मनुष्य और पर्यावरण प्रदूषण | Manushy Aur Paryaavaran Pradooshan | Man and Environmental Pollution

Read this article in Hindi to learn about:- 1. मानव-पर्यावरण एवं प्रदूषण (Man Environment & Pollution) 2. मानव-पर्यावरण संबंध (Man-Environment Relationship) 3. नियतिवाद या पर्यावरणवाद या निश्चयवाद (Determinism or Environmentalism) and Other Details.

Contents:

  1. मानव-पर्यावरण एवं प्रदूषण का परिचय (Introduction to Man-Environment and Pollution)
  2. मानव-पर्यावरण संबंध (Man-Environment Relationship)
  3. नियतिवाद या पर्यावरणवाद या निश्चयवाद (Determinism or Environmentalism)
  4. संभववाद (Possibilism)
  5. नव-निश्चयवाद (Neo-Determinism)
  6. पारिस्थितिक-तंत्र व भौमिक मण्डल (Eco-System and Terrestrial Spheres)


1. मानव-पर्यावरण एवं प्रदूषण का परिचय (Introduction to Man-Environment and Pollution):

पर्यावरण भौतिक, रासायनिक एवं जैविक तत्वों का समूह है, ये सभी तत्व अथवा घटक निरंतर अंत: क्रिया-प्रतिक्रिया द्वारा संतुलित रूप में जीव मण्डल को परिचालित करते रहते हैं । मानव एक ओर पर्यावरण का एक ऐसा घटक है जिसका पर्यावरण से उद्भव एवं विकास होता है, वर्तमान में अस्तित्व में बना रहता है और भविष्य में सुरक्षित रहता है ।

मानव जहाँ एक ओर पर्यावरण से समानुकूल एवं सामंजस्य कर उससे अनेक सुख-सुविधायें प्राप्त करता है तो दूसरी ओर पर्यावरण को सर्वाधिक प्रभावित करता है । मानवीय सभ्यता के इतिहास को यदि मानव-पर्यावरण संबंधों का लेखा कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी ।

अन्य जीव-जंतु जहाँ पर्यावरण से पूर्ण समानुकूल कर जीवन यात्रा पूर्ण करते हैं, मानव अपने बौद्धिक विकास के गुण के कारण इसमें विभिन्न प्रकार के परिवर्तन करता है । वह अनेक ऐसे कार्य करता है जो प्राकृतिक तंत्र को बाधा पहुँचाते हैं ।

पर्यावरण से अधिक से अधिक लाभ प्राप्त करने की प्रवृत्ति, स्वार्थपरता एवं अधिकाधिक व्यावसायिकता के कारण वह पर्यावरण के विभिन्न घटकों को न केवल प्रभावित कर रहा है अपितु उन्हें हानि भी पहुँचा रहा है, परिणामस्वरूप विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक आपदायें, जैसे- बाढ़, अकाल, भूकंप, भूस्खलन, मृदा अपरदन आदि के प्रकोप में वृद्धि होती जा रही है और विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों का विस्तार हो रहा है ।

विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विकास ने जहाँ वर्तमान मानव को अनेक सुख-सुविधायें दी हैं वहीं पर्यावरण को अत्यधिक प्रदूषित किया है और यह क्रम अधिकाधिक होता जा रहा है । जल, वायु, मृदा, ध्वनि, रेडियोधर्मी विकिरण प्रदूषण आज के विश्व की प्रमुखतम समस्यायें हैं । ये समस्यायें स्वयं मानव ने अपने विवेकहीन कार्यों से उत्पन्न की हैं और मानव अपने विवेक से ही इन पर नियंत्रण पा सकता है । विकास आवश्यक है किंतु पर्यावरण के मूल्य पर किया गया विकास निरर्थक है ।


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2. मानव-पर्यावरण संबंध (Man-Environment Relationship):

मानव-पर्यावरण संबंध एक अंत: निर्भर तथ्य है इसे सभी विद्वान स्वीकार करते हैं । इन संबंधों को व्यक्त करने हेतु प्राचीन काल से ही विविध विचारधाओं का विकास होता रहा है । प्रमुख विचारणीय प्रश्न है- मानव-पर्यावरण में क्या संबंध है ?

