सतत अथवा संधृत विकास: मतलब, अवधारणा और महत्व | Satat Athava Sandhrt Vikaas: Matalab, Svadhaarana Aur Mahatv. Read this article in Hindi to learn about:- 1. सतत अथवा संधृत विकास का परिचय (Introduction to Sustainable Development) 2. सतत अथवा संधृत विकास का अर्थ (Meaning of Sustainable Development) 3. संकल्पना (Concept) 4. मौलिक तत्व (Basic Elements) and Other Details.

Contents:

  1. सतत अथवा संधृत विकास का परिचय (Introduction to Sustainable Development)
  2. सतत अथवा संधृत विकास का अर्थ (Meaning of Sustainable Development)
  3. सतत अथवा संघृत विकास की संकल्पना (Concept of Sustainable Development)
  4. सतत् विकास के मौलिक तत्व (Basic Elements of Sustainable Development)
  5. सतत् विकासात्मकता के सूचकांक (Indicators of Sustainability)
  6. पर्यावरणीय मुद्दे एवं सतत विकास (Environmental Issues and Sustainable Development)
  7. सतत विकास की वर्तमान युग में महत्व  (Importance of Sustainability in Present Day)


1. सतत अथवा संधृत विकास का परिचय (Introduction to Sustainable Development):

निरंतर विकास मानव की प्रवृत्ति है और पर्यावरण जीवन का स्रोत । मानव की इसी प्रवृत्ति के फलस्वरूप वह विकास के वर्तमान स्तर तक पहुँच पाया है । इस विकास यात्रा में वह पर्यावरण का सतत् उपयोग करता रहा है और जैसा कि पूर्ववर्ती विश्लेषण से स्पष्ट है कि प्रत्येक विकास के चरण का पर्यावरण पर भी प्रभाव पड़ता है ।

जब तक कि यह प्रभाव सीमित अथवा सामान्य होता है उससे पारिस्थितिक-तंत्र पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता । परंतु जब यह अधिक सघन एवं विस्तृत होने लगता है तो पर्यावरण में विकृतियाँ उत्पन्न होने लगती हैं और उसका दुष्प्रभाव संपूर्ण जीव-जगत् पर होता है ।

इसी कारण आज विश्व के सम्मुख एक चुनौती है कि क्या विकास रोक दिया जाये ? यदि नहीं तो विकास की सही दिशा क्या हो जिससे पर्यावरण एवं पारिस्थितिक-तंत्र पर विपरीत प्रभाव न हो ? इस प्रश्न के पीछे जहाँ पर्यावरणविदों की चेतावनी है जिसे वे प्रदूषण दानव, पर्यावरण संकट, पारिस्थितिकी-तंत्र का विनाश, अंधकारमय भविष्य, नगरों पर प्रदूषण गुम्बद एवं तापीय द्वीपों का विस्तार, आनुवांशिकी संकट, रेडियोधर्मिता द्वारा विनाश, कीटनाशकों का कुप्रभाव आदि अनेकानेक भयावह शब्दों व विशेषणों से पर्यावरण संकट के प्रति सचेष्ट कर रहे हैं ।

यह निस्संदेह सत्य है कि विकास के साथ-साथ पर्यावरण पर प्रभाव पड़ता है किंतु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि विकास को रोक दिया जाए । आवश्यकता इस बात की है कि विकास को सही दिशा दी जाये, उसे मानवोपयोगी बनाया जाये तथा उसका पर्यावरण पर कुप्रभाव न हो ।

यह कार्य संपूर्ण विश्व को सामूहिक रूप से करना है, इसमें वैज्ञानिकों, शोधकर्त्ताओं के साथ-साथ प्रशासकों एवं सामान्य जनता को भी योग देना है । यह कार्य क्षेत्रीय अथवा राष्ट्रीय सीमाओं से अलग रह कर विश्व स्तर पर करना आवश्यक है तभी विकास की सार्थकता है । विकास एवं प्रदूषण तथा पर्यावरण संकट का मूल कारण तकनीकी एवं प्रौद्योगिक विकास है और विद्वानों का मानना है कि जिस तकनीकी विकास ने समस्याओं को जन्म दिया है वही इसका समाधान भी करेगा ।

जैसा कि जॉन वी. लिण्डसे ने लिखा है- “Technology Produces the Crisis and Technology can End it.” किंतु यह कार्य तकनीकी स्वत: नहीं करेगी, इसके लिये हमें उसे नई दिशा देनी होगी, अनुसंधानों में लगना होगा और प्रत्येक नई विकास तकनीक के साथ ही उन साधनों को भी खोजना होगा जो इसके कुप्रभावों को रोक सकें ।

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इस दिशा में विकसित देशों में न केवल प्रयत्न किये गये हैं अपितु अनेक प्रकार की सफलतायें वायु, जल, भूमि, शोर प्रदूषण तथा अन्य समस्याओं को रोकने में प्राप्त की गई हैं । आवश्यकता जहां और अधिक अनुसंधान की है वहीं यह भी है कि जो सुविधायें उपलब्ध हैं उनका पूर्ण उपयोग हो ।

