जनसंख्या को कैसे नियंत्रित करें Janasankhya Ko Kaise Niyantrit Karen | Read This Essay on How to Control Population in Hindi.

जनसंख्या की वृद्धि नियमित रूप से हो रही है । यदि यह वृद्धि अनवरत रहती है तो उससे पर्यावरण पर इतना अधिक दबाव होगा कि उसकी धारण अथवा पोषण क्षमता ही समाप्त हो जाएगी । अत: इस वृद्धि को मानव को नियंत्रित करना होगा अन्यथा पर्यावरण अथवा प्राकृतिक कारक स्वयं इसे नियंत्रित कर देंगे ।

हो सकता है ऐसा प्राकृतिक वातावरण की हानि से होने वाले प्रभावों के कारण हो अथवा मानव के स्वयं के कार्यों द्वारा, जैसा कि विगत शताब्दियों में भी अकाल, बाढ़, महामारी, युद्ध आदि से होता आया है । जनसंख्या वृद्धि की वर्तमान दर द्वारा एक समय ऐसा आयेगा जबकि इसका पोषण पर्यावरण द्वारा संभव नहीं होगा ।

इस संबंध में एक अवध यह भी है कि प्रकृति स्वत: ही इसकी संख्या को नियंत्रित करती रहेगी । इस प्रकार का विचार प्रसिद्ध अंग्रेज जनसंख्याविद् एवं अर्थशास्त्री रॉबर्ट माल्थस का था जो उन्होंने “Principles of Population” नामक पुस्तक में 1798 में दिये थे । माल्थस की परिकल्पना के अनुसार जनसंख्या में ज्यामितीय वृद्धि अर्थात् 2, 4, 8, 16… होती है जबकि खाद्य पदार्थों में गणितीय वृद्धि अर्थात् 1, 2, 3, 4… के रूप में होती है ।

अत: निश्चित है कि जनसंख्या खाद्य उपलब्धि के स्तर से अधिक हो जायेगी तो इसमें अस्तित्व के लिए संघर्ष होगा, फलस्वरूप युद्ध, अधर्म या दुष्कृत्य एवं भूख का बोलबाला होने से यह कम हो जायेगी । बाद में माल्थस ने 1817 में परिवार नियोजन को भी इसका नियंत्रक स्वीकार किया है । माल्थस के विचारों का सार यह है कि प्रकृति एवं पर्यावरण वहीं तक या उस सीमा तक ही जनसंख्या को प्रश्रय देते हैं जब तक वह वातावरण से सामंजस्य रखता है ।

पर्यावरण जनसंख्या का पोषक है किंतु यदि मनुष्य उसका शोषण इस सीमा तक करने लगे कि पर्यावरण के विभिन्न घटकों का समन्वय समाप्त हो जाए, तो उसका विपरीत प्रभाव पड़ने लगता है और अकाल मृत्यु का क्रम प्रारंभ हो जाता है चाहे वह महामारी से हो या अकाल से, बाढ़ से हो अथवा सूखे से, जमीन के धसकने से हो या समुद्री तूफान से, ज्वालामुखी विस्फोट से हो अथवा भूकंप से और जब संसाधनों की कमी होने लगती है तो संघर्ष एवं युद्ध की विभीषिका भी विशाल जनसंख्या को समाप्त कर देती है, इसका इतिहास गवाह है ।

जनसंख्या नियंत्रण के अनेक उदाहरण विगत इतिहास में मिल जायेंगे, जब प्राकृतिक कारणों जैसे- अकाल, भूकंप, भूमि धसकना, समुद्री तूफान आदि से हजारों-लाखों व्यक्तियों की मृत्यु हो गई थी । भारत में 1837, 1863, 1876-78 के अकालों में क्रमश: 8 लाख, 10 लाख और 50 लाख व्यक्तियों की जानें गईं । चीन में 1877-79 के अकाल में 90 लाख तथा 1928-29 में 30 लाख व्यक्तियों की जानें गई ।

सोवियत संघ में 1932-34 में अकालों में मरने वालों की संख्या 40 लाख थी । अकाल अधिकांशतया मानसून के फेल हो जाने अथवा प्राकृतिक आपदा से फसलों के नष्ट हो जाने के परिणामस्वरूप होता है । इसी प्रकार भूकंप से अनेक देशों में अकाल मृत्यु का हो जाना या समुद्री तूफानों से हानि यदा-कदा होती रहती है ।