इनमें कौन अधिक प्रभावशाली तथा नियंत्रक है ? क्या प्रकृति सर्वोपरि एवं निर्णायक है अथवा मानव ही प्रधान है ? क्या मानव प्रकृति के हाथ का खिलौना है अथवा बराबर का भागीदार ?  क्या तकनीकी और वैज्ञानिक विकास ने पर्यावरण के महत्व को समास कर मानव को सार्वभौम शक्तिशाली बना दिया है ? आदि ज्वलंत प्रश्न आज भी विचार के केन्द्र हैं । इन प्रश्नों पर जहाँ अनेक चिंतकों, दार्शनिकों ने विचार प्रस्तुत किये हैं ।

समाजविज्ञानों में भूगोल एक ऐसा विषय है जो मानव पर्यावरण के संबंधों का समग्रता एवं गहनता से अध्ययन करता है अत: इस संबंध में विकसित संकल्पनायें निश्चित ही मानव-पर्यावरण संबंधों के बदलते परिदृश्य को समझने में सहायक होंगी । नियतिवाद, संभववाद, नव-निश्चयवाद, कृतिवाद, पारिस्थितिक दृष्टिकोण का संक्षिप्त विवेचन मानव-पर्यावरण संबंधों के परिवर्तित स्वरूप को व्यक्त करता है ।


3. नियतिवाद या पर्यावरणवाद या निश्चयवाद (Determinism or Environmentalism):

इस विचारधारा में पर्यावरण अथवा प्रकृति को सर्वशक्तिमान एवं नियंत्रक माना गया है तथा मानव को प्रकृति के हाथों का खिलौना अर्थात् प्राकृतिक पर्यावरण ही मानव के अस्तित्व को निर्धारित करता है, उसकी शारीरिक एवं मानसिक क्षमता को नियंत्रित करता है तथा भोजन, वस्त्र, आवास एवं समस्त आर्थिक एवं सामाजिक क्रियाओं को परिचालित करता है ।

पर्यावरणवाद का मुख्य विचार है कि पृथ्वीतल पर मानव के व्यवहार प्रारूप के निर्धारण में प्राकृतिक पर्यावरण की प्रमुख भूमिका होती है । प्राचीन ग्रीक विचारकों ने प्राकृतिक तत्वों की प्रभुता को स्वीकार किया । हिप्पोक्रेट्‌स ने ईसा से 420 वर्ष पूर्व वायु, जल और स्थान विशेष की महत्ता को स्वीकार करते हुए एशिया निवासियों को उपयुक्त वातावरण में आराम पसंद जीवन यापन करने वाला तथा यूरोपियों को अपेक्षाकृत अनुपयुक्त वातावरण में परिश्रमी जीवन व्यतीत करने वाला बताया ।

अरस्तु ने ईसा से चौथी शताब्दी पूर्व अपनी पुस्तक ‘पोलिटिक्स’ में लिखा था- ”यूरोप के ठण्डे देशों के निवासी बहादुर होते हैं किंतु विचारों और तकनीकी कौशल में उनमें कमी पाई जाती है…. इसके विपरीत एशिया के लोग विचारशील और कुशल होते हैं किन्तु उत्साही नहीं ।”

स्ट्रेबो ने रोम साम्राज्य की संपन्नता का कारण इटली की जलवायु को व्यक्त किया । 16वीं शताब्दी के विचारक बोदिन ने ठंडे देशों के निवासियों को निर्दयी और साहसी व्यक्त किया जब कि गर्म देशों के निवासियों को प्रतिशोधी, कुटिल किंतु सच और झूठ में अंतर करने वाला बतलाया ।

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17वीं शताब्दी के एक विद्वान मॉण्टेस्क्यू ने जलवायु एवं मृदा को मानव के चरित्र का निर्माता बताया । उनके अनुसार ठण्डी जलवायु के निवासी शारीरिक दृष्टि से पुष्ट, साहसी तथा कम कुटिल होते हैं, जबकि गर्म जलवायु के निवासी धर्मप्रिय तथा परंपरा और संस्कृति में अधिक विश्वास रखते हैं ।

