List of five popular Hindi Proverbs with Moral Lessons.


Hindi Proverb # 1. गोबर बादशाह का कमाल है:

एक महिला थी । उसकी गोदी का लड़का कई दिनों से बीमार चला आ रहा था । कई वैद्यों की दवाइयां खिला चुकी थी । जिसने जो वैद्य बताया, उधर ही लड़के को लेकर दौड़ती । कोई दवा काम नहीं कर रही थी ।

जो भी जान-पहचान का मिलता, तो यही पूछता था, ”अभी ठीक नहीं हुआ तुम्हारा लड़का ?” वह उसको सीधा-सीधा जवाब देती, ”किसी की दवा नहीं लग रही है । कइयों को दिखा चुके हैं ।”  एक दिन वह कहीं से लड़के के लिए दवा लेकर आ रही थी ।

रास्ते में उसे मोहल्ले का एक व्यक्ति मिला । मोहल्ले के नाते से वह उसे भाभी कहता था । बोला, ”भाभी क्या हाल है तुम्हारे लड़के का ?” उसने उत्तर दिया, ”अभी तो कोई दवा नहीं लगी है । बहुतों का इलाज करा लिया है । तुम्हीं बता दो कोई वैद्य हो ।”

वहीं गली के किनारे एक मैदान-सा था । वहां एक पीपल का पेड़ खड़ा था । वहां आवारा गाएं आकर बैठ जाती थीं । वहां गोबर हमेशा पड़ा ही रहता था । उसने उसी गोबर की ओर इशारा करते हुए मजाक किया, ”देखो, वो गोबर बादशाह हैं । वहां पीपल के नीचे जाकर मत्था टेको और दो अगरबत्ती जलाओ ।

ठीक हो जाएगा, लेकिन दवाएं खिलाना बंद मत करना ।” उसने कहा, ‘अच्छा देवरजी । मैं यह भी करके देखती हूं ।’ और आगे बढ़ गई । एक दिन सुबह स्नान करके वह महिला वहां आई । वहा उसे कुछ नजर नहीं आया । फिर उसे याद आया कि उसने गोबर बादशाह कहा था ।

गोबर तो पड़ा था । उसने वहीं मत्था टेका और दो अगरबत्ती जलाकर गोबर में लगाई और चली आई । इधर वह दवा भी खिलाती रही, और इधर वह मत्था टेकती, अगरबत्ती जलाती और ‘जय गोबर बादशाह’ कहकर चल देती । एक दिन उसे वही आदमी फिर मिला । वह बोला, ”भाभी, अब तुम्हारे लड़के की तबीयत कैसी है ?”

महिला बोली, ”देवरजी, भगवान तुम्हारा भला करें । गोबर बादशाह को मत्था टेकने से मेरा बेटा बिल्कुल ठीक हो गया ।” उसे बड़ा आश्चर्य हुआ । वह फिर बोला, ‘बिकुल ठीक हो गया ?’ महिला ने हंसते हुए कहा, ”हां, देवरजी ।”

फिर वह आदमी बोला, ‘सब ऊपर वाले की महिमा है ।’ इतना कहकर वह सोचने लगा : ‘मैंने तो ऐसे ही मजाक में कह दिया था । वैद्य की दवा ने काम किया और इस महिला को गोबर बादशाह पर विश्वास हो गया ।’ लड़के के ठीक होने की खुशी में उस महिला ने वहा पीपल के पेड़ के नीचे एक आयताकार जगह में किनारे-किनारे ईंटें गड़वा दीं और छह इंच ऊंचा चबूतरा बनवा दिया ।

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रास्ते में जब उसे कोई दूसरी महिला मिलती तो वह पूछती कि तुम्हारा लड़का किसकी दवा से ठीक हुआ । मेरे बच्चे को भी किसी की दवा नहीं लग रही है, तो वह महिला कहती, ‘अरी बहन, मैंने तो गोबर बादशाह को मत्था टेका था और दो अगरबत्तियां जलाई थीं ।’

दूसरी महिला बोली, ‘बहन, वह गोबर बादशाह है कहां ?’ उसने बताते हुए कहा, ‘गरीब कटरा के सामनेवाली गली में पीपल का पेड़ है । उसके नीचे मैदान-सा है । वहां गोबर पड़ा रहता है ।’ वह बोली, ‘अच्छा बहन, मैं भी जाऊंगी मत्था टेकने ।’ उस महिला ने यह भी बताया कि जिस वैद्य की दवा खिला रही हो, दवा खिलाते रहना है ।