जून, 1991 में बँग्लादेश में आये समुद्री तूफान में लगभग 5 लाख व्यक्तियों की अकाल मृत्यु हो गई थी । प्राकृतिक आपदाओं के समान मानव स्वयं भी अपना दुश्मन है । वह अपने को सर्वोच्च बनाने, संसाधनों को हथियाने या राजनीतिक कारणों से युद्ध एवं संघर्ष करता रहता है । विश्व इतिहास साक्षी है कि विभिन्न युद्धों में जो जनहानि हुई है वह भी जनसंख्या पर एक प्राकृतिक नियंत्रण ही कहा जायेगा ।

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प्रथम विश्व युद्ध में (1914-18) में 72 लाख, द्वितीय विश्व युद्ध में (1939-45) में 73 लाख, स्पेनिश युद्ध में (1936-39) में 63 लाख, भारत के सांप्रदायिक दंगों में (1946-48) 59 लाख, अमेरिका के गृह युद्ध (1861-65) में 58 लाख, रूसी क्रांति (1918-20) में 57 लाख, क्रिश्चियन युद्ध (1853-1856) में 54 लाख व्यक्ति मारे गये ।

इसी प्रकार विगत दशकों में वियतनाम युद्ध, अरब-इजराइल संघर्ष, भारत-पाकिस्तान, भारत-चीन, ईरान-इराक युद्ध आदि में लाखों मौते हुईं । हाल ही के खाड़ी युद्ध में भी सैकड़ों सैनिक मारे गये । ये घटनायें मात्र विशेष उदाहरण हैं अन्यथा प्रतिवर्ष विश्व में किसी न किसी परिदृश्य में अकाल मृत्यु होती रहती हैं ।

यद्यपि यह नियम नहीं है किंतु यह सत्य है कि प्राकृतिक आपदायें जनसंख्या वृद्धि की नियंत्रक हैं और जितना अधिक पर्यावरण का शोषण कर उसे अवकर्षित किया जा रहा है प्राकृतिक आपदाओं में भी निरंतर वृद्धि हो रही है । उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि प्रत्येक पर्यावरण की जनसंख्या धारण अथवा पोषक क्षमता होती है जिसे पर्यावरण धारण क्षमता कहते हैं ।

यह एक सीमा के निकट पहुँच जाती है तो उसकी तीन स्थितियाँ होती हैं:

i. उसमें निरंतर वृद्धि होती जाती है जब तक सीमा तक नहीं पहुँच जाती फिर एकाएक गिरावट आ जाती है ।

ii. इस सीमा पर पहुंचने के पूर्व ही वृद्धि की दर में गिरावट आ जाती है एवं

iii. जनसंख्या सीमा को पार कर जाती है जिसका बाहरी साधनों से भरण-पोषण किया जाता है ।

जनसंख्या वृद्धि पर पर्यावरण का दबाव (Environment Pressure on Growth of Population):

पर्यावरण के दबाव के कारण जनसंख्या-समायोजन आवश्यक होता है । यह समायोजन सीमा पर पहुँचने से पूर्व यदि किया जाये तो स्थिति संकटकारक नहीं होती । इस क्रम में पर्यावरण की क्षमता में भी अंतर लाया जा सकता है जैसे कृषि क्षेत्र में विस्तार, उत्पादन क्षमता में विकास, आर्थिक प्रगति, तकनीकी प्रगति, वैज्ञानिक प्रगति आदि के फलस्वरूप सीमा को ऊँचा किया जा सकता है ।

किंतु यह खिसकाव भी असीमित नहीं होता, अत: वह अवस्था टाली नहीं जा सकती, हाँ ‘शून्य वृद्धि’ के माध्यम से इसे नियमित किया जा सकता है और पर्यावरण संसाधनों का अधिक उपयोग कर इस क्षमता में वृद्धि की जा सकती है ।

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पर्यावरण परिवर्तन एवं पोषण क्षमता से तीन प्रकार के परिवर्तन आते हैं । प्रथम- अआवर्तक परिवर्तन जो एकाएक होते हैं, जैसे- बाढ़, लावा फैलना और दूसरे क्रमश: होते हैं, जैसे- जलवायु का अवकर्षण, भूमि अपरदन आदि ।

