List of most popular Hindi Proverbs!

Hindi Proverb (कहावत) # 1. माया तेरे तीन नाम : परसा, परसू, परसुराम:

एक बनिया था । जब उसका लड़का मोहल्ले के लड़कों की शोहबत में पड़ा, तो उसे चिंता होने लगी । लड़के की पढ़ाई तो पांचवीं कक्षा में बद हो गई थी । लड़का गलत आदतें न पाल ले, इसलिए बनिये ने उसे धंधे में लगाने की सोची ।

बनिया चाहता था कि उसका लड़का धंधे को अपनी मेहनत से बढ़ाए । इसलिए उसने अपने लड़के को केवल पांच रुपए देकर कहा, “ये पैसे लो और अपना कोई काम करो ।”  उसने गली-गली में घूम-घूमकर उबले हुए चने बेचने शुरू कर दिए । वह दो सेर चने शाम को पानी में भिगोता और सुबह उबाल लेता ।

चटनी बना लेता । एक डिब्बा नमक का और एक डिब्बा मिर्च का रखता । यह सब एक थाल में रखता और एक अंगोछे की ईडुरी बनाकर सिर पर रख लेता । जो जानते थे वे आवाज लगा लेते थे, ”आ परसा ! एक छटांक चने देना ।”

कुछ समय में उसने अच्छी बचत कर ली । जब बनिये ने देखा कि इतने पैसों से लड़का और अच्छा काम कर सकता है, तो चाट का खोमचा लगवा दिया । लड़का अब सयाना भी हो चला था और कपड़े भी जरा ढग से पहनने लगा था ।

उसका खोमचा चल पड़ा । अब लोग उससे कहते, ”परसू भाई ! दो छटांक दाल के पकौड़े देना ।” कुछ सालों में उसने कई हजार रुपए कमा लिए । अब बनिये ने उसको एक दुकान करवा दी । अब उसमें वह बारदाना बेचना शुरू कर दिया । कुछ ही समय में उसकी दुकान अच्छी चलने लगी ।

अच्छी कमाई होने लगी । अब वह लाला बनकर गोल टोपी लगाकर गद्दी पर बैठने लगा । उसने सहयोग के लिए दो-एक नौकर रख लिए । अब लोग उसे लाला परसुराम कहकर पुकारने लगे । जब कोई पुराना साथी लाला से मिलता और कहता, ”यार, अब तो तुम लाला परसुराम हो गए हो । अब परसा कहा रहे ?” बनिया जवाब में कह देता, ‘माया तेरे तीन नाम : परसा, परसू परसुराम ।’


Hindi Proverb(कहावत) # 2. भागते चोर की लंगोटी ही सही:

एक चोर चोरी करने निकला । रात अंधेरी थी । उसने एक बनिये के घर में पिछवाड़े से सेंध लगा दी । घर में घुसकर सामान टटोलने लगा । जैसे ही वह सामान लेकर चला कि कोई हलकी-सी चीज गिरी ।

ADVERTISEMENTS:

उसकी आवाज से बनिया जाग गया और अदर कमरे की ओर दौड़ा । चोर सामान लेकर सेंध से निकल ही रहा था कि बनिये ने पीछे से कमर पकडूने की कोशिश की । चोर ने सामान बाहर फेंककर बनिये की पकडू से बचने की कोशिश की ।

चोर तो निकलकर भाग गया, लेकिन चोर की लंगोटी बनिये के हाथ में आ गई । बनिये ने देखा कि नंगा चोर भागता जा रहा है और कुछ दूर जाकर अंधेरे में गायब हो गया । उसके शरीर पर लंगोटी थी, सो बनिये के हाथ में रह गई थी । बनिये ने शोर मचाया तो तमाम लोग इकट्‌ठे हो गए ।

गांववालों ने बनिये से चोर के बारे में पूछताछ की । बनिये ने बताया कि किसी वस्तु के गिरने की आवाज से मेरी नींद टूट गई और मैं तुरंत दौड़ा, तो चोर सेंध से निकलकर भाग रहा था । मैंने जैसे ही उसे पकड़ा तो उसकी यह लंगोटी मेरे हाथ में आ गई और वह नंगा ही भागता चला गया । दीये की रोशनी में जब उसने लंगोटी लोगों को दिखाई तो गाँव के दर्जी ने पहचान लिया ।

सुबह होते ही बनिया कुछ लोगों के साथ मुखिया के पास गया । लंगोटी दिखाते हुए बनिये ने पूरी घटना सुनाई । मुखिया ने लंगोटी देखकर कहा, “चलो, ‘भागते चोर की लंगोटी ही सही। इससे सब कुछ पता चल जाएगा ।” उस लंगोटी के जरिए ही चोर तक पहुंचे और उसने चोरी करना स्वीकार कर लिया ।


Hindi Proverb (कहावत) # 3. आप हारे, बहू को मारे:

एक दर्जी था । उसका काम खूब चलता था । घर में सभी आनंदपूर्वक रहते थे । उसकी मां थी, पत्नी थी और दो बच्चे थे । वह सीधा-सादा व्यक्ति था । सुबह उठना और नहा-धोकर दुकान पर जाना ।

शाम को दुकान बंद करके आना । भोजन करना और सो जाना । छुट्‌टी के दिन घर पर रहना या बाहर कहीं जाना होता तो जाता । एक बार दीवाली पर उसका मित्र आया और उसे ले गया । वहा वह जुआ खेला । कुछ पैसे जीतकर आया । अब कभी-कभार वह जुआ खेलने लगा ।

कभी हारता, तो कभी जीतता । धीरे-धीरे जुआ खेलने में उसकी दिलचस्पी बढ़ती चली । अब दुकान कभी खुलती, तो कभी बंद रहती । ग्राहक टूटते गए और दुकानदारी खराब होती चली गई । वह अपने मोहल्ले वालों के साथ नहीं खेलता था, इसलिए उसके जुए के बारे में पड़ोसियों को कम मालूम था ।

जुए की वजह से घर में धीरे-धीरे कलह शुरू हो गई । अब वह घर में शराब पीकर भी आने लगा । हालत यह हो गई कि वह रोज जुआ खेलता, प्रतिदिन घर में कलह होती और औरत को पीटता । वैसे तो उससे कोई कुछ नहीं कहता था ।

जब रोज-रोज की कलह और मार-पीट से पड़ोसियों की नींद खराब होने लगी, तो उन्होंने मजबूरी में पुलिस को सूचना दी । पुलिस आने पर घर वालों ने तो जान-बूझकर बातें छिपा लीं । उसकी पत्नी भी नहीं चाहती थी कि पुलिस वाले उसके पति को पकड़कर ले जाएं और कुछ करें ।

ADVERTISEMENTS:

अंत में पड़ोसियों को बताना पड़ा कि यह रोज जुआ खेलकर आता है और रोज अपनी पत्नी को मारता है । रोजाना दो-तीन घंटे हम लोगों की नींद खराब करता है । दरोगा ने सबकी बातें बड़े ध्यान से सुनीं । उसको ले जाते समय दरोगा बोला, अच्छा यह बात है : ‘आप हारे, बहू को मारे ।’