प्रकृति अथवा पर्यावरण के प्रभुत्व को कालांतर में भी विद्वान स्वीकार करते रहे हैं । जर्मन विचारक हम्बोल्ट एवं कार्ल रिटर पर्यावरणवाद के पोषक थे । प्रसिद्ध वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन ने ‘जीवों के विकास का सिद्धांत’ प्रतिपादित किया ।

उसमें जीव विकास एवं पर्यावरण में घनिष्ठ संबंध व्यक्त किया गया है । इसी प्रकार जर्मन जैव विज्ञानी हैकल ने पारिस्थितिकी संबंधी विचार प्रस्तुत किये जो मानव-पर्यावरण संबंधों के संबंध में आधारभूत माने जाते हैं ।

इसी प्रकार बकल, डिमोलिन्स, रेटजल ने भी प्राकृतिक शक्तियों को सर्वोपरि स्वीकार किया । रेजटल के अनुसार मानव अपना मस्तिष्क आकाश में चाहे जितना ऊँचा क्यों न उठा ले तथापि उसके पैर सदा धरती पर ही टिके रहेंगे तथा उसकी धूल प्रकृति में विलीन हो जाएगी ।

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पर्यावरणवाद की समर्थक कु.ई.सी. सेम्पल ने मानव को पृथ्वी की उपज व्यक्त किया क्योंकि पृथ्वी ही उसको प्रश्रय देती है, भोजन देती है तथा उसकी शारीरिक एवं मानसिक क्षमता का विकास करती है । उनके अनुसार पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों के पैर मजबूत होते हैं जबकि समुद्र के निकट के निवासियों का सीना और हाथ तथा नदी घाटी के निवासी आलसी होते हैं ।

वास्तव में पर्यावरणवाद एवं प्रकृतिवाद की विचारधारा एकांगी है क्योंकि जहाँ पर्यावरण मानव को विविध प्रकार से प्रभावित करता है, मानव भी अपनी शक्ति, बुद्धि, विज्ञान और तकनीक से पर्यावरण को परिवर्तित कर उससे अधिक से अधिक लाभ प्राप्त करता है ।

यही कारण है कि जो स्थान कभी निर्जन थे वहाँ आज सघन आबादी है, मरुस्थलों में खेत लहरा रहे हैं, परिवहन ने दूरियाँ समाप्त कर दी हैं, उन्नत बीजों से उत्पादन में वृद्धि हो रही है, मानव की आयु में वृद्धि हुई है, जलवायु को अनेक प्रकार के वातानुकूलन से अनुकूल बनाया जा रहा है अर्थात् वैज्ञानिक और तकनीकी विकास से पर्यावरण को अधिकतम अनुकूल बनाया जा रहा है । इसी संदर्भ में मानव-पर्यावरण के संबंधों को व्यक्त करने वाली दूसरी विचारधारा का उद्भव हुआ जिसे ‘संभववाद’ के नाम से जाना जाता है ।


4. संभववाद (Possibilism):

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प्रकृति की सर्वोपरिता को नकारते हुए, मानव के कृत्यों को यथोचित महत्व देते हुए विचारकों ने संभववाद के विचारों का प्रतिपादन किया । संभववादी मानव-वातावरण में सामंजस्य के पोषक हैं अर्थात् मानव प्रकृति (वातावरण) के अनुरूप व्यवहार तो करता है किंतु वह पर्यावरण में परिवर्तन लाकर उसे अपने अनुकूल बनाने की क्षमता भी रखता है ।

फ्रांस के अनेक विचारकों जैसे- फब्वेर, ब्लाश, ब्रून्स, बोमन, कार्ल सावर आदि ने पर्यावरण एवं मानव में सामंजस्य की बात कही । उनके अनुसार मनुष्य प्रकृति का दास नहीं अपितु उसको परिवर्तित करने की क्षमता रखता है ।

