पर्यावरण प्रबंधन: मतलब और आवश्यकता | Paryaavaran Prabandhan: Matalab Aur Aavashyakata! Read this article in Hindi to learn about:- 1. पर्यावरण प्रबंधन का अर्थ (Meaning of Environmental Management) 2. पर्यावरण प्रबंधन की आवश्यकता (Need for Environmental Management) 3. महत्वपूर्ण एवं उपाय (Importance and Solution) 4. मानीटरन मानचित्रीकरण (Monitoring and Mapping).

पर्यावरण प्रबंधन का अर्थ (Meaning of Environmental Management):

पर्यावरण संपूर्ण जीव-जगत् का आधार है जो आदि काल से इसके उद्‌भव एवं विकास में सहायक रहा है तथा भविष्य का विकास भी इसी पर निर्भर है । इसी कारण मानव पर्यावरण का निरंतर उपयोग कर अपने विकास के मार्ग को प्रशस्त करता रहता है कहीं वह पर्यावरण का समायोजन करता है तो कहीं उसका शोषण ।

यह क्रम अनवरत चलता रहा है किंतु इसमें व्यतिक्रम उस समय आता है जब हम पर्यावरण के मूल तत्वों को नष्ट करने लगते हैं अथवा उन्हें प्रदूषित करने लगते हैं । परिणामस्वरूप पर्यावरण के घटक अपनी स्वाभाविक प्राकृतिक क्रिया करने में समर्थ नहीं रहते और पारिस्थितिक संतुलन में बाधा उत्पन्न होती है फलस्वरूप मानव को अनेक आपदाओं का सामना करना पड़ता है ।

न केवल मानव अपितु जीव-जंतु पशु-पक्षी एवं वनस्पति का अस्तित्व भी संकटपूर्ण हो जाता है । पर्यावरण के अत्यधिक शोषण से आज संपूर्ण विश्व संकट में है और यह संकट गहराता जा रहा है । यही कारण है कि आज विश्व में पर्यावरण संकट, पर्यावरण अवकर्षण, जल, वायु, भूमि, शोर, रेडियोधर्मी प्रदूषण, प्राकृतिक आपदाओं का संकट जीव-जगत् के नष्ट होने का संकट ओजोन परत में छिद्र तापमान में वृद्धि आदि तथ्यों पर निरंतर विचार-विमर्श हो रहा है ।

वैज्ञानिक, राजनीतिज्ञ, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री आदि सभी पर्यावरण संकट के प्रति चेतावनी दे रहे हैं । इसमें अनेक निराशावादी दृष्टिकोण रखते हैं । उनके अनुसार यह संकट और अधिक होता जायेगा यहाँ तक कि मानव सभ्यता को भी समाप्त कर देगा ।

इस खतरे से इनकार नहीं किया जा सकता किंतु इससे भयभीत होने की अपेक्षा इसको समाप्त या कम करने की आवश्यकता है और इसी तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए वर्तमान में जिस विचारधारा को न केवल बल मिला है अपितु इस दिशा में सर्वत्र पर्याप्त कार्य भी हो रहा है वह है- पर्यावरण प्रबंधन अर्थात् पर्यावरण का उचित उपयोग, उचित प्रबंध जिससे वह अधिक से अधिक मानवोपयोगी हो तथा कम से कम प्रदूषित हो और पारिस्थितिक-चक्र सदैव चलता रहे । पर्यावरण प्रबंधन की सामान्य परिभाषा है |

पर्यावरण प्रबंधन के अंतर्गत नियोजन, विश्लेषण, मूल्यांकन एवं उचित निर्णय द्वारा सीमित संसाधनों का उपयोग तथा प्राथमिकताओं में परिवर्तन आवश्यक है जिससे वास्तविक जीवन में वे उपयोगी हो सकें । वर्तमान परिस्थितियों में पर्यावरण प्रबंधन ही एकमात्र मार्ग है जिसके द्वारा पर्यावरण संकट को नियंत्रित किया जा सकता है । पर्यावरण प्रबंधन एक विशद् विषय है । यहाँ इसके कतिपय तथ्यों का संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है जो इस दिशा में मार्ग- दर्शक का कार्य करेगा ।

पर्यावरण प्रबंधन की आवश्यकता (Need for Environmental Management):

