पर्यावरण शिक्षा का महत्व | Paryaavaran Shiksha Ka Mahatv!

Read this article in Hindi to learn about:- 1. पर्यावरण शिक्षा का अर्थ (Meaning of Environmental Education) 2. पर्यावरण शिक्षा की आवश्यकता (Need for Environmental Education) 3. प्रारूप (Pattern).

पर्यावरण शिक्षा का अर्थ (Meaning of Environmental Education):

पर्यावरण प्रबंधन का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष पर्यावरण शिक्षा है अर्थात् पर्यावरण के विविध पक्षों, इसके घटकों, मानव के साथ अंतर्संबंधों पारिस्थितिक-तंत्र, प्रदूषण विकास, नगरीकरण, जनसंख्या आदि का पर्यावरण पर प्रभाव आदि की समुचित जानकारी देना ।

यह शिक्षा मात्र विद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों तक ही सीमित न होकर जन-जन को देना आवश्यक है । जब तक देश का प्रत्येक व्यक्ति पर्यावरण एवं जीवन में उसके महत्व को नहीं समझेगा उस समय तक वह अपने उत्तरदायित्व को नहीं समझ सकेगा, जो उसे पर्यावरण के प्रति निभाना है ।

पर्यावरण शिक्षा एक पुनीत कार्य है, जिसे करके एवं उसके मार्ग पर चलकर वर्तमान के साथ भविष्य को सुंदर बना सकते हैं, मानव की अनेक त्रासदियों से रक्षा कर सकते हैं, प्राकृतिक आपदाओं को कम कर सकते हैं, विलुप्त होते जीव-जंतुओं व पादपों की प्रजातियों की रक्षा कर सकते हैं और जल, वायु एवं भूमि को प्रदूषित होने से बचा सकते हैं पर्यावरण शिक्षा वह माध्यम है जिसके द्वारा पर्यावरण तथा जीवन की गुणवत्ता की रक्षा की जा सकती है ।

पर्यावरण शिक्षा की आवश्यकता (Need for Environmental Education):

एक ज्वलंत प्रश्न है कि पर्यावरण की शिक्षा क्यों? क्या पूववर्ती शिक्षा में पर्यावरण सम्मिलित नहीं था या उसकी आवश्यकता नहीं थी? वास्तव में पृथक से पर्यावरण शिक्षा का दौर विगत 25 वर्षों में ही प्रारंभ हुआ है और विगत दशक में यह अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हो गया है ।

पर्यावरण शिक्षा का मूल उद्देश्य मानव-पर्यावरण के अंतर्संबंधों की व्याख्या करना तथा उन संपूर्ण घटकों का विवेचन करना है जो पृथ्वी पर जीवन को परिचालित करते हैं इसमें मात्र मानव जीवन ही नहीं अपितु जीव-जंतु एवं वनस्पति भी सम्मिलित हैं ।

मानव, तकनीकी विकास एवं पर्यावरण के अंतर्संबंधों से जो पारिस्थितिकी चक्र बनता है और वह संपूर्ण क्रिया-कलापों और विकास को नियंत्रित करता है । यदि इनमें संतुलन रहता है तो सब कुछ सामान्य गति से चलता रहता है, किंतु किसी कारण से यदि इनमें व्यतिक्रम आता है तो पर्यावरण का स्वरूप विकृत होने लगता है और उसका हानिकारक प्रभाव न केवल जीव जगत् अपितु पर्यावरण के घटकों पर भी होता है ।

वर्तमान में यह क्रम तीव्रता से हो रहा है । औद्योगिक तकनीकी, वैज्ञानिक, परिवहन विकास की होड़ में हम यह भूल गये थे कि ये साधन पर्यावरण को प्रदूषित कर मानव जाति एवं अन्य जीवों के लिये संकट का कारण बन जायेंगे । कुछ समय विचार-विनिमय में बीतता गया, तर्क-वितर्क चलता रहा तथा पर्यावरण अवकर्षण में वृद्धि होती गई ।

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वास्तविक चेतना का उदय तब हुआ जब विकसित देशों में यह संकट अधिक हो गया और उन्होंने इस दिशा में अपने प्रयासों को तेज कर दिया, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय मैचों पर पर्यावरण चेतना एवं इसके खतरों की आवाज उठने लगी ।