दवा बंद नहीं करना है । महिला ने अच्छा बहन कहा और चली गई । इस प्रकार जो भी उस महिला के पास आता, वह उसे गोबर बादशाह का स्थान बता देती और साथ में हिदायत देती कि दवा खिलाना बंद मत करना । कुछ दिन बाद किसी को किसी वैद्य की दवा माफिक बैठ गई और वह ठीक हो गया, लेकिन उसने समझा कि वह गोबर बादशाह की कृपा से ठीक हुआ है ।

वह महिला थोड़ा अधिक खाते-पीते घराने की थी ।  उसने उस छह इंच ऊंची जगह पर तीन फुट ऊंचा चबूतरा बनवा दिया । इसी प्रकार जब तीसरे का बच्चा ठीक हुआ, उसने उस चबूतरे पर सगमरमर के पत्थर बिछवा  दिए । इसी प्रकार कुछ दिन बाद एक ने पक्का कमरा बनवा दिया । अब वहां मत्था टेकने वालों की भीड़ होने लगी ।

उधर से एक भिखारी निकला करता था । उसने देखा कि यहां पर तो कुछ नहीं था । धीरे-धीरे यहा कमरा बन गया और कोई देखभाल करने वाला भी नहीं है । उसने वहां अपना डेरा जमा लिया ।  अब वह सुबह-शाम उसको पानी से धोकर साफ करता और अगरबत्ती लगा देता ।

आने वाले जो श्रद्धा से दे देते, ले लेता था । कुछ समय बाद वहां शहर तथा आस-पास के गांव के लोग मत्था टेकने आने लगे । जब किसी की मनौती पूरी हो जाती तो कुछ-न-कुछ उस जगह की बढ़ोतरी हो जाती । अब वह स्थान गोबर बादशाह के नाम से प्रसिद्ध हो गया ।

कुछ दिन बाद उस पुजारी ने साल में दो-तीन तारीखें निश्चित कर दीं । उन तारीखों में मेला लगना शुरू हो गया । मंदिर के आस-पास फूल वाले, लौंग-धूप-अगरबत्ती वाले, प्रसाद वाले, चाट वाले आदि रास्ते के एक ओर लाइन में बैठने लगे । आस-पड़ोस को तो गोबर-बादशाह की जन्म-कुंडली मालूम ही थी ।

इसलिए वे मत्था टेकने नहीं जाते थे । जब कभी उस गली के लोग आपस में बैठकर बातें करते तो एक बुजुर्ग उस आदमी की ओर हाथ उठाकर कहता, ”असली तो गोबर बादशाह यह हैं । इन्होंने वहां पड़े गाय के गोबर को मजाक में गोबर बादशाह कह दिया था । अब तो सचमुच ‘गोबर बादशाह का कमाल है’ ।”


Hindi Proverb # 2. निन्यानवे का फेर:

एक बनिया और बढ़ई दोनों एक-दूसरे के पड़ोसी थे । बनिया नगर का जाना-माना सेठ था । उसका लाखों का कारोबार फैला हुआ था । सेठ की कई एकड़ जमीन में खेती होती थी । गेहूं सरसों और घी के गल्लामंडी में गोदाम थे । बहुत-से नौकर-चाकर थे ।

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ब्याज का पैसा आता था सो अलग । लाला रात-दिन पैसे जोड़ने में लगा रहता । एक-एक धेले का हिसाब रखता था । उसे कोई शौक भी नहीं था । यही कह सकते हैं कि उसे पैसे जोड़ने का बहुत शौक था । यहां तक कि उसके यहां अच्छा भोजन भी नहीं बनता था ।

खर्च के नाम पर उसे बुखार आ सेठानी का स्वभाव सेठ से थोड़ा अलग था । वह सोचती रहती थी कि हमारे पास पैसा है, लेकिन सब कुछ होते हुए भी हम खुश नहीं रहते हैं । कभी हंस नहीं पाते । सेठ के पास इतना समय नहीं रहता कि या से हम हंस-बोल सकें । घर से सुबह निकलते हैं और शाम को ही घर में घुसते हैं ।

यह संयोग था कि सेठ के घर कोई बच्चा नहीं था । परिवार के नाम पर तीन ही प्राणी थे-सेठ, सेठानी और सेठ की मां । सेठ की मां इतनी वृद्ध थी कि एक जगह पड़ी रहती । सेठानी को अपनी सास से चिढ़-सी थी । इसलिए सेठ की मा की देखभाल नौकर करते थे ।