Hindi Proverb (कहावत) # 4. बोले सो कुंडी खोले:

एक दो मंजिले मकान में कई किराएदार थे । मुख्य दरवाजा रात के लगभग ग्यारह बजे तक खुला रहता था । इस समय तक कुछ लोग जागते रहते और कुछ लोग सो जाते थे ।

सर्दियों का समय था । जोर की सर्दी पड़ रही थी । रात के करीब डेढ़ बजे थे । हरभजन दरवाजे पर आवाज लगाने लगा । कुछ देर बाद जब दरवाजा नहीं खुला, तो कुंडी खटखटाने लगा । दो परिवार नीचे रहते थे और तीन परिवार ऊपर । पांचों परिवार के लोग जाग गए थे, लेकिन कोई दरवाजा खोलने को तैयार नहीं था ।

ADVERTISEMENTS:

कृष्णकात नीचे रहता था । उससे अधिक देर तक खट-खट की आवाज सुनी नहीं गई । उसने लेटे-लेटे ही आवाज दी, “कौन है ?” हरभजन ने आवाज दी, ”मैं हूं । दरवाजा खोल ।” हरभजन का परिवार पहली मंजिल पर था । उसका लड़का और लड़के की बहू दोनों जाग रहे थे । लड़के को बुरा लग रहा था कि मेरा बाप खड़ा-खड़ा चिल्ला रहा है ।

वह किवाड़ खोलने के लिए जैसे ही उठा, उसकी औरत ने रोक लिया और कहा, ”कहां जा रहे हो ? कोई-न-कोई खोल ही देगा ।” फिर वे दोनों बातें करने लगे । पहली मंजिल पर दूसरा परिवार कायस्थ परिवार था । उसका भी पूरा परिवार जाग गया था । उसकी पत्नी ने कहा, ”दरवाजा खोल आओ । कैसे जोर-जोर से कोई कुंडी बजा रहा है ।

मुन्ना जाग गया, तो उसे सुलाना मुश्किल हो जाएगा ।” उसके परिवार वाले खोलेंगे । मैं क्यों खोलूं इतना कहकर कायस्थ लेट गया । इसी मंजिल पर तीसरे कमरे में चार लड़के रहते थे । वे भी जाग रहे थे । उनमें से एक बोला, ”साले को ऊपर से पानी डालकर भिगोता हूं ।”

दूसरा बोला, ”यार चुप-चाप सो जा । क्यों लड़ाई करवाना चाहता है ? साले को चिल्लाने दो ।”  तीसरा बोला, “कृष्णकांत ने आवाज लगाई थी । साला वही खोलेगा ।” अब वह कृष्णकांत का नाम ले-लेकर आवाजें लगाने लगा था । कृष्णकांत के बगल के कमरे में एक लाला रहता था ।

ADVERTISEMENTS:

वह थका-हारा आया था और ऐसे सो रहा था, जैसे वह घोड़े बेचकर सो रहा हो । जब देर तक वह कृष्णकांत का नाम लेकर आवाजें लगाता रहा, तो आस-पड़ोस के लोग भी जाग गए । पड़ोसियों ने भी कृष्णकांत का नाम लेकर आवाजें लगाना शुरू कर दिया । अब तो उसे उठना ही पड़ा ।

अब कृष्णकांत सोचता रहा कि मैंने बेकार में आवाज लगा दी । उसके परिवार के लोगों में से कोई नहीं बोला । इस मकान में से कोई भी तो नहीं बोला । मुझे बोलने की क्या जरूरत थी ? अब बाहर लोग मेरा नाम लेकर पुकार रहे हैं । मुझे ही उठना पड़ा ।

अब मैं कभी आवाज नहीं दूंगा । यह सोचते हुए कृष्णकांत ने कुंडी खोली । हरभजन अंदर आया और ऊपर चला गया । कृष्णकांत कुंडी लगाकर बड़बड़ाता हुआ आया और बिस्तर पर लेटते हुए बोला, अच्छा जमाना आ गया : ‘बोले सो कुंडी खोले’ .


Hindi Proverb (कहावत) # 5. चोर की दाढ़ी में तिनका:

एक काजी का फैसला सुनाने के मामले में दूर-दूर तक नाम था । वह कोशिश यही करता था कि किसी बेगुनाह को सजा न हो । कोई-कोई मुकदमा ऐसा आता था, जिसमें वह अपनी बुद्धि का बहुत अच्छा परिचय देता था ।

ADVERTISEMENTS:

इसी प्रकार का एक मुकदमा उसके यहां आया । चोरी के शक में चार आदमियों को इजलास में हाजिर किया गया था । गवाहों के बयान सुनने के बाद और सबूतों को देखने-समझने के बाद असली चोर का निर्णय नहीं कर पा रहा था ।

फिर भी वह असली चोर को जानने के लिए लगातार सोचे जा रहा था । चोर की कमजोरियों और आदतों के बारे में सोचने लगा । वह जानता था कि चोर डरपोक होता है और उसे हमेशा इस बात का डर बना रहता है कि उसको पहचान न लिया जाए ।

काजी ने ये सारी बातें सोचकर शक में लाए गए मुजरिमों को गौर से देखा । एक-एक चेहरे पर नजर गड़ाकर देखते रहे । अचानक एक उपाय उनके दिमाग में कौंध गया । काजी ने देखा कि सब ही मुजरिमों की दाढ़ियां हैं । उसने एक तीर में तुक्का छोड़ा ।

मुजरिमों की ओर इशारा करते हुए काजी बोला, ”चोर की दाढ़ी में तिनका ।” सबकी निगाहें उनकी दाढ़ियों पर जा पहुंची । दरोगा की निगाहें भी उधर ही थीं । असली चोर ने सोचा कि कहीं मेरी दाढ़ी में तो तिनका नहीं है । यही सोचकर उसने दाढ़ी पर हाथ फेरा ।

दाढ़ी पर हाथ फेरते ही काजी ने कहा, ”चोर यही है । इसे गिरफ्त में ले लो और बाकी सबको बाइज्जत छोड़ा जाता है ।” दरोगा उसे ले जाते हुए रास्ते में सोचता रहा कि किस तरह अंधेरे में तीर मारा और सीधा निशाने पर लगा : “चोर की दाढ़ी में तिनका”


Hindi Proverb(कहावत) # 6. जैसे को तैसा:

पहले विवाह के संबंधों में लड़के-लड़कियों की पूरी छानबीन पंडितों और नाइयों पर छोड़ दी जाती थी । लड़के को पक्का करने के लिए ‘पीली चिट्‌ठी’ और ‘लगन’ ले जाने का काम नाई ही करता था ।

एक व्यक्ति की लड़की तुतलाती थी । उसने अपनी लड़की के रिश्ते के लिए एक नाई से कह रखा था । उसी नाई के प्रयास से रिश्ते के लिए बात चली । पहले लड़की वाले लड़के को देखने गए । लड़का एक जरूरी काम से जा रहा था, इसलिए वह एक मिनट उनके बीच बैठा, नमस्ते की और चला गया ।

