हनुमान जी की विविध लीलाएं | Different Activities of Shree Hanuman in Hindi!
श्री हनुमान जी अनुपम ब्रह्मचारी, सनातन, चिरंजीवी और श्रीराम की कल्याणकारी कथा श्रवण के सर्वश्रेष्ठ रसिक और गायक हैं । जहां कहीं भी श्रीराम की कथा होती है, वहां वे छद्मरूप में विद्यमान रहते हैं । श्रीराम ने ही परमधाम जाते समय उन्हें चिरंजीवी होने का वरदान दिया था । एक सेवक के रूप में स्वयं भगवान शंकर ने हनुमान जी के रूप में अवतार लिया था ।
स्वामीभक्ति, त्याग, ज्ञान गरिमा, अहंकार विहीनता और वाणी में अद्भुत चातुर्य लिए हुए वे इस धरती पर निवास करते हैं । श्री सीता राम के सान्निध्य में श्री हनुमान जी सदा उनकी सेवा का सुख प्राप्त करते हैं । श्री हनुमान जी महामनस्जी हैं । वे मन, वचन, कर्म से पूर्ण पवित्र और शक्तिशाली हैं । पराक्रम, उत्साह, बुद्धि, प्रताप, विनम्रता, कोमलता, साहस, बल और धैर्य उनके अनुपम गुण हैं ।
भीमसेन और हनुमान जी:
द्वापर युग में हनुमान जी ने पाण्डव पुत्र भीमसेन को अपने रौद्ररूप के दर्शन कराए थे । जिन दिनों पाण्डव वनवास में थे, तब एक बार उत्तराखण्ड के पवित्र नगर श्री नर नारायण में वे पहुंचे । वहां एक सुगंधित सहस्रदल कमल कहीं से उड़कर द्रौपदी के पास चला आया ।
उस पुष्प को देखकर द्रौपदी के मन में उस जैसे दूसरे पुष्प को पाने की इच्छा हुई । उन्होंने भीमसेन से वैसा पुष्प लाने के लिए कहा । द्रौपदी के कहने पर भीमसेन उस पुष्प की खोज करते-करते गंधमादन नामक पर्वत के शिखर पर स्थित एक विशाल कदली फल के वन में पहुंच गए ।
उस कदली वन में उन दिनों हनुमान जी रहते थे । उन्होंने मदमस्त हाथी की तरह अहंकार से भरे भीमसेन को आते देखा तो वे एक साधारण वानर के रूप में उनके मार्ग में लेट गए । उन्हें मार्ग में पड़ा देखकर भीमसेन ने गर्व से कहा, ”ऐ वानर ! मेरे मार्ग से हट जा । मुझे आगे जाना है ।”
इस पर हनुमान जी ने कहा, ”भाई ! मैं बीमार पशु हूं । तुम्हें जाना है तो मुझे लांघकर चले जाओ या फिर मेरी पूंछ पकड़कर मुझे एक ओर हटा दो । मुझसे तो उठा भी नहीं जा रहा है ।” भीमसेन ने कहा, “किसी जीव को लांघकर जाने से पाप लगता है । मैं तुम्हें एक ओर हटाए देता हूं।”
हनुमान जी बोले, ”हटा दो भाई ! पर ध्यान रखना कि यह मार्ग मनुष्यों के जाने का नहीं है । इस मार्ग पर जाने से तुम्हारे प्राण संकट में पड़ सकते हैं ।” भीमसेन इस बार कुछ चिढ़कर गुस्से में भरकर बोले, ”रे वानर ! मैं तुझसे सलाह नहीं मांग रहा हूं ।
तू मुझे नहीं जानता । मैं कुरुवंशी महाराज पाण्डु का पुत्र हूं । मेरा नाम भीमसेन है । मैं चाहें ! तो इस पूरे पर्वत को लांघकर जा सकता हूँ जैसे मेरे भाई अतुलित बलशाली हनुमान जी त्रेता युग में देवी सीता की खोज में जाते हुए सौ योजन समुद्र को लांघ गए थे ।”
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हनुमान जी ने हैरान होते हुए पूछा, ”अरे भाई ! तो तुम वायुदेव के वरदान से उत्पन्न कुंती के पुत्र हो । पर यह हनुमान कौन था, जो सौ योजन समुद्र लाघ गया था ?” भीमसेन ने उत्साहपूर्वक बताया, ”वे पवनपुत्र मेरे अग्रज थे । मैं उन्हीं का भाई हूँ । इसलिए तू मेरे मार्ग से हट जा, अन्यथा तुझे मृत्यु के मुख में जाना होगा ।”
हनुमान जी ने कहा, ”भाई ! मुझ वृद्ध रोगी पर क्रोध क्यों करते हो । अशक्तता के कारण मैं उठने में विवश हूं । तुम्हीं मुझे हटा दो ।” भीमसेन ने अपनी गदा कंधे पर रखी और एक हाथ से हनुमान जी की पूंछ पकड़कर उसे हटाना चाहा । परंतु पूरा जोर लगाने के बाद भी वह हनुमान जी की पूंछ को हिला तक नहीं सका ।