इसी के साथ ‘पर्यावरण शिक्षा’ का विचार भी बल पकड़ने लगा, क्योंकि इससे पूर्व पर्यावरण का विभिन्न विषयों में भिन्न-भिन्न परिवेशों में अध्ययन किया जाता था । अब यह सभी स्वीकार करते हैं कि पर्यावरण को शिक्षा का अभिन्न अंग बनाया जाना चाहिये जिससे छात्रों में प्रारंभिक काल से ही पर्यावरण चेतना जागत की जा सके ।

पर्यावरण शिक्षा की आवश्यकता निम्नांकित कारणों से है:

(i) पर्यावरण के विभिन्न घटकों से परिचय कराना;

(ii) पर्यावरण के घटक किस प्रकार एक-दूसरे से क्रियात्मक संबंध रखते हैं इसकी समुचित जानकारी देना;

(iii) पर्यावरण के विभिन्न घटकों का मानव के क्रिया-कलापों पर प्रभाव का ज्ञान प्रदान करना;

(iv) पर्यावरण प्रदूषण के स्वरूप, कारण एवं प्रभावों का ज्ञान देना;

(v) पर्यावरण प्रदूषण के निवारण में व्यक्ति एवं समाज की भूमिका को उजागर करना;

(vi) पर्यावरण एवं स्वास्थ्य के संबंध को स्पष्ट करना;

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(vii) पर्यावरण चेतना जगाना तथा पर्यावरण के प्रति अवबोध विकसित करना;

(viii) पर्यावरण संरक्षण एवं प्रबंधन हेतु साहित्य का सृजन करना;

(ix) विभिन्न विषयों में पर्यावरण शोध की व्यवस्था करना;

(x) क्षेत्रीय पर्यावरणीय समस्याओं का अध्ययन एवं उनके निराकरण के उपाय प्रस्तुत करना आदि ।

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संक्षेप में, पर्यावरण शिक्षा वह साधन है जिससे बाल्यकाल से ही पर्यावरण का सही ज्ञान दिया जा सकता है अर्थात् पर्यावरण के प्रति चेतना जगाई जा सकती है इसके पश्चात् पर्यावरण की .समस्याओं का ज्ञान एवं उनके निराकरण का ज्ञान दिया जाना आवश्यक है और इसके साथ ही शोध कार्य द्वारा इस दिशा में नवीन तकनीक का विकास किया जाना चाहिये । ये सभी कार्य पर्यावरण शिक्षा के माध्यम से संपन्न किये जा सकते हैं ।

पर्यावरणीय शिक्षा का प्रारूप (Pattern of Environmental Education):

पर्यावरणीय शिक्षा को प्रभावशाली बनाने हेतु इसकी विषय-वस्तु का चयन सावधानीपूर्वक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से करना आवश्यक है । इसके प्रारूप के निर्धारण में सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक पक्षों का सुनियोजित समावेश होना चाहिये तथा शिक्षा के स्तर के अनुरूप इसकी विषय-वस्तु में भी विकास आवश्यक ।

1981 में ‘पर्यावरण शिक्षा’ पर भारतीय पर्यावरण संस्था ने जो सुझाव दिये उनका-सार निम्नांकित हैं:

I. पर्यावरण शिक्षा का स्वरूप पर्यावरण नीति के विकास में सहायक हो तथा मानव के प्राकृतिक वातावरण के प्रति संबंधों का द्योतक हो । इसके अध्ययन से प्रत्येक व्यक्ति में यह भावना विकसित होनी चाहिये कि वह भी पर्यावरण का अभिन्न अंग है ।

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II. माध्यमिक स्तर तथा विश्वविद्यालय स्तर पर पर्यावरण शिक्षा में समन्वय हो तथा उसके अध्ययन से छात्रों में पर्यावरणीय जागरूकता का विकास होना चाहिये ।

III. इसके द्वारा पर्यावरण की विभिन्न संकल्पनाओं तथा सिद्धांतो का ज्ञान होना चाहिये ।

IV. पर्यावरण शिक्षा हेतु वर्तमान में संलग्न अध्यापकों, डॉक्टरों, इंजीनियरों, नियोजकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, राजनीतिज्ञों, प्रशासकों का दिशा-निर्देश (री-ओरिएन्टेशन) कार्यक्रम प्रारंभ किया जाये ।