लड़का सुंदर था और अच्छा था । लड़के से संबंधित शेष जानकारी उस पक्ष के नाई और परिवार वालों से मिल गई । जब लड़की को देखने वाले पहुंचे, तो लड़की पक्ष के नाई ने एक कमरे में बैठा दिया । बैठे लोगों को लड़की नाश्ते और चाय रखकर चली गई । शेष बातें लड़की के घर वालों तथा नाई से ज्ञात हुईं ।

लड़की भी सुंदर और घरेलू कामों में होशियार थी । लड़के वाले का नाई स्थिति को समझ गया, लेकिन बोला नहीं । यह संबंध तय हो गया और वह समय भी आ गया जिस दिन बारात आनी थी । बारातियों को खाना आदि खिलाने के बाद लड़का और लड़की विवाह-मंडप में आए ।

दोनों को देखकर लड़की और लड़के वाले खुश थे कि दोनों की जोड़ी बहुत सुंदर मिली है । भांवरे पड़ने के बाद दोनों बैठे ही थे कि लड़की की नजर सामने थोड़ी दूर पर आती हुई दुमुंही पर पड़ी और वह घबराकर बोल पड़ी: ‘तीला ! तीला !!’ इतना सुनते ही लड़के ने अपने आस-पास देखा और उसके मुँह से निकला: “तायां ! तायां !!”

सब लोगों की नजर जब दुमुंही पर पड़ी, तो पहले सब लोग भौंचक्के रह गए । फिर दोनों की तरफ के लोग ठहाका मारकर हस पड़े । दूल्हा और दुल्हन, दोनों मुह लटकाए धरती को देखते रहे । कभी-कभी कनखियों से एक-दूसरे को देख लेते थे ।

लड़की वाले ने सोचा था कि मेरी लड़की तोतली है, लेकिन लड़का अच्छा मिला है । इसी प्रकार लड़के वाले ने सोचा था कि मेरा लड़का तोतला है, लेकिन लड़की ठीक मिली है । लेकिन “तीला-तीला तायां-तायां” ने साबित कर दिया कि ‘जैसे को तैसा’ मिला ।


Hindi Proverb (कहावत) # 7. चार लट्ठ के चौधरी, पांच लट्ठ के पंच:

एक दिन गांव में फौजदारी हो गई । जो कमजोर थे, वे बेचारे पिटे और गालियां खाईं । मामला गांव के मुखिया के पास गया, तो उन्होंने एक दिन पंचायत बुलाई और उसमें दोनों तरफ के लोगों को बुलाया ।

पंचायत में गांव के लगभग सभी लोग मौजूद थे । जब एक-एक करके दोनों ओर की बातों को सुना गया, तो उससे यह साफ मालूम पड़ रहा था कि गरीब परिवार के लोगों को बेमतलब पीटा गया है और गालियां दी गई हैं । जब पंचों ने ताकतवर परिवार के लोगों से पूछा, “बोलो, आप लोग क्या कहते हो ?”

इस पर उन लोगों ने कहा, ”इसमें हम क्या कहते हैं ? अदब नहीं करेगा, तो पिटेगा ही ।” जब उस गरीब परिवार के लोगों से पूछा, तो उन्होंने कहा, ”ऐसे तो कोई गरीब जिंदा ही नहीं रह सकता । आप पंच लोग जैसा कहेंगे हम करने को तैयार हैं ।”

पंच लोगों ने बैठकर आपस में तय किया कि जिसने गलती की हो, उसे चेतावनी देना जरूरी है कि आइंदा इस तरह की गलती न करे । बाकी की गई गलती के लिए वह माफी मांगे । अंत में जब पंचों ने फैसला सुनाया, तो गलती करने वालों ने बिकुल उलटा किया ।

माफी मार्गने की जगह उन्होंने कहा कि हम कुछ नहीं करेंगे । इतना कहकर वे सब उठकर चले गए और कहा, ”जो कुछ हमारा करना चाहो, कर लो ।” पंच तथा मुखिया आदि लोग चिंतित हुए और गांव के गरीब लोग भी सकते में आ गए । सब एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे ।

पंचायत में एक अस्सी साल के बुजुर्ग बैठे हुए थे । उसने अनुभव किया कि पंच भी उस परिवार के व्यक्तियों से कम ताकतवर हैं । इसीलिए चौधरी भी चुपचाप बैठे हुए हैं ।  न्याय दिलाने के लिए कोई भी व्यक्ति या सामूहिक तौर पर लोग उस ताकतवर परिवार से लड़ाई मोल नहीं लेना चाह रहा था । गांव में एक व्यक्ति को एक लाठी के बराबर गिना जाता है । सब स्थितियों को देखते हुए उस बुजुर्ग ने कहा:

‘चार लट्ठ के चौधरी, पांच लट्ठ के पंच । जाके घर में छह लठा, ताके अंच न पंच ।।’


Proverb (कहावत) # 8. अपने किए का क्या इलाज:

गांव के किनारे एक किसान का घर था । घर के सामने ही उसके खेत थे । खेतों में गेहूं की पकी फसल खड़ी हुई थी । खेतों की रखवाली में पूरा परिवार रात-दिन लगा रहता था ।

कई साल बाद इतनी अच्छी फसल हुई थी । सभी लोग प्रसन्न थे । इस फसल के भरोसे किसान ने कई मनसूबे पूरे करने के विचार बना लिए थे । उसने गाय और बकरी के साथ मुर्गियां तथा बतखें भी पाल रखी थीं । मुर्गियों और बतखों के लिए घर के बाहर ही दरबे बना रखे थे ।

दरवाजे पर ही गाय और बकरी बंधी रहती थीं । घर के बाईं ओर एक छोटा तालाब था । मुर्गियां और बतखें तालाब तक डोलती रहती थीं । चुगती रहती थीं । बतखें पानी में तैरती भी थीं । पास में एक जगल था । उस जगंल की एक लोमड़ी किसान के घर तक चक्कर लगा जाती थी । एक दिन मौका पाकर किसान की एक मुर्गी को ले गई । किसान को बड़ा दुख हुआ ।

घर के सभी लोग चौकन्ने रहकर मुर्गियों और बतखों की देख-रेख करने लगे । लोमड़ी अब और जल्दी-जल्दी चक्कर लगाने लगी । अब वह सुबह-झुटपुटे और दिन डूबे के अंधेरे में चक्कर लगाने लगी । मौका पाते ही कभी बतख को मार जाती और कभी मुर्गी को ले जाती ।

किसान ने लोमड़ी को पकड़ने और मारने के कई उपाय किए, लेकिन सफल नहीं हो सका । एक दिन उसने जाल फैलाकर लोमड़ी को पकडू लिया । किसान ने उसे तड़पाकर मारने की सोची । उसने लोमड़ी की पूछ में फटे-पुराने कपड़ों को लपेटकर मिट्‌टी का तेल डाला और आग लगा दी ।

लोमड़ी के गले में रस्सी बांधकर एक के से बांध दिया था । पूछ में आग लगते ही लोमड़ी उछल-कूद करने लगी । बच्चे हो-हो करके हंसने लगे । कभी-कभी लोमड़ी पीछे हटकर गले से फंदा निकालने की कोशिश करती । उछल-कूद में रस्सी में आग लग गई । रस्सी टूट गई और लोमड़ी निकल भागी ।

लोमड़ी ने सबसे पहले पूंछ में लगी आग बुझाने की सोची । वह सामने ही किसान के खेत में घुस गई । वह आग बुझाने के लिए खेत में इधर-से-उधर और उधर-से-इधर अपनी पूछ को पौधों से लड़ती हुई भागती रही । दौड़ती रही । देखते-ही-देखते सारा खेत धू-धूकर जलने लगा ।

खेत आग की लपटों से भर गया । एक-दो घंटे में किसान की लहलहाती फसल जलकर राख हो गई । किसान के घर में मातम-सा छा गया । रात को सोते समय उसे नींद नहीं आई । वह लेटा-लेटा सोचता रहा : ‘अपने किए का क्या इलाज’


Proverb (कहावत) # 9. बिच्छू तो डंक मारता ही है:

फूलों की घाटी में एक गाँव था । गांव के बाहर हरियाली और खेत थे । घाटी से उतरता हुआ एक पतला-सा झरना खेतों और मैदानों से होकर बह रहा था । दूर मैदान में चौपाए घास चर रहे थे । बहते पानी के पास चार-पांच लड़के खड़े थे और पत्थर के छोटे-छोटे टुकड़े पानी में फेंक रहे थे ।

उधर ही एक साधु जा रहा था । बच्चों को पानी में पत्थर के टुकड़े फेंकते देखकर साधु ने पूछा, “बच्चो क्या है ?” “बाबा बिच्छू है । बहुत जहरीला । उसी को मार रहे हैं?” बच्चे बोले । बच्चों को पत्थर मारने को मना करते हुए साधु उस ओर बढ़ा और पानी में बहते बिच्छू को निकालने लगा । साधु ने हाथों की अंजुली बनाकर पानी सहित बिच्छू को उठाया ।

पानी से थोड़ा ही ऊपर उठा पाया था कि बिच्छू ने डंक मार दिया । साधु का हाथ हिल गया और बिच्छू पानी में गिरकर फिर बहने लगा । साधु ने बिच्छू को फिर पकड़कर उठाया । पानी से थोड़ा ऊपर आते ही बिच्छू ने फिर डंक मार दिया ।

बिच्छू फिर पानी में गिर गया और बहने लगा । साधु फिर हाथ झटककर रह गया । इस प्रकार साधु बार-बार बिच्छू को पकड़कर निकालता और वह बार-बार पानी में गिर जाता । अंत में साधु ने बिच्छू को निकालकर झाड़ी में फेंक दिया ।

साधु को सब बच्चे भौंचक्के होकर देख रहे थे । एक बच्चे ने साधु से पूछा, “बाबा, बिच्छू आपको बार-बार डंक मारता रहा । आपके हाथ में दर्द होता रहा और आपने उसे बचाकर झाड़ी में फेंक दिया । उसे जान से मार देना चाहिए था ।”

बच्चों की बात सुनकर साधु थोड़ा मुस्कराया, उसने अपनी झोली से बिच्छू का जहर उतारने की एक दवा निकाली और उसे हाथ पर मलता हुआ बोला, “बच्चो, ‘बिच्छू तो डंक मारता ही है । डंक मारना इसका स्वभाव है । मैं हूं एक साधु ।

मेरा धर्म है जान बचाना । जब यह एक छोटा जीव होकर अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता, तो भला मैं मनुष्य होकर अपने धर्म को क्यों छोड़ दूं ?” इतना कहकर साधु आगे बढ़ गया ।


Proverb (कहावत) # 10. जिमका काम उसी को साजे, और करे तो डंडा बाजे:

एक धोबी था । उसके यहां एक गधा था और एक कुत्ता । धोबी सवेरे कलेवा करता और गधे पर कपड़ों की लादी लादकर चल देता । नदी पर धोबीघाट पर कपड़े धोता-सुखाता और शाम को घर आ जाता । कुत्ता कभी घर पर रहता, कभी घाट पर साथ जाता ।

धोबी कुत्ते को बहुत प्यार करता था । कुत्ता पूछ हिलाकर धोबी का स्वागत करता । कुत्ता कभी शरीर को टेढ़ा-मेढ़ा करता और कभी दो पैर धोबी के ऊपर रख देता । जब कुत्ता अधिक प्यार जताता, तो धोबी के मुह को चाटने लगता था ।

यह सब देखकर गधे को बहुत बुरा लगता था । वह सोचता था कि कुत्ता तो कुछ भी काम नहीं करता है । मैं कपड़ों की लादी लादकर ले जाता हूं उधर से सूखे कपड़े और धोबी के बच्चे अपनी पीठ पर लादकर लाता हूं । लेकिन धोबी ने मुझे कभी प्यार नहीं किया । धोबी कुत्ते को ही प्यार करता रहता है ।

एक दिन गधे ने सोचा कि मैं भी कुत्ते की तरह हरकत करके अपने मालिक को प्रसन्न करता हूं । फिर वह मुझे भी कुत्ते की तरह प्यार करेगा । ऐसा सोचकर वह मौके की तलाश में रहने लगा । एक दिन गधा बाहर लोट-पोटकर घर आया । धोबी गन में बैठा हुआ था ।

संयोग से कुत्ता भी घर पर नहीं था । गधे को एक अच्छा मौका मिला । गधा अपनी पूँछ टेढ़ी-मेड़ी करते हुए धोबी की तरफ बढ़ा । धोबी सोचने लगा, मेरा गधा अभी तो ठीक था । बाहर से आते ही पगला गया लगता है । फिर गधे ने अपना शरीर कुत्ते की तरह तोड़ा-मरोड़ा ।

धोबी के पास आकर दो पैरों से खड़ा हो गया । पैरों को धोबी की जांघों पर रखने की कोशिश करने लगा । धोबी उठकर दूर खड़ा हो गया । अब तो धोबी को पूरा विश्वास हो गया कि गधा पागल हो गया है ।धोबी ने डंडा उठाया और गधे को मारना शुरू कर दिया ।

जब गधा मार खा चुका, तो वह बिना हिले-डुले चुपचाप के के पास जाकर खड़ा हो गया । थोड़ी ही देर में बाहर से कुत्ता आ गया और पूंछ हिलाकर प्यार जताते हुए उसने अपने दोनों पैर धोबी की गोद में रख दिए । गधा बड़े गौर से इस दृश्य को देख रहा था ।

उसी समय धोबी की नजर गधे पर पड़ी, उसे गधे की हरकत का कारण समझते देर नहीं लगी । इसी बीच एक पड़ोसी ने आकर धोबी से पूछा, ”भाई, क्या बात है ? आज तो गधे की अच्छी तरह पिटाई कर दी ।” पड़ोसी की बात सुनने के बाद उसने पूरी घटना सुनाई ।

तब पड़ोसी बोला, अच्छा, यह बात है । कुत्ते की नकल कर रहा था । इस गधे को क्या मालूम कि ‘जिसका काम उसी को साजे, और करे तो डंडा बाजे’ |


Proverb (कहावत) # 11. अंगूर खट्टे हैं:

गांव से लगा हुआ एक जंगल था । जंगल में जगह-जगह चौरस जमीन थी, जिस पर खेती होती थी । बाग-बगीचे थे । उसी जंगल में एक लोमड़ी रहती थी । एक दिन वह हिरन की तरह चौकड़ी भरती हुई पेड़ों और खेतों को पार करती चली जा रही थी ।

जब वह एक बाग के पास से निकली, तो थोड़ा ठिठकी । वहां उसे लगा कि बाग से मीठी-मीठी महक आ रही है । थोड़ी देर रुककर वह उस महक का आनंद लेने लगी । लोमड़ी ने औखें मिचमिचाई और उस ओर चल पड़ी, जिधर से मीठी महक आ रही थी ।

चलते-चलते वह एक पेड़ के नीचे आकर रुक गई । उसने देखा कि पेड़ के चारों ओर अंगूर की लताएं चढ़ी हुई हैं, और पेड़ की निचली डालियों पर फैली हुई हैं । चारों तरफ तेज मीठी गंध फैली है । उसने ऊपर देखा, तो उसके मुंह में पानी भर आया । लताओं में रस भरे अंगूरों के बहुत-से गुच्छे लटक रहे थे । वह आखों से देखती रही ।

वह एक ऐसे गुच्छे की तलाश में इधर से उधर घूमती रही, जिसको वह आसानी से तोड़ सके । वह एक गुच्छे के नीचे आकर रुक गई । लोमड़ी ने उस गुच्छे को तोड़ने के लिए एक के बाद एक उछालें लगाना शुरू कर दीं । गुच्छा ऊंचा था, इसलिए वह तोड़ नहीं पाई । वह थककर बैठ गई ।

थोड़ी देर सुस्ताने के बाद उसकी जान में जान आई । उसने अंगूरों को तोड़ने के लिए फिर उछालें लगाना शुरू कर दीं । इस बार भी उसे निराशा हाथ लगी । अंत में वह थककर चूर-चूर हो गई । वह समझ गई थी कि अब अगूर नहीं मिल पाएंगे । फिर भी वह अंगूरों को लगातार देखे जा रही थी ।

वहीं पास के एक झुरमुट की आड़ में एक सियार बैठा था । वह लोमड़ी की उछल-कूद को देख रहा था । लोमड़ी अब बैठी-बैठी अंगूरों को देख रही थी । सियार दबे-पांव निकलकर लोमड़ी के सामने खड़ा हो गया । सियार ने पूछा, ”मौसी क्या बात है ? उदास-उदास-सी बैठी हो । ऊपर क्या देख रही हो ? अँगूर बहुत मीठे हैं । तुम खा चुकी हो क्या ?”

लोमड़ी थोड़ा झिझकते हुए बोली, ”अरे तुझे क्या पता । अंगूर खट्‌टे हैं ? तुझे महक से नहीं लगता ? मैं तो सुस्ताने के लिए छाया में बैठी हूं ।” सियार ने लोमड़ी की आखों में झांका, तो वह सिटपिटा गई और उठकर धीरे-धीरे चलने लगी ।

सियार मुस्कराया और सोचने लगा-कितनी देर से तो उछल-कूद कर रही थी । जब अंगूर नहीं तोड़ सकी, तो कहती है, ‘अंगूर खट्‌टे हैं’ । समझ है, किसी ने कुछ देखा ही नहीं । सियार भी मुस्कराता हुआ दूसरी ओर चल दिया ।


Proverb (कहावत) # 12. बगल में लड़का, शहर में ढिंढोरा:

सर्दी का मौसम था । आंगन में तीन महिलाएं उसके साथ तीन महिलाएं बैठी थीं । एक महिला लाल मिर्च के डंठल तोड़ रही थी बातें कर रही थीं । मिर्च के डंठल तोड़ने वाली महिला अचानक कहने लगी, “अरी बहना, अभी-अभी मेरा लड़का यहीं खेल रहा था ।

वह देखो, बस्ता भी यहीं पड़ा । मालूम नहीं कहां गया ?” यह कहते हुए महिलाओं से फिर बतियाने में लग गई । शाम हो गई थी । झुटपुटा होने को हुआ । उसके साथ बैठी महिलाएं चली गईं । फिर उसे अपने लड़के की याद आई । कभी कहीं जाता नहीं था । आज मालूम नहीं कहां चला गया था ।

वह अपने लड़के को देखने पड़ोसियों के यहां गई । पूछती फिरी कि मेरा लड़का तो नहीं खेल रहा है ? पड़ोसियों ने कहा कि मेरे लड़के तो यहीं खेल रहे हैं । आस-पड़ोस में पूछकर वह घर वापस आ गई । पांच साल का लड़का था । वह घर और पड़ोस के अलावा कहीं जाता नहीं था ।

अब तो उसने रोना शुरू कर दिया । आस-पड़ोस से औरतें और लोग-बाग आ गए । पता चला कि लड़का कहीं चला गया है । परिवार तथा पड़ोस के कई लोग शहर में इधर-उधर ढूंढने निकल पड़े । शहर की कोतवाली में भी इत्तला कर दी और शहर में मुनादी पिटने लगी ।

घर में सभी परेशान थे । सब एक जगह बैठकर शोक-सा मनाने लगे । खाना बनाने का समय हो चुका था, लेकिन चूल्हा ऐसा ही पड़ा था । घर के सभी सदस्य मुंह लटकाए बैठे थे । कुछ पड़ोसिने भी उनके पास बैठी थीं । सभी कुछ-न-कुछ बोल रही थीं ।

कोई कहता कि कोई पकड़कर तो नहीं ले गया या किसी ने कुछ कर तो नहीं दिया । लड़के की मां के मन में रह-रहकर तरह-तरह के ख्याल आ रहे थे । सर्दी कुछ बढ़ गई थी । एकाएक चादर लेने के लिए लड़के की मा कमरे में गई । जैसे ही उसने वहां से चादर उठाई, उसकी नजर लड़के के चेहरे पर पड़ी ।

उसका लड़का सो रहा था । लड़के को लेकर उसकी मां आगंन में आई । लड़का पसीना-पसीना हो रहा था । कभी वह उसे पुचकारती थी, कभी गोदी में लिए-लिए सीने से लगा लेती थी । अब जो भी सुनता था कि लड़का मिल गया, भागता चला आ रहा था ।

आगंन में औरतें, बच्चे, मोहल्ले के व्यक्तियों की अच्छी-खासी भीड़ लग गई थी । जो भी पूछता कि लड़का कहा मिला ? सबसे कहती कि अंदर कमरे में सो रहा था । उसके घर से महिलाएं, बच्चे आदि लड़के को देखकर आ रहे थे । एक औरत कह रही थी, देखो तो, ‘बगल में लड़का, शहर में ढिंढोरा’ |


Proverb (कहावत) # 13. लालच बुरी बलाय:

एक शहर में एक सुनार था । उसकी दुकान बहुत प्रसिद्ध थी । वह अपनी दुकान पर नए-नए डिजाइनों में सोने-चांदी के गहने बनाता था और बेचता था । कुछ लोग अपने पुराने गहने लाते थे और कुछ पैसे देकर नए गहने बनवा ले जाते थे ।

उसकी नाप-तौल बिकुल ठीक होती थी । ईमानदारी में उसका नाम था । अपनी मेहनत की मजदूरी ठीक-ठीक लेता था । सोने के गहनों में तांबे का टाका कम-से-कम लगाता था । शहर में सबसे अधिक दुकान उसी की चलती थी । चाहे जान-पहचान का हो या अनाड़ी, सबके साथ से व्यवहार करता था ।

एक दिन दोपहर का समय था । गर्मियों के दिन थे । दुकान पर एक भी ग्राहक नहीं था । वहा एक आदमी आया और एक थैले में गहने दिखाकर कुछ कहने लगा । पहले तो सुनार ने बहुत गुस्से में कहा ”मुझे नहीं लेने हैं सस्ते दामों में चोरी के गहने ।”

चोरों के सरदार ने बड़ी नरमी से कहा, “देख लो, फायदे का सौदा है । बस आप और हम, दो ही लोगों के बीच यह बात रहेगी । आनन-फानन में लखपती बन जाओगे ।” जब चोरों के सरदार ने अधिक कहा-सुना, तो वह लालच में आ गया और गहने लेने के लिए तैयार हो गया ।

वह अदर थैले को ले गया । गहने तौले और पैसे उसी थैले में रखकर दे दिए । वह सरदार थैला लेकर चला गया । अब चोरों का सरदार बीस-पच्चीस दिन में आता । सुनार गहनों का थैला लेता । सुनार उसी थैले में पैसे रखता और सरदार को वापस देता । सरदार थैला लेकर चला जाता ।

अब सरदार दिन में न आकर झुटपुटे में शाम को आता । सरदार पैदल आता था । कभी-कभी वह जब जल्दी में होता तो घोड़ी लेकर आता था । एक दिन सरदार घोड़ी पर सवार होकर जब शहर में आ रहा था, तो उस पर सिपाहियों को शक हो गया । सिपाहियों ने सरदार को घेरकर गिरफ्तार कर लिया । उस सरदार को दरबार में हाजिर किया गया ।

उसके थैले की तलाशी ली गई तो किसी रजवाड़े के रत्नजडित आभूषण पाए गए । जब राजा ने पूछताछ की तो पता चला कि पड़ोस की रियासत के राजा की लड़की का डोला लूटकर गहने लाए गए हैं । उस सरदार ने स्वीकार किया कि मैं चोरों का सरदार हूं और ये गहने एक रियासत में जा रहे एक डोले को लूटकर लाया था ।

जब राजा ने पूछा कि इन गहनों को कहा ले जा रहे थे ?  इस पर, उसने बताया कि आपके यहा के प्रसिद्ध सुनार के पास बेचने जा रहा था । मैं चोरी के सोने के गहने उसी को बेच देता हू । वह आधी कीमत पर मेरे गहने खरीद लेता है ।

उसी समय राजा ने सिपाहियों को भेजकर उस सुनार की दुकान पर छापा डलवाया और सुनार को गिरफ्तार कर कैदखाने भेज दिया । उसकी दुकान से हजारों की संख्या में चोरी के खरीदे हुए गहने मिले । दूसरे दिन चोरों के सरदार को फांसी और प्रसिद्ध सुनार को आजीवन कारावास दे दिया गया ।

पूरे शहर में सुनार के बारे में बातें हो रही थीं । लोग जगह-जगह पर आपस में सुनार की ईमानदारी की तारीफ कर रहे थे और चोरी के गहनों की खरीद-फरोख्त के बारे में निंदा कर रहे थे । एक स्थान पर तमाम लोग इकट्ठे थे और सुनार की इस घटना के बारे में चर्चा चल रही थी । उन्हीं के बीच से एक व्यक्ति बोला, भैया, ‘लालच बुरी बलाय’ होती है ।


Proverb (कहावत) # 14. आब-आब कर मर गए, रहा सिरहाने पानी:

एक बनिया व्यापार करने काबुल गया । काबुल में फारसी बोली जाती थी और बनिया फारसी जानता नहीं था । इसलिए उसे लोगों को अपनी बात समझाने और दूसरों की बात समझने में बहुत दिक्कत होने लगी । बनिया पढ़ा तो था ही, उसने थोड़े ही दिनों में फारसी भाषा सीख ली ।

वहा वह फारसी भाषा में बातें करता और फारसी में ही व्यापार का हिसाब-किताब रखता । जब वह वापस आया, तो उसने फारसी भाषा में बात करना छोड़ा नहीं । देशी-विदेशी व्यापारियों और राज्य के कर्मचारियों के बीच फारसी भाषा बोलकर उसने अपना रुतबा जमा लिया था ।

अपने घर तथा आस-पड़ोस में भी कभी-कभी थोड़ा-बहुत फारसी बोलता था । जबकि फारसी न तो घर के समझते थे और न पड़ोस के । गर्मी के दिन थे । लू चल रही थी । इसी मौसम में बनिया बीमार पड़ गया । बाहर वाले कमरे में तख्त बिछा हुआ था । उसी पर उसका बिस्तर लगा दिया गया । सिर की ओर घड़े में पानी भरा रहता और फल भी रखे रहते ।

तबीयत बिगड़ती चली गई । एक दिन तेज बुखार आया और बनिया बेहोश रहने लगा । बनिये को जोर की प्यास लगी, तो ‘आब-आब’ कहकर चिल्लाता रहा । वहां घर और पड़ोस के लोग इकट्‌ठे थे । कोई भी नहीं जानता था कि आब को पानी कहते हैं । हालत बिगड़ती रही और वह आब-आब कहता रहा । अंतत: उसके प्राण-पखेरू प्यासे ही उड़ गए ।

बनिये के मरने की खबर सुनकर बिरादरी, पड़ोसी, व्यापारी आदि तमाम वर्ग के लोग इकट्‌ठे हुए । बनिये के बारे में तरह-तरह की बातें लोग कर रहे थे । एक ने कहा : ”लाला काबिल आदमी थे, लेकिन दिखावे की जिंदगी जीने लगे थे । जब देखो तब फारसी बोलते रहते थे ।”

दूसरे व्यक्ति ने कहा : ”इसी दिखावे का ही खामियाजा भुगतना पड़ा लाला को, वरना पानी का घड़ा तो सिरहाने रखा हुआ था, लेकिन घर में कोई नहीं जानता था कि आब पानी को कहते हैं ।” वहां आए तमाम लोगों में से ही किसी ने फकीराना अंदाज में कहा:

‘काबुल गए मुगल बन आए, बोलन लागे बानी । आब-आब कर मर गए, रहा सिरहाने पानी ।।’


Proverb (कहावत) # 15. या अल्लाह, गौड़ में भी गौड़:

प्रयाग में एक ब्राह्मण और एक फकीर पास-पास रहते थे । दोनों में बहुत अच्छी मित्रता थी । दोनों ही भीख मांगकर गुजारा करते थे । नगर में आए दिन ब्रह्मभोज होते रहते थे, इसलिए ब्राह्मण लगभग 12 दिन ब्रह्मभोज की दावतें उड़ाता था और शेष दिन भीख मांगकर गुजारा करता था ।

इस तरह पूरा महीना निकल जाता था, लेकिन फकीर का गुजारा पूरे महीने बड़ी मुश्किल से होता था । एक दिन ब्राह्मण और फकीर, दोनों एक साथ बैठे हुए थे । फकीर ने ब्राह्मण के सामने अपना गुजारा न होने की समस्या रखी । दोनों बैठे-बैठे बड़ी देर तक विचार करते रहे ।

एक विचार ब्राह्मण की समझ में आया । उसने फकीर से कहा कि तुम ब्राह्मण का वेश बना लो और मेरे साथ ब्रह्मभोजों में चला करो । जब कोई पूछे कि कौन से ब्राह्मण हो ? तो बता दिया करना कि मैं गौड़ हूं । फकीर बोला, ”नहीं यार, तुम मरवाओगे मुझे ? यह ठीक नहीं है ।”

लेकिन ब्राह्मण के अधिक कहने पर फकीर मान गया । सिर पर केवल मोटी चोटी के लिए केश छोड्‌कर बाकी सारे बाल कटवा दिए । दाढ़ी-मूर्ख बनवा लीं । एक मोटा-सा जनेऊ ब्राह्मण ने लाकर दे दिया । अब तो दोनों ब्रह्मभोजों में साथ-साथ दावतें उड़ाने लगे । फकीर ब्राह्मण के साथ तो बेफिक्र होकर दावतें उड़ाता था, लेकिन जब कभी उसे अकेले जाना पड़ता था, तो हमेशा डरा-डरा रहता था ।

अब ब्रह्मभोजों में वह दावत करते समय किसी से बोलता नहीं था और दावत समाप्त होते ही वहां से जल्दी ही निकल आता था । एक दिन वह अन्य दिनों की तरह ब्रह्मभोज की दावत में बैठा हुआ खाना खा रहा था । तभी पूरी परोसने वाला पूरियां परोसते-परोसते जब ब्राह्मण बने फकीर के पास आया, तो पूरी लेने के लिए पूछा ।

उसने कुछ कहा नहीं बल्कि हाथ से पूरी रखने के लिए इशारा किया । पूरी परोसने वाले को कुछ शक हुआ तो पूछ बैठा, ”आप कौन से ब्राह्मण हैं ?” फकीर ने रटा-रटाया उत्तर दिया, “गौड़ ब्राह्मण हूं ।” पूरी परोसने वाले को जब तसल्ली नहीं हुई, तो उसने उससे फिर पूछ लिया, ‘कौन से गौड़ ?’

अब तो ब्राह्मण बना फकीर सकते में आ गया । उसके साथी ब्राह्मण ने यह तो बताया नहीं था कि गौड़ कितने प्रकार के होते हैं ? वह बहुत घबरा गया और उसके मुंह से अनायास ही निकल पड़ा, ‘या अल्लाह, गौड़ में भी गौड़ ?’ फिर क्या था, लोगों को पता चलने पर ब्रह्मभोज में अफरातफरी मच गई । लोग इकट्‌ठे हो गए और ब्राह्मण बने फकीर की खूब फजीहत हुई ।


Proverb (कहावत) # 16. अंधों का हाथी:

एक गांव में चार अंधे थे । यह भी बात ध्यान देने वाली थी कि चारों के चारों उसी गांव में पैदा हुए थे । जब वे एक साथ बैठते, तो अपने दुख-सुख की बातें करते थे । लोगों की सुनी-सुनाई बातों पर चर्चा करते थे ।

उन्हें ऐसी तमाम चीजों और प्राणियों के बारे में जानने की इच्छा थी, जिनके बारे में गांव के लोगों से सुन रखा था । एक दिन उस गांव में एक बारात आई । उस बारात में एक हाथी आया । हाथी के आने की खबर अंधों को भी मिली ।

इससे पहले गाव में हाथी नहीं आया था । अब तो अंधों के मन में हाथी के बारे में और अधिक जानने की इच्छा जाग उठी ।  गांव के लोग हाथी देखने गए, तो अंधे भी वहां पहुंच गए । भीड़ में एक साथ खड़े-खड़े शोरगुल सुनते रहे । चारों ने आपस में कुछ कानाफूसी की और भीड़ को हटाते हुए हाथी के पास पहुंच गए ।

जब हाथी के पास आ गए, तो एक अंधा बोला, ‘महावत भैया, हम लोग हाथी को टटोलकर देखना चाहते हैं । देख लें ?’  महावत पहले तो असमंजस में पड़ गया । फिर सोचने लगा, ये बेचारे आखों से तो देख नहीं सकते । इसी तरह की इनकी हाथी देखने की इच्छा पूरी हो जाएगी । महावत बोला, ”देख लो सूरदास लोगों ।”

“महावत भैया, हाथी को जरा संभाले रखना ।” इतना कहकर चारों अंधे हाथी को टटोल-टटोलकर देखने लगे । पहले अंधे के हाथों में हाथी का पांव आया । टटोलकर बोला, ”अरे! हाथी तो बिकुल खंभा जैसा है । दूसरे अंधे के हाथ कान पर पहुंचे । वह बोला, ‘अरे नहीं, हाथी तो सूप की तरह है ।’ ‘तीसरे के हाथ पेट पर लगे ।

वह अच्छी तरह टटोलकर बोला, ”तुम दोनों झूठ बोल रहे हो । हाथी मशक जैसा है ।”  चौथे अंधे के हाथों में छ आई । तीन अंधे अलग-अलग तरह का हाथी बता चुके थे । इसलिए उसने बड़े इत्मीनान से छ को ऊपर-नीचे टटोला, फिर कड़क कर बोला, ‘तुम सब बेकार की हांक रहे हो ।

हाथी तो रस्सा जैसा है ।’ अब तो चारों अंधे अपनी-अपनी बात पर अड़ गए । सब अपनी-अपनी बात पर जोर दे रहे थे । दूसरों की बात कोई भी सुनने को तैयार नहीं था । उनकी आपस में तकरार हुई और नौबत झगड़ने तक आते-आते रह गई ।

सब लोग अंधों की बातों पर हँस रहे थे । कुछ लोगों ने अंधों को समझाया कि तुम सबने हाथी का एक-एक अंग टटोला है, पूरा हाथी नहीं, लेकिन अंधों ने सबकी बातों को एक तरफ रख दिया । भीड़ में से किसी ने व्यंग्य करते हुए कहा, ”यह ‘अंधों का हाथीहै भाई ।” सब लोग खिल-खिलाकर हंस पड़े ।


Proverb (कहावत) # 17. अंधी पिसे, कुत्ता खाए:

एक गांव में एक अंधी थी । उसकी दो लड़कियां थीं, जो बाल-बच्चे वाली थीं और अपनी-अपनी ससुराल में रह रही थीं । अंधी का पति मर चुका था । खेती-बाड़ी या और कोई जरिया नहीं था, जिससे कि वह अंधी दो जून की रोटी खा सके । वह इतनी खुद्दार थी कि दान के रूप में रोटियां खाकर वह जीना नहीं चाहती थी ।

पति के मरने के थोड़े दिन बाद ही उसे लाला के यहां से गेहूं पीसने का काम मिल गया । अंधी एक दिन में दस सेर गेहूं पीस पाती थी । सुबह चार बजे चक्की चलाने बैठ जाती थी । जब सुबह अधिक हो जाती, तो घर के कामों से निपटकर आराम करती ।

फिर उसके बाद बैठती तो पूरे गेहूं पीसकर ही उठती थी । गेहूं पीसते हुए लगभग शाम के पांच बज जाते थे । इसके बाद वह टोकरे में आटा लेकर लाला के यहां पहुंचती थी । उसी टोकरे में पीसने के लिए गेहूं लेकर आती थी । इस तरह उसका काम चलता रहा और अंधी को दाल-रोटी मिलती रही ।

कुछ दिन बाद आटे का टोकरा कुछ खाली जाने लगा । लाला कहता कि मालूम पड़ता है तू आटा निकाल लेती है । अब टोकरा खाली आता है । अंधी कहती, ‘लाला मैं अकेली हूं । आटा किसके लिए निकालूंगी मेरा तो इस मजदूरी में ही गुजारा हो जाता है ।’

लाला को वैसे अंधी पर पूरा विश्वास था, फिर भी वह गेहूं पीसने के लिए देता रहा । अंधी पीस-पीसकर आटा देती रही । एक दिन लाला अंधी के घर के पास से निकल रहा था । उसे चक्की की आवाज सुनाई पड़ी । उसका मन हुआ कि चलो अंधी से मिलता चलूं । लाला मकान की दहलीज पर पैर रखकर आवाज देने वाला ही था कि अंधी गेहूं पीसते दिखाई दे गई ।

एक तरफ उसने गेहूं का टोकरा रखा था । दूसरी ओर परात में पिसा हुआ आटा रखा था । आटे की परात में कुत्ता चुपचाप आटा खा रहा था । अंधी गीत गुनगुनाते हुए गेहूं पीसती जा रही थी । लाला ने देखकर अपना माथा पीट लिया और उलटे पैर लौट आया । लाला रास्ते में सोचता जा रहा था, ‘अंधी पीसे, कुत्ता खाए’ ।


Proverb (कहावत) # 18. धोबी का कुत्ता, घर का न घाट का:

एक धोबी परिवार था । उसमें पति-पत्नी और दो छोटे बच्चे थे । जब धोबी गधों पर कपड़े लादकर घाट पर जाता, तो साथ बच्चों को भी ले जाता और दरवाजे पर ताला लगा जाता । धोबी का कुत्ता कभी घर पर रह जाता था और कभी धोबी के साथ चला जाता था ।

धोबी परिवार सहित अच्छी तरह से रहता था । बहुत से लोग उनकी खुशहाली से जलते थे । वे अकसर धोबी का बुरा चाहते रहते थे । नुकसान करने के लिए किसी-न-किसी मौके की तलाश में रहते थे । एक बार गर्मी के दिन थे । दोपहर को गलियों में सन्नाटा छाया रहता था ।

एक दिन दोपहर में किसी ने धोबी के घर का ताला तोड़कर चोरी कर ली । चोर उसके कुछ रुपए और गहने चुराकर ले गए । जब धोबी काम से वापस आया, तो उसे घर का ताला टूटा मिला । घर में इधर-उधर कपड़े बिखरे पड़े थे । धोबिन ने रोना-पीटना शुरू कर दिया, ”हाय, मैं तो लुट गई ।

कुछ भी नहीं छोड़ा नासपीटों ने । पैसा और जेवर सब ले गए ।” तमाम अनाप-शनाप धोबिन बकती रही और गालियां देती रही चोरों को । धोबी ने कोतवाली में इत्तला की, तो वहाँ से दरोगा और सिपाही आ गए । उन्होंने परिवार वालों तथा पड़ोसियों से पूछ-ताछ की । लोगों ने बताया कि सब लोग अपने-अपने काम पर गए हैं ।

औरतें गर्मी की वजह से घर से निकलती नहीं हैं । इसीलिए किसी को चोरी का पता ही नहीं चल पाया । पड़ोसियों ने कहा कि इसका शेरू कुत्ता बहुत वफादार है । वह घर में किसी कुत्ते-बिल्ली को भी नहीं जाने देता । आज कुत्ता भी घर पर नहीं था । पड़ोसियों की बात सुनकर दरोगा बोला, धोबी के कुत्ते का क्या ? ‘धोबी का कुत्ता, घर का न घाट का


Proverb (कहावत) # 19. थोथा चना, बाजे घना:

अकबर बादशाह अधिकतर बीरबल के साथ यमुना नदी के किनारे टहलने जाया करते थे । नदी के किनारे खेतों में किसानों को काम करते देखते रहते थे । एक बार नदी के किनारे टहलते हुए अकबर बादशाह बीरबल से बोले, ‘बीरबल, सुना है फसल बहुत अच्छी हुई है । चलो आज खेतों में चलते हैं ।’

बीरबल बोले, ”आपकी जैसी इच्छा ।” चने की फसल पकी हुई खड़ी थी । कटाई भी शुरू हो गई थी । फसल काट-काटकर खलिहानों में रखी जा रही थी । अकबर और बीरबल, दोनों नदी के किनारे से ही सीधे खेतों की ओर चल दिए । तीन-चार खेत पार करने के बाद चनों के खेत शुरू हो गए थे ।

दोनों पगडंडी पर चले जा रहे थे । अकबर की इच्छा हुई कि जरा खेतों में होकर चलते हैं । अकबर एक खेत में उतर  गए । बीरबल भी उनके साथ खेत में आ गए । चने के पौधे घुटने तक लंबे थे । चने के पौधे घुटनों और पैरों में टकराते रहे ।

दोनों खेत की मेड़ पर निकल आए । कुछ देर बाद फिर एक खेत में उतर गए । खेत में थोड़ी देर चलने के बाद फिर मेड की पगडंडी पर आ गए । अकबर ने बीरबल से पूछा, ”अभी-अभी हम लोग दो खेतों से निकलकर आए हैं । दोनों में ही चने की फसल खड़ी है । उन खेतों में चलते हुए आपको कुछ अनुभव हुआ ?”

बीरबल बोले, ‘जहांपनाह, मैंने तो कुछ ध्यान नहीं दिया ।’ चलते-चलते वे खलिहानों में पहुंचे । दो खलिहान एक ही खेत में पास-पास थे । अकबर ने एक खलिहान से कुछ पौधे लिए और हिलाए । अकबर ने कहा, ”बीरबल, तुम भी हिलाकर देखो ।”

बीरबल ने अकबर के हाथ के पौधे लेकर हिलाए, फिर अकबर ने कहा, ‘आओ ।’ और दूसरे खलिहान के पास पहुँच गए । उस खलिहान से भी कुछ पौधे लेकर अकबर ने हिलाए, फिर बीरबल को देते हुए कहा, ‘इनको भी हिलाओ ।’ बीरबल ने अकबर के हाथ से चने के पौधे लेकर हिलाए ।

अकबर बादशाह बीरबल से बोले, ‘दोनों जगह के चनों में कुछ फर्क नजर आया ।’ बीरबल बोले, ‘जी हुजूर, बिकुल फर्क नजर आया । उस जगह के पौधों में चनों की आवाज नहीं थी । इन पौधों में तेज आवाज हो रही है ।’ फिर बादशाह ने