आवश्यकताओं के स्थान पर सर्वत्र संभावनायें हैं और मानव इन संभावनाओं के आधार पर विकासक्रम में आगे चलता रहता है । उनके अनुसार प्रकृति मात्र एक सलाहकार के रूप में कार्य करती है । मानव अपने ज्ञान, कौशल एवं बुद्धि के बल पर पर्यावरण का उपयोग करता है । अनेक प्राकृतिक संसाधन जो सदियों से भूमि के गर्भ में समाये हुए थे आज उनका उपयोग किया जा रहा है ।

नदियों का व्यर्थ बहता जल आज जल विद्युत उत्पादन कर रहा है तथा नहरों द्वारा शुष्क मरुस्थलों को भी हरा-भरा बनाया जा रहा है । वर्ष में आज अनेक फसलें ली जा रही हैं, मशीनीकरण ने प्रकृति के अनेक तथ्यों पर मानव की छाप स्थापित की है यहाँ तक कि सौर ऊर्जा का भी उपयोग किया जाने लगा है ।

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संभववाद में मानव को सर्वोच्चता प्रदान की गई है किंतु इसमें भी एकतरफा विवेचन है क्योंकि वातावरण से अलग मानव की कल्पना भी कठिन है । आज भी एंटार्कटिका एवं टुण्ड्रा का हिममण्डित क्षेत्र, भूमध्य रेखिक प्रदेश, उच्च पर्वतीय प्रदेश, गर्म मरुस्थली प्रदेश मानव निवास के अनुपयुक्त हैं ।

फसलों का उत्पादन जलवायु पर मूल रूप से निर्भर है, सूखा एवं बाढ़ तथा भूकंप एवं ज्वालामुखी का विस्फोट आज भी तबाही मचा देता है । वर्षा के लिये हम सभी आकाश को निहारते हैं । निःसंदेह मानव ने पर्यावरण को पर्याप्त अनुकूल बनाया है किंतु वह उसके प्रभाव से मुक्त हो गया हो, ऐसा नहीं है ।


5. नव-निश्चयवाद (Neo-Determinism):

मानव-पर्यावरण संबंधों को प्रतिपादित करने हेतु उपर्युक्त वर्णित पर्यावरणवाद एवं संभववाद एकांगी विचारधाराएं हैं । उनके स्थान पर एक मध्यममार्गी विचारधारा का विकास हुआ जिसे ‘नव-निश्चयवाद’ का नाम दिया गया । इसके प्रमुख प्रवर्त्तक ग्रिफित टेलर थे, जिन्होंने प्राकृतिक वातावरण को महत्व देते हुए मानवीय क्षमता एवं सामर्थ्य को भी समुचित महत्व दिया ।

प्रकृति का प्रभाव मानवीय क्रियाओं पर पड़ता है, मानव अपने ज्ञान एवं कौशल से पर्यावरण की दशाओं को अपने अनुकूल कर लेता है या उसके अनुरूप स्वयं हो जाता है अर्थात् मानव एक सीमा तक ही पर्यावरण को परिवर्तित करने की सामर्थ्य रखता है ।

टेलर के अनुसार न तो प्रकृति का मानव पर पूरा नियंत्रण है और न ही मानव प्रकृति का विजेता है । दोनों का एक दूसरे से क्रियात्मक संबंध है । प्रगति हेतु मानव के लिए आवश्यक है कि वह प्रकृति से सहयोग प्राप्त करें ।

मानव विकास की गति को तेज व मंद कर सकता है किंतु पर्यावरण के दिशा-निर्देशों की पूर्ण अवहेलना नहीं कर सकता । वास्तव में ये विचार ही मानव-पर्यावरण के वास्तविक संबंधों के द्योतक हैं जिनका आधार वैज्ञानिक प्रगति के साथ बदलता परिदृश्य है ।

मानव-पर्यावरण के संबंधों में कतिपय अन्य विचार हैं:

i. कृतिवाद,

ii. मानकी-दृष्टिकोण एवं

iii. पारिस्थितिकी-दृष्टिकोण ।

i. कृतिवाद:

इसके विचारक मानव की क्षमता एवं शक्ति को महत्व प्रदान करते हुए यह मानते हैं कि पर्यावरण का एक संभावित स्थिति तक परिवर्तन किया जा सकता है । जैसे सिंचाई सुविधा द्वारा मरुस्थल में कृषि कर सकता है, विशेष प्रकार के बीजों से साइबेरियाई क्षेत्र में खेती करने लगा है, सूर्य शक्ति से ऊर्जा प्राप्त करता है, विपरीत जलवायु में भी ‘ग्रीन हाउस’ में सीमित उत्पादन करने लगा है, समुद्र से तेल प्राप्त कर रहा है, अनेकानेक कृत्रिम उपयोगी वस्तुओं को रासायनिक क्रियाओं द्वारा उत्पादित कर रहा है, आदि-आदि ।

पर्यावरण का उपयोग कर ही मानव प्रगति के पथ पर अग्रसर है, यद्यपि इसमें वह पर्यावरण को अनेक प्रकार से प्रदूषित कर रहा है, किंतु साथ ही वह इसके संरक्षण हेतु भी प्रयत्नशील है । विकास, पर्यावरण का शोषण एवं अवकर्षण अंत: संबंधित हैं । किंतु मानवीय कृत्यों को सही दिशा प्रदान कर ऐसा वातावरण बनाया जा सकता है जो विकास के साथ सामंजस्य रखता हो, यह वर्तमान युग की महती आवश्यकता है ।

ii. मानकी-दृष्टिकोण:

इसके अंतर्गत मानव का स्थान से अंतर-संबंधों को ‘आदर्श’ अथवा ‘सर्वोत्तम’ स्थिति के रूप में प्रतिपादित किया जाता है । उत्तम स्थिति एक मापदण्ड या मानक होता है जो पर्यावरण के साथ समन्वय एवं समयानुकूल तथा उसमें कतिपय परिवर्तन द्वारा संभव होती है ।

iii. पारिस्थितिकी-दृष्टिकोण:

मानव पर्यावरण के संबंधों की आधुनिक अभिव्यक्ति पारिस्थितिकी-दृष्टिकोण में परिलक्षित होती है, जिसमें मानव को पारिस्थितिक-तंत्र का एक घटक माना जाता है । वास्तव में पारिस्थितिक-तंत्र एक त्रिकोण स्थिति है जिसके एक बिंदु पर पर्यावरण, दूसरे पर मानव (जनसंख्या) और तीसरे पर संगठन (आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक) हैं ।

मानव-पर्यावरण एक दूसरे के पूरक हैं । मानवीय कृत्य पर्यावरण से प्रभावित होते हैं और उन्हीं कृत्यों से पर्यावरण प्रदूषित होता है जो मानव को पुन: हानि पहुँचाता है । वायु, जल, भूमि का अत्यधिक उपयोग विनाश का कारण होता है । यही नहीं अपितु नगरीकरण, औद्योगिकीकरण, हरित क्रांति आदि मानवीय प्रगति के प्रतीक कार्यों ने पर्यावरण को, प्रदूषित कर रखा है ।

वास्तव में मानव-पर्यावरण का संबंध आपसी क्रिया-प्रतिक्रिया और परिवर्तन पर निर्भर करता है । उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि मानव-पर्यावरण एक अंत: निर्भर तथ्य है । इसमें पर्यावरण या मानव किसी एक को शक्तिशाली एवं नियंत्रक मानना भ्रम है ।

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वास्तव में मानव पर्यावरण का उपयोग कर विकास करता है और जब विकास के नाम पर वह विनाश करने लगता है या पर्यावरण का शोषण करने लगता है तो पर्यावरण मानव पर विपरीत प्रभाव डाल कर प्रतिकार लेता है जिससे स्वयं मानव का अस्तित्व भी संकट में आ सकता है । अत: आवश्यकता है इन संबंधों को पूरक बनाने की न कि प्रतिरोधी ।