यह देखा गया है कि विकासशील देश विकसित तकनीक आयात कर लेते हैं और उनके कुप्रभावों को रोकने का तब तक प्रयत्न नहीं करते जब तक कि उनसे वास्तविक हानि न हो जाये । इस कार्य में उनकी आर्थिक दशा भी बाधक हो सकती है किंतु विकसित तकनीक के साथ उसके कुप्रभावों के नियंत्रक लगाना आवश्यक कर दिया जाना चाहिये, यहाँ तक कि उन्हें तकनीक देना ही तब चाहिये जब वे उसकी सुरक्षा का वचन दें ।

विकास की सही दिशा है ‘संधृत अथवा पोषणीय विकास’ और यह कार्य विकास में पारिस्थितिकी दृष्टिकोण द्वारा किया जा सकता है । पारिस्थितिकीय जीवन धारण करने योग्य विकास से तात्पर्य वह विकास है जो मानव जीवन की उत्तमता को बिना पर्यावरण को हानि पहुँचाये बनाये रखे ।

यह विकास होगा पर्यावरण के साथ सामंजस्य करके या उन तकनीकों का विकास करके जिनसे पर्यावरण-हानि को रोका जा सके । इसके लिये पारिस्थितिकी के साथ आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक तथ्यों का भी समन्वय करना होगा । जनसंख्या के संसाधनों पर दबाव को सीमित करना इसकी प्राथमिक आवश्यकता है ।

क्षेत्रीय पर्यावरण के उपर्युक्त प्रौद्योगिकी को अपनाकर भी पारिस्थितिकी की रक्षा की जा सकती है । इस संदर्भ में जर्मनी के प्रसिद्ध जीव-रसायन शास्त्री प्रो. फ्रेड्रिक वेस्टर की विचारधारा महत्वपूर्ण है । वेस्टर के अनुसार हमें प्रकृति से बहुत कुछ सीखना होगा क्योंकि वह आदर्श तकनीक एवं उचित प्रबंध कौशल का परिचायक है ।

उनके अनुसार 4 अरब प्राणियों ने अब तक 30 हजार पौधों की प्रजातियाँ और लगभग 200 पक्षी एवं जंतुओं की प्रजातियाँ नष्ट कर दी हैं और लगभग 1000 नष्ट होने का खतरा झेल रही हैं । दूसरी ओर मानव जनसंख्या निरंतर बढ़ रही है और खाने-पीने की खपत 10 गुना अधिक हो गई है ।

पृथ्वी की उर्वरक परत गहन खेती के कारण पतली हो रही है । भवनों के निर्माण, भू-क्षरण एवं मरुस्थलों का विस्तार हो रहा है । यह सब आत्मघातक होगा । इसके लिये प्रकृति की पारस्परिक क्रियाओं को समझना होगा क्योंकि उनके मध्य एक सार्वभौमिक एकता होती है ।

प्रो. वेस्टर के अनुसार संसार का भविष्य एक प्रकार से साइबरनैटिक विज्ञान को ठीक प्रकार से समझने पर आधारित है । ऊर्जा के पुन: इस्तेमाल से ऊर्जा समस्या कम हो सकती है । वृहत् उद्योगों के स्थान पर अधिक संख्या में छोटी इकाइयाँ लगाने से ऊर्जा की बचत एवं प्रदूषण का खतरा कम हो जाता है ।

उनके अनुसार दोष वर्तमान तकनीक का नहीं अपितु उसके गलत उपयोग का है । उस तकनीक का विकास होना चाहिए जिसे जीव-विज्ञान दर्शाता है अर्थात् कम से कम स्थान, ऊर्जा एवं भौतिक सामग्री की आवश्यकता हो ।

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ऐसी तकनीक अपनाई जाये तो प्रकृति के विरुद्ध न हो, जिससे पर्यावरण प्रदूषण कम से कम हो तथा जो न केवल मनुष्यों अपितु संपूर्ण जीव-जगत् के लिये लाभकारी हो । वास्तव में उपर्युक्त विचार मूल रूप से पारिस्थितिकी-तंत्र के अनुरूप विकास की विचारधारा को ही सिद्ध करते हैं ।

पारिस्थितिकी के अनुरूप विकास हेतु निम्न तथ्यों पर ध्यान देना आवश्यक है:

(i) तकनीकी और प्रौद्योगिकी विकास के साथ ही उसके पर्यावरण पर होने वाले प्रभावों का समुचित ज्ञान किया जाये ।

(ii) इस दिशा में अनुसंधानों को सघन एवं व्यापक बनाया जाये ।

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(iii) विकसित देशों से विकासशील देशों को दी जाने वाली सहायता अथवा प्रौद्योगिकी तकनीक का विक्रय उस समय तक नहीं होना चाहिये जब तक उसके हानिकारक प्रभावों को रोकने की व्यवस्था न की जाये ।

(iv) जिन तकनीकों से पर्यावरण प्रदूषण अधिक होता हो उन पर रोक लगा दी जाये या उसकी स्थापत्र तकनीक का विकास किया जाये ।

(v) उद्योगों एवं वाहनों से होने वाले प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिये विशेष प्रयत्न किए जाएं क्योंकि इनका प्रभाव वायु एवं जल प्रदूषण के रूप में सर्वाधिक है ।