बढ़ई गरीब था । कोई उससे किवाड़ की जोड़ी बनवाता था, तो कोई चौखट बनवाने आता था । कभी किसी का हल बना देता और कभी बैलों का जुआ बना देता । इस तरह उसे कोई-न-कोई काम मिलता रहता और उसके घर का रोजाना का गुजारा चलता रहता था ।

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बढ़ई का परिवार मोटा खाता था, मोटा पहनता था और खुश रहता था । तीज-त्योहार के दिन पूरियां, खीर बनतीं और कभी-कभी बेसन के नमकीन पुआ तथा मूग की दाल के पकौड़े भी बनते । सारा परिवार ही खुशी-खुशी रहता । बढ़ई की छोटी-छोटी दो बच्चियां थीं । बढ़ई और उसकी पत्नी कभी-कभी अपनी बच्चियों के साथ मस्त रहते ।

एक दिन बढ़ई अपनी पत्नी से प्रसन्नचित मुद्रा में हंस-हंसकर बातें कर रहा था । पास ही दोनों बच्चियां खेल रही थीं । सेठ और सेठानी, दोनों बैठे-बैठे झरोखे से यह सब कुछ देख रहे थे । सेठानी बोली, ‘देखो इस बढ़ई को । बेचारा अपनी मजदूरी में अपने घर का खर्चा चला लेता है ।

हमेशा दोनों को हमने इसी तरह बातें करते देखा है । बच्चे भी खेल रहे हैं । मकान भी इसका आधा कच्चा है । हम हर तरह से संपन्न हैं । फिर भी हम इन जैसे सुखी नहीं रह पाते ।’ सेठानी की बात सुनकर सेठ एक क्षण तो चुप रहा । फिर बोला, ”इनके पास सबसे बड़ा धन है संतोष धन । वह हम लोगों के पास नहीं है, इसीलिए सब कुछ होते हुए भी हम दुखी रहते हैं । किसी ने कहा भी है:

“हो रतनों की खान, तो भी बहुत दुखारी । जिस पर हो संतोष, रहे वो सदा सुखारी ।।”

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सेठानी को सेठ की बात कुछ अजीब-सी लगी । सेठानी फिर बोली, ”क्या संतों जैसी बातें करते हो ? हमारे पास धन-दौलत, हवेली, इज्जत सब कुछ तो है । संतोष क्या इनसे बड़ी चीज होती है ? हमें कभी किसी तरह की चिंता नहीं रहती । बढ़ई को हमेशा कल की चिंता बनी रहती है ।”

सेठानी का तर्क सुनकर सेठ थोड़ी देर के लिए चुप रहा, फिर बोला, “तुम इस तरह समझ नहीं पाओगी । यह समझो कि हम निन्यानवे के फेर में पड़े रहते हैं और ये निन्यानवे के फेर में नहीं पड़े हैं ।”  सेठानी फिर बोली, ”कभी संतोष, कभी निन्यानवे का फेर, मुझे तो कुछ समझ में नहीं आता ।” सेठ बोला, ”किसी चीज को समझने में समय लगता है । तुरंत कैसे समझ में आएगी ?”

सेठ था तो कंजूस, लेकिन सेठानी को गुमसुम रहते देखकर घबरा गया । उसने सेठानी के खातिर निन्यानवे रुपए का जुआ खेला । एक दिन सेठ ने सेठानी को रुपयों की एक थैली दी और कहा कि ये थैली बढ़ई के आगन में डाल दो ।

सेठानी ने झरोखे से चारों तरफ देखा, जब कोई नहीं दिखा तब सेठानी ने बढ़ई के आगंन में थैली डाल दी ।  बढ़ई के घर में थैली गिरने की आवाज हुई । शाम का समय था । घर पर बढ़ई भी था । दोनों तेजी से बाहर निकल आए । दोनों ने एक थैली पड़ी देखी । थैली भारी थी ।

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खोलकर देखा तो रुपए थे उसमें । दोनों अंदर ले जाकर गिनने लगे । निन्यानवे रुपए निकले । बढ़ई ने सोचा, चलो सेठजी से पूछ लेते हैं । बढ़ई सेठ के दरवाजे पर पहुंचा और कुंडी खटखटाई । सेठ और सेठानी निकले, ”कहो रामलाल, क्या काम है ?”

बढ़ई ने कहा, ”सेठजी, अभी मेरे आगंन में यहां से किसी तरह गिर गई होगी, ले लीजिए ।”  सेठ ने कहा, “नहीं भई ! मेरी थैली नहीं है और मेरे यहां तो कोई बच्चा भी नहीं है । कोई चील मांस समझकर ला रही होगी । उसकी चोंच से छूट गई होगी ।”

सेठ के समझाने के बाद बढ़ई वापस लौट आया । उसने अपनी औरत को सब बात बता दी । बढ़ई ने कई दिनों तक डुग्गी पिटने का इंतजार किया । फिर बढ़ई और उसकी औरत ने सोचा कि इन रुपयों का क्या किया जाए ?