पर्यावरण प्रबंधन एक जटिल प्रक्रिया है जो व्यक्ति से व्यक्ति, समुदाय से समुदाय तथा प्रदेश से प्रदेश में भिन्नता रखती है, क्योंकि पर्यावरण का स्वरूप भिन्नता से युक्त है तथा इसके विभिन्न घटकों का अनुपात स्थान-स्थान पर भिन्नता लिये होता है । मानव ने पर्यावरण के निरंतर उपयोग से जहाँ प्रगति की है वहीं अपने पर्यावरणीय ज्ञान में भी समुचित वृद्धि की है और आज वह प्राकृतिक एवं जैविक अंतर्सबंधों को सूक्ष्मता से समझने में समर्थ हुआ है ।

इसके साथ ही उसने पर्यावरण का अधिकतम उपयोग करना प्रारंभ किया है, परिणामस्वरूप उसका प्रभाव न केवल संपूर्ण जीव-जगत् पर अपितु पर्यावरण के घटकों पर भी हो रहा है और उनकी स्वाभाविक प्रक्रिया में व्यवधान आने से एक ओर प्राकृतिक आपदाओं का बोलबाला हो रहा है तो दूसरी ओर मानव अनेक मानसिक एवं शारीरिक व्याधियों से ग्रसित होता जा रहा है, जीवों एवं पादपों की अनेक प्रजातियाँ विलुप्त होती जा रही हैं, संसाधनों के समाप्त होने का संकट दिनों-दिन गहराता जा रहा है ।

ADVERTISEMENTS:

अतः पर्यावरण प्रबंधन की आवश्यकता आज की प्राथमिक आवश्यकता है जिसके द्वारा न केवल संसाधनों का युक्ति संगत उपयोग हो सके अपितु क्षेत्रीय आवश्यकताओं को पूर्ण करने तथा पर्यावरण की क्रियाओं में सामंजस्य स्थापित किया जा सके और आवश्यकता होने पर उपभोग सीमित किया जा सके ।

पर्यावरण प्रबंधन का मूल उद्देश्य प्राकृतिक संसाधनों का युक्ति संगत उपयोग, शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा, आर्थिक मूल्यों को नई दिशा प्रदान करना तथा शुद्ध पर्यावरण प्रदान करना है । यह कार्य एकाकी अथवा एक संस्था का न होकर सामूहिक रूप से ही संभव है ।

इसमें प्रशासन, सामाजिक संस्थायें और प्रत्येक व्यक्ति की भूमिका महत्त्वपूर्ण है । यदि हम पर्यावरण की शुद्धि चाहते हैं तथा भविष्य में उसे स्वच्छ एवं स्वास्थ्यवर्धक रखना चाहते हैं तो हमें इसके प्रबंधन पर समुचित ध्यान देना होगा ।

पर्यावरण प्रबंधन से संबंधित प्रमुख बिंदु निम्नलिखित हैं:

(i) पर्यावरण के विभिन्न घटकों को प्रदूषित होने से बचाना,

(ii) मानव की पर्यावरण प्रदूषण से रक्षा,

(iii) विलुप्त होती हुई प्रजातियों का संरक्षण,

(iv) विभिन्न सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं में पर्यावरण प्रबंधन हेतु समन्वय करना

(v) विकास योजनाओं का पर्यावरणीय प्रभाव के दृष्टिकोण से विश्लेषण करना,

ADVERTISEMENTS:

(vi) पर्यावरण संबंधी राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय नीति निर्धारण में सहयोग प्रदान करना,

(vii) पर्यावरण की गुणवता बनाये रखने हेतु निरंतर पुनरीक्षण हेतु व्यवस्था करना,

(viii) पर्यावरण संरक्षण एवं प्रबंधन हेतु पर्याप्त मानवीय एवं संस्थागत साधनों .को जुटाना,

(ix) पर्यावरण चेतना जाग्रत करना तथा पर्यावरण शिक्षा की व्यवस्था करना,

ADVERTISEMENTS:

(x) प्रबंधन हेतु किये गये उपायों के परिणाम की सतत जाँच एवं सुधार करना,

(xi) पर्यावरण नियोजन हेतु प्रारूप तैयार करना ।

(xii) पर्यावरण के विविध पक्षों पर शोध कार्य कर उसे अवकर्षित होने से बचाना आदि ।

वास्तव में पर्यावरण प्रबंधन वर्तमान युग की राष्ट्रीय आवश्यकता है, न केवल हमारे देश की अपितु संपूर्ण विश्व की । अतः इस पर समुचित ध्यान देना आवश्यक है । भू-पारिस्थितिकीय व्यवस्थाओं के आधार पर पर्यावरण के विभिन्न घटकों का समाकलित प्रबंधन किया जाना चाहिए ।