(vi) शोर प्रदूषण मानवीय प्रयासों से नियंत्रित किया जा सकता है, इस प्रकार भू-प्रदूषण भी कम किया जा सकता है ।

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(vii) पारिस्थितिकी संतुलन में वनों की भूमिका सर्वाधिक है अत: किसी भी मूल्य पर वनों को नष्ट होने से बचाया जाए और उसके क्षेत्र में वृद्धि की जाये ।

(viii) पर्यावरण अवकर्षण पर निरंतर नजर रखी जाये अर्थात् उसका सतत् पुनरीक्षण आवश्यक है ।

(ix) पर्यावरण प्रबंधन को अपनाया जाना आवश्यक है ।

(x) पर्यावरण शिक्षा की भी भूमिका पारिस्थितिकी सुधार में महत्वपूर्ण है ।

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(xi) अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय स्तर पर कानून पर्यावरण अवकर्षण को रोकना आवश्यक है ।

(xii) पर्यावरण संबंधी कानूनों का कठोरता से पालन होना चाहिये ।

(xiii) प्रशासनिक क्षमता द्वारा विकास के साथ पर्यावरण शुद्ध रखा जा सकता है ।

(xiv) ऊर्जा के गैर परंपरागत स्रोतों का अधिकतम विकास किया जाये ।

(xv) जनसंख्या विस्फोट एवं शहरीकरण की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना आवश्यक है ।

(xvi) संसाधनों के अनियमित एवं अनियंत्रित शोषण पर रोक लगा कर उन्हें नियोजित ढंग से उपयोग में लिया जाये ।

(xvii) अनेक अपशिष्ट पदार्थों का पुन: प्रयोग किया जा सकता है जैसे जल-मल का प्रयोग ऊर्जा एवं उर्वरक में हो सकता है ।

(xviii) कीटनाशकों एवं उर्वरकों के प्रयोग में सावधानी आवश्यक है ।

(xix) पर्यावरण से संबंधित तत्वों का व्यापारीकरण न किया जाये अन्यथा उनका शोषण स्वार्थी तत्वों के हाथ लग सकता है और स्थिति बदतर होती चली जाती है ।

(xx) पर्यावरण के प्रति मानवीकरण का दृष्टिकोण अपनाया जाये तथा उसे जीवन का अभिन्न अंग स्वीकार किया जाये ।

(xxi) वास्तविक पर्यावरण की शुद्धता को सामान्य जन मानस या समाज ही कायम रख सकता है । अत: जन-चेतना द्वारा ही पर्यावरण सुरक्षित रह सकता है ।

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि विकास एवं पारिस्थितिकी विरोधी नहीं अपितु पूरक हैं । विकास को नई दिशा देकर प्राकृतिक पर्यावरण का उपयोग किया जा सकता है और पारिस्थितिकी के अनुरूप विकास कर पारिस्थितिकी-संकट दूर किया जा सकता है । इसके लिये एक ओर वैज्ञानिक एवं तकनीकी अनुसंधान को नई दिशा देनी होगी तो दूसरी ओर मानवीय दृष्टिकोण में परिवर्तन करना होगा, तभी हम वर्तमान के साथ-साथ भविष्य को सुखद बना सकेंगे ।


2. सतत अथवा संधृत विकास का अर्थ (Meaning of Sustainable Development):

‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट’ अँग्रेजी शब्द हेतु हिन्दी में अनेक पर्याय प्रचलित हैं जैसे ‘सतत विकास’, ‘संस्कृत विकास’, ‘पोषणी विकास’ अथवा ‘विनाश रहित विकास’ किन्तु इन सभी से आशय विकास की उस प्रकृति से है जो प्रकृति से सामंजस्य रखता हो न कि उसके विनाश का कारण बने । विकास एक सतत प्रक्रिया है जो मानव अपने उद्‌भव के प्रारम्भिक काल से करता आया है और उसी के परिणामस्वरूप आज प्रगति के उच्च शिखर पर है ।

इस विकास प्रक्रिया ने जहाँ मानव को अनेक सुख-सुविधाएँ प्रदान की हैं वहीं पर्यावरण का निरन्तर शोषण कर उसे अत्यधिक हानि पहुँचाई । नगरीकरण, औद्योगिकीकरण, जनसंख्या वृद्धि, रसायनों के प्रयोग आदि ने न केवल जल, स्थल एवं वायु को प्रदूषित किया है अपितु अनेक जीवों एवं वनस्पति के अस्तित्व को समाप्त कर दिया है और अनेक को संकटग्रस्त की श्रेणी में ला दिया है ।

प्रगति अथवा विकास के साथ-साथ आज वैश्विक पर्यावरणीय समस्याएँ जैसे जलवायु परिवर्तन, ओजोन परत का विरल होना, हरित गृह प्रभाव, जैव विविधता का संकट, मरुस्थलीकरण, वनोमृलन एवं स्थानीय स्तर पर भी अनेक पारिस्थितिक परिवर्तन, यह सोचने को बाध्य कर रहे हैं कि विकास को एक नई दिशा देने की आवश्यकता है जो ‘सतत विकास’ की संकल्पना से ही मूर्त रूप ले सकता है । सतत विकास की संकल्पना से आज विश्व के सभी देश सहमत हैं और इस दिशा में सक्रिय कदम भी उठा रहे हैं । अत: इसका समुचित विवेचन अपेक्षित है ।


