सुग्रीव पर लक्ष्मण का क्रोध | Laxman’s Anger on Sugrib in Hindi!

एक दिन श्रीरामचंद्र जी ने अपने भाई लक्ष्मण से कहा, ”लक्ष्मण! वर्षा ऋतु बीत गई । सभी जलाशयों के जल स्वच्छ हो गए । वन और पर्वतों पर पक्षियों के कलरव गूंजने लगे हैं । परंतु वानरों के राजा सुग्रीव ने हमारा तिरस्कार कर दिया है । यद्यपि सीता का वियोग मेरे लिए असह्य है, फिर भी मैंने अपनी हृदयगत भावनाओं पर नियंत्रण किया हुआ है ।

सुग्रीव ने सीता की खोज के लिए जो वचन मुझे दिया था, संभवत: वह उसे भूल गया है । अब उसका स्वार्थ तो पूरा हो चुका है । इसलिए उस दुरविनीत वानर को हमारी कोई चिंता नहीं है ।” श्रीरामचंद्र जी की बात सुनकर लक्ष्मण को क्रोध आ गया । वे बोले, ”भ्राताश्री आप मुझे आज्ञा दें ।

मैं किष्किंधा नगरी में जाकर उस दुष्ट वानर की खबर लेता हूं और उसे बलपूर्वक पकड़कर आपके पास लाता हूं ।” तभी पास बैठे हनुमान जी हाथ जोड़कर उठ खड़े हुए और बोले, ”प्रभो महाराज सुग्रीव ने वास्तव में निंदनीय कार्य किया है । परंतु आप क्रोधित न हों । मैं आज ही किष्किंधा नगरी जाकर महाराज सुग्रीव को उनका वचन याद दिलाता हूं ।”

“नहीं कपिवर!” श्रीरामचंद्र जी हनुमान जी से बोले, ”किष्किंधा लक्ष्मण को ही जाने दो और विषय भोग में डूबे हुए उस मूर्ख वानर को सचेत करने दो ।” तदुपरांत उन्होंने लक्ष्मण की ओर देखा और कहा, ”प्रिय लक्ष्मण! तुम जाओ और उस कृतप्न वानर से कहो कि जो व्यक्ति उपकार प्राप्त करके तथा वचन देकर पीछे हट जाता है, वह संसार के समस्त पुरुषों में नीच है और जो सत्यप्रतिज्ञ है, वह उत्तम माना जाता है ।

जो मित्रता प्राप्त करके भी, मित्रता का निर्वाह नहीं करता, ऐसे व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर पशु भी उसका मांस भक्षण नहीं करते । सुग्रीव ने मुझे वचन दिया था कि वर्षा ऋतु समाप्त हो जाने पर वह सीता की खोज प्रारंभ कर देगा ।

परंतु वह अपना वचन भूलकर भोग-विलास में लग गया है । समय का उसे कुछ भी ध्यान नहीं है । हम लोग सीता के विरह में किस प्रकार अपना एक-एक पल व्यतीत कर रहे हैं, इसके प्रति उसकी किंचित भी रुचि नहीं है ।

तुम उससे कहना कि राम कायर नहीं है । यदि वह अपने एक बाण से बाली को मार सकता है तो उसके पूरे वंश को भी समाप्त कर सकता है । शीघ्र जाओ, पहले ही बहुत विलंब हो चुका है । ऐसे अवसर पर तुम्हें जो भी उचित लगे, उससे कहना । अब मैं और अधिक प्रतीक्षा नहीं कर सकता ।”

”जो आज्ञा भ्राता श्री ।” लक्ष्मण ने श्रीराम के सामने हाथ जोड़कर उनका नमन किया और तत्काल क्रोध में भरकर किष्किंधा की ओर चल पड़े । उसकी भाव-भंगिमा और रौद्र रूप देखकर श्री रामचंद्र जी ने लक्ष्मण को रोका, ”तनिक रुको भाई!”

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लक्ष्मण ने पलटकर श्रीराम की ओर देखा । श्रीराम ने उससे कहा, ”प्रिय लक्ष्मण! तुम जैसे श्रेष्ठ पुरुष के लिए मित्र का वध करना कदापि उचित नहीं होगा । तुम उसे प्रेमपूर्वक समझाना । कोई ऐसा कार्य न करना, जिससे हमारे सूर्यवंश की अपकीर्ति हो । तुम वहां अकेले नहीं, पवनपुत्र हनुमान को अपने साथ लेते जाओ । ये तुम्हारे और सुग्रीव के बीच मध्यस्थता की भूमिका निबाहेंगे ।”

“जो आज्ञा भ्राताश्री ।” लक्ष्मण ने कहा, ”मैं आपकी आज्ञा का अक्षरश: पालन करूंगा । प्रिय हनुमान जी यदि मेरे साथ चलते हैं तो मुझे कोई उज नहीं है ।” हनुमान जी तत्थण उठ खड़े हुए और श्रीराम को नमन करके बोले, ”प्रभो ! भ्राता लक्ष्मण और मैं वानरराज सुग्रीव को सचेत करने में पूरी तरह सक्षम रहेंगे । आप निश्चिंत रहें ।”