उनके लिए दो-चार रुपए बहुत-बड़ी बात थी और ये तो एक कम एक सौ रुपए थे । रुपए आते ही बढइन की खोपड़ी काम करने लगी । शाम को खाना खाने के बाद जब दोनों एक साथ बैठे तो बढइन ने कहा, ”बच्चियां बड़ी होंगी । इनके विवाह करने पड़ेगे । अभी से जोड़ना पड़ेगा । नहीं तो फिर, कर्ज लेना पड़ेगा ।

कर्ज भी देगा कौन ? कोई खेती-बाड़ी तो है नहीं । यह धंधा है, रोज कमाना रोज खाना । अभी से थोड़ा-थोड़ा बचाना शुरू करते हैं । दूसरी बात यह कि मेहनत का काम तब तक ही है, जब तक शरीर में जान है । बुढ़ापा आते ही बैठकर खाना पड़ेगा । कोई लड़का तो है नहीं, जो बैठाकर खिलाएगा ।”

यह सुनकर बढ़ई बोला, “थोड़ा-बहुत तो मरते दम तक करते ही रहेंगे । रहा सवाल बच्चियों के विवाह का तो कन्याएं तो किसी कंगले की भी कुंवारी नहीं रहतीं । फिर ईश्वर पर भरोसा रखो ।” फिर भी बढइन ने खाने-पीने, पहनने में थोड़ी-थोड़ी कटौती करके, पाई-पाई जोड़ने में लग गई ।

अब खान-पान में कमी होने से चेहरों पर पहले जैसी रौनक नहीं रह गई थी । कपड़े भी ढंग के नहीं रह गए थे । उनका वह हंस-हंसकर बात करना भी नहीं रहा था । बच्चे भी आपस में झगड़ने लगे थे । सेठ ने फिर सेठानी से कहा, ”चलो, आज पड़ोसियों को देखते हैं । बढ़ई का क्या हाल है ?”

दोनों उसी झरोखे से खड़े होकर देखने लगे । देखकर सेठानी बोली, “अब तो सब कुछ बदल गया । अब तो किसी के चेहरे पर रौनक नहीं दिखाई दे रही है और अब दोनों इस प्रकार बात कर रहे हैं, जैसे कोई विशेष चिंता वाली बात हो । अब बच्चे भी आपस में झगड़ रहे हैं ।”

सेठ ने कहा, अब ये भी हमारी तरह एक-एक धेला बचाकर जोड़ने लगे हैं । इसी को कहते हैं : ‘निन्यानवे का फेर’ ।


Hindi Proverb # 3. जान बची, लाखों पाए:

एक रियासत में एक नाई और एक पंडित बहुत चालाक और मक्कार किस्म के थे । इनकी मक्कारी से वहां का राजा भी परेशान था । उनसे छुटकारा पाने के लिए राजा ने एक उपाय सोचा ।

राजा ने नाई और पंडित से अपनी लड़की के लिए एक रियासत में राजकुमार को देखने के लिए कहा । उस रियासत तक पहुंचने के लिए जगल से होकर रास्ता जाता था । उधर से जाएंगे तो निश्चित ही जानवर उन दोनों को खा जाएंगे ।

जब उनसे कहा गया, तो उनके होश उड़ गए । अगले दिन दोनों जाने के लिए इकट्ठे हुए । नाई और पंडित ने आपस में विचार-विमर्श किया कि अगर हम जाने से इनकार करते हैं तो राज्याज्ञा के उल्लंघन में फांसी दी जाएगी । इसलिए दोनों ने जाने का निश्चय कर लिया । सोचा मरना तो यहां पर भी है । जाने से शायद बचने का कुछ रास्ता निकले ।

एक-एक झोला लेकर दोनों रियासत से निकल पड़े । जैसे ही जगंल शुरू हुआ, तो दोनों को भय सताने लगा । जाना तो था ही, इसलिए वे आगे बढ़ते गए । करीब एक कोस अंदर जाने पर उनको एक शेर नजर आया । वह सामने ही आ रहा था । शेर को देखकर पंडित कांपने लगा ।