3. सतत अथवा संघृत विकास की संकल्पना (Concept of Sustainable Development):

सतत अथवा संघृत विकास की वर्तमान संकल्पना से पूर्व ही अनेक प्राचीन सभ्यताओं में ‘प्रकृति’ और ‘पर्यावरण’ की रक्षा के विचार मिलते हैं । पर्यावरण के अनेक तत्वों जैसे पृथ्वी, जल, आकाश, वनस्पति तथा अनेक जीवों को ईश्वर की श्रेणी में रखना तथा उनकी पूजा करना और उनको हानि होने से बचाना, भारत की प्राचीन धार्मिक परम्परा रही है ।

यद्यपि उस काल में जनसंख्या वृद्धि तथा पर्यावरण को हानि पहुँचाने जैसी समस्याएँ नहीं थी किन्तु तब भी इन्हें उच्च स्थान देकर उनका संरक्षण करना, वर्तमान में भी दिशा-निर्देशित करता है । इसी प्रकार ग्रीक में Ge अथवा Gala का वर्णन पृथ्वी को ईश्वर के तुल्य मानने का मिलता है ।

ये तथ्य स्पष्ट करते हैं कि मानव-प्रकृति में आपसी सामंजस्य द्वारा प्रगति की ग्रह प्रशस्त होती है । वास्तव में औद्योगिक क्रान्ति के पश्चात् प्राकृतिक संसाधनों का शोषण तीव्र गति से होने लगा और परिवहन क्रान्ति, नगरीकरण तथा व्यापारीकरण में अत्यधिक वृद्धि होने के कारण इस ओर सभी का ध्यान जाने लगा कि अनियन्त्रित विकास पर्यावरण व मानव के बीच सन्तुलन में विकृति लाने लगा है और परिणास्वरूप प्राकृतिक आपदाओं में वृद्धि के साथ भविष्य में मानव जीवन का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है ।

अमरीकी राष्ट्रपति रुजवेल्ट के प्रमुख सलाहकार, ग्रिफोर्ड पिनचाट ने 1910 में संसाधनों के उचित संरक्षण तथा उनका उपयोग इस प्रकार करने का प्रतिवेदन दिया जिससे उनका उपयोग भविष्य में भी सम्भव हो सके । संसाधनों के संरक्षण को भी सतत विकास के ही स्वरूप में पर्यावरण एवं विकास का एक प्रमुख मुद्दा स्वीकार करने की पहल 1960-70 के दशक में प्रारम्भ हुई ।

इसमें युनेस्को के प्रथम निदेशक जूलियन हक्सले की प्रमुख भूमिका रही । इसी समय कुछ पुस्तकें जैसे “The Careless Technology” तथा “Ecological Principle for Economic Development” के प्रकाशन में पारिस्थितिक सन्तुलन एवं विकास की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया ।

1972 में स्टॉकहोम में हुए ‘विश्व पर्यावरण सम्मेलन’ ने सतत विकास की संकल्पना को नई दिशा प्रदान की । इस सम्मेलन में विश्व के प्रमुख राजनेता उपस्थित थे जिन्होंने न केवल बिगड़ते पर्यावरण पर चिन्ता व्यक्त की अपितु पर्यावरण संरक्षण हेतु सार्थक प्रयत्नों एवं नीतियों को भी प्रारम्भ किया । यद्यपि ‘सतत विकास’ शब्दावली का प्रयोग सर्वप्रथम ‘कोकोयोक घोषणा’ में 1970 के प्रारम्भ में पर्यावरण एवं विकास के सम्बन्ध में किया गया था ।

संयुक्त राष्ट्र संघ के पर्यावरण कार्यक्रम के अन्तर्गत “The World Conservation Strategy” (1980) का प्रकाशन और उसमें वर्णित संरक्षण नीति का सम्पूर्ण विश्व ने स्वागत किया । इसी क्रम में पर्यावरण एवं विकास पर विश्व आयोग का गठन और 1967 में इसके अध्यक्ष ग्रो हरलेम ब्रुडलेंड ने अपनी रिपोर्ट प्रकाशित की जिसने सतत विकास की संकल्पना को मूर्तरूप प्रदान किया ।

इसके अन्तर्गत सतत विकास को निम्न प्रकार से परिभाषित किया गया हैस ”ऐसी विकास की नीति जो हमारेवर्तमान की आवश्कताओं को पूरा करने के साध ही साथ भविष्य के साथ बिना समझौता किए अगली पीढ़ी की आवश्यकताओं को पूरा करने की क्षमताओं को सुरक्षित रखे ।”

उपर्युक्त परिभाषा मात्र परिभाषा न होकर सतत अथवा संभूत विकास का मूलमंत्र है और इसी अवधारणा के आधार पर विकास की नीति का निर्धारण आवश्यक है क्योंकि पर्यावरण एवं प्राकृतिक सम्पदा केवल वर्तमान की सम्पत्ति नहीं है अपितु विश्व एवं मानव जाति का भविष्य है जिसे सुरक्षित रखना हमारा दायित्व है । बेरो ने सतत विकास के सम्बन्ध में लिखा है कि इसके माध्यम से मानव जीवन की गुणवत्ता का विकास पारिस्थितिक तंत्र की धारक क्षमताओं के आधार पर किया जा सकता है ।