V. विश्वविद्यालय स्तर पर छात्रों को मानव-पर्यावरण के संबंधों का अध्ययन कराया जाये तथा उनसे पर्यावरण के किसी पक्ष पर रिपोर्ट तैयार करवाई जाये ।

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VI. प्रत्येक स्तर पर विद्यार्थियों को पर्यावरणीय जागरूकता तथा प्रशिक्षण देना चाहिये ।

VII. समन्वित ग्रामीण विकास की प्रक्रिया में पर्यावरणीय विचार का समायोजन होना चाहिये ।

VIII. इसके माध्यम से स्थानीय एवं क्षेत्रीय पर्यावरण के उपयोग, समस्याओं और उनके निराकरण का ज्ञान कराया जाये ।

उपर्युक्त निर्देश संकेत मात्र हैं इनको पूर्ण रूप से विकसित करने की आवश्यकता है । पर्यावरण शिक्षा का स्वरूप मूलतः भारतीय परिवेश में ही प्रस्तुत किया जा रहा है क्योंकि प्रत्येक देश की परिस्थितियाँ भिन्न होती हैं यद्यपि मूल स्वरूप समान ही होता है ।

पर्यावरण शिक्षा का प्रारंभ बाल्यकाल की प्राथमिक, यहाँ तक कि पूर्व प्राथमिक शिक्षा से ही हो जाता है । 1975 एवं उसके पश्चात् ‘भारतीय शिक्षा शोध एवं प्रशिक्षण परिषद्’ ने अपने विभिन्न पादयक्रमों में पर्यावरण शिक्षा पर विभिन्न तथ्य, विषय-वस्तु आदि का प्रतिपादन किया है ।

इसी क्रम में विज्ञान के विभिन्न विषयों में पर्यावरण संबंधी सामग्री का समावेश किया गया । उनके अनुसार प्राथमिक स्तर पर ही बच्चे में विज्ञान के उपयोग एवं वैज्ञानिक सोच का विकास होना चाहिये । बच्चे में स्वच्छता एवं स्वास्थ्य का पर्याप्त ज्ञान होना चाहिये तथा किस प्रकार गंदगी से बचा जा सके इसका भी पर्याप्त ज्ञान होना चाहिये ।

इस समय यदि बच्चे को यह ज्ञात हो जाये कि वह जीवन भर न केवल उनसे अलग रहेगा अपितु अपने परिवार एवं समाज के वातावरण को भी शुद्ध रखेगा । इसके पश्चात अर्थात् मिडिल स्कूल तक पोषण, स्वास्थ्य, जनसंख्या, कृषि, उद्योग, परिवहन आदि गतिविधियों से परिचित कर संसाधन संरक्षण के प्रति ज्ञान दिया जाना चाहिये ।

जबकि माध्यमिक स्तर पर पर्यावरण की समस्याओं एवं प्रदूषण आदि का न केवल परिचय अपितु कारण एवं निदान का ज्ञान देना आवश्यक है । इस स्तर तक पर्यावरण शिक्षा को विज्ञान एवं सामाजिक विज्ञान दोनों ही पाठ्‌यक्रमों में सम्मिलित किया जाना चाहिये ।

तत्पश्चात् अर्थात् महाविद्यालय स्तर पर इसे विशिष्ट विषय के रूप में रखा जाये, जिससे प्रशिक्षित स्नातक उपलब्ध हों । विश्वविद्यालय स्तर पर शोध कार्य पर बल दिया जाना चाहिये । पर्यावरण शिक्षा किसी एक विषय से संबंधित न होकर अंत: विषयी विषय है ।

यह प्राकृतिक एवं सामाजिक विज्ञान दोनों में महत्व रखता है । इसका अध्ययन जहाँ जीव विज्ञान, भौतिकी, रसायन, अभियांत्रिकी में होता है वहीं समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, प्रजातीय विज्ञान, भूगोल आदि में भी महत्त्वपूर्ण है । पर्यावरण का भौगोलिक अध्ययन अति महत्वपूर्ण है क्योंकि भूगोल एक ऐसा विषय है जो प्रारंभ से ही मानव-पर्यावरण के अंतर्संबंधों का अध्ययन करता आया है और वर्तमान समय में पर्यावरण के विविध पक्षों का क्षेत्रीय विवेचन भूगोल की विष-वस्तु का प्रमुख पक्ष है ।