भीमसेन का सिर लज्जा के कारण नीचे झुक गया । वह समझ गया कि सामने कोई साधारण वानर नहीं है । भीमसेन ने हाथ जोड़कर कहा, ”हे वानरराज ! आप कोई साधारण वानर नहीं हैं । आप डस वेश में कोई सिद्ध महात्मा हैं । मेरे अपशब्दों के लिए आप मुझे क्षमा कीजिए । मैं आपकी शरण में हूं । कृपा करके अपना परिचय दीजिए ।”
भीमसेन की विनम्रता से हनुमान जी के होंठों पर मुस्कान आ गई । वे बोले, “पाण्डुनंदन भीम ! मैं वायु पुत्र हनुमान हूं ।” ऐसा सुनते ही भीमसेन उनके चरणों में गिर पड़े और बोले, ”हे कपिश्रेष्ठ हे मेरे बड़े भाई! आज मेरा बड़ा सौभाग्य है कि मुझे आपके दर्शन हुए ।
कृपा करके मुझे अब आप अपने उस रूप के दर्शन कराएं जिसके द्वारा आपने समुद्रोल्लंघन किया था । उस रूप को देखने की मेरी बड़ी इच्छा है ।” हनुमान जी ने कहा, ”भीम ! तुम मेरे उस रूप को देखने का आग्रह मत करो । कोई मनुष्य मेरे उस रूप को देखकर उसकी तेजस्विता को सहन नहीं कर पाएगा ।”
परंतु भीमसेन ने अपना आग्रह नहीं छोड़ा और कहा कि वे उनका वह रूप देखे बिना यहां से नहीं जाएंगे । इस पर हनुमान जी ने अपना विशाल स्वरूप भीमसेन को दिखाया । उस विशाल स्वरूप को देखकर भीमसेन आश्चर्य से भर उठे और आखें बंद करके उनकी स्तुति करने लगे ।
तब हनुमान जी ने अपना सामान्य रूप धारण करके भीमसेन को हृदय से लगा लिया । भीमसेन को ऐसा लगा कि उनके शरीर में अद्भुत शक्ति का संचार हो रहा है । हनुमान जी ने कहा, ”प्रिय भीम ! तुम मेरे भाई हो । बोलो, मैं तुम्हारा क्या प्रिय करूं ?”
भीम ने कहा, ”भ्राताश्री मैं जब युद्धभूमि में गर्जना करूं तो मुझे आपकी हुंकार प्राप्त हो, यह मैं चाहता हूं ।” ”तथास्तु!” हनुमान जी ने कहा और दूसरे ही पल वे वहां से अंतर्धान हो गए । भीमसेन ने आगे बढ़कर दिव्य सरोवर से वह सुगंधित कमल प्राप्त किया और हनुमान जी का स्मरण करते हुए वापस लौट पड़े ।
अर्जुन का गर्व हरण:
एक बार अर्जुन अकेले ही अपना रथ हांकते हुए रामेश्वर पहुंचे और वहां धनुष्कोटि तीर्थ में स्नान करके बाहर निकले तो उन्होंने वहां एक वानर को देखा । उसका शरीर पीले रंग के रोएं से सुशोभित था । वह राम नाम का जाप कर रहा था । अर्जुन ने उससे पूछा, ”अरे वानर ! तू कौन है और इस प्रकार राम नाम का जाप क्यों कर रहा है ?”
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वह वानर कोई और नहीं, हनुमान जी ही थे । उन्होंने मुस्कराकर कहा, ”श्रीराम मेरे आराध्य हैं । इस समुद्र पर सौ योजन सेतु उन्होंने जिन वानरों से शिलाओं द्वारा बनवाया था, उन्हीं में से एक मैं हनुमान हूं ।” अर्जुन ने गर्व से हनुमान जी को देखकर कहा, ”पता नहीं कैसे तुमने समुद्र पर सेतु बांधा था ।
इसे तो कोई भी महान धनुर्धर अपने बाणों से बांध लेता । उन्होंने व्यर्थ ही वानरों से इतना परिश्रम कराया ।” हनुमान जी ने कहा, ”अर्जुन ! बाणों से बना सेतु हम वानरों का भार सहन नहीं कर सकता था । इसीलिए प्रभु ने बाणों का सेतु बनाने का विचार त्याग दिया था ।”
अर्जुन ने कहा, ”यदि वानरों के आवागमन से सेतु टूट जाए तब उस धनुर्विद्या का क्या ? तुम मेरी धनुर्विद्या देखो । मैं अपने बाणों से सौ योजन लंबा सेतु निर्मित किए देता हूं । उस पर तुम और तुम्हारे साथी वानर खूब उछलकूद मचा सकते हैं । यह सेतु नहीं टूटेगा ।”
हनुमान जी हंस पड़े और बोले, ”यदि मेरे अंगूठे के भार से तुम्हारा बनाया हुआ सेतु टूट जाए तो तुम क्या करोगे ?” ”यदि ऐसा हो जाए तो मैं जीवित ही चिता में कूदकर अपनी जान दे दूंगा ।” अर्जुन ने गर्वोक्ति से कहा, “और यदी ऐसा नहीं हुआ तो तुम क्या करोगे ?”