डर तो नाई को भी था, लेकिन उसने हिम्मत से काम लिया और पंडित से भी कहा कि वह बिल्कुल न डरे । नाई ने कहा कि अब मेरा कमाल देखो । पंडित सोचने लगा कि देखते हैं कि नाई क्या करता है ? उनके पास आकर शेर ठहाका मारकर हंसने लगा ।

नाई ने उससे भी अधिक जोर से ठहाका मारा और हंस दिया । शेर बड़े आश्चर्य में पड़ गया, कि आखिर यह क्यों हंसा ? शेर ने नाई से पूछा, “भाई, तुम क्यों हंसे ?” नाई ने भी पूछा, “तुम क्यों हंसे ?” शेर ने कहा कि मनुष्य का शिकार किस्मत वालों को और कभी-कभी मिलता है ।

आज तो दो शिकार अपने आप मेरे पास ही आ गए हैं । इतना सुनते ही नाई ने जोर की आवाज में कहा, ”पकड़ ले इसको । जाने मत देना ।” जैसे ही ”पंडित ने थोड़ा शरीर हिलाया, तो शेर ने बड़े आश्चर्य से पूछा, ”क्यों भैया ? मुझे क्यों पकड़ रहे हो ?”

नाई ने कहा, ”हमारे राजा ने एक जैसे दो शेर पकड़कर लाने के लिए कहा है । एक मेरी जेब में है और दूसरा तुम हो । पकड़ लो । जाने मत देना ।” शेर को बड़ा आश्चर्य हुआ । शेर वह भी जेब में । शेर ने कहा, ‘दिखाओ तो जरा ।’

नाई ने अपनी जेब से शीशा निकालकर उसके सामने कर दिया । उसमें उसी शेर की ही सूरत दिखाई दे रही थी । नाई ने कहा, ‘देख लिया । है बिकुल तेरे जैसा ?’ शेर आ गया झांसे में । बोला, ‘लगता तो है मेरे जैसा ।’ इतना कहना था कि नाई ने पंडित से कहा कि छोड़ना मत ।

पकडू लो इसको । शेर डर गया । उसने कहा, ‘भैया मुझे छोडू दो, तुम्हारी बड़ी मेहरबानी होगी ।’ नाई बोला, ‘अगर तुझे छोड़ दिया, तो राजा हम दोनों को फांसी पर चढ़ा देगा ।’  शेर फिर गिड़गिड़ाया और कहा, ‘इस जगल में और भी शेर हैं, किसी को भी पकड़  लेना ।

मेरे साथ चलो । मेरी गुप्ता में बहुत-से सोने के गहने पड़े हैं । छोड़ने की एवज में मैं तुम्हें दे दूंगा ।’ दोनों तैयार हो गए और शेर के साथ चल दिए । शेर उनको गहने देकर थोड़ा चला, फिर तेजी से जंगल में भाग गया । पंडित बोला, ”भाई, लाखों रुपयों के गहने होंगे ।

कैसे क्या होगा इसका ?” इतना धन न पंडित ने देखा था और न नाई ने । पंडित घबरा गया । नाई बोला, ”धीरज धरी । घबराते क्यों हो भाई, लौटकर तो वैसे भी नहीं आना है । जहां पहुंचेंगे, वहीं शानदार धंधा करेंगे ।” पंडित बोला, ”ठीक कहते हो भाई ।

राजा वैसे ही नाराज रहता है और इतना पैसा देखकर किसी-न-किसी चक्कर में फंसाने का काम करेगा ।”  यह सब सोचते हुए वे आगे बढ़ते गए । चलते-चलते एक मोड़-सा मिला । थोड़ा मुड़ते ही देखा, तो दोनों की सांसें ऊपर-की-ऊपर और नीचे-की-नीचे रुक गईं । वहां बहुत-से शेर थे ।

शेरों की सभा हो रही थी । पंडित बोला, ‘अब नहीं बचने के ? वहां तो एक शेर था, जो उल्लू बना दिया था । यहां कितने शेर हैं ।’  नाई ने कहा कि चिंता मत करो । एक काम करते हैं । इन झोलों को इस झाड़ी में रख दो और इस पेड़ पर चढ़ जाते हैं । थोड़ी देर बाद ये सब यहां से चले जाएंगे और हम उतरकर अपने रास्ते पर निकल लेंगे ।

इसके अलावा कोई रास्ता भी नहीं था । उन्होंने दोनों झोले झाड़ी में रखे और आंख बचाकर दोनों पेड़ पर चढ़ गए । जैसे-जैसे दिन चढ़ता जा रहा था । पेड़ की छाया सिमटती जा रही थी । सब शेर उसी पेड़ के पास आते जा रहे थे । दोपहर के बारह-एक बजते ही छाया सिमटकर सब पेड़ के नीचे आ गई ।