6. पारिस्थितिक-तंत्र व भौमिक मण्डल (Eco-System and Terrestrial Spheres):

1935 में ए.जी. टान्सली ने पारिस्थितिक-तंत्र शब्द का प्रयोग किया तथा स्पष्ट किया कि पारिस्थितिक-तंत्र भौतिक तंत्रों का एक विशेष प्रकार होता है जिसकी रचना जैविक एवं अजैविक संघटकों से होती है । इसके दो भाग क्रमश: जीवोम या बायोम एवं निवास क्षेत्र अर्थात् भौतिक पर्यावरण होते हैं ।

पृथ्वी तल के विभिन्न भागों पर भौगोलिक विभिन्नता के कारण विविध पारिस्थितिक-तंत्रों का विस्तार हुआ जो भौतिक मण्डल से संबंधित है । भौमिक मण्डल की प्राकृतिक एवं जैव विविधता के कारण क्षेत्रीय विभिन्नतायें होती हैं जो वृहत् एवं सूक्ष्म प्रदेशों में प्रगट होती हैं ।

इसी के फलस्वरूप भौतिक पारिस्थितिक-तंत्र का विकास होता है । भौमिक (पार्थिव) पारिस्थितिक-तंत्र का संबंध धरातल से होता है जबकि दूसरी ओर जलीय पारिस्थितिक-तंत्र, जल से संबंध रखता है । भौतिक पर्यावरण की दशाओं तथा उनके जैविक समुदायों पर प्रभाव के अनुसार भौमिक मण्डल में विभिन्नतायें उत्पन्न होती हैं ।

जैसे:

(i) उच्च स्थलीय या पर्वतीय पारिस्थितिक-तंत्र,

(ii) निम्न स्थलीय पारिस्थितिक-तंत्र,

(iii) उष्ण मरुस्थलीय पारिस्थितिक-तंत्र,

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(iv) शीत प्रदेशीय पारिस्थितिक-तंत्र ।

तत्पश्चात् इनके मध्यम एवं सूक्ष्म प्रदेशीय तंत्रों का उद्भव होता है । वास्तव में स्थलीय जीवोम पारिस्थितिक-तंत्र की विविधता की उपज है । विश्व में उष्ण कटिबंधीय, शीतोष्ण कटिबंधीय एवं शीत कटिबंधीय बायोम एवं इनके उप विभाग पर्यावरण जीव संबंधों की उपज हैं ।

विश्व में नहीं अपितु भारत में हिमालय क्षेत्र, गंगा-यमुना, ब्रह्मपुत्र के मैदान, दक्षिण का पठार, समुद्रतटीय मैदान के वृहत् प्रदेशों में अनेक भौमिक मण्डल एवं सूक्ष्म प्रदेश स्पष्ट देखे जा सकते हैं । एक प्रदेश में ही जैसे राजस्थान में अरावली, शुष्क मरुस्थली, नहरी मरुस्थली, हाड़ौती, मैदान प्रदेशी क्षेत्रीय एवं अनेक उप क्षेत्रीय पारिस्थितिक-तंत्र विकसित हुए हैं । इनके विस्तार में न जाकर संक्षेप में यह कह सकते हैं कि मानव-पर्यावरण के स्वरूप का वास्तविक ज्ञान भौमिक मण्डल के पारिस्थितिक-तंत्र से ही लग सकता है ।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि मानव पर्यावरण के संबंधों में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के समावेश से पारिस्थितिक-तंत्र में व्यतिक्रम आया है जो अधिक से अधिकतम अर्थात् विनाशकारी स्वरूप में उभर कर आ रहा है ।

आज विश्व के सभी देश पर्यावरण प्रदूषण की समस्या से चिंतित एवं इसके निराकरण हेतु प्रयत्नशील हैं तथा यह स्वीकार करते हैं कि पर्यावरण संकट से सामूहिक अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से ही निपटा जा सकता है । पर्यावरण विश्व की सांझी विरासत है और इसे बचाये रखना तथा संरक्षण करना संपूर्ण विश्व का उत्तरदायित्व है ।


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