इसके पश्चात् सतत विकास की अवधारणा को राजनीतिक, नीति निर्माता, प्रशासक तथा गैर राजनीतिक संगठनों आदि से समुचित प्रश्रय मिल रहा है और इसके विविध आयामों का विश्लेषण पर्यावरणविदों द्वारा निरन्तर किया जा रहा है । लेले रेडक्लिफ्ट, बेन्टोन, एडम्स आदि अनेक विद्वानों ने सतत विकास के सैद्धान्तिक स्वरूप के विभिन्न आयामों का आलोचनात्मक विश्लेषण किया ।

संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा आयोजित विश्व पर्यावरण सम्मेलनों में सतत विकास का मुद्दा सदैव प्रमुखता से रहा, इसमें सर्वाधिक उल्लेखनीय 1992 में आयोजित रियो सम्मेलन रहा, जिसमें सतत विकास के विश्वव्यापी कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत की गई जिसका संक्षिप्त विवरण यहाँ दिया जा रहा है ।

रियो सम्मेलन, 1992 तथा सतत विकास:

संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा पर्यावरण एवं विकास सम्मेलन ब्राजील के रियो डे जेनेरो नगर में 1992 में आयोजित किया गया जिसे ‘रियो सम्मेलन’ अथवा ‘पृथ्वी सम्मेलन’ का नाम दिया गया । इसमें 128 देशों के राष्ट्राध्यक्ष समेत कुल 178 सरकारों ने हिस्सा लिया ।

इसके अतिरिक्त विभिन्न संगठनों के प्रतिनिधि, पर्यावरणविद तथा पर्यावरण से जुड़े विद्वानों ने विगत् दशकों के प्रयासों के मूल्यांकन के साथ भावी पर्यावरण संरक्षण एवं सतत् विकास हेतु दिशा निर्देश भी तैयार किए, जिसे ‘रियो घोषणा’ तथा इसके बृहत् स्वरूप को ‘एजेण्डा 21’ के नाम से पुकारा गया ।

इसमें प्रमुखत: विकसित औद्योगिक देशों एवं विकासशील देशों के मध्य पर्यावरण संरक्षण के उपायों में अन्तर को न केवल उजागर किया गया बल्कि भविष्य की एक क्रियात्मक रूपरेखा भी प्रस्तुत की गई । जलवायु परिवर्तन और उसका प्रभाव भी एक प्रमुख मुद्दा था । रियो घोषणा में 27 सिद्धान्तों को वर्णित किया गया, इनमें कुछ के प्रति अमेरिका जैसे देश एक मत नहीं भी थे ।

एजेण्डा-21:

सतत विकास का क्रियात्मक कार्यक्रम है, इसे चार वृहत् खण्डों में विभक्त किया गया है ।

ये हैं:

(i) खण्ड 1- सामाजिक एवं आर्थिक आयाम

(ii) खण्ड 2- विकास के लिए संसाधनों का संरक्षण एवं प्रबन्धन

(iii) खण्ड 3- प्रमुख समूहों के दायित्वों को सक्षम बनाना

(iv) खण्ड 4- कार्यान्वयन के साधन

एजेण्डा- 21 विश्व व्यापी सतत् विकास का कार्यक्रम है जिसे 21वीं शताब्दी में पर्यावरण की रक्षा एवं सतत विकास हेतु सभी देशों को लागू करने का आग्रह किया गया है । वास्तव में विकास की आर्थिक नीतियों को लागू करते-करते यह स्थिति आ गई है कि गरीबी, भुखमरी, बीमारी एवं अशिक्षा में वृद्धि के साथ पारिस्थितिक तंत्र में निरन्तर हास हो रहा है जिस पर पृथ्वी का जीवन निर्भर है । मानव, सतत् विकास का केन्द्र बिन्दु है तथा उसे स्वस्थ जीवन जीने का अधिकार है जो प्रकृति से सामंजस्य से ही सम्भव है ।

सतत विकास हेतु पर्यावरण संरक्षण हेतु विश्व के देशों में एकजुटता आवश्यक है । विकासशील देशों में संसाधनों की कमी इसमें बाधक न हो इस कारण विकसित देशों को इन्हें संसाधन देने चाहिए । ये कार्य विश्वव्यापी सहयोग से सम्भव है । इसी प्रकार राज्यों को सतत् विकास एवं उन जीवन गुणवत्ता बनाए रखने के लिए ऐसे कार्यों को रोकना होगा जो सतत विकास में बाधक हैं, इसके लिए जनसांख्यिकी नीतियों को भी अपनाना आवश्यक है ।

पर्यावरण की रक्षा हेतु वायुमण्डलीय सुरक्षा, मरुस्थलीकरण पर सेक, जैव विविधता की रक्षा, सागर एवं महासागरों का संरक्षण, पेयजल की शुद्धता, हानिकारक रसायनों पर रोक, अपशिष्ट पदार्थों का उचित निस्तारण आदि अनेक कार्यक्रमों के साथ-साथ क्षेत्रीय एवं स्थानीय ज्ञान का पर्यावरण संरक्षण में उचित उपयोग किए जाने पर भी जोर दिया गया है । सरकार, नागरिक एवं कार्यकर्ता अपने उत्तरदायित्वों का इस प्रकार निर्वहन करें कि सतत विकास हो सके ।

