श्री अरबिंदो पर निबंध | Essay on Sri Aurobindo in Hindi

1. प्रस्तावना:

श्री अरविन्द घोष बंगाल के उग्रवादी राष्ट्रीयता के शीर्षस्थ नेता थे । यद्यपि राजनीति में अल्पकाल तक सक्रिय थे, तथापि उनका योगदान हमारे लिए अत्यन्त अमूल्य है ।

शेष जीवन उन्होंने आध्यात्मिक चिन्तन एवं योग साधना में व्यतीत किया । वस्तुत: वे विवेकानन्द व दयानन्द सरस्वती की तरह सामाजिक, धार्मिक, सुधारवादी आन्दोलन के प्रणेता रहे हैं । महान् देशभक्त, महान् प्रतिभाशाली, दार्शनिक, शिक्षाशास्त्री, विचारों के धनी अरविन्द घोष योगी के नाम से जाने जाते हैं।

2. जन्म परिचय व उनका जीवन दर्शन:

महर्षि अरविन्द घोष का जन्म 15 अगस्त 1872 को बंगाल में हुआ था । उनके पिता डॉ० घोष उन्हें पाश्चात्य सभ्यता के रंग में ढालना चाहते थे । अत: उन्हें प्रारम्भिक शिक्षा हेतु दार्जिलिंग के आयरिस ईसाई स्कूल में भेज दिया गया । 7 वर्ष की आयु में वे इंग्लैण्ड पढ़ने के लिए गये । वहां के पादरी दम्पत्ति के संरक्षण में उन्होंने अपनी शिक्षा-दीक्षा पूर्ण की ।

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सेंट पॉल स्कूल से अरविन्द ने ग्रीक, लेटिन भाषा के साथ-साथ कई भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया । उच्च शिक्षा हेतु केम्ब्रिज के किंग्स कॉलेज में प्रवेश लिया । पिता की इच्छानुसार आई०सी०एस० की परीक्षा दी, जिसमें उन्हें 11वां स्थान इसीलिए मिला; क्योंकि अंग्रेजों ने उन्हें घुड़सवारी के अयोग्य घोषित कर दिया था ।

अपनी शिक्षा समाप्त कर वे 1893 में भारत आ गये । पूर्णत: अंग्रेजी में ढले इस नवयुवक को अपनी मातृभाषा बंगला के अलावा अन्य किसी भारतीय भाषा का ज्ञान नहीं था । भारतीय समाचार-पत्रों में जब उन्होंने अंग्रेज सरकार की भारत विरोधी, बर्बर, अमानवीय नीतियों के बारे में पढ़ा, तो उनके हृदय में देशभक्ति की भावना हिलोरे लेने लगी ।

सन् 1891 में ”इण्डिया मजलिस” तथा ”लोटस एण्ड डॉगर” संस्था के माध्यम से क्रान्तिकारी भाषण दिये । अंग्रेज सरकार की दृष्टि उन पर कड़ी हो गयी । इसके साथ ही उन्होंने बड़ौदा के महाराज के यहां नौकरी की । बड़ौदा राज्य के अनेक महत्त्वपूर्ण पदों पर कार्य करते हुए वे महाराज के व्यक्तिगत सचिव भी रहे ।

बड़ौदा कॉलेज में फ्रेंच तथा अंग्रेजी के प्राध्यापक रहे । बाद में वाइस प्रिंसिपल भी बने । 1906 में इस पद से त्यागपत्र दे दिया । इसी बीच उनका विवाह बड़ौदा में ही मृगालिनी देवी के साथ हुआ । वैवाहिक जीवन के अल्पकाल में ही उनकी पत्नी का निधन हो गया ।

श्री अरविन्द के दर्शन का केन्द्र बिन्दु सर्वशक्तिमान परब्रह्म है । वही आत्मा है । प्रकृति और उसकी चेतनाशक्ति है । सारा विश्व ब्रह्म का ही रूप है । पाप और पुण्य मनुष्य की नैतिक सीमाओं का बन्धन है । वे पुनर्जन्म में विश्वास रखते थे । योग द्वारा अलौकिक चेतना तक पहुंचा जा सकता है, यह उनका दर्शन था । उन्होंने सनातन धर्म का प्रबल समर्थन किया, जिसे ज्ञान, भक्ति तथा कर्म का व्यापक व उदार दर्शन माना ।