पर्यावरण प्रबंधन के महत्वपूर्ण एवं उपाय (Importance and Solution of Environmental Management):

ADVERTISEMENTS:

पर्यावरण प्रबंधन के अंतर्गत यद्यपि संपूर्ण पर्यावरण को दृष्टिगत रखा जाता है किंतु कुछ पक्षों पर विशेष ध्यान दिया जाता है । ये वे पक्ष हैं जो पारिस्थितिक- तंत्र को नियंत्रित करते हैं तथा जिनका मानव पर प्रत्यक्ष रूप से प्रभाव पड़ता है और जो सामाजिक तथा आर्थिक विकास को प्रभावित करते हैं ।

सामान्यतया पर्यावरण प्रबंधन के प्रमुख पक्ष निम्नांकित हैं:

i. पर्यावरण बोध एवं चेतना:

(अ) पर्यावरण बोध एवं चेतना के स्रोत

ADVERTISEMENTS:

(ब) पर्यावरण बोध का स्तर

(स) पर्यावरण नियोजन में पर्यावरण बोध की भूमिका पर्यावरण शिक्षा एवं प्रशिक्षण

ii. पर्यावरण शिक्षा एवं प्रशिक्षण:

(अ) घर, स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय स्तर पर पर्यावरण शिक्षा

(ब) जन संचार माध्यमों से पर्यावरण शिक्षा

(स) पर्यावरण शोध एवं प्रशिक्षण

iii. संसाधन प्रबंधन:

(अ) प्राकृतिक संसाधनों का वर्गीकरण

(ब) पारिस्थितिकीय संसाधनों का सर्वेक्षण एवं मूल्यांकन

(स) ऊर्जा, खनिज, मृदा, वन, जल संसाधनों का संरक्षण

(द) मानवीय संसाधनों का उचित उपयोग

iv. पर्यावरणीय प्रभाव का मूल्यांकन:

(अ) वर्तमान पर्यावरणीय दशाओं का मूल्यांकन

(ब) औद्योगिक एवं तकनीकी विकास का पर्यावरण पर प्रभाव का मूल्यांकन

(स) पर्यावरण संतुलन हेतु किये गये उपायों का मूल्यांकन

(द) पारिस्थितिकीय तकनीक का विकास

v. पर्यावरण अवकर्षण एवं प्रदूषण का नियंत्रण:

(अ) अवकर्षित पर्यावरण को पुन: शुद्ध करना

(ब) प्रदूषण नियंत्रण

(स) निरंतर संचेतना एवं निगाह रखना

(द) प्राकृतिक प्रकोपों की पूर्व सूचना का प्रबंध अथवा उनसे होने वाली हानि को कम करना ।

संक्षेप में पर्यावरण प्रबंधन के प्रमुख आयाम हैं:

(i) पर्यावरण बोध एवं चेतना

(ii) पर्यावरणीय शोध

(iii) तकनीकी परियोजना एवं उत्पादन प्रबंध

(iv) वैज्ञानिक कुशलताजन्य प्रबंध,

(v) राजनीतिक व्यवस्था

(vi) पर्याप्त संस्थागत एवं अन्य साधनों को उपलब्ध कराना ।

पर्यावरण प्रबंधन के दो उपागम हैं:

(i) परिरक्षात्मक उपागम तथा

(ii) संरक्षात्मक उपागम

प्रथम अर्थात् परिरक्षात्मक उपागम मानव को पर्यावरण के साथ सामंजस्य की शिक्षा देता है कि उसे प्रकृति की क्रियाओं में व्यतिक्रम न कर उसके साथ समायोजन करना चाहिये । किंतु यह पूर्णतया संभव नहीं क्योंकि प्रकृति के उपयोग द्वारा विकास होता है और विकास का प्रभाव प्रकृति पर होता है ।