सब शेर भी उसी पेड़ के नीचे आ गए । अब तो दोनों की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई । फिर भी नाई पंडित को हिम्मत बंधाता रहा । शेरों का मुखिया बीच में बैठा था । उसके गले में घटा बंधा था । उस शेर ने कड़क कर एक शेर से कहा, ‘तुम पागल बन गए उन दो आदमियों से ।

शेर कहीं जेब में होता है ? तुमने आदमियों के शिकार छोड़े हैं, तुम्हें बिरादरी से बाहर निकाला जाता है ।’ शेरों के मुखिया की बात सुनते ही पंडित की हिम्मत जवाब दे गई । अचानक उसके हाथ छूट गए और नीचे घंटे वाले शेर के ऊपर ही जा गिरा । नाई ने तुरंत अपनी बुद्धि का इस्तेमाल किया । वह बोला, ‘पकड़ ले इसी घंटे वाले को ।’

इतना कहना था कि घटा वाला शेर छलाग मार कर भागा । उसने सोचा कि वास्तव में ये आदमी कितने साहसी हैं कि शेरों की भरी सभा में कूद पड़े । घंटे वाले मुखिया के भागते ही सब शेर भाग खड़े हुए । पेड़ के नीचे अकेला पंडित बेहोश पड़ा था ।

नाई ने पेड़ से दूर-दूर तक देखा । जब कहीं कोई शेर दिखाई नहीं दिया, तो वह पेड़ के नीचे उतर आया । पंडित को झकझोरा तो पंडित ऐ-ऐं करने लगा । जब पंडित की आखें खुलीं, तो देखा कि नाई सामने खड़ा था । पंडित की धोती खराब हो गई थी । उन्होंने झोले उठाए और चल दिए ।

पास में एक झील थी, वहीं दोनों ने स्नान किया और अपने-अपने कपड़े धोए । कपड़े सूखते ही पहने और चल दिए । दिन डूबने से पहले वे जंगल पार करके दूसरी रियासत में आ गए, तो नाई ने कहा, चलो पंडित जी, यहीं कोई धंधा करेंगे । ‘जान बची, लाखों पाए’ ।

Hindi Proverb #


4. जिसकी लाठी, उसकी भैंस:

नदी पार करते ही जंगल का रास्ता शुरू हो जाता था । आगे-आगे भैंस चली जा रही थी, पीछे-पीछे पंडित जी । चलते-चलते पंडित सोचता भी जा रहा था कि जमींदार के यहां पहली संतान हुई थी, वह भी लड़का । बड़ी धूम-धाम से मनाया था लड़के का जन्मदिन ।

जमींदार के वंश की आगे की परंपरा खुल गई थी । जमींदार के यहां पांच भैंस थीं । आज खुशी-खुशी से जमींदार ने मुझसे कहा था कि यजमानी में जिस भैंस को चाहो ले लो । पंडित आज मन पसंद की भैंस यजमानी में पाकर बहुत प्रसन्न था ।

जिंदगी में पहली बार किसी ने यजमानी में इतनी बड़ी चीज दी थी । पंडितजी पहलवानी के शौकीन थे, इसलिए अब दूध की कमी नहीं रहा करेगी । राह में यही सब सोचता पंडित चला जा रहा था । जंगल की पगडंडी से होता हुआ एक अहीर चला आ रहा था ।

उसके हाथ में लाठी थी । पगडंडी से आता हुआ वह पंडित के पास से ही निकला । अहीर पंडित से बात करते हुए साथ-साथ चलने लगा । भैंस को देखकर अहीर की नीयत खराब हो गई । वह पंडित से बोला, ”पंडितजी ! आप पूजा-पाठ करने वाले आदमी, भला आप कहां भैंस की देखभाल कर पाएंगे ।

जंगलों में चराना और तालाब में स्नान कराना, यह सब आपके बस की बात नहीं  है । आप यजमानी करेंगे या भैंस की देखभाल करेंगे ।” पंडित उसकी बात सुनता जा रहा था, और भैंस को हांकता जा रहा था । पंडित उसकी बात सुनने के बाद बोला:

“अहीर देवता, तुम कहना क्या चाहते हो?” अहीर बोला, ‘भाई, यही कि भैंस मुझे दे दो । आप देखभाल नहीं कर पाओगे ।’ पंडित बोला, ”अपने लिए लाया हूं तुझे क्यों दे दूं ? अहीर बोला, ‘यह लाठी देखी है, एक सिर पर पड़ी, तो खोपड़ी फूट (खरबूजे की एक अन्य प्रजाति) की तरह खिल जाएगी । तू भी यजमानी में से मुफ्त में लेकर आया है ।’