पर्यावरण शिक्षा के अंतर्गत निम्न तथ्यों का समावेश आवश्यक है:

1. पर्यावरण के घटक:

(i) स्थलाकृति (उच्चावच)

(ii) जलवायु

(अ) वायु

(ब) वर्षा

(स) वायुमण्डलीय संरचना

(द) सूर्य ताप

(iii) प्राकृतिक वनस्पति

(iv) मृदा

(v) जल राशियाँ

(vi) जीव-जंतु ।

2. मानव-पर्यावरण संबंध

3. पर्यावरण उपयोग एवं विकसित आर्थिक परिदृश्य

(i) कृषि

(ii) पशुपालन

(iii) सिंचाई

(iv) उद्योग

(v) ऊर्जा

(vi) खनिज खनन

(vii) परिवहन

अर्थात् आर्थिक विकास एवं उसका पर्यावरण पर प्रभाव ।

4. विकास द्वारा उत्पन्न पर्यावरणीय समस्यायें

(i) प्रदूषण-जल, वायु, भूमि, शोर, रेडियो धर्मी प्रदूषण ।

(ii) वनोन्मूलन

(iii) ऊर्जा संकट

(iv) संसाधनों की कमी

(v) प्राकृतिक आपदायें- बाढ़, सूखा, भूकंप आदि ।

(vi) मरुस्थलीकरण

(vii) उर्वरता में कमी, बंजर भूमि का विस्तार ।

(viii) शहरीकरण एवं औद्योगिकीकरण का प्रभाव आदि ।

5. पर्यावरण संरक्षण

(i) प्रदूषण पर नियंत्रण,

(ii) वनों की रक्षा एवं वनरोपण,

ADVERTISEMENTS:

(iii) खनिज संसाधनों का संरक्षण,

(iv) ऊर्जा संरक्षण

(v) जनसंख्या नियंत्रण आदि

6. पर्यावरण प्रबंधन

(i) पर्यटन स्थलों, अभयारण्यों का विकास,

(ii) प्रदूषण नियंत्रण के उपाय,

(iii) स्वास्थ्यवर्द्धक केन्द्रों का विकास,

(iv) नगरों में स्वच्छ पर्यावरण,

(v) जनसंख्या एवं पर्यावरण में समन्वय,

ADVERTISEMENTS:

(vi) पर्यावरण अधिनियमों का नियमन,

(vii) पर्यावरण चेतना का विकास या पर्यावरण संरक्षण आंदोलन ।

वास्तव में पर्यावरण शिक्षा एक विशद् विषय है । इसे वर्तमान में एक पृथक विषय के रूप में अर्थात् पर्यावरण विज्ञान के रूप में भी विकसित किया गया है । सामान्य पादयक्रमों के अतिरिक्त विशिष्ट प्रशिक्षण के अंतर्गत डिग्री एवं डिप्लोमा भी इसमें दिये जा रहे हैं ।

विशिष्ट अध्ययन से विशेषज्ञों का विकास होगा, जो आवश्यक है । इसके अतिरिक्त विश्वविद्यालयों में पर्यावरण संबंधी शोध कार्य पर्याप्त किया जा रहा है । इन सभी कार्यों में समन्वय कर उन्हें उपयोगी बनाया जाना चाहिये, साथ ही वास्तविक शोध कार्य हो इसके लिये मूल्यांकन की भी आवश्यकता है ।

पर्यावरण शिक्षा का एक अन्य पहलू सामान्य नागरिकों को शिक्षा देना है । विद्यालयों के अतिरिक्त समस्त जनता को इसके संबंध में साधारण भाषा में, लोक गीतों, नाटकों, पोस्टरों आदि के माध्यम से शिक्षित किया जाना आवश्यक है । इसे प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम का एक अंग बनाया जाना चाहिये तथा शिक्षण संस्थाओं में चलाये जाने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवा कार्यक्रम के अंतर्गत भी इसे किया जा सकता है ।

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