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हनुमान जी ने कहा, “यदि तुम्हारे बाणों से निर्मित सेतु मेरे अंगूठे के भार से नहीं टूटा, तो मैं जीवनभर तुम्हारे रथ की ध्वजा के ऊपर बैठकर तुम्हारी युद्धभूमि में सहायाता करूंगा ।” हनुमान जी की बात सुनकर अर्जुन ने अपने गाण्डीव धनुष की सहायता से बाणों का सेतु तैयार कर दिया और हनुमान जी से कहा, ”हे कपिश्रेष्ठ अब तुम इस पर उछलकूद करके देख लो ।”
हनुमान जी ने आगे बढ़कर जैसे ही अपने पैर के अंगूठे का दबाव सेतु पर दिया, वह सेतु तड़तड़ाकर टूट गया और समुद्र में डूब गया । धनुर्धर अर्जुन यह देखकर लज्जित हो उठा । उसने तत्काल वहां चिता तैयार की और उसमें हनुमान जी के मना करने पर भी कूदने को तैयार हो गया ।
उसी समय एक ब्राह्मण वहां आया और उसने अर्जुन से चिता में कूदने का कारण पूछा । अर्जुन ने पूरी बात उसे बता दी । इस पर ब्राह्मण बोला, ”साक्षी के बिना किसी भी प्रतिज्ञा का कोई मूल्य नहीं है । तुम फिर से बाणों द्वारा सेतु का निर्माण करके दिखाओ ।
यदि ये कपिश्रेष्ठ अपने अंगूठे के भार से उसे डुबो देंगे तो मैं तभी अपना निर्णय दूंगा ।” दोनों ने उस ब्राह्मण की बात स्वीकार कर ली । अर्जुन ने अपने बाणों से सौ योजन सेतु का फिर से निर्माण कर दिया । हनुमान जी ने उसे अपने पैर के अंगूठे से दबाया, किंतु सेतु नहीं टूटा ।
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हनुमान जी सेतु के ऊपर चढ़ गए और खूब उछले-कूदे । परंतु सेतु टस से मस नहीं हुआ । वे चकित होकर ब्राह्मण की ओर देखने लगे । हनुमान जी बोले, ”अर्जुन ! इन विप्रवर की सहायता से तुम विजयी हो गए और मैं पराजित हो गया । निश्चय ही भगवान प्रभु श्रीराम आज द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण भगवान के रूप में, विप्रवर का वेश धारण करके यहां पधारे हैं ।”
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उसी समय ब्राह्मण वेशधारी प्रभु श्रीकृष्ण ने अपना पीतांबर रूप उन्हें दर्शाया । अर्जुन और हनुमान ने उन्हें नमन किया । श्रीकृष्ण ने हनुमान जी को अपने हृदय से लगा लिया । उसके तत्काल बाद श्रीकृष्ण का सुदर्शन चक्र सेतु के नीचे से निकलकर पुन: भगवान की उंगली में आ गया ।
सेतु टूटकर पुन: समुद्र में समा गया । अर्जुन का गर्व नष्ट हो गया । अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार हनुमान जी सूक्ष्म रूप में अर्जुन की ध्वजा पर जा बैठे । हनुमान जी के कारण ही ‘महाभारत’ के युद्ध में अर्जुन का रथ अजेय रहा ।
शनि का गर्व हरण:
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एक बार की बात है कि हनुमान जी सांध्यकाल में राम सेतु के निकट बैठकर भगवान श्रीराम के ध्यान में तल्लीन थे । उस समय सूर्यपुत्र शनि वहां समुद्र तट पर टहल रहे थे । हनुमान जी को बाह्य संसार का कुछ पता नहीं था । शनि घूमते-घामते हनुमान जी के पास पहुंवे ।
शनि को अपनी शक्ति का बड़ा घमण्ड था । उसने पूरी धृष्टता के साथ हनुमान जी से कहा, ”अरे वानर ! मैं सूर्य पुत्र शनि हूं । तू मुझे देखने के डर से आखें बंद किए बैठा है । तू यह पाखण्ड त्याग दे और मेरी ओर देख । मेरी शरण में आ या फिर मुझसे युद्ध कर ।”
हनुमान जी ने धीरे से अपने नेत्र खोले और शांति से पूछा, ”हे शनिदेव । आप मुझसे क्यों युद्ध करना चाहते हैं ? आपका उद्देश्य क्या है ?” शनि ने अहंकारपूर्वक उत्तर दिया, ”अरे वानर ! मैंने तेरे बल पौरुष की अनेक कथाएं सुनी हैं । मैं तेरी शक्ति का परीक्षण करना चाहता हूं ।
मैंने सुना है कि तूने बालपन में मेरे पिता सूर्य को अपने मुख में रख लिया था । मैं देखना चाहता हूं कि तू मेरा सामना कैसे कर पाता है । मेरा वार संभाल । सावधान ।” हनुमान जी ने विनम्रतापूर्वक पुन: कहा, ”हे शनिदेव । मैं तो अब बूढ़ा हो गया हूं । मैं यहां बैठकर अपने प्रभु का ध्यान कर रहा हूं । तुम क्यों व्यर्थ में व्यवधान डाल रहे हो ? कृपया यहां से जाइए ।”
अहंकार से ग्रसित शनि ने हुंकार भरते हुए कहा, ”डर गया तू ? मैं एक बार जहां पहुँच जाता हूं वहां से आसानी से नहीं जाता । कायरता तुझे शोभा नहीं देती । तुझे मुझसे युद्ध करना ही होगा ।” ऐसा कहकर शनि जैसे ही हनुमान जी की ओर बढ़ा, हनुमान जी ने अपनी पूँछ में शनि को लपेट लिया और उसे कसते हुए कहा, ”आप ऐसे नहीं मानेंगे ।
मुझे आपके घमण्ड को तोड़ना ही होगा ।” हनुमान जी की पूछ की गिरफ्त में जकड़े जाने पर शनि का दम घुटने लगा । उसकी सारी शक्ति और अहंकार नष्ट हो गया । वह पीड़ा से छटपटाने लगा । तभी हनुमान जी उठे और बोले, ”मेरा सेतु की परिक्रमा का समय हो गया है ।”
हनुमान जी दौड़-दौड़कर सेतु की परिक्रमा करने लगे । वे बार-बार पूँछ को हवा में लहराते और शिलाओं पर पटक देते । उससे शनिदेव का सारा शरीर रक्त-रंजित हो गया और वह कराहने लगा । वह बार-बार हनुमान जी से प्रार्थना करने लगा, ”हे करुणानिधान हनुमान जी ! मुझे क्षमा कीजिए ।
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मेरे प्राणों को छोड़ दीजिए । मैं आपकी शरण में हूं ।” शनिदेव की प्रार्थना सुनकर हनुमान जी ने दया करके उसे मुक्त कर दिया । हनुमान जी ने उससे कहा, ”शनिदेव ! यदि तुमने मेरे किसी भक्त की राशि पर जाने का प्रयास किया तो मैं तुम्हें छोडूंगा नहीं । तुम्हें कठोर दण्ड दूंगा ।”
शनिदेव ने अपने जख्मों को सहलाते हुए कहा, ”हे पवनपुत्र ! मैं आपको वचन देता हूं कि कभी आपके भक्त को तंग नहीं करूँगा ।” उसके बाद हनुमान जी ने तेल लगाकर शनिदेव के जख्मों की पीड़ा को कम किया । तभी से शनिदेव लोगों से तेल मांगने लगे ।
हनुमान जी का समस्त जीवन त्याग और सेवा भाव से भरा हुआ है । अपने आराध्य प्रभु श्रीराम के प्रति उनकी विशुद्ध प्रीति और भक्ति है । प्रभु श्रीराम की लीला-कथा का श्रवण एवं उनके मंगलमय नाम कीर्तन के अतिरिक्त इन्हें किसी अन्य वस्तु की इच्छा नहीं है ।
यश का त्याग करना बड़ा कठिन है । बड़े-बड़े महात्मा और संत-ज्ञानी भी यश का त्याग नहीं कर पाते । परतु हनुमान जी के लिए यश का कोई मूल्य नहीं था । एक बार उन्होंने शिलाओं पर अपने हाथों से उत्कीर्ण की राम कथा को इसलिए समुद्र में फेंक दिया था, कि उन्हें पता चल गया था कि महर्षि वाल्मीकि ने भी सरस भाषा में रामकथा को लिखा था ।
वे नहीं चाहते थे कि उनकी लिखी कथा के सामने महर्षि की कथा की प्रसिद्धि कम हो जाए । इसी कारण हनुमान जी सभी सद्गृहस्थों के मन में सदैव स्थित रहते हैं ।