किष्किंधा नगरी में पहुंचकर लक्ष्मण जी ने वानरराज सुग्रीव को पुकारा । उनके क्रोधित चेहरे और वाणी को सुनकर पूरे नगर में खलबली मच गई । सारे वानर भय से त्रस्त हो गए । सुग्रीव को भी जब लक्ष्मण के क्रोध का पता चला तो वह घबराकर अपने रंगभवन से बाहर निकल आया और अपने मंत्रियों को बुलाकर बोला, ”मुझसे बड़ी भारी भूल हो गई, जो मैं अपने वचन का पालन न करके राग रंग में डूब गया ।

श्रीराम ने मेरे साथ मैत्री करके मेरा जो उपकार किया है उसका बदला चुकाने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है । मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि मैं क्या करूं ?” इस पर उसके मंत्रियों ने उसे परामर्श दिया, ”महाराज! पवनपुत्र हनुमान जी भी वीर शिरोमणि लक्ष्मण जी के साथ आए हैं । वे श्रीराम के विशेष प्रिय हैं ।

आप उन्हें आगे करके लक्ष्मण जी से मिलें और उनका क्रोध शांत करने के लिए अपनी भूल स्वीकार कर, उनके साथ तत्काल श्रीरामचंद्र जी से भेंट करने चलें ।” ”तुम्हारा परामर्श उत्तम है ।” सुग्रीव बोला, ”चलो, हम सभी लक्ष्मण जी की अगुवाई के लिए चलते हैं ।”

सुग्रीव उन्हें साथ लेकर तत्काल लक्ष्मण जी के सामने जा पहुंचा और हाथ जोड़कर बोला, ”प्रिय लक्ष्मण! मैंने मैत्रीधर्म का समुचित पालन नहीं किया । मैं श्रीराम का अपराधी हूं । मुझसे बड़ी भारी भूल हुई है । आप मुझे क्षमा करें ।”

लक्ष्मण का क्रोध अभी तक शांत नहीं हुएआ था । वे बोले, ”वानरराज! तुम जैसा कृतप्न व्यक्ति संसार में कोई दूसरा नहीं है । भ्राताश्री ने अपना मैत्री धर्म निबाहते हुए तुम्हारा उपकार किया, परंतु बदले में तुमने अपना वचन तोड़ा है ।

इसके लिए बाली की भांति तुम्हारा भी वध किया जा सकता है । गौ हत्या, मद्यपायी, चोर और व्रत भंग करने वाले व्यक्ति के लिए संतों ने प्रायश्चित का विधान रखा है परंतु कृतप्न व्यक्ति के लिए क्षमा करने का कोई मार्ग नहीं है ।

तुमने अपने व्यभिचारी आचरण के लिए भ्राताश्री को दिए वचन का उल्लंघन किया है । तुमने अपना स्वार्थ तो सिद्ध कर लिया, पर जब हमारे कार्य का समय आया तो तुम पीछे हट गए । लगता है तुम भी बाली के मार्ग का अनुसरण करना चाहते हो ।”

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लक्ष्मण की कठोर वाणी को सुनकर सुग्रीव बार-बार कांपने लगा । तब हनुमान जी ने आगे आकर सुग्रीव से कहा, ”महाराज! प्रिय लक्ष्मण का क्रोध अकारण नहीं है । आपसे जो असावधानी हुई है प्रभु श्रीराम को उसी का दुख है । हे कपिराज ! श्रीराम जानते हैं कि राज्य और स्त्री का सहवास अच्छे से अच्छे वैरागी व्यक्ति के मन को भी चंचल बना देता है ।

कामासक्त व्यक्ति को देश, काल, अर्थ और धर्म का ज्ञान नहीं रह जाता । आप भूल रहे हैं कि आपकी आज्ञा से ही मैंने विभिन्न पर्वतों पर निवास करने वाले करोड़ों वानरों को संगठित कर लिया है । वे सभी अत्यत पराक्रमी और वीर हैं ।

वे तो कब से आपकी आज्ञा की प्रतीक्षा कर रहे हैं । अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है । आप सचेत होकर अभी श्रीरामचंद्र जी की सेवा में चलकर उनके कार्य के लिए तैयार हो जाएं तो करुणानिधान श्रीरामचंद्र जी आपको क्षमा कर देंगे ।”

सुग्रीव द्वारा क्षमायाचना करना:

हनुमान जी की बातों ने सुग्रीव की आखें खोल दीं । उसने लक्ष्मण से कहा, “हे सुमित्रानंदन ! आपका क्रोध उचित है । मैं अपनी असावधानी के लिए आपसे बार-बार क्षमा मांगता हूं । मैं इसी समय श्रीरामचंद्र जी से भेंट करने चल रहा हूं । मैं उनसे भी क्षमा याचना करूंगा और उनके कार्य के लिए तत्काल वानरों को सीता जी की खोज में भेजूंगा ।”