अहीर का शरीर अच्छा गठा हुआ था । वैसे तो पंडित भी कम नहीं था, लेकिन पंडित लड़ने वाला आदमी नहीं था । पंडित के दिमाग में एक बात घर कर गई थी कि अहीर लाठी के बल पर उछल रहा था ।  पंडित लाठी के बारे में सोचता रहा । पं

डित थोड़ा रुककर बोला, ‘अहीर देवता, यदि तुम ब्राह्मण की कोई वस्तु बिना कुछ दिए लोगे, तो घोर नरक में जाओगे । भैंस ले रहे हो, तो कुछ तो देना ही पड़ेगा ।’  अहीर बोला, ‘पंडितजी, मेरे पास तो कुछ नहीं है । घर होता तो और बात थी ।’ उसने जेब में हाथ डाला, तो कुछ नहीं निकला । पंडित की नजर लाठी के ऊपर थी ।

पंडित बोला, ‘कुछ नहीं, यह लाठी तो है । शकुन के तौर पर इसे दिया जा सकता है ।’ पंडित ने सामने देखा कि लगभग दो फर्लाग पर गांव दीख रहा है । रास्ता भी बीच गांव से होकर जा रहा है । अहीर ने तुरंत अपनी लाठी पंडित को दे दी । भैंस तो रास्ते पर चल ही रही थी ।

पीछे-पीछे ये दोनों बातें करते हुए चले जा रहे थे । अहीर खुश था कि भैंस मेरी हो गई । अहीर कभी-कभी हांक लगाते हुए हाथ लगा देता था भैंस के । गांव में थोड़ी दूर पहुंचते ही एक मिठाई की दुकान मिली ।  वहां कुछ लोग बैठे हुए थे । पंडित ने अहीर से कहा, ”अहीर देवता, मैं यहां रुककर पानी पिऊंगा । तुम जहां जा रहे हो, निकल जाओ ।”

अहीर भैंस हांककर चलने लगा, तो पंडित ने कहा, ”कहां ले जा रहे हो मेरी भैंस को ।” अहीर बोला, ‘पंडित, भैंस मेरी है । क्यों रोकते हो ?’ पंडित बोला, ”तेरी भैंस है ? तू कहां से लाया ?” अहीर थोड़ा पंडित की ओर बढ़ा तो पंडित बोला, ”दूर रहना, नहीं तो सिर के टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा ।” दोनों को झगड़ते देखकर वहां के लोगों ने बीच-बचाव किया । तू-तू मैं-मैं की आवाज सुनकर तमाम लोग आ गए ।

मुखिया का घर सामने ही था । वे घर पर थे । झगड़ा देखकर वे भी आ गए । एक ने कहा, ”थोड़ा रास्ता दो, मुखिया आ गए । अभी निपटारा होता है ।”  एक ने बगल से चारपाई लाकर बिछा दी । मुखिया उस पर बैठ गए । मुखिया ने पूछा, ‘क्या बात हे ?’ दुकान पर बैठे लोगों ने बताया कि दोनों बातें करते चले आ रहे थे ।

यहां आते ही, दोनों झगड़ने लगे । जो ये लाठी लिए हैं, इसने इससे कहा कि, मैं थोड़ा लगा । तुम्हें जहां जाना हो जाओ । इतने पर खाली हाथ वाला बोला कि यह भैंस मेरी है । दोनों झगड़ने लगे । मुखिया ने दोनों की ओर देखा, फिर अहीर की तरफ देखते हुए कहा, ”भाई, लाठी इसके हाथ में है ।

भैंस को हांकता यह ला रहा है । तुम खाली हाथ आ रहे हो । फिर तुम्हारी भैंस कैसे हो गई ?”  अहीर तुरंत बोला, ”यह लाठी मेरी है ।’ इस बात पर मुखिया ने पूछा, ”तेरी लाठी है, तो इसके हाथ में कैसे आ गई ? झूठ बोलते हो ।’ अहीर बोला, ”लाठी पहले मेरी थी । मैंने भैंस के बदले में लाठी दी है ।”

अहीर की यह बात सुनकर सब लोग हस पड़े । बात जो मजेदार थी । हर कोई जानना चाहता था कि यह मामला क्या है ? मुखिया ने जब पंडित से पूछा तो उसने पूरी घटना सुना दी । सुनते ही अहीर के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं । मुखिया ने कहा, ”अहीर तो मेरे गांव में भी हैं । पर ऐसा वाकिया तो पहली बार सुन रहा हूं ।