दूसरे सामयिक नियमित परिवर्तन (ब एवं स) वार्षिक रूप में उत्पादकता में परिवर्तन और तीसरे (द) सामयिक अनियमित परिवर्तन जो अनिर्धारित होते हैं । संक्षेप में हम कह सकते हैं कि पर्यावरण जनसंख्या का एक नियंत्रक तत्व है, जनसंख्या का उद्भव, वितरण, घनत्व, पोषकता आदि सभी तथ्यों का नियंत्रण एवं निर्धारण वहाँ के प्राकृतिक पर्यावरण द्वारा होता है ।

जनसंख्या और खाद्य संसाधन (Population and Food Resources):

जनसंख्या के लिये या मानव अस्तित्व की प्रथम आवश्यकता भोजन है । यदि उसे पर्याप्त पोषक भोजन उपलब्ध होगा तो उसका जीवन-यापन सामान्य चलता रहेगा, उसमें कार्य क्षमता बनी रहेगी और क्षेत्रीय तथा राष्ट्रीय विकास होगा, किंतु यदि उसको पेट भर भोजन नहीं मिला या पोषक भोजन नहीं मिला तो बीमारियाँ होंगी, भुखमरी फैलेगी, अकाल मृत्यु होगी, लूटपाट एवं संघर्ष की घटनायें होंगी और वे क्षेत्र प्रगति नहीं कर पायेंगे ।

यह निस्संदेह सत्य है कि भौगोलिक परिस्थितियाँ या प्राकृतिक पर्यावरण खाद्य पदार्थों को उपलब्ध कराने में महती भूमिका निभाता है । यदि जलवायु उत्तम है, मिट्टी उपजाऊ है, धरातल अनुकूल है तो वहाँ कृषि होगी, यदि समुद्र का तट है और जलवायु सामान्य है या मछली पालन अनुकूल है तो वहाँ मछलियों से खाद्य पूर्ति हो जायेगी ।

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ऐसी स्थिति में यदि देश साधन संपन्न है तो अन्य देशों से आयात द्वारा आपूर्ति कर लेगा अन्यथा भुखमरी का शिकार हो जायेगा । इसी के साथ यह तथ्य भी विचारणीय है कि वहाँ की जनसंख्या कितनी है और वृद्धि की दर क्या है ?

क्योंकि उत्पादन सामान्य होते हुए भी यदि जनसंख्या अधिक है तो आपूर्ति कम होगी । यही नहीं, अपितु अधिक जनसंख्या का प्रभाव भोजन की पोषकता पर भी होता है । सभी खाद्य पदार्थों का वितरण जलवायु एवं अन्य भौगोलिक दशाओं पर नियंत्रित होता है ।

यद्यपि विश्व में कोई ऐसा देश नहीं है जहाँ सभी प्रकार की खाद्य वस्तुयें समान रूप से उत्पादित होती हों क्योंकि प्रत्येक देश का भौगोलिक वातावरण भिन्न है । विश्व के अनेक देश खाद्य पदार्थों में आत्मनिर्भर हैं जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, रूस, फ्रांस, आस्ट्रेलिया, अर्जेंटाइना आदि ।

दूसरी ओर ग्रेट ब्रिटेन, बेल्जियम, स्विट्‌जरलैण्ड, जर्मनी, स्वीडन आदि हैं जो खाद्यान्न आयात करने की क्षमता रखते हैं । तीसरी ओर एशिया और अफ्रीका के देश हैं जहाँ सीमित खाद्यान्न उत्पादन है और उनकी आयात क्षमता भी कम है । अनेक देश, जहाँ कृषि उपजों से पर्याप्त भोजन नहीं प्राप्त होता वे सागर से मछली प्राप्त कर भोजन की पूर्ति करते हैं ।

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विश्व में प्रतिवर्ष लगभग 6,57,000 लाख मीट्रिक टन मछली का उत्पादन किया जाता है । इनमें जापान, चीन, रूस, नार्वे संयुक्त राज्य, भारत, कनाडा, ब्रिटेन, थाईलैंड, इण्डोनेशिया आदि प्रमुख उत्पादक हैं । जनसंख्या और खाद्य सामग्री से जुड़ा एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है- पोषकता अर्थात् जो भोजन प्राप्त हो रहा है वह कितना पोषक है । भोजन की पोषकता कैलोरी में नापी जाती है । ‘वर्ल्ड फूड सर्वे’ जो संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में किया गया था ।