संयुक्त राष्ट्र संघ पर्यावरण संरक्षण एवं सतत विकास में महती भूमिका निभा रहा है । चिली सम्मेलन के पश्चात् दिसम्बर, 1997 को जापान के -बेटा शहर में विश्व के 36 विकसित देशों ने ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में कटौती करना स्वीकार किया । यही नहीं अपितु 2012 तक कार्बन-डाई-ऑक्साइड तथा पाँच अन्य गैसों में 5.2 प्रतिशत कटौती करने पर सहमति दी ।

इसके बाद 26 अगस्त से 4 सितम्बर, 2002 तक ‘पृथ्वी-2’ सम्मेलन जोहान्सबर्ग में आयोजित किया गया । इसमें पूर्व घोषणा-पत्र में वर्णित नीतियों के साथ जलवायु परिवर्तन, वनों का विनाश, जल संकट, ऊर्जा सकट, गरीबी हटने आदि अनेक मुद्दों पर विचार-विनिमय कर साझा कार्यक्रम तक किए गए ।

तात्पर्य यह है कि आज विश्व के सभी देश सतत अथवा संभूत विकास को न केवल सैद्धान्तिक अपितु व्यावहारिक रूप में अपनाना चाहते हैं । इसके लिए ‘पारिस्थितिक विकास’ को अपनाना आवश्यक है, जिसमें सभी विकास कार्य इस प्रकार किए जाएं कि प्रादेशिक पारिस्थितिक सन्तुलन कायम रहे ।


4. सतत् विकास के मौलिक तत्व (Basic Elements of Sustainable Development):

सतत् विकास का आधार पारिस्थितिकी के साथ-साथ आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक भी है । सबसे महत्तवपूर्ण है सतत विकास किसके लिए, किस सन्दर्भ में तथा किस उद्देश्य से है ?

हरे ने इसके नियंत्रक तत्व निम्न प्रकार से वर्णित किए हैं:

(i) अन्तर पीढ़ी की समानता अर्थात् संसाधनों का वर्तमान में इस प्रकार उपयोग की भावी पीढ़ी हेतु भी सुरक्षित रहें ।

(ii) जैविक एवं सांस्कृतिक विविधता का संरक्षण एवं पारिस्थितिक एकता ।

(iii) संसाधन उपयोग की दूरगामी नीति ।

(iv) संसाधनों का उपयोग सामाजिक न्याय के सिद्धान्त पर करना ।

(v) प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग पर्यावरण की धारक क्षमता के अनुसार करना ।

(vi) मानव कल्याण का गुणात्मक विकास न कि संख्यात्मक ।

(vii) पर्यावरणीय नीतियों एवं प्राकृतिक संसाधनों का मूल्य निर्धारण जिससे पर्यावरण एवं सामाजिक विकास हेतु धन प्राप्त हो सके ।

(viii) पर्यावरणीय मुद्दों पर वैश्विक सोच विकसित करना न कि स्थानीय या प्रादेशिक ।

(ix) सभी समुदायों द्वारा संसाधनों का उचित उपयोग ।

(x) सक्षम सामुदायिक भागीदारी निर्धारित करना जो मात्र नीतिगत न होकर वास्तविक हो ।

विकास में सतत विकास की आवश्यकता का प्रमुख कारण संसाधनों का अतिशय दोहन तथा तकनीकी ज्ञान का दुरूपयोग है । जिन तथ्यों पर सतत विकास हेतु अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है, वे हैं-जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता, खतरनाक पदार्थों का निस्तारण, प्रदूषित करने वाले अपशिष्टों का निस्तारण, खाद्य एवं पारिस्थितिक सुरक्षा । स्वामीनाथन (1991) ने कृषि को पारिस्थितिकी के अनुरूप विकसित करने के जो तथ्य प्रतिपादित किए हैं ।

वे हैं:

(i) भूमि,

(ii) जल,

(iii) ऊर्जा,

(iv) उर्वरक,

(v) आनुवंशिक विविधता,

(vi) कीट नियंत्रण,

(vii) फसल कटने के पश्चात् की प्रक्रिया,

(viii) क्रमबद्ध विधि, एवं

(ix) स्थानगत आधारित शोध ।

उचित प्रबन्धन के अभाव में विकास पर्यावरण को हानि पहुँचाता है । इसके लिए व्यापारीकरण एवं स्वार्थपरक नीतियों के स्थान पर सामाजिक विकास की संकल्पना को ध्यान में रखना होगा । इसी के साथ जनसंख्या पर नियंत्रण, अनियोजित नगरीकरण पर नियंत्रण, ऊर्जा संरक्षण एवं गैर परम्परागत ऊर्जा स्रोतों का अधिकतम उपयोग आदि आवश्यक है । एक विश्वव्यापी सामंजस्य हो जिसमें उतर-दक्षिण अर्थात् विकसित और कम विकसित या अविकसित देश आपसी सहयोग करें तभी सतत विकास की संकल्पना साकार हो सकती है ।


5. सतत् विकासात्मकता के सूचकांक (Indicators of Sustainability):