ब्राह्मण की यजमानी की चीज भी नहीं छोड़ी तूने ।” इतना कहकर मुखिया ने सोचा, कि लाठी ब्राह्मण देवता के पास ही रहने दो । अहीर को दिलवाने से पंडित निहत्था हो जाएगा और आगे रास्ते में फिर बदमाशी कर सकता है । मुखिया ने अहीर से कहा, देख रहे हो । लाठी किसके हाथ में है ? ‘जिसकी लाठी, उसकी भैंस’


Hindi Proverb # 5. अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम:

एक दिन मलूकदास को न जाने क्या सूझा कि हठ कर बैठे कि ईश्वर सबको खिलाता है । मैं देखता हूं ईश्वर मुझे कैसे खिलाता है ? ऐसा सोचकर वे एक जंगल में चले गए । जंगल में उन्हें एक छायादार वृक्ष मिला । मलूकदास उसी वृक्ष के नीचे लेटकर सुस्ताने लगे ।

थोड़ी देर बाद वे उसी पेड़ पर चढ़कर बैठ गए । एक आदमी आया और उसी पेड़ के नीचे बैठकर सुस्ताने लगा । थोड़ी देर बाद उस व्यक्ति ने पोटली खोली और खाना निकालकर रख लिया । उसने अंगोछा बिछाया और उसी पर रोटियां, सब्जी आदि सब अलग-अलग करके रखता गया ।

जैसे ही वह खाना खाने को तैयार हुआ कि उसे घोड़ों के टापों की आवाज सुनाई दी । उस व्यक्ति के पास धन भी था । उसने सोचा कि चोर हुए तो सब धन छीन लेंगे । इसलिए वह तुरंत पोटली लेकर भाग खड़ा हुआ । वह झाड़ियों में छिपता हुआ निकल गया ।

थोड़ी ही देर में चोरों का गिरोह उस पेड़ के पास से निकला । पेड़ के नीचे खाना रखा हुआ देखकर गिरोह रुक गया । खाना खाने योग्य ताजा था । सरदार ने अपने साथियों से कहा, ”लगता है, जरूर कोई जासूस यहां आस-पास छिपा है । हम लोगों को पकड़वाने के लिए आया होगा ।”

चोरों ने इधर-उधर खोजा लेकिन किसी को कोई नहीं मिला । एक की नजर पेड़ के ऊपर चली गई । वह चिल्ला उठा, ”सरदार, देखो, वो पेड़ पर एक आदमी बैठा है । यह निश्चित रूप से जासूस है । लगता है इस भोजन में जहर मिला है । यह भोजन नीचे रखकर पेड़ पर बैठ गया है । इसने सोचा होगा कि हम लोग इस जहर मिले भोजन को खाएंगे और मर जाएंगे या बेहोश हो जाएंगे तो यह पकड़वा देगा ।”

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मलूकदास को जबरन चोरों ने नीचे उतार लिया । मलूकदास ने चोरों से कहा कि मैं कोई जासूस नहीं हूं । मैं यूं ही यहां आकर बैठ गया था । मैं साधु हूं । मलूकदास की बात सुनकर सरदार ठहाका मारकर हंसा और बोला, ”जासूस भी इसी तरह की वेशभूषा में होते हैं और इसी तरह की बात करते हैं ।”

सरदार ने मलूकदास के सीने पर भाले की नोंक रखते हुए कहा, ‘इस खाने में जहर नहीं मिला है तो इसे तू खा । अगर नहीं खाया तो जान से मार दूंगा ।’ मरता क्या न करता । मलूकदास ने खाना खाना शुरू कर दिया । मलूकदास खाना खाते जा रहे थे, सोचते जा रहे थे मैंने तो सोचा था कि आज खाना नहीं खाऊगा ।

इसीलिए मैं जंगल में चला आया था । सोचा था कि देखते हैं ईश्वर कैसे मुझे खाना खिलाता है ? मेरे न चाहने पर भी खाना पड़ रहा है । सरदार और सभी बदमाश मलूकदास को खाना खाते देखते रहे । खाना खाकर मलूकदास बोले:

‘अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम । दास मलूका कह गए, सबके दाता राम ।।’

मलूकदास की बात सुनकर चोरों को लगा कि यह तो वाकई में साधु लगता है । जब देखा कि खाना खाकर भी मलूकदास को कुछ नहीं हुआ, तो सभी चोर मलूकदास को प्रणाम करके चले गए ।

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