उसने इस संबंध में निम्नलिखित महत्वपूर्ण तथ्य प्रतिपादित किये हैं:

i. प्रति व्यक्ति 2550-2650 कैलोरी न्यूनतम प्राप्त होना चाहिये,

ii. खाद्यान्नों में 1200 से 1800 कैलोरी,

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iii. स्टार्च प्रदान करने वाले फलों से 100 से 200 कैलोरी,

iv. चर्बी से प्रतिदिन 100 से 150 से 200 कैलोरी,

v. दालों अथवा मांस से 250 से 300 कैलोरी,

vi. फल एवं सब्जियों से 100 कैलोरी,

vii. मांस, मछली, अंडों से 100 कैलोरी और

viii. दूध अथवा दूध से बनी वस्तुओं से 300 से 400 कैलोरी प्रतिदिन प्राप्त होना चाहिये ।

उपर्युक्त मानदण्ड न्यूनतम कैलोरी का प्रतिदिन उपलब्ध होने का है, तभी भोजन  संतुलित होगा । किंतु विश्व के बहुत कम देश ही इस निर्धारित सीमा तक पहुँच पाते हैं । एशिया, अफ्रीका और लेटिन अमेरिका के विशाल क्षेत्रों में भोजन की पोषकता न्यूनतम से भी कम है जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, यूरोप के अनेक देश, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड में यह उन अर्थात् 2900 कैलोरी प्रतिदिन से अधिक है ।

मध्यम श्रेणी में ब्राजील, यूराग्वे, अर्जेन्टाइना, स्पेन, ग्रेट ब्रिटेन, इटली, जापान, मलेशिया और अफ्रीका के कुछ देश आते हैं । पर्यावरण का तकनीकी विकास द्वारा उचित उपयोग एवं जनसंख्या को सीमित करके ही भोजन की पोषकता के स्तर पर पहुँचा जा सकता है ।

जनाधिक्य एवं पर्यावरण (Over Population and Environment):

वर्तमान विश्व की सबसे बड़ी चिंतनीय समस्या ‘जनाधिक्य’ की है । यद्यपि कितनी जनसंख्या को जनाधिक्य कहा जाये, इसकी व्याख्या कठिन है क्योंकि यह उस देश की उत्पादकता, आर्थिक स्थिति, तकनीकी एवं वैज्ञानिक क्षमता पर निर्भर है ।

परंतु वास्तविकता यह है कि इसका सही मूल्यांकन वहाँ के पर्यावरण की पोषक क्षमता से ही लगाया जा सकता है । इसके मापन के लिये कुछ विद्वान केवल जनसंख्या घनत्व को, कुछ कृषि योग्य क्षेत्र को, अन्य वास्तविक कृषि क्षेत्र को तथा कृषि कार्य में लगे मनुष्यों के आधार पर निर्धारण करते हैं ।

जनसंख्या भार का सामान्य अनुपात ज्ञात होता है, किंतु जनाधिक्य एक सापेक्षिक तथ्य है । यदि प्राकृतिक साधनों की तुलना में जनसंख्या अधिक है तो जीवन स्तर निम्न होगा, बेरोजगारी होगी, औद्योगिक उत्पादन में कमी होगी तथा जनसंख्या को पोषक तत्व प्राप्त न होने से राष्ट्रीय शक्ति क्षीण होगी ।

जनसंख्या की प्रश्रय क्षमता भी उद्योगों एवं कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था की भिन्न-भिन्न होती है । जनाधिक्य का सर्वाधिक बोझ वहाँ के पर्यावरण को उठाना पड़ता है क्योंकि निवास के लिये स्थान चाहिये, खाने को भोजन चाहिये तथा स्वास्थ्य को बनाये रखने के लिये स्वस्थ वातावरण चाहिये ।

ये सभी जनाधिक्य होने पर संभव नहीं होता । वन कटते हैं, कृषि भूमि कम होती जाती है, जल की कमी होने लगती है, पर्यावरण में प्रदूषण अधिक होने लगता है क्योंकि ऐसा देखा गया है कि जनाधिक्य वाले देश जनसंख्या की सामान्य समस्या से इस सीमा तक उलझ जाते हैं कि अन्य महत्वपूर्ण तथ्यों पर विचार करने को न उनके पास समय होता है और न साधन ही ।

शहरीकरण या नगरीकरण (Urbanization):