दूसरे उपागम के अनुसार प्रकृति का अंधाधुंध शोषण न करके उसका संरक्षण आवश्यक है । दूसरे शब्दों में, विनाश रहित विकास आवश्यक है । संसाधनों के उचित उपयोग एवं संरक्षण से ही पर्यावरण को बचाया जा सकता है । पर्यावरण प्रबंधन हेतु उसके विस्तारीय स्वरूप या क्षेत्रीय स्वरूप पर ध्यान देना आवश्यक है अर्थात् उस इकाई का निर्धारण किया जाना चाहिये जहाँ यह कार्य संपादित करना है ।

जैसे:

(i) स्थानीय प्रबंधन

(ii) क्षेत्रीय प्रबंधन

(iii) राष्ट्रीय प्रबंधन

(iv) विश्वव्यापी अथवा अंतर्राष्ट्रीय प्रबंधन

उचित प्रबंध द्वारा विकास को नवीन दिशा प्रदान की जा सकती है । यह विकास संतुलित संभूत एवं समन्वित होना आवश्यक है । पर्यावरण प्रबंधन वर्तमान युग की एक आवश्यकता है, इसके प्रमुख घटकों के प्रबंध का संक्षिप्त विवेचन इस दिशा में मार्ग-दर्शक होगा ।

पर्यावरणीय मानीटरन मानचित्रीकरण (Monitoring and Mapping of Environment):

मानीटरन से तात्पर्य है सतत् निरीक्षण परीक्षण अथवा समीक्षा जिसके माध्यम से पर्यावरण प्रदूषण के स्तर की जाँच की जाये और उसे बनाने का प्रयत्न किया जाये । मानीटरन मुख्यतया प्रदूषण नियंत्रण एवं उसके स्तर से संबंधित तथ्यों का किया जाता है जिसमें वायु प्रदूषण जल प्रदूषण, शोर प्रदूषण, रेडियोधर्मी प्रदूषण आदि पर सतत निगाह रखी जा सके । पर्यावरण विशेषज्ञों ने मानव एवं अन्य जीवों की सहन शक्ति के मानक निर्धारित किये हैं उससे अधिक प्रदूषण जीव जगत् के लिये हानिकारक होता है ।

यही नहीं अपितु मानीटरन से यह भी ज्ञात होता है कि किस गति से प्रदूषण की वृद्धि हो रही है । इसी से उन क्षेत्रों का भी पता लगाया जा सकता है जहाँ प्रदूषण की मात्रा अधिक है । अतः पर्यावरण प्रदूषण का एक पक्ष मानीटरन है जिसके लिये विशेषज्ञों की आवश्यकता होती है जो इसका मापन एवं विश्लेषण कर सकें ।

मानीटरन व्यवस्था की पाँच श्रेणियाँ हैं:

(i) यांत्रिक पद्धति:

इसके अंतर्गत विभिन्न यंत्रों से भौतिक विशेषताओं का मापन किया जाता है ।

कुछ यंत्र हैं:

(a) ध्वनि स्तर मीटर

(b) गाइजर काउन्टर

(c) थर्मामीटर

(d) ऑक्सीजन मीटर

(e) हाइड्रोमीटर

(f) क्लोरीमीटर

(ii) रासायनिक विश्लेषण हेतु यांत्रिक विधियाँ:

इसके अंतर्गत प्रयोगशालाओं में विभिन्न यंत्रों से रासायनिक विश्लेषण किया जाता है ।

पर्यावरण विश्लेषण हेतु प्रयुक्त कुछ विधियाँ हैं:

(a) Atomic Absorption Spectroscopy

(b) Infra-Red Spectro Photometry

(c) Gas-Chromatography

(iii) रासायनिक विश्लेषण हेतु आर्द विधि:

इसके अंतर्गत प्रयुक्त विधियाँ हैं:

1. Volumetric Analysis.

2. Gravimetric Analysis.

3. Colorimetric Analysis.

(iv) मानीटरन की जैविक पद्धति:

इसके अंतर्गत पर्यावरण की गुणवता को प्रभावित करने वाले जीवाणुओं का विश्लेषण कर उनकी हानिकारकता ज्ञात की जाती है ।

(v) हाईब्रिड पद्धति:

इसके अन्तर्गत उपर्यक्त वर्णित दो या अधिक विधियों से जटिल प्रक्रिया द्वारा प्रदूषण के स्तर को ज्ञात किया जाता है ।