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वे मानवतावादी दार्शनिक थे । वे स्वतन्त्रता के लिए हिंसा का प्रयोग परिस्थितियों पर मानते थे । पूंजीवाद के विरोधी और समाजवाद के समर्थक थे । राज्य को व्यक्ति के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, ये उनका विचार था । वे कांग्रेस तथा उदारवादियों के कटु आलोचक भी थे । पाश्चात्य सभ्यता में रहते हुए भी वे प्राचीन भारतीय हिन्दू सभ्यता व संस्कृति के उपासक थे ।

3. उनका शिक्षा दर्शन:

अरविन्द सच्ची शिक्षा उसी को मानते थे, जो मनुष्य की अन्तर्निहित शक्तियों का विकास कर सके । शिक्षा को मनुष्य की अनिवार्य आवश्यकता मानते हुए उन्होंने शिक्षा का उद्देश्य शरीर के समस्त अंगों का सामंजस्यपूर्ण विकास माना है । शिक्षा द्वारा शारीरिक दोष व विकृति को सुधारा जा सकता है । मन को शिक्षित करने के उनके चार स्तर प्रमुख थे- 1. चित्त, 2. मानस, 3. बुद्धि और 4. चरम विवेक ।

बालक के पाठ्यक्रम में उन्होंने महान् चरित्रों के नैतिक आदर्शों के साथ-साथ धार्मिक व योग विषय को प्रमुखता दी । ज्यामितीय, न्यायशास्त्र, अर्थ विज्ञान तथा राजनीति, दर्शन के साथ ही राष्ट्रीयता, अन्तर्राष्ट्रीयता, नारी शिक्षा, तकनीकी शिक्षा को भी महत्त्व दिया । शिक्षक की भूमिका उपदेशक की नहीं, निर्देशक की होनी चाहिए ।

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श्रेष्ठ चारित्रिक गुणों के साथ-साथ उसे मनोविज्ञान का ज्ञाता भी होना चाहिए । विद्यार्थियों में ब्रह्मचर्य, अनुशासन, शिक्षकों के प्रति आदर भाव व मानवतावादी चरित्र को उन्होंने अनिवार्य माना । अनुशासन सम्बन्धी उनके विचार आदर्शवादी हैं । विद्यालय भौतिक तथा आध्यात्मिक विकास का केन्द्र हो, ये उनके विचार थे ।

4. उनके राष्ट्रवादी विचार:

श्री अरविन्द उग्र राष्ट्रवादी थे । वे उदारवादी ब्रिटिश शासन के कट्टर विरोधी थे । 1905 में बंग-भंग आन्दोलन के दौरान वे पूरी तरह से सक्रिय हो गये । उन्होंने वन्देमातरम, कर्मयोगिन नामक पत्रिका का सम्पादन किया, जिसमें छपे उनके क्रान्तिकारी लेखों के कारण ब्रिटिश सरकार ने उन पर कई मुकदमे चलाये । 1908 में अलीपुर बमकाण्ड केस में उन्हें एक वर्ष के लिए जेल भेजा गया । जेल में रहते हुए उनकी आध्यात्मिक शक्ति ऐसे विकसित हुई कि वे योग साधना की ओर प्रवृत हो गये ।

अलीपुर जेल से रिहा होते ही उन्होंने राजनीति से संन्यास ले लिया और ब्रिटिश सीमा से दूर 4 अप्रैल 1910 को पाण्डिचेरी आश्रम में चले गये । यहां रहते हुए उन्हें दो बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सभापतित्व का आमन्त्रण मिला, जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया ।

1914 में उन्होंने दर्शन और आध्यात्म की प्रतीक आर्य पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया । 1926 में उन्होंने पाण्डिचेरी आश्रम की स्थापना की । इस आश्रम में 24 वर्षों तक निरन्तर सर्वांग योगसाधना की । इस दौरान फ्रांसीसी महिला मीरा रिचर्ड ने आश्रम का कार्यभार संभाला । माताजी के रूप में उनके आश्रम में जीवन-भर रहीं ।

5. उपसंहार:

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महर्षि योगी अरविन्द एक महान् सन्त, साधक, शिक्षाशास्त्री, राष्ट्रवादी, क्रान्तिकारी, विचारों के धनी, महान् व्यक्तित्वों में से एक थे । पाश्चात्य तथा भारतीय संस्कृतियों के मध्य उनके विचारों का समन्वय अद्‌भुत था । अपने सिद्धान्त और आदर्शों के लिए वे युगों-युगों तक भारतवासियों के आदर्श बने रहेंगे । 5 दिसम्बर 1950 को इस नश्वर संसार से वे महाप्रयाण कर गये ।

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