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शहरीकरण वर्तमान विश्व जनसंख्या की एक ऐसी प्रवृत्ति है जिसका पर्यावरण के अवकर्षण पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ा है । नगरों के विकास के साथ अनेक पर्यावरण की समस्याओं का जन्म हो रहा है और ये समस्यायें उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही हैं ।

आज भी ग्रामीण क्षेत्रों का पर्यावरण नगरीय क्षेत्रों के पर्यावरण से अधिक शुद्ध है । वास्तव में नगरीकरण और पर्यावरण प्रदूषण एक दूसरे के पर्याय हो गये हैं । जैसे-जैसे एक नगर महानगर बनता है वहाँ के पर्यावरण में प्रदूषण अधिक होता जाता है ।

नगरों में जनसंख्या का केन्द्रीकरण, उद्योगों का केन्द्रीकरण, परिवहन का अत्यधिक दबाव और प्राकृतिक वनस्पति के अभाव तथा सीमेंट-कंक्रीट के जंगल से वायु, जल ध्वनि एवं भूमि प्रदूषण में वृद्धि हो रही है, जिससे मानव स्वास्थ्य को न केवल वर्तमान में अपितु भविष्य में भी खतरा हो गया है ।

औद्योगिक क्रांति के पश्चात् नगरों का विकास अत्यधिक हुआ है । ग्रेट ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति के पश्चात् नगरों में इतनी अधिक जनसंख्या का आगमन हुआ कि वहाँ अनेक पर्यावरणीय एवं अन्य समस्याओं का जन्म हो गया ।

इस प्रकार ‘नगरों की ओर प्रवाह’ संयुक्त राज्य और रूस ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्व में देखा जा सकता है । ग्रेट ब्रिटेन की लगभग आधी जनसंख्या छ: ‘बड़े शहरों’ में केन्द्रित हैं । इसी प्रकार पूर्व सोवियत संघ में क्रांति के पश्चात् नगरों का विकास तीव्र गति से हुआ है ।

शहरों की संख्या में वृद्धि का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि 1935 में दस लाख जनसंख्या वाले शहरों की संख्या विश्व में 56 थी जो अब 100 से अधिक है । वर्ष 1800 में केवल 1.7 प्रतिशत नगरीय जनसंख्या थी जो 1900 में 13 प्रतिशत, 1950 में 29 प्रतिशत तथा वर्ष 2005 में 49 प्रतिशत हो गया ।

नगरों में निवास करने वाली जनसंख्या का प्रतिशत निरंतर अधिक होता जा रहा है, यह विकसित देशों के साथ-साथ विकासशील देशों में भी है । नगरीकरण का पर्यावरण पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा है, विशेषकर उसे अवकर्षित करने में इसकी अधिक भूमिका है ।

नगरीकरण का पर्यावरण पर प्रभाव निम्नलिखित तथ्यों द्वारा हुआ है:

i. कृषि भूमि की कमी- अनेक नगरों का विकास ही कृषि भूमि पर हुआ है और उनका जो निरंतर विस्तार हो रहा है वह कृषि भूमि के मूल्य पर ही हो रहा है ।

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ii. वनोन्मूलन- नगरों के विस्तार के साथ-साथ वनों की कटाई में वृद्धि हो रही है । प्रथम स्थान प्राप्त करने हेतु एवं द्वितीय नगरों में लकड़ी एवं उससे निर्मित सामान की अधिक खपत होने के कारण ।

iii. प्रदूषण में अत्यधिक वृद्धि- प्रदूषण में वृद्धि का पूर्ण उत्तरदायित्व नगरीकरण का है । वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण एवं ध्वनि प्रदूषण नगर, में अधिकतम हो ।

iv. अपशिष्ट पदार्थों द्वारा पर्यावरण का दूषित होना- नगरों में वहाँ के निवासियों द्वारा एवं अन्य प्रतिष्ठानों से जो अवशिष्ट पदार्थ फेंके जाते हैं, जो जल निःसृत किया जाता है उससे पर्यावरण अवकर्षण में वृद्धि होती हे ।

v. औद्योगिक प्रतिष्ठानों एवं परिवहन की अधिकता से पर्यावरण अवकर्षण में वृद्धि का कम नगरों में अधिकतम है ।

vi. नगरों में प्राकृतिक स्थल नगण्य हो जाते हैं और संपूर्ण वातावरण अस्वास्थ्यकर हो जाने से विभिन्न रोगों का कारण बनता है ।

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