सतत् विकासात्मकता एक ऐसा पहलू है जिसका सम्बन्ध एक ओर प्राकृतिक पर्यावरण से है तो दूसरी ओर सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक तथ्यों से, इसी कारण इसका किसी एक सूचकांक से मापन नहीं किया जा सकता । इसके निर्धारण हेतु पारिस्थितिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सूचकांकों को आधार बनाया जाता है । पारिस्थितिक सूचकांक में वनस्पति, मृदा उत्पादकता, भूमि उपयोग, जल की मात्रा एवं गुणवता, जैविक मात्रा एवं गुणवत्ता के साथ-साथ ऊर्जा प्रबन्धन को सम्मिलित किया जाता है ।

भूमि उपयोग एवं उसके परिवर्तन को दूर संवेदन, वायु चित्रों तथा वास्तविक भू-मापन द्वारा भूमि की गुणवत्ता तथा उसके उपयोग के आँकड़ों के माध्यम से वर्तमान भूमि उपयोग के अतिरिक्त उन क्षेत्रों का पता लगाया जा सकता है जो कृषि योग्य वनोपयोगी हैं, साथ ही बंजर भूमि, कटाव भूमि आदि की जानकारी से सन्तुलित विकास की योजना तैयार की जा सकती है ।

जीवांश गुणवत्ता एवं मात्रा वहाँ के पारिस्थितिक तंत्र का निर्धारक होता है । मात्र जल की उपलब्धता ही नहीं अपितु उसका पुन: चक्र भी आवश्यक है । नदी, तालाब, झील एवं भूमिगत स्थल की मात्रा विकास का मार्ग प्रशस्त करती है । मृदा उर्वरता सतत् विकास के लिए कृषि विकास का आधार प्रस्तुत करती है ।

उर्वरता हेतु उर्वरक विशेषकर जैविक उर्वरकों के प्रयोग द्वार रसायनों से होने वाली हानि से बचाया जा सकता है । आर्थिक सूचकांक का निर्धारण एवं मापन कड़ी की उपलब्धता के कारण सरलता से किया जा सकता है । इसमें लागत एवं उत्पादन विश्लेषण पूँजी/बचत, निर्भरता अनुपात आदि मापकों से मूल्यांकन सम्भव है । सष्ट्रीय आय सूचकांक सष्ट्रीय विकास स्तर का द्योतक होता है ।

सामाजिक सूचकांक में ‘जीवन की गुणवत्ता’ एक संयुक्त सूचकांक है । सामाजिक सूचकांकों में स्वास्थ्य, पोषण, खाद्य उपलब्धता, शैक्षिक स्तर आदि प्रमुख हैं । यद्यपि सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों का मापन कठिन होता है ।

सतत विकास हेतु उचित है एकीकृत दृष्टिकोण जिसमें पारिस्थितिक एवं सामाजिक उपक्रमों का समावेश हो । अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर इसके लिए एक अन्तर विषयक सहभागिता कार्यक्रम चलाया गया जिसे ‘International Sustainable Biosphere Initiative’ (1990) नाम दिया गया । इसी प्रकार संयुक्त राज्य अमेरिका की राष्ट्रीय शोध परिषद ने ‘Integrated and Location-Specific Approach for Protecting Sustainability’ तैयार किया ।

जिसके अन्तर्गत:

(i) संक्रमण पर प्रतिवेदन,

(ii) एकीकृत ज्ञान एवं कार्य,

(iii) सतत विकास शोध की प्राथमिकताएं एवं

(iv) कार्यों की प्राथमिकताएँ-ज्ञान एवं क्रिया में आपसी सहयोग सम्मिलित था ।


6. पर्यावरणीय मुद्दे एवं सतत विकास (Environmental Issues and Sustainable Development):

वर्तमान में वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकी विकास के साथ कृषि, सिंचाई, खनन, उद्योग, परिवहन, वनघेपण, भूमि प्रबन्धन आदि अनेक क्षेत्रों में अभूतपूर्व प्रगति हुई है । इस प्रगति में पर्यावरण की निरंन्तर हानि होती गई और वह इस अवस्था में पहुँच गया कि अब सभी यह विचार करने को बाध्य हैं कि किस प्रकार विकास के साथ पर्यावरण संरक्षित रहे । इसी कारण अनेक विधियों-प्रयोगों से विनाश रहित विकास की तकनीकी का विकास किया जा रहा है और उन्हें अधिक से अधिक प्रयोग में लाने को प्रेरित किया जा रहा है ।


7. सतत विकास की वर्तमान युग में महत्व  (Importance of Sustainability in Present Day):

सतत अथवा संधृत विकास वर्तमान युग की आवश्यकता है क्योंकि मानव जाति का न केवल वर्तमान अपितु भविष्य भी इस पर निर्भर करता है । जिस प्रकार से अनेक क्रान्तियाँ जैसे कृषि, औद्योगिक, परिवहन आदि हुई हैं, इसी प्रकार अब समय आ गया है कि ‘विनाश रहित विकास’ के लिए भी क्रान्ति हो ।