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उसके बाद सुग्रीव लक्ष्मण जी और हनुमान जी के साथ ऋष्यमूक पर्वत पर श्रीरामचंद्र जी की सेवा में पहुंचा और उनके चरणों में गिरकर बार-बार क्षमा याचना करने लगा । ”प्रभो! अपनी लापरवाही के लिए मैं बहुत लज्जित हूं । मुझे क्षमा कीजिए । आपने मेरे साथ जो उपकार किया है, उसका बदला मैं अपने प्राण देकर भी पूरा नहीं कर सकता ।

मैं तो आपका तुच्छ सेवक हूं । आज मेरे पास जो भी सुख-संपत्ति, राज-पाट और यश-कीर्ति है, वह सब आपकी ही दी हुई है । इसे भला मैं कैसे भूल सकता हूं । मैंने हनुमान जी के ऊपर यह भार सौंपा है कि वे यथाशीघ्र वानरों को विविध दिशाओं में भेजकर सीता जी का पता लगाएं कि वे कहां पर है, किस हाल में हैं ।

मैंने उन्हें दस दिन का समय दिया है और कहा है कि जो भी वानर खाली हाथ लौटकर आए उसका तत्काल वध कर दिया जाए ।” श्रीरामचंद्र ने स्नेहपूर्वक सुग्रीव को उठाकर अपने हृदय से लगाया और कहा, ”हे कपिश्रेष्ठ ! मेरा तुमसे कोई विरोध नहीं है । पत्नी का वियोग कैसा होता है, इसे तुमसे अच्छा और कौन जान सकता है ।

मैंने यही सोचकर तुम पर विश्वास करके तुम्हें यह कार्य सौंपा था । परंतु जब समय बीत जाने पर भी तुमने सुधि नहीं ली तो मुझे विवश होकर लक्ष्मण को तुम्हारे पास भेजना पड़ा । अब जबकि तुमने प्रिय हनुमान के कंधों पर यह उत्तरदायित्व सौंपा है तो मैं पूरी तरह आश्वस्त हूं कि जल्द ही सीता का पता हमें चल जाएगा ।

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मैं छलपूर्वक सीता का हरण करने वाले उस दुर्दांत राक्षस रावण को जीवित नहीं छोडूंगा ।” इतना कहकर श्रीरामचंद्र जी ने अपनी उंगली से एक मुद्रिका निकालकर हनुमान को देते हुए कहा, ”हे पवनपुत्र ! मुझे तुम पर पूरा विश्वास है कि तुम सीता का पता लगा लोगे ।

मेरी यह मुद्रिका ले जाओ और सीता को इसे दिखाकर विश्वास दिलाना कि तुम्हें मैंने भेजा है । यदि उनसे भेंट हो जाए तो उन्हें धैर्य बंधाकर कहना कि राम का यह संकल्प है कि वे यथाशीघ्र दुष्ट रावण को मारकर उन्हें छुड़ा लेंगे । वीरवर ! तुम्हारा प्रयास निश्चित रूप से सफल होगा, इसका मुझे पूर्ण विश्वास है ।”

वानरश्रेष्ठ हनुमान जी ने मुद्रिका को लेकर श्रद्धापूर्वक अपने माथे से लगाया और फिर उसे अपने उत्तरीय में बांधकर श्रीरामचंद्र जी से कहा, ”प्रभो आपका आशीर्वाद मेरे साथ है तो मैं कैसे भी करके माता सीता का पता लगा लूंगा । अब आपको अधिक प्रतिक्षा नहीं करनी पड़ेगी ।” उसके बाद हनुमान जी ने श्रीराम के चरण स्पर्श करके अपने साथ वानरों और भालुओं का एक दल लिया और वहां से प्रस्थान किया ।

सीता की खोज:

सुग्रीव की आज्ञा से अंगद के नेतृत्व में हनुमान, नील, तार, गंधमादन, जाम्बवान आदि यूथपति दक्षिण दिशा की ओर सीता जी की खोज में चल पड़े । घनघोर वनों और पर्वतों में खोजते हुए वे विंध्याचल पर्वत पर पहुंचे । वहां उन्होंने पर्वत शिखरों, उपत्यकाओं और गुफाओं में सीता जी की खोज की, पर उनका कुछ पता नहीं चला ।

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भूखे-प्यासे सभी वानर जहां कहीं भी कंदमूल, फल और सरोवर देखते, वहां अपनी भूख मिटाते, जल पीते और थकान मिटाने के लिए सुस्ताने बैठ जाते । धीरे-धीरे समय व्यतीत होने लगा । परंतु सफलता उनके हाथ नहीं लग रही थी । इससे वे चिंतित हो चले थे । ऊपर से उन्हें सुग्रीव का भी भय था ।