मानीटरन एक सतत् प्रक्रिया है क्योंकि मानवीय क्रियाओं से पर्यावरण में प्रदूषण की मात्रा में परिवर्तन होता रहता है । इस कार्य हेतु, स्तर का निर्धारण एवं सहन शक्ति स्तर के अनुरूप विश्लेषण कर उसकी उत्तमता में सुधार के प्रयत्न किये जाते हैं ।

पर्यावरण प्रबन्धन का एक भौगोलिक पक्ष है पर्यावरण सम्बन्धी मानचित्रों का निर्माण अर्थात् पर्यावरण मानचित्रीकरण । इसके द्वारा विशेष रूप से उन क्षेत्रों को मानचित्रों पर प्रदर्शित किया जा सकता है जो पर्यावरण अवकर्षण एवं प्रदूषण से ग्रसित हैं ।

इन क्षेत्रों में उच्च, मध्यम एवं निम्न प्रभावशाली क्षेत्रों को प्रदर्शित किया जा सकता है । पर्यावरण मानचित्रों में उपग्रह चित्रों, इमेजरी का पर्याप्त योगदान है । विदेशी देशों में कार्टोग्राफी का उपयोग कर पर्यावरण मानचित्रों को अत्यधिक उपयोगी स्वरूप प्रदान किया गया है ।

इसकी उपयोगिता दृष्टिगत रखते हुए अन्तर्राष्ट्रीय भूगोल संगठन का एक कमीशन ‘पर्यावरण मानचित्रों एवं एटलस’ पर बनाया गया था । राष्ट्रीय एटलस और थेमेटिक मानचित्र संगठन भी इस दिशा में सक्रिय है ।

पर्यावरण मानचित्रों के कतिपय पक्ष हैं:

(i) नगरीय पर्यावरण मानचित्र,

ADVERTISEMENTS:

(ii) प्रदेशवार पर्यावरण मानचित्र,

(iii) प्रदूषण प्रभावित क्षेत्रों के मानचित्र,

(iv) पर्यावरण अवबोध मानचित्र,

(v) पर्यावरणीय आपदाओं के मानचित्र जैसे बाढ़ सूखा समुद्री तूफान आदि से प्रभावित क्षेत्र

(vi) बंजर भूमि मानचित्र,

(vii) भूमि उपयोग मानचित्र,

(viii) वन प्रदेशों के मानचित्र,

(ix) भू-आकृतिक मानचित्र,

(x) जल प्रदूषण भूमि प्रदूषण वायु प्रदूषण आदि के विस्तृत मानचित्र,

ADVERTISEMENTS:

(xi) पर्यावरण नियोजन हेतु मानचित्र आदि । 

वर्तमान में पर्यावरण प्रबन्धन में मानचित्रों, ग्राफ, डायग्राम आदि का प्रचलन पर्याप्त होने लगा है । इस कार्य में “भौगोलिक सूचना तन्त्र” की भूमिका अति महत्वपूर्ण है जो ‘इन्टरनेट’ के माध्यम से उपलब्ध की जा सकती है ।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि पर्यावरण की समस्याओं का निराकरण उसकी उचित प्रबन्ध व्यवस्था में है । पर्यावरण समस्याओं विशेषकर प्रदूषण से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं अपितु उसके प्रति सचेष्ट एवं जागरुक होने की आवश्यकता है ।

तकनीकी विकास ने पर्यावरण की अनेक समस्यायें दी हैं और तकनीकी एवं प्रावैधिक विकास द्वारा ही उसका निराकरण संभव है । इसके साथ ही हमें क्षेत्रीय संस्कृति एवं सभ्यता का भी सूक्ष्मता से अध्ययन करना होगा और यह देखना होगा कि किस प्रकार हजारों वर्षों से मानव प्रकृति से सामंजस्य कर प्रगति करता रहा है ।

प्राचीन पद्धतियों को नकारना सार्थक नहीं अपितु उन्हें आधुनिक परिवेश में परिवर्तित कर पर्यावरण की अनेक समस्याओं को दूर किया जा सकता है । पर्यावरण प्रबंध मात्र सरकारी संस्थाओं का ही कार्य नहीं अपितु स्वयंसेवी संस्थायें तथा समाज के प्रत्येक व्यक्ति को इस कार्य में भागीदार बनना होगा तभी पर्यावरण को प्रदूषित होने से रोका जा सकता है और पारिस्थितिकी-तंत्र को संतुलित रख विश्व के भविष्य को सुरक्षित बनाया जा सकता है ।

Home››Environment››