यह एक साथ विभिन्न स्तरों एवं विभिन्न क्षेत्रों में होना आवश्यक है । जैसे तकनीकी स्तर पर आवश्यक है कि ऐसी प्रौद्योगिकी का विकास हो जो पारिस्थितिक तन्त्र को हानि नहीं पहुँचाए तथा जिसमें गैर परम्पसगत ऊर्जा का अधिक उपयोग हो । इसी प्रकार संसाधनों के संरक्षण एवं पुन: चक्रण पर जोर दिया जाए । स्वच्छ एवं सीमित ऊर्जा से संचालित प्रौद्योगिकी पर्यावरण सुरक्षा एवं विकास हेतु आवश्यक है ।

राजनीतिक और आर्थिक स्तर पर इस प्रकार की नीतियों का अनुसरण आवश्यक है ताकि पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव न हो तथा विकास का लाभ अधिकतम लोगों तक पहुँचे । सतत् विकास के लिए कानूनी एवं मौद्रिक व्यवस्था भी आवश्यक है । इसी प्रकार सामाजिक स्तर पर जनभागीदारी द्वारा पर्यावरण एवं विकास में सन्तुलन किया जाना आवश्यक है ।

यदि सामान्य जनता सजग होगी तो उसका सीधा प्रभाव सकारात्मकता होगा और पर्यावरण भी संरक्षित रहेगा । इसके लिए सामाजिक चेतना के साथ स्वास्थ्य एवं स्वच्छता के प्रति जागरूकता तथा महिला जागृति भी आवश्यक है ।

पर्यावरणीय स्तर पर बृहत् वनरोपण, जैविक कृषि, जैव विविधता संरक्षण, जैव कीट नियन्त्रण आदि कार्यक्रमों के साथ निरन्तर शोधकार्य होना अति आवश्यक है । सतत् विकास का उद्देश्य पारिस्थितिक तंत्र के अनुरूप विकास है जिसमें मानव कल्याण अधिकतम हो और मानव जीवन की गुणवत्ता में विकास हो ।

विकास के तरीकों में विकसित और विकासशील देशों की पद्धतियों में अन्तर हो सकता है किन्तु सामान्य रूप से अग्रांकित तथ्यों पर ध्यान देना अति आवश्यक है:

(i) कार्य करने की दशाएँ स्वच्छ एवं स्वाथ्यवर्द्धक हों,

(ii) प्रत्येक क्षेत्र के पर्यावरणीय मुद्दों पर शोधकार्य किया जाए,

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(iii) ज्ञात औद्योगिक आपदाओं से सुरक्षा रहे,

(iv) वानिकी का सघन कार्यक्रम सदैव रहे,

(v) स्थानीय पर्यावरणीय समस्याओं का समाधान भी स्थानीय स्तर पर किया जाए, बाहरी सहायता की अपेक्षा में उन्हें गम्भीर नहीं होने दिया जाए,

(vi) गैर-परम्परागत ऊर्जा स्रोतों का अधिक उपयोग किया जाए विशेषकर सौर एवं पवन ऊर्जा का,

(vii) पर्यावरणीय मित्र उत्पादों का उत्पादन अधिक किया जाए और उनका उपभोग भी अधिक हो,

(viii) पर्यावरण सम्बन्धी तकनीक एवं प्रौद्योगिकी का हस्तान्तरण सरल और सहज हो,

(ix) पर्यावरण संरक्षण एवं विकास में सन्तुलन हेतु विश्वव्यापी सहयोग किया जाए,

(x) संयुक्ता राष्ट्र संघ के सतत विकास कार्यक्रम एजेण्डा-21 का सभी देशों में क्रियान्वयन किया जाना चाहिए,

(xi) जैविक उर्वरकों तथा अन्य जैव तकनीकों के प्रयोग को अधिकतम प्रयुक्त किया जाए,

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(xii) पर्यावरण शिक्षा को सभी स्तर, पर अर्थात् स्कूल से कॉलेजों तक पाठक्रम का हिस्सा बनाया जाए,

(xiii) पर्यावरण प्रबन्धन, सतत विकास का आधार है, इसके सभी पक्षों को लागू करते हुए निगसनी तन्त्र विकसित किया जाए तथा उत्तरदायित्व तय किए जाएं, साथ में पारिस्थितिक अंकेक्षण अनिवार्य की जाए,

(xiv) पर्यावरणीय मुद्दों का समाजीकरण एवं मानवीकरण किया जाए जिससे ये प्रत्येक समाज के अंग बन सकें एवं प्रत्येक व्यक्ति की भागीदारी सुनिश्चित हो सके,

(xv) उत्पादों का मानकीकरण एवं चिन्हित करना भी उपयोगी है ।

वास्तव में सतत विकास या पोषणीय या संस्कृत विकास आज की आवश्यकता है, इसे सभी स्वीकार करते हैं और इस दिशा में विश्वव्यापी और सष्ट्रीय स्तर पर प्रयत्न भी किए जा रहे हैं । वैश्वीकरण और व्यापारीकरण की प्रवृत्ति के चलते इसमें बाधाएँ आती हैं किन्तु विश्वव्यापी सहयोग एवं राष्ट्रीय नीति निर्धारकों और जनभागीदारी से इस दिशा में अवश्य ही आशानुरूप प्रगति होगी क्योंकि हम सभी विनाश रहित विकास चाहते हैं ।