कार्य पूरा न होने पर वह कठोर दण्ड देता । वे हतोत्साहित होने लगे । तब अंगद ने उन्हें उत्साहित करते हुए कहा, ”वानर श्रेष्ठों! कर्म का फल अवश्य प्राप्त होता है । हमें इस प्रकार निराश होकर हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठ जाना चाहिए । मैं मानता हूं कि सुग्रीव अत्यंत क्रोधी राजा हैं ।

कार्य पूरा न होने पर वह हमें कठोर दण्ड दे सकता है । फिर भी श्रीराम और उनके भाई लक्ष्मण का ध्यान रखकर हमें अपना कार्य करते रहना चाहिए । हम हारकर वापस कदापि नहीं लौटेंगे । आज मैं युवराज के पद पर लक्ष्मण जी के कारण ही हूँ । हमें उनके प्रति अपना कर्तव्य निभाना चाहिए । उठो, आगे बढो । हम सीता जी को खोजकर ही वापस लौटेंगे ।”

युवराज अँगद की बात सुनकर सभी वानर फिर से उठ खड़े हुए और दूने उत्साह से आगे बढ़ने लगे । थकान को उन्होंने दूर भगा दिया । चलते-चलते वे एक अत्यत विशाल गुफा के सामने पहुंचे । उसका मुहाना हरे भरे वृक्षों और लताओं आदि से पूरी तरह आच्छादित था ।

सभी वानर प्यास के कारण बेहाल हुए जा रहे थे । तभी उन्होंने जल में भीगे हुए क्रौंच, सारस और हंसों के झुण्डों को उस गुफा से बाहर आते देखा । उन्हें देखकर उन्होंने तत्काल अनुमान लगा लिया कि इस गुफा में जरूर जलाशय होना चाहिए । परंतु उस गुफा की भयावहता को देखकर किसी का भी साहस उस गुफा में प्रवेश करने का नहीं हो रहा था ।

मयासुर की विचित्र नगरी:

उस समय हनुमान जी ने अपने साथ आए वानरों से कहा, ”साथियो! हम सभी प्यास से बेहाल हुए जा रहे हैं । यहा चारों ओर पर्वत मृखलाए हैं । कहीं भी जलाशय के दर्शन नहीं हो रहे हैं । देवी सीता जी का भी कोई पता नहीं चल रहा है । ऐसे में मेरी राय है कि हम इस गुफा में प्रवेश करें ।

क्योंकि इस गुफा में से अभी-अभी बहुत से जल-पक्षी निकले हैं । इससे प्रतीत होता है कि इस गुफा में जलाशय होना चाहिए ।” ”परंतु वानर श्रेष्ठ हनुमान जी । इस गुफा में भयानक अंधेरा है ।” जाम्यवान ने कहा, ”ऐसे में हम भीतर प्रवेश कैसे कर सकते है ?”

अंगद बोला, ”हम सब एक-दूसरे का हाथ पकड़कर एक पंक्तिबद्ध होकर भीतर प्रवेश करें तो खतरा कम लगेगा । आगे हनुमान जी रहेंगे और सबके पीछे मैं रहूंगा । किसी को भी घबराने की जरूरत नहीं है ।” उसके बाद सभी वानर और भालू उस गुफा में एक दूसरे का हाथ पकड़कर प्रवेश कर गए ।

घोर अंधकार में भी वे आगे का मार्ग देख पा रहे थे । बाहर से जितनी डरावनी वह गुफा लग रही थी, उतनी भीतर से नहीं थी । इसलिए उन्हें चलने में कोई अधिक कठिनाई नहीं हो रही थी । थोड़ा आगे जाने पर गुफा में प्रकाश दिखाई देने लगा । वे दूने उत्साह से और भी तेज गति से आगे बड़े ।

लगभग एक योजन तक चलने के उपरांत उन्हें एक अति सुंदर और स्वादिष्ट फलों तथा फूलों से युक्त एक वन दिखाई दिया । वहां के वृक्ष अग्नि के समान चमक रहे थे । साल, तमाल, ताल नागकेशर, अशोक, चाग, चमेली और कनेर के वृक्षों से वह वन लदा हुआ था ।

उस वन के मध्य में एक अति सुंदर तपोवन था । वहां पर तरह-तरह की सुदर पर्णकुटियां बनी हुई थीं । उस तपोवन के मध्य में एक पीपल के वृक्ष के नीचे बने चबूतरे पर एक अति सुंदर स्त्री तपस्यारत थी । उसके चेहरे से तेज प्रकट हो रहा था । उसे देखकर सभी वानर चकित हो गए और एक-दूसरे का मुंह देखने लगे ।

हनुमान जी ने उस तपस्विनी से विनम्रतापूर्वक पूछा, ”हे देवी ! आप कौन हैं और यहां किस प्रयोजन से तपस्या कर रही हैं ? यह किसकी गुफा है ?” तपस्विनी ने उत्तर दिया, ”हे वानर श्रेष्ठ । यह गुफा और यहा की समस्त रचना मयासुर नामक राक्षस ने की है । मयासुर ने इसकी रचना अपनी प्रेयसी हेमा नामक अप्सरा के लिए की थी ।

