लिए तैयार हूं ।

मैं अपने सब साथियों की ओर से आपका स्वागत करता हूं ।”  यह कहते हुए कबूतर वहां से उड़ गया और न जाने कहां से कुछ सूखे तिनके और कुछ सूखे पत्ते इकट्‌ठे करके लाया और न जाने उसने कैसे उनमें आग सुलगाई ।

आग सुलगते ही शिकारी की सर्दी दूर हो गई थी, जिससे शिकारी बहुत खुश हो गया था, उसने कबूतर की ओर देखकर कहा, ”मित्र ! वास्तव में ही तुम बहुत अच्छे हो । तुमने मेरे लिए जो कष्ट उठाए हैं, शायद मेरा कोई अपना सगा भी नहीं कर सकता था ।

आज तुमने यह सिद्ध करके दिखा दिया है कि इस संसार में धर्म बहुत ऊंचा है, तुमने तो मेरे जैसे पापी और अधर्मी के साथ भी भला किया जो आज तक पशु-पक्षियों की हत्या करता रहा, जिसने कभी किसी को सुख ही नहीं दिया ।

दुःख जरूर देता रहा हूं आज मुझे जीवन का सबसे बड़ा सबक मिला है हम तो मानव जाति के होकर भी तुम पर अत्याचार करते रहे हैं, और तुम पक्षी होकर भी इस संकट में हमें सहारा दे रहे हो, तुम महान हो कबूतर भाई ।”

जो आग कबूतर ने शिकारी को ठंड से बचाने के लिए जलाई थी, वह धीरे-धीरे बढ़ती रही । शिकारी और कबूतर अपनी बातों में खोये हुए थे, उन्होंने आग की ओर देखा ही नहीं । आग बढ़ते-बढ़ते कबूतर तक पहुंच गई थी । शिकारी ने अपना तीर कमान उस आग में फेंकते हुए कहा:

”आज के पश्चात मैं कभी किसी का शिकार नहीं करूंगा, यह प्रतिज्ञा मैं अग्नि को साक्षी मानकर कर रहा हूं ।” परन्तु-इस बीच आग की तेज लपटों ने कबूतर को जलाकर राख कर डाला । यह देखकर शिकारी बहुत दुःखी हुआ ।

दुःखी शिकारी ने पिंजरे का मुंह खोलकर कबूतरी से कहा : ”अब तुम भी जाओ, तुम मेरी ओर से आजाद हो ।” कबूतरी पिंजरे से बाहर आकर बोली, ”हे मानव ! अब इन बातों का समय बीत  गया । यह कबूतर जो आग में जल गया, यह मेरा पति था, अब मैं अकेली जीकर क्या करूंगी ।” यह कहती हुई कबूतरी भी उसी आग में गिर गई । शिकारी बेचारा रोता हुआ वापस आ गया ।


Panchatantra Story #11. झगड़े से कोई लाभ नहीं |

शोर ने कह : ”मैं चोरी करने आया हूं।” राक्षस बोल : ”मैं गायों का खून पीने आया हूं ।” पहले मैं…पहले मैं…पहले मैं के इस झगड़े में दोनों ही मारे गए । तोताराम गरीब ब्राह्मण था । सेठ चांदीराम ने अपनी मां के श्राद्ध पर उसे दूध देने वाली गाय दान में दी थीं, जिससे तोताराम बहुत प्रसन्न था ।

दूध पीने के लिए उसके बच्चे तरस रहे थे, जब उस के घर में यह गाय आयी तो सारे बच्चे बहुत खुशी से गायों की सेवा करने लगे, उनके लिए हरी-हरी घास लेकर आते, कुछ ही दिनों में यह गाय काफी मोटी-ताजी हो गईं ।  एक दिन एक चोर ने उन मोटी-ताजी और दूध देने वाली गायों को देखा तो उसके मन में यह इच्छा पैदा हुई कि यदि मैं इन दोनों गायों को चुरा ले जाऊं तो मुझे बहुत अच्छे रुपये मिलेंगे, कम से कम एक वर्ष तक तो मुझे चोरी करने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी ।

यह सोचकर उस चोर ने यह फैसला किया कि रात के समय मैं इन गायों को चोरी करके ले जाऊंगा और साथ वाले गांव में ले जाकर बेच दूंगा । उसी रात…आकाश पर भयंकर बादल छा गए जिसके कारण चारों ओर घटाटोप अंधेरा छा गया, ऐसे में चोर ने हंसते हुए कहा, ‘हे प्रभु! आज तो आप भी मुझ पर मेहरबान हो गए हो ।

आज तो मैं, उन दोनों गायों को आराम से चुराकर ले जाऊंगा । यही सोचता हुआ वह चोर तोताराम के घर की ओर चल पड़ा, अंधेरी रात में उस चोर ने वहां पर एक काले-कलूटे भयंकर से लम्बे-लम्बे दांत वाले इन्सान जैसे एक प्राणी को देखा, चोर की जगह कोई दूसरा होता तो वह उस काले राक्षस को देखकर डर जाता, मगर चोर ने उससे पूछा : ”भाई भूत सिंह, तुम कौन हो ? और इस काली रात में क्या कर रहे हो ?”

”मैं एक राक्षस हूं…मुझे इस समय बहुत भूख लगी है में अपना पेट भरने के लिए निकला हूं तुम यह भी जानते होंगे कि मैं केवल खून पीकर ही अपना पेट भरता हूं ।” ”लेकिन तुम किसका खून पीना चाहते हो ?” ”उस तोताराम ब्राह्मण का जो लोगों का माल खा-खाकर मोटा हो रहा है । मगर तुम कौन हो, जो इस भयंकर रात में बड़ी निडरता से घूम रहे हो ।”

“मैं नामी चोर पाला हूं, मैं उसी ब्राह्मण की गायों को बुराने के लिए आया हूं ।”  ”इसका अर्थ तो यह है कि हम दोनों ही पेशेवर भाई हैं । हम दोनों एक ही स्थान पर चोरी करने जा रहे हैं । तुम गायों की मैं खून की ।” दोनों ही ब्राह्मण के घर पहुंच युके थे । चोर ने राक्षस से कहा, ”भैया, तुम रुक जाओ, पहले मैं इन गायों को ले जाता हू ।”

”नहीं…नहीं…यदि तुम गायों को खोलकर ले जाने लगोगे तो तोताराम जाग जाएगा, फिर मैं भूखा रह जाऊंगा…इसलिए पहले मैं उसका खून पीता हूं । बाद में तुम गायों को ले जाना ।” ”नहीं…पहले मैं ।” ”पहले मैं ।” दोनों आपस में लड़ पड़े, इतने में तोताराम की नींद खुल गई । उसने जोर-जोर शोर मचाना शुरू कर दिया । ”चोर-चोर ।” गांव के लोग इकट्ठे होकर भागे आए, सब गांव वालों ने मिलकर उन दोनों खूब पिटाई की और फिर राजा के सैनिकों के हवाले कर दिया ।


Panchatantra Story #12. लोभी मानव |

सांप को देखकर वह कांप उठा और हाथ जोड़ते हुए कहा : “नागराज, मुझे मारकर तुम्हें क्या मिलेगा…मेरे मरने के पश्वात मेरे छोटे-छोटे बच्चे भूखे मर जाएंगे ।”

तेनालीराम एक ऐसा गरीब ब्राह्मण था जो बीजापुर गांव में रहते हुए थोड़ी बहुत खेतीबाड़ी और जजमानी से मिले दान से अपने बाल-बच्चों को पाल रहा था । खाली समय में वह प्रभु की पूजा करता था । एक बार वह गर्मी के दिनों में दोपहर की कड़कती धूप से घबराकर एक घने वृक्ष की छाया में सो रहा था ।

जैसे ही उसकी आख खुली तो उसने अपने ऊपर एक काले नाग को लटकते देखा, जिसकी दुम डाल से लिपटी हुई थी । तेनालीराम डर के मारे बुरी तरह कांप रहा था, उसने नाग के आगे हाथ जोड़ते हुए कहा, ”हे नागराज ! मुझे मारकर आपको क्या मिलेगा, मेरे छोटे-छोटे बच्चे मेरे बिना भूख से तड़प-तड़पकर मर जाएंगे, मेरा नहीं तो उन बच्चों का ही ख्याल करो ।”

काले नाग ने जहरीलेपन से फुंफकारते हुए कहा, ”हे ब्राह्मण ! पहले तुम मेरे लिए दूध का एक कटोरा लेकर आओ ।” डर से कांपता हुआ बेचारा ब्राह्मण भागा-भागा अपने घर गया और दूध का एक कटोरा भरकर ले आया और उसे सांप के आगे रखते हुए बोला, ”लो नागराज, अपना पेट भरो और मेरी जान बख्शो ।”

”हे ब्राह्मण देवता! हम तुम्हारी इस सेवा से बहुत खुश हुए, अब तुम हर रोज हमारे लिए दूध का एक कटोरा भरकर लाया करो । यदि तुम अपनी इस सेवा का फल पाना चाहते हो तो इस खाली कटोरे को उठाकर देखो ।” ब्राह्मण ने जैसे ही उस कटोरे को उठाकर देखा, तो उसे देखते ही उसकी आखें फटी की फटी रह गईं ।

”हाय, इसमें तो सोने का सिक्का पड़ा है ।” ”हां ब्राह्मण देवता, तुम्हारी गरीबी दूर करने का यही एक रास्ता है ।” ”धन्य हो, नागराज…आप धन्य हैं, मेरे लिए तो आप प्रभु का रूप धारण करके आए हैं ।” खुशी से नाचता हुआ ब्राह्मण घर पहुंचा और उसने अपनी पत्नी को सोने का सिक्का देते हुए नागराज की पूरी कहानी सुना दी ।

उसी दिन से तेनालीराम की दुनिया बदल गई थी, जिस घर में खाने की रोटी के लाले पड़े हुए थे, उस घर में एक से बढ्‌कर एक पकवान खाने को मिलने लगा । सपरिवार वे लोग हर रोज उस नागदेवता की पूजा करते और उसे दूध का कटोरा अर्पण

करते । उसके बदले में नागराज मुंह से एक सोने का सिक्का निकालकर उन्हें देता । कुछ दिनों के पश्चात् तेनालीराम ने काशी जी की तीर्थ यात्रा करने की बात सोची तो उसने अपने बड़े लड़के सोहन से कहा : ‘बेटा जब तक मैं काशी से आ नहीं जाता, तुम उस नाग देवता को दूध पिला दिया करो ।’

”हां…हां…पिताजी आप चिंता न करें, नागदेवता की सेवा करना तो मेरा फर्ज है । उस देवता के उगशीर्वाद से तो हमारा परिवार आनन्द उगैर चैन की रोटी खाने लगा तेनालीराम काशी चला गया, तो उसका बेटा हर रोज उस नागराज को दूध पिलाने लगा ।

दूध पीने के पश्चात् नागराज अपने मुंह से सोने का सिक्का निकालकर उस कटोरे में डाल देता । एक दिन सोहन ने सोचा कि इस सांप के पेट के अंदर तो बहुत से सिक्के भरे पड़े हैं, मेरे पिताजी तो मूर्ख हैं, जो बेकार में इस सांप को दूध पिलाने आते हैं । इतना खर्च हर रोज करने से क्या लाभ है ।

यदि हम एक दिन में ही इस सांप का पेट काटकर सारे सिक्के निकाल लें तो कितना अच्छा रहेगा । हम कितने धनवान बन जाएंगे ।  सबसे बड़े धनवान तो हम ही हो जाएंगे, फिर हम एक बड़ी हवेली में रहेंगे । इस छोटे से मकान में रहने में कोई आनन्द नहीं ।

किसी ने ठीक ही कहा है, जब बुरे दिन आते हैं तो इन्सान की बुद्धि भी भ्रष्ट हो जाती है । लोभी इन्सान अंधे होते हैं । यही तो हुआ था तेनालीराम के घर । सोहन ने सांप को मारकर सारे सोने के सिक्के निकालने की योजना बना ली ।

इसके लिए उसने एक कुल्हाड़ी का प्रबंध कर लिया था, जिसे वहीं पर छुपा दिया जहां पर सांप आकर दूध पीता था । दूसरे दिन जैसे ही सांप के आगे उसने दूध का कटोरा रखा, सांप दूध पीने लगा वैसे ही सोहन ने कुल्हाड़ी उठाकर उसकी गर्दन काट दी । फिर उसके पेट के टुकड़े करके वह सोने के सिक्के खोजने लगा ।

मगर उसका पेट तो खाली था, उसेमें एक भी सोने का सिक्का नहीं था । ठीक उसी समय तेनालीराम भी काशी जी से वापस आ गया…उसने जैसे ही अपने बेटे के हाथ में खून से लिथड़ी कुल्हाड़ी देखी और सांप के टुकड़े देखे तो वह सिर पीटकर अपने बेटे से कहने लगा, ओ मूर्ख! यह तूने क्या किया ।

“पिताजी मैं इसके पेट से सोने के सिक्के निकालना चाहता था, परन्तु…”मूर्ख ! लोभ में आकर तूने न केवल एक जीव की हत्या की है, बल्कि हम सबके भाग्य पर भी कुल्हाड़ी मार दी है । अब हम रोज मिलने वाले एक सोने के सिक्के से भी वंचित हो गए । किसी ने भी वंचित हो गए । किसी ने सत्य ही कहा है : लोभी अंधा होता है ।”


Panchatantra Story #13. मंद बुद्धि शेर |

“हां, मैं फिर कहता हूं महाराज यह गुप्ता बोलती है ?” गीदड़ ने शेर से जब यह शब्द कहे तो पहलि शेर ने उसकी बात पर विश्वास कर लिया कि सचमुच पुफा बोलती ही होगी ।

भूखा शेर जंगल में मारा-मारा फिर रहा था, उसको बहुत जोरों की भूख लगी थी । जब भटकते-भटकते वह थक गया तो एक स्थान पर थोड़ी देर के लिए रुककर सोचने लगा कि अब क्या करूं ? किधर जाऊं ? काश ! हम भी दूसरे शाकाहारी जानवरों की भांति घास-पात, फल-फूल खा लेते तो आज मुझे इस प्रकार भूख से न मरना पड़ता ।

खए उसने सामने एक बड़ी गुफा देखी तो सोचा कि अवश्य ही उस गुफा में कोई जंगली जानवर रहता होगा, इसलिए मैं उस गुफा के अंदर जाकर बैठ जाता हूं जैसे ही वह जानवर आएगा तो मैं उसे खाकर अपना पेट भर लूंगा । काश शेर उस गुफा के अंदर जाकर बैठ गया ‘और अपने शिकार की प्रतीक्षा करने लगा ।

काफी इन्तजार के पश्चात गुफा में रहने वाला गीदड़ जैसे ही अंदर आया तो शेर एकदम से चौकस होकर खड़ा हो गया । अपने शिकार को देखकर उसकी भूख पहले से भी कहीं अधिक तेज हो गई थी । गीदड़ की जाति तो सबसे तेज दिमाग की मानी जाती है, उसके तेज दिमाग ने गुफा के द्वार पर से अंदाजा लगा लिया था कि अंदर शेर है ।

अब तो मौत उससे अधिक दूर नहीं लगती, परन्तु मौत को सामने देखकर उसने अपना संयम नहीं खोया बल्कि उसकी बुद्धि तेजी से काम करने लगी कि इस शेर के खूनी पंजे से कैसे बचा जाए ?  और फिर उसकी बुद्धि में नई बात आ ही गई, वह गुफा के द्वार पर खड़ा होकर बोलने लगा ।’  ‘ओ गुफा ।” ‘ओ गुफा ।”

जब अंदर से गुफा ने कोई उत्तर न दिया तो गीदड़ एक बार फिर बोला : ”हे गुफा ! तेरी मेरी यह संधि है कि जब भी मैं बाहर से आऊंगा तो तेरा नाम लेकर तुझे बुलाऊंगा, जिस दिन तुम मेरी बात का उत्तर नहीं दोगी तो मैं तुम्हें छोड़कर किसी दूसरी गुफा में रहने चला जाऊंगा ।”

अंदर बैठे शेर ने जैसे ही गीदड़ के मुंह से यह बात सुनी, तो वह यह समझ बैठा कि यह गुफा गीदड़ के आने पर जरूर बोलती होगी, यदि यह गुफा उसके कहने पर बोलती है, तो मेरे कहने पर भी बोलेगी ? इसलिए मैं भी इस गुफा को बुलाकर देखता हूं ।

उसी समय शेर ने एक जोरदार दहाड़ मारी, उसकी दहाड़ से गुफा तो क्या पूरा जंगल ही गूंज उठा था । इसी डर से जंगली जानवर अपने-अपने घरों से निकलकर दौड  पड़े । गीदड़ का संदेह अब विश्वास में बदल गया था, वह गुफा के द्वार से ही मुड़कर बिजली की गति से भाग निकला । शेर मूर्ख बनकर उस गुफा में बैठा ही रह गया ।


Panchatantra Story #14. जाति कभी नहीं छुपती |

एक सन्यासी ने चुहिया पर दया करके उसे कन्या क्त रूप देकर अपनी बेटी क्तई तरह पाला…उस चांद सी बच्ची को पाकर संन्यासी की पत्नी बहुत खुश थी, किन्तु उसे क्या पता था कि प्राणी अई जाति अ प्रभाव कभी नहीं बदलता ।

युवा होने पर जब उस कन्या के विवाह का अवसर आया, तब उसने ऐसी इच्छा जाहिर क्तई जिसे सुनकर साट्ट और उसकी पत्नी हक्के-बक्के रह गए । गंगा जी के तट पर बना शांति उसश्रम अपने आप में ही बहुत प्रसिद्ध था ।

इस आश्रम को चलाने वाले स्वामी शिवानन्द जी के प्रवचन सुनने बहुत से लोग सुबह-शाम आते थे, स्वामी जी अपने आश्रम में बच्चों को धर्म शिक्षा भी देते रहते थे । एक दिन स्वामी जी बच्चों को शिक्षा दे रहे थे तो एक चुहिया आकर उनके कदमों में गिर पड़ी ।

चुहिया बेचारी डर के मारे बुरी तरह कांप रही थी । स्वामी जी सदा ही यही कहा करते थे:  ”शरण में आए प्राणी की रक्षा करनी चाहिए ।” ”दुर्बल पर दया करनी चाहिए ।” यही तौ मानव धर्मनहै, स्वामी जी ने उस चुहिया को अपने हाथ में उठाकर सोचा कि क्यों न मैं इस बेचारी को कन्या का रूप देकर इसे अपने पास रख लूं यह बेचारी दरबदर भटकने से बच जाएगी और मेरी पत्नी की संतान पाने की इच्छा र्भा पूरी हो जाएगी ।

स्वामी जी ने अपनी कल्पना को पूरा करते हुए उस चुहिया को कन्या का रूप दे दिया और ले जाकर अपनी पत्नी को देकर कहा: ”लो प्रिये! आज से यह कया हमारी पुत्री हुई । हम ही इसके माता-पिता होकर इसका लालन-पालन करेंगे ।” स्वामी जी की पत्नी ऐसी सुन्दर कन्या को पाकर बहुत प्रसन्न हुई । कितने लम्बे समय से वह संतान प्राप्त करने के लिए दुःखी रहती थी ।

इस प्रकार से यह कन्या उनके घर में पलने लगी । धीरे-धीरे वह बड़ी होने लगी और एक दिन ऐसा भी आया कि वह जवान हो गई, जवान होने पर दोनों पति-पत्नी ने उस कन्या को अपने पास बुलाकर बड़े प्यार से पूछा, ”देखो बेटी, अब तुम जवान हो गई हो, अब हम चाहते हैं कि तुम्हारी शादी कर दें, मेरे आश्रम मे कितने सुन्दर राजकुमार आए हुए हैं, तुम उनमें से किसी एक को पसंद कर लो, बस, तुम्हारे पसंद के युवक के साथ हम तुम्हारी शादी कर देंगे ।”

”नहीं पिताजी, मैं आश्रम में पढ़ने वाले किसी भी युवक से शादी नहीं करूंगी ।”  मां ने लड़की की पीठ पर बड़े प्यार से हाथ फेरा और अपने सीने से लगाते हुए कहा:  ”देखो बेटी, अब तुम जवान हो, अब तुम्हारी शादी की आयु है, इसलिए तुम्हें किसी न किसी से तो शादी करनी ही होगी ।”

“मांजी, क्या आप मुझे घर से निकालना चाहती हैं ?” बेटी ने अपनी मां के गले में दोनों बाहें डालते हुए पूछा । ”हां बेटी, हम ऐसा नहीं सोचते, परन्तु जो संसार का नियम है उसका पालन तो स्वयं भगवान विष्णु ने भी किया था, उन्होंने भी लक्ष्मी मां से शादी की ।

अब तुम भी उग्पने लिए अपनी पसंद का वर ढूंढ लो, हम तुम्हारी शादी उसी से कर देंगे ।”  ”मांजी, आप मेरी शादी मेरी पसंद के वर से करोगी न ?” ”हां बेटी, एक बार तुम अपनी पसंद बता दो, मैं तुम्हारी शादी उसी से कर दूंगी ।” इतने में एक मोटा सा चूहा आश्रम में आया और बडे आनन्द से इधर-उधर घूमने  लगा ।

बेटी की बातें सुनकर दोनों पति-पत्नी सोच में पड़ गए थे, उनकी समझ में यह बात नहीं आ रही थी कि उनकी पुत्री को इन सुन्दर और वीर राजकुमारों में से कोई एक भी युवक पसंद क्यों नहीं आ रहा था । जबकि वह इस बात को अच्छी तरह जानती थी कि यह सारे के सारे राजकुमार अपने देश के होने वाले राजा हैं ।

ऐसा वर किसी भी साधारण कन्या को मिलता नजर आए तो वह खुशी से पागल हो जाएगी लेकिन यह लड़की तो किसी राजकुमार से शादी करने के लिए तैयार ही नहीं । कितनी देर तक घर में पूरी शांति रही । मां-बाप तो लड़की के बारे में सोच-सोचकर चिंतित हो रहे थे और वह लड़की उस मोटे से चूहे के साथ खेलती हुई आनन्द ले रही थी, वह उस समय तो माता-पिता को भी भूल गई र्थो ।

फिर वह सहसा ही बोल उठी । ”हे मेरे माता-पिता, क्या आप वास्तव में ही मेरी शादी करना चाहते हैं ?” ”हां, बेटी ।” ”तो फिर आप चूहे से मेरी शादी कर दो ।” ”यह तुम क्या कह रही हो बेटी, क्या तुम इस चूहे से शादी करोगी ?” मां ने अपना सिर पीट लिया ।

तभी मुनिवर ने अपनी पत्नी से कहा, ”प्रिये दिल छोटा न करो, ‘मैंने एक चुहिया को मानव जाति में प्रवेश दिलाया, मगर उसने अपनी जाति का प्रेम नहीं छोड़ा !  हमारे भाग्य में यही था, अब भूल जाओ इस कन्या को, मैं इसे फिर से चुहिया बना देता हूं । इसकी शादी चूहे से कर देते हैं ।” इस प्रकार चुहिया अपनी जाति में वापस चली गई ।


Panchatantra Story #15. भाग्य के खेल |

“पिता जी, आप राजपाट की बातें करते हैं, मैं अपने जीवन से ही दुखी हूं । ऐसे जीवन का भी क्या लाभ है जिसमें इन्सान अपनी इच्छा से एक कदम भी न वल पाए । मैं मरना चाहता हूं पिताजी…मैं मरना चाहता हूं ।” ”बेटा ? यह तुम क्या कह रहे हो ?”

किन्तु उसके बाद राजकुमार ने कुछ नहीं कहा और एक रात घर-बार छोड़कर जंगलों ओर वल दिया जहां भाग्यलक्ष्मी उसका इन्तजार कर रही थी । महाराजा मानसिंह का इकलौता पुत्र राजकुमार रूपसिंह बचपन से ही एक ऐसी बीमारी का शिकार हो गया था, जिसके कारण वह अत्यधिक कृषकाय हो गया था ।

उसे ऐसे रोगों ने घेर लिया था कि उन रोगों का उपचार बड़े से बड़े वैद्य भी नहीं कर पाए थे । रूपसिंह बेचारा अपनी बीमारी से इतना दुःखी हो गया था कि उसे दुनिया की कोई भी चीज अच्छी नहीं लगती थी । उसे तो कभी-कभी ऐसा भी लगने लगता था कि यह पूरी दुनिया ही बीमार हो गई है ।

”ऐसे जीवन का भी क्या लाभ है, जिसमें इन्सान सांस तक लेने के लिए दूसरों का मोहताज हो ।” बिस्तर पर पड़ा-पड़ा रूपसिंह ऐसी ही बातें सोचता रहता । आखिर एक रात उसके मन में यह बात आई कि मैं इन महलों में रहकर अपने माता-पिता पर बोझ नहीं बनूंगा…मैं घर से दूर चला जाऊंगा ।

दूर…बहुत दूर… इस मायाजाल की कैद से दूर जाने के लिए रूपसिंह ने अपने मन में पक्का फैसला कर लिया था । एक अंधेरी रात में… राजकुमार रूपसिंह ने अपना घरबार छोड़ दिया । बीमार राजकुमार एक लाठी का सहारा लेकर महलों से बाहर निकल गया । वह कहां जा रहा था ? उसकी मंजिल कौन-सी थी ? यह सब उसे नहीं पता था ।

वह तो चला ही जा रहा था । जब वह अधिक थक जाता था, थोड़ी देर के लिए विश्राम कर लेता । प्रभु का नाम ही उसका एकमात्र सहारा रह गया था । चलते-चलते वह दूसरे राज्य में पहुंच गया ।  रूपसिंह को यह बात पता ही नहीं थी कि वह महाराज भीमसिंह के राज्य में प्रवेश कर चुका है, जो अपने आप को धरती पर भगवान का अवतार समझे बैठा था ।

अपनी ताकत के नशे में अंधा होकर वह यह समझ रहा था कि इस धरती पर मुझसे बड़ा कोई नहीं । उस राजा के दो पुत्रियां थीं, वह अपनी बेटियों से सदा यही कहा करता था, ”देखो हम ही अपनी सारी प्रजा के अन्नदाता हैं, यदि हम प्रजा को खाना न दें तो सारी प्रजा भूखी मर जाए ।”

राजा की बड़ी पुत्री राजकुमारी वर्षा अपने पिता की हां में हां मिलाने वाली थी, जो भी बात राजा भीमसिंह कहते राजकुमारी झट से कह देती, ”हां पिताजी, आप ठीक कहते हैं, आपने तो कभी गलत बात की ही नहीं ।” किन्तु छोटी पुत्री कंचन के विचार कुछ और ही थे ।

वह कभी भी गलत बात और झूठी खुशामद को पसंद नहीं करती थी, जो बात उसे अच्छी नहीं लगती थी, वह उसका विरोध करने में भी कोई संकोच नहीं करती थी । एक बार जब उसके पिता ने कहा कि, ”हम इस धरती के भगवान है ।

हम असली अन्नदाता हैं, भगवान की दुनिया में तो शायद कोई न कोई भूखा सोता होगा, मगर हमारे राज्य में एक भी प्राणी भूखा नहीं सोता । अब तुम खुद ही बताओ कि असली भगवान कौन हुआ ।” ‘उगप ही हैं पिताजी ।’  राजकुमारी वर्षा ने उरपने पिता की हा में हां मिलाई ।

परन्तु राजकुमारी कंचन ने अपने पिता की बात काटते हुए कहा, ”देखो पिताजी, आप कभी भगवान नहीं बन सकते, इस संसार का स्वामी एक ही है, जो सबका दाता है, जो आपको देता है उगैर आप आगे लोगों को देते हैं ।” ”नहीं हम ही भगवान हैं ।” राजा भीमसिंह अपनी बेटी पर बरस पड़ा ।

”नहीं पिताजी, आप भगवान नहीं हैं ।” ”कंचन ! तुम मेरा ही खाकर मुझे भगवान नहीं मानती हो ।” ”आप मेरे पिता हैं, जगत पिता तो नहीं, इसलिए मैं केवल अपने उन्हीं प्रभु की उपासना करती जो जगतपिता हैं, उन्होंने मेरे भाग्य में जो लिखा था, वही मुझे मिल रहा है ।”

“कंचन बकवास बंद करो ।”  ”पिताजी मैं सत्य कह रही हूं कि मेरे अन्नदाता तो मेरे प्रभु हैं । उन्होंने मेरा भाग्य लिखा है, बस उसी भाग्य का मैं खा रही हूं ।”  ”अच्छा, यदि यह बात है तो मैं भी देखता हूं कि तुम्हारा भाग्य किसने लिखा है, कैसा लिखा है ।”

उसी समय राजा ने अपने मंत्री को बुलाकर कहा : ”जाओ, इस भगवान की बेटी को ले जाउगे, कोई रोगी उगैर अनाथ लड़का कहीं मिले, जिसका अपना कोई घरबार न हो, उससे इसकी शादी कर दो, फिर इसको पता चलेगा कि महलों और झोपड़ों में क्या अंतर होता है ।”

”पिताजी, आप मुझे महलों से निकाल सकते हो, लेकिन मेरा भाग्य नहीं छीन सकते । आप मुझे महलों से क्या निकालेंगे, मैं खुद ही आपके महलों को ठोकर मार रही हूं ।  अब तो मैं अपने प्रभु के चरणों में रहूंगी और आपकी आज्ञा का पालन करते हुए किसी रोगी और बेघर से ही शादी करूंगी मैं जा रही हूं पिताजी, मुझे पता है आप मुझे आशीर्वाद तो नहीं देंगे, मगर फिर भी मैं आपके चरण छूना अपना धर्म समझती  हूं…।”

”हां…हां…तुम जा सकती हो, मगर जाने से पूर्व हमारे सारे आभूषण उतारकर जाओगी और हमारी कोई भी वस्तु बाहर नहीं लेकर जाओगी ।”  ”मैं केवल तन पर पहने तीन कपड़े ही लेकर जा रही हूं पिताजी । वह भी केवल मजबूरीवश, वरना मैं तो यह भी नहीं ले जाना चाहती थी ।”

यह कहती हुई कंचन बाहर निकल गई । जंगल में पहुंचकर कंचन ने एक वृक्ष के नीचे पड़े हुए एक रोगी को देखा, जो बीमारी के कारण अंतिम सोसें ले रहा था (असल में वह राजकुमार रूपसिंह था) । कंचन ने उस तड़पते हुए युवक के मुंह में पानी डाला तो वह कुछ संभला ।

”तुम कौन हो देवी ?”  ”तुम्हारी पत्नी ।”  ”मेरी पत्नी ? मैं तो एक रोगी हूं मेरी तो अभी शादी भी नहीं हुई ।”  ”समझ लो कि आपकी शादी आज ही हुई है ।”  ”मगर किससे ?”  ”मुझसे, आप मेरे पति हैं, मैं आपकी पत्नी हूं ।”  ”क्या तुम एक मृत्यु के कगार पर पहुंचे इन्सान से शादी करोगी ?”

”करूंगी नहीं, बल्कि कर ली है, आज से मैं तुम्हारी सेवा करके तुम्हारी दवा-दारू करके, तुम्हें ठीक करके अपना घर बसाऊंगी भगवान ने मुझे आपके लिए बनाया है । आपके दुःख मेरे दुःख है, मैं भगवान की उपासना करके उससे आपके सारे दुःख दूर करवा दूंगी ।”

उसी दिन से कंचन रामकुमार रूपसिंह की सेवा करने लगी । उसे अपने हाथों से जंगल से फल लाकर खिलाती, फिर कई घंटों तक ईश्वर की उपासना करके प्रभु से यही मांगती कि मेरे पति को ठीक कर दो । सच्चे मन से की गई प्रभु की उपासना कभी भी व्यर्थ नहीं जाती ।

ADVERTISEMENTS:

एक लम्बे समय तक वह प्रभु की प्रार्थना करती रही, हर शुक्रवार को अपने पति के स्वस्थ होने के लिए व्रत रखती । प्रभु से एक ही वरदान मांगती कि मेरे पति को स्वस्थ कर दो, प्रभु अपनी शक्ति का चमत्कार दिखा दो ताकि मैं अपने अहंकारी पिता को यह दिखा सकूं कि असली भगवान तो मेरा भगवान है, तुम तो अहंकारी हो, पापी हो जो अपने आपको भगवान समझ बैठे हो ।

एक दिन जब कंचन प्रभु की पूजा करके दोनों हाथ जोड़े प्रार्थना कर रही थी तो उसी समय एक जटाधारी मुनि वहां इस प्रकार प्रकट हुए जैसे आकाश से उतरे हों । कंचन ने आखें खोलते ही मुनि जी को प्रणाम किया । ”जीती रहो बेटी, सदा सुखी रहो ।”

”महाराज, आप मेरी कुटिया में पधारें, मुझे इस बात का दुःख होगा कि मैं अपने पति की बीमारी के कारण आपकी मन से सेवा नहीं कर पाऊंगी…परन्तु फिर भी जो रूखा-सूखा है उसे ग्रहण कर लें ।”  ”बेटी, ईश्वर ने तुम्हारी प्रार्थना सुन ली है, तुम्हारी परीक्षा जो प्रभु ने ली थी उसमें पूरी उतरी हो और जीत भी गई हो ।”

”मेरे प्रभु ने मेरी तपस्या स्वीकार कर ली है महाराज ।”  ”हां बेटी अब तुम प्रभु से जो भी मांगोगी, वही मिलेगा । बोलो तुम्हें कितना चाहिए, जिससे तुम अपने नास्तिक पिता को हरा सको ।” ”मुझे धन नहीं चाहिए महाराज ।”  ”तो फिर क्या चाहिए तुम्हें, बोलो, वही मिलेगा ।”

”महाराज, यदि आपके प्रभु मुझे कुछ देना ही चाहते हैं तो मेरे पति को ठीक कर दें…बस मेरे लिए इससे बड़ा वरदान और कोई नहीं हो सकता ।” ”धन्य हो देवी, तुम वास्तव में ही महान हो । मैं तो केवल तुम्हारी परीक्षा लेने आया था, तुम उस परीक्षा में पूरी उतरी हो…।”

भगवान अब अपने असली रूप में आ गए थे । कंचन उनके कदमों में गिर पड़ी…वाह…प्रभु…वाह…आपने तो दर्शन देकर मेरा जन्म ही सफल कर दिया । ”देवी! तुमने इस धरती पर रह रहे एक पापी को यह बता दिया कि संसार का स्वामी तो मैं हूं, इसलिए मैं तुम्हारे पति को स्वस्थ भी कर दूंगा और तुम्हें संसार भर के सारे सुख भी दूंगा…।

जाओ बेटी अपने पति से जाकर मिलो, जो असल में राजकुमार रूपसिंह है, जो अपनी भयंकर बीमारी के कारण घर छोड आया था ।” ”धन्य हो प्रभु…आप धन्य हो, आपने मुझे तो आशीर्वाद दे दिया अब मेरे पति को भी तो…।”  कंचन ने देखा उसका पति प्रभु के चरण में पड़ा था, प्रभु उसके शरीर पर हाथ फेर रहे थे ।

देखते-देखते रूपसिंह बिल्कुल स्वस्थ हो गया, अब तो वह किसी राजकुमार से कम नहीं लग रहा था । प्रभु कृपा से उसके दस्त्र भी राजकुमारों जैसे हो गए थे । ”देवी! जिस झोपड़ी में तुम लोग रह रहे हो उसके नीचे बहुत बड़ा खजाना दबा हुआ है, वह किसी राजा का खजाना है, जो युद्ध में मारा गया था, अब तुम दोनों राजा-रानी बनकर रहोगे…तुम्हारा पति बड़ा वीर राजा होगा…।”

यह कहते हुए प्रभु वहां से अर्न्तध्यान गए । दूसरे ही दिन उन दोनों ने झोपड़ी वाली जमीन को खोदकर उसमें से दबा हुआ खजाना निकाला । राजकुमार ने पहले एक घोड़ा खरीदा, फिर उस पर बैठकर वह आसपास के सब गांवों में घूमता रहा ।

ADVERTISEMENTS:

गांववासियों को अपनी सेना में भर्ती करके सबसे पहले उसने अपने लिए एक महलबनवाया, फिर प्रशिक्षण देकर एक शक्तिशाली सेना को तैयार किया । राजा भीमसिंह के जासूसों ने अपने राजा को जाकर यह खबर सुनाई कि हमारे राज्य की सीमा में ही एक नया राजा पैदा हो चुका है, जिसका नाम राजा रूपसिंह है, वह भगवान विष्णु का बहुत बड़ा भक्त है और अपनी प्रजा की हर जरूरत को पूरा करने का वचन देता है, यही कारण है अपने देश की जनता उस राजा के साथ होती जा रही है, यदि हम जल्दी न संभले तो वह दिन दूर नहीं जब हमारे देश की, जनता रूपसिंह के साथ मिल जाएगी ।

”नहीं नहीं नहीं, हम यह सब नहीं होने देंगे । हम रूपसिंह को मिटा देंगे, हमारी शक्ति को उसने देखा ही नहीं है ।”  उसी समय राजा ने अपनी सेना को युद्ध की तैयारी के आदेश दे दिए । रानी कंचन को पता था कि उसका पिता उन्हें चैन से नहीं रहने देगा इसलिए उसने, पहले से ही सैनिक तैयारी कर रखी थी ।

जैसे ही राजा भीमसिंह ने उनके देश पर आक्रमण किया तो रूपसिंह स्वयं अपनी सेना को लेकर लड़ने उगया । दोनों ओर से भयंकर युद्ध होने लगा । राजा भीमसिंह खुद सबसे आगे-आगे चल रहा था । जैसे ही रूपसिंह से उसका सामना हुआ तो उसने उसका मजाक उड़ाते हुए कहा : ”अरे ओ कल के छोकरे! अभी तो तेरे दूध के दांत भी नहीं टूटे, क्यों भीमसिंह के हाथों मरने चला आया ।”

मैं आयु में ही बच्चा हूं शक्ति में नहीं, क्योंकि मुझमें भगवान विष्णु ”अरे हम तो स्वयं भगवान हैं । आ, आज मैं तेरे भगवान को भी देखता हूं ।” भीमसिंह अपनी तलवार लेकर रूपसिंह की ओर बढ़ा ही था कि रूपसिंह ने उसकी तलवार के दो टुकड़े कर दिए और फिर भीमसिंह का गला काटकर फेंक दिया ।

भीमसिंह का अंत हो गया, रूपसिंह की विजय हुई । राजकुमारी कंचन जो अब महारानी थी, फिर से अपने देश वापस आई और इसके पश्चात् रूपसिंह अपने पिता से मिलने गया, जो यह समझ बैठा था उसका बेटा मर चुका है । जैसे ही राजा मान सिंह ने अपने बेटे को एक सम्राट के रूप में देखा तो वह बहुत खुश हुए । महारानी कंचन और राजा रूपसिंह अब इन तीनों देशों पर राज करने लगे ।

Home››Stories››Panchatantra››