परंतु देवराज इंद्र ने कुपित होकर मयासुर राक्षस को मार भगाया । तब ब्रह्मा जी ने इस वन को हेमा को सौंप दिया । मेरा नाम स्वयंप्रभा है और मैं हेमा की सखी हूं । इस वन की रक्षा का भार मुझ पर है । आप लोग कौन हैं और किसलिए यहां आए हैं ? आप अपना परिचय दें । ”

हनुमान ने कहा, ”हे देवी! हम भूख-प्यास से व्याकुल होकर यहां आए हैं । हम सभी महाराज सुग्रीव की आज्ञा से अयोध्या के युवराज श्रीराम की भार्या को खोजने यहां आए हैं । इन दिनों वे अपने पिता की आज्ञा से चौदह वर्ष का वनवास भोग रहे हैं । उनके साथ उनकी पत्नी सीता जी और भाई लक्ष्मण भी थे ।

पर किसी रावण नाम के राक्षस ने सीता जी का छल से अपहरण कर लिया है । हम उन्हीं की खोज में भटकते हुए यहा आ पहुंचे हैं । मेरा नाम हनुमान है ।” इतना कहकर हनुमान ने अपने साथ आए सभी वानरों और भालूराज ऋक्षवान जाम्यवान का परिचय कराया ।

उनका परिचय प्राप्त करके स्वयंप्रभा प्रसन्न हो उठी और बोली, ”वानरराज हनुमान! इस गुफा में जो एक बार आ जाता है, उसका दुबारा यहां से निकलना अत्यंत कठिन है । परंतु तुम लोग श्रेष्ठ कार्य के लिए निकले हो, इसलिए पहले फलाहार करके जलपान करो और अपनी थकान मिटाओ । उसके बाद मैं तुम्हें इस गुफा से बाहर निकालने का प्रबंध कर दूंगी ।”

स्वयंप्रभा की अनुमति पाकर सभी वानर फलों पर टूट पड़े और सभी ने पेट भरकर भोजन किया और स्वच्छ जल का पान किया । तदुपरांत जब वे पुन: स्वयंप्रभा के पास आए तो स्वयंप्रभा ने अपने तपोबल से उन्हें उस गुफा से बाहर निकाल दिया ।

सभी वानरों को ऐसा प्रतीत हुआ कि वे किसी स्वप्नलोक से बाहर आकर सागर तट पर खडे हैं । उनके सामने विशाल सागर लहरें मार रहा था और उनके पीछे प्रसवणगिरि नामक पर्वत था । स्वयंप्रभा उन्हें वहां छोड़कर वापस अपने स्थान पर चली गई ।

सागर तट पर पहुंचकर सभी वानर सोच में पड़ गए कि अब वे कहां जाएं । राजा सुग्रीव ने सीता को खोजकर लाने का जो समय दिया था, वह समाप्त हो गया था । इसी कारण सभी चिंतित थे । सबसे अधिक चिंता अंगद को थी ।

वह बोला, ”अब हमारे सामने एक यही रास्ता है कि हम लोग उपवास करके अपने प्राण त्याग दें । क्योंकि सुग्रीव मुझे छोड़ेगा नहीं । मैंने तो निश्चय कर लिया है कि मैं यहीं समुद्र तट पर बैठकर, तब तक भूखा रहूंगा, जब तक मेरे प्राण नहीं निकल जाते ।”

अंगद की बात सुनकर सभी वानर व्याकुल हो गए । तब हनुमान जी ने उन्हें समझाया, ”अंगद! तुम अपने पिता बाली के समान वीर हो और इस प्रकार कायरों जैसी बातें कर रहे हो । तुम जो सोच रहे हो, वैसा कुछ भी नहीं होगा ।

तुम्हारे चाचाश्री महाराज सुग्रीव इतने निर्दयी नहीं हैं । वे परिस्थितियों को अच्छी तरह समझते हैं । हमें विलंब भले ही लग रहा हो, पर हम सीता जी की खोज किए बिना वापस नहीं लौटेंगे । तुम्हारे चाचा महाराज सुग्रीव धर्मज्ञ, दृढवती और मैत्रीधर्म का पालन करने वाले हैं । वे तुम्हारे परम हितैषी हैं । उनसे तुम्हें भयभीत होने की कदापि आवश्यकता नहीं है ।

भगवान श्रीराम निश्चय ही हमारी रक्षा करेंगे और हमें शीघ्र ही कोई मार्ग मिल जाएगा, जिस पर चलकर हम सीता मैथ्या को खोज लाएंगे । अत: तुम अभी से निराश मत होओ ।” हनुमान जी की बात सुनकर अंगद और दूसरे वानरों को संतोष हुआ और उन्होंने चैन की सांस ली । अंगद ने अपने प्राणांत करने का विचार त्याग दिया ।

जिस समय हनुमान जी और अंगद में ये बातें हो रही थीं, उस समय पर्वत की एक ऊंची कंदरा में बैठा एक विशाल वृद्ध गिद्ध उन्हीं की ओर देख रहा था और सोच रहा था कि आज बहुत दिनों बाद मुझे भोजन प्राप्त होगा । उस गिद्ध पर दृष्टि पड़ते ही हनुमान जी ने कहा, ”युवराज अंगद! तुमने देखा कि तुम्हारे मरने की बात सुनकर ये गिद्धराज कंदरा में से निकलकर हमारी ओर ही देख रहे हैं ।

इनसे अच्छे तो वे गृध्रराज जटायु ही थे, जिन्होंने सीता जी को उस दुष्ट रावण से बचाने के लिए अपने प्राणों की बलि दे दी । वह कितना साहसी था और यह कायर गिद्ध हमारे मरने की बाट जोह रहा है कि कब हम मरें और यह हमें खाए ।”

हनुमान जी की बात सुनकर वह विशाल गिद्ध सोच में पड़ गया…’अरे ! ये तो मेरे भाई जटायु के गुणगान कर रहे हैं और उसके मरने का समाचार दे रहे हैं । मुझे तत्काल इनके पास चलकर पूछना चाहिए कि मामला क्या है ।’

ऐसा सोचकर वह गिद्ध कंदरा से निकलकर ढलान पर फिसलकर उन वानरों के पास आया । उसे देखकर सभी वानर भयभीत हो गए । परंतु हनुमान जी ने उन्हें भयभीत होने से मना किया । वे सभी उस गिद्ध की ओर देखने लगे । उसके पंख जले हुए थे ।

गिद्धराज सम्पात्ति से भेंट:

वानरों को अपनी ओर देखते पाकर गिद्धराज ने कहा, ”हे वानरो मुझसे भयभीत मत हो । मेरा नाम सम्पाति है और मैं ध्रराज जटायु का बड़ा भाई हूँ । तुम लोग अभी-अभी उसके मरने का समाचार दे रहे थे । मुझे बड़ी चिंता हो रही है ।

मुझे बताओ कि यह सीता कौन है, जिसे बचाने में उसने रावण से लड़कर अपने प्राण दिए ? मेरे पंख तो जल गए हैं । मैं उड़ नहीं सकता ।” सम्पाति की बात सुनकर हनुमान जी ने कहा, ”हे सम्पाति हमें यह जानकर बड़ा हर्ष हुआ कि तुम जटायु के बड़े भाई हो ।

हमें जटायु की मृत्यु का बड़ा दुख है । लेकिन हमें इस बात का हर्ष भी है कि उस वीर ने प्रभु श्रीराम की भार्या सीता मैथ्या की रक्षा के लिए दुष्ट रावण से युद्ध किया और अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया ।” उसके बाद हनुमान जी ने सम्पाति को सीता हरण, श्रीराम का परिचय और सुग्रीव से मैत्री तथा जटायु के प्राणांत की पूरी कहानी विस्तार से सुना दी ।

उस कहानी को सुनकर सम्पाति की आखों से अश्रु बहने लगे । तब हनुमान जी ने उसे हर तरह से सांत्वना दी और उसके दुख को कम किया । उस समय सभी का मन दुख से व्याकुल था । तब सम्पाति ने उनसे कहा, ”हे वानर श्रेष्ठ हनुमान जी ! मैं वृद्ध हो गया हूं । मेरे शरीर में अब उड़ने की सामर्थ्य भी नहीं है ।

इसलिए मैं शरीर बल से आपकी कोई सहायता नहीं कर सकता । परंतु जिस प्रकार मेरे भाई ने श्रीराम की सहायता की और अपने प्राणों का बलिदान किया, उस प्रकार तो नहीं, पर वचनों से मैं उनकी सहायता अवश्य करूंगा ।

मैंने उस दुरात्मा रावण को एक स्त्री को हरकर ले जाते देखा था । वह स्त्री रोते हुए ‘हा राम, हा लक्ष्मण’ कहती हुई विलाप कर रही थी और उस दुष्ट के चंगुल में फंसकर छटपटा रही थी । वह जरूर सीता जी ही थीं । वह राक्षस उसे दक्षिण दिशा की ओर ले गया है । वह राक्षस कुबेर का भाई रावण है, जो लंका में निवास करता है । यहां से चार सौ कोस दूर समुद्र में एक द्वीप है ।

उस द्वीप पर ही देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा ने सोने की एक भव्य लंका का निर्माण किया था । पहले वह भव्य भवन रावण के भाई कुबेर का था । लेकिन बाद में रावण ने उसे कुबेर से छीन लिया और स्वयं वहां का अधिपति बन बैठा ।

श्रीराम की भार्या देवी सीता को उस दुष्ट रावण ने लंका में बंदी बनाकर रखा हुआ है । बहुत सी राक्षसियां रात-दिन उसके पास पहरा देती रहती हैं । यह लंका चारों ओर से सागर से सुरक्षित है । लगभग सौ योजन समुद्र पार करके ही तुम लोग लंका पहुच सकते हो ।

मुझे दूरदृष्टि प्राप्त है । मैं यहीं से उस दुष्ट रावण की लंका को देख सकता हूं । अब तुम विचार करो कि तुम किस प्रकार इस समुद्र को लाघकर वहाँ जा सकते हो । एक बार निशाकर नामक मुनि ने मुझसे कहा था कि श्रीराम की भार्या सीता जी का पता लगाते हुए कुछ वानर यहां आएंगे ।

उन्हें तुम सीता जी का पता बताओगे । फिर तुम्हें नए पंख और नई शक्ति प्राप्त हो जाएगी ।” तभी सभी ने आश्चर्य से देखा कि सम्पाति अपने पंखों को फड़फड़ाता हुआ वहां से उड़ गया । उसे नए पख प्राप्त हो गए थे ।

हनुमान द्वारा समुद्र लंघन:

लंका और रावण के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त करके सारे वानर खुशी से उछल-कूद मचाने लगे । समुद्र की उफनती लहरों को देखकर वे झूम उठे । परंतु उनका यह उत्साह थोड़ी देर में ही समाप्त हो गया । क्योंकि जब उनके सामने समुद्र को लाघकर लंका पहुंचने की बात आई तो वे सभी एक-दूसरे का मुंह देखने लगे ।

अंगद ने उनसे पूछा, ”वानरो तुम सभी में से ऐसा कौन वीर है, जो सौ योजन समुद्र को लांघकर लंका में पहुंच सकता है और वहा से सीता जी का समाचार लेकर वापस आ सकता है ?” अंगद के प्रश्न का किसी ने भी उत्तर नहीं दिया । तब अंगद ने कहा, ”मैं तो समझता था कि मैं वानर वीरों का श्रेष्ठ दल अपने साथ लेकर चल रहा हूं । परतु यहां तो सभी मुह लटकाए बैठे हैं ।”

इस पर गज नाम के वानर ने कहा, ”युवराज अंगद! मैं दस योजन तक ही छलांग लगा सकता हू ।” उसकी बात सुनकर गवाक्ष ने कहा, ”मैं बीस योजन तक छलांग लगा सकता हूं ।” शरभ नामक यूथपति वानर ने कहा, “मैं तीस योजन तक छलांग लगा सकता हू ।”

ऋषभ ने कहा, ”अंगद! मैं चालीस योजन तक जा सकता हूं ।” गंधमादन वानर ने उत्साह में भरकर कहा, ”मैं पचास योजन तक छलांग लगा सकता हूं ।”  मैन्द ने कहा, ”मैं साठ योजन तक जा सकता हूं ।” इसी सुर में सुर मिलाकर द्विविद ने कहा कि वह सत्तर योजन तक जा सकता है, सुषेण बोला कि वह अस्सी योजन तक जा सकता है ।

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अंत में भालुओं के यूथपति जाम्बवान ने कहा कि अब उनमें पहले जैसी बात नहीं रही । फिर भी वे नब्बे योजन तक बिना रुके समुद्र में जा सकते हैं । उनकी बातें सुनकर अंगद ने कहा कि वह सौ योजन तक छलांग लगा तो लेगा, पर वापस आने की सामर्थ्य उसमें शेष बचेगी, यह वह नहीं कह सकता ।

जिस समय ये सभी वानर अपनी-अपनी शक्तियों का परिचय दे रहे थे, उस समय हनुमान जी एक ओर बैठे भगवान श्रीराम और लक्ष्मण के ध्यान में मग्न होकर सीता जी के विषय में ही सोच रहे थे । वे कुछ नहीं बोले तो सबका ध्यान उनकी ओर गया ।

उन्हें चुप बैठे देखकर जाम्यवान ने कहा, ”युवराज अंगद ! यहां एक ही व्यक्ति ऐसा है, जो इस समुद्र को तो क्या, पूरे ब्रह्माण्ड को ही अपनी एक छलांग में नाप सकता है । इस समय वह अपनी शक्ति को भूले बैठा है । अन्यथा हनुमान के अतिरिक्त यहां ऐसा कौन है, जो उनके पैर के नाखून के बराबर भी अपनी समानता कर सके ।

मुझे आश्चर्य इस बात से हो रहा है कि वानरों में सर्वश्रेष्ठ, महावीर, संपूर्ण शास्त्रों के ज्ञाता हनुमान चुपचाप क्यों बैठे हैं ? वे कुछ बोलते क्यों नहीं हैं ? हनुमान जी तो श्रीराम और श्री लक्ष्मण के समान ही बली हैं और महान पराक्रमी हैं । ये अजर-अमर हैं । मृत्यु उनका स्पर्श तक नहीं कर सकती ।

ये पवनपुत्र हनुमान, वायु की गति से इस ब्रह्माण्ड में कहीं भी जा सकते हैं । इनकी शक्ति, बुद्धि, तेज और धैर्य समस्त जीवों में सर्वोत्तम है । तुम हनुमान से समुद्र लांघने के लिए क्यों नहीं कहते ?” इस प्रकार हनुमान की वीरता का वर्णन करते हुए जाम्यवान ने हनुमान जी के जन्म, सूर्य को फल समझकर उनकी ओर वायु वेग से लपकने, राहु और इंद्र से झडूप, इंद्र के वज्र से हनुमान की ठोड़ी टूटना और वायु का प्रकोप तथा देवताओं द्वारा हनुमान का नामकरण और उन्हें अतुल शक्तियां प्रदान करना तथा ऋषियों द्वारा हनुमान को शाप देने की घटनाओं का विस्तार से उल्लेख किया ।

जाम्यवान की बातें सुनकर सभी ने हनुमान की ओर देखा तो हनुमान जी अपनी पूंछ फटकारकर उठ खड़े हुए तथा एक अंगड़ाई लेकर उन्होंने अपना शरीर फैलाना प्रारंभ किया । जाम्यवान ने उनके बल-विक्रम की याद उन्हें दिलाकर उनमें एक विचित्र-सा उत्साह भर दिया था । मुनियों का शाप समाप्त हो गया था ।

तब उनके विशाल रूप को देखकर अंगद ने कहा, ”हे वानर शिरोमणि हनुमान ! उठो और इस महासागर को पार करो । हे वीर ! स्वयं यमराज भी तुम्हें नहीं मार सकता । अपने कर्तव्य के प्रति तुम्हारी जागरूकता अद्‌भुत है । तुम्हारे सामने रावण क्या, कोई भी राक्षस पल भर भी नहीं टिक सकता । तुम तो बाल ब्रह्मचारी और शक्ति के पुंज हो ।

साक्षात भगवान शंकर के अवतार हो । प्रचण्ड वेग से जाओ और सीता जी का समाचार लाकर हमारे प्राणों की रक्षा करो । भगवान श्रीराम की कृपा सदैव तुम्हारे साथ है । केवल तुम्हीं हो, जो इस सागर को पार करके लंका जा सकते हो और वहां रावण का अहंकार तोड़कर वापस आ सकते हो ।”

अंगद और जाम्बवान के द्वारा प्रशंसित होकर हनुमान पास के महेन्द्र पर्वत पर चढ़ गए और उन्होंने एक घनघोर गर्जना की । उनकी गर्जना से पक्षी फड़फड़ाकर उड़ गए । पर्वत कांप उठा और सागर के मध्य तरंगें उछलकर आसमान को छूने लगीं । हवा में तेज प्रभंजन उत्पन्न हो गया ।

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हनुमान ने महेन्द्र पर्वत पर खड़े होकर कहा, ”अंगद । यदि तुम कहोगे तो मैं पूरी लंका को ही उखाड़कर यहां ले आऊंगा । जिस प्रकार भगवान विष्णु ने तीन पग में ही पूरा ब्रह्माण्ड नाप लिया था, उसी तरह इस सौ योजन सागर को मैं एक ही छलांग में लांघ जाऊंगा और माता सीता का समाचार लेकर ही वापस आऊंगा ।

समस्त देवगण और राक्षस भी मेरे वेग को रोक नहीं पाएंगे । मार्ग में एक पल के लिए भी मैं कहीं विश्राम नहीं करूंगा । तुम सभी मुझे आकाश मार्ग से जाते हुए देखोगे ।”जब हनुमान जी ऐसा कह रहे थे तब सभी वानर उनके रूप और विशाल आकार को देखकर अत्यधिक प्रसन्न हो रहे थे ।

सभी के चेहरों पर आश्चर्य के भाव थे । जाम्यवान को हनुमान जी का वह रूप देखकर अति हर्ष हुआ । जाम्बवान बोले, ”हे वीर केसरी हनुमान! तुम्हारे रूप और वेग को देखकर हमें अपार हर्ष हो रहा है । तुमने हमारा शोक नष्ट कर दिया है । हम सभी तुम्हारे कल्याण की कामना करते हैं ।

तुम्हारे जाने के बाद और तुम्हारे लौटकर आने तक, हम सभी यहीं समुद्र तट पर बैठकर तुम्हारे लिए मंगल कामना करेंगे और तुम्हारी प्रतीक्षा में स्वस्ति वाचन करते हुए समय व्यतीत करेंगे । तुम हम सभी की शुभकामनाओं के साथ इस सागर के पार जाओ । हमारा जीवन अब तुम्हारे ही हाथों में है ।”

उनकी बात सुनकर हनुमान जी ने जोर से नारा लगाया, ”जै श्रीराम” और महेन्द्र पर्वत पर अपने पैरों का दबाव बनाकर जोर से आकाश में छलांग लगा दी । एक जोर की आवाज के साथ हनुमान जी का विशाल शरीर आकाश में वायु गति से लंका की ओर जाने लगा । सभी आश्चर्य में भरकर उनकी ओर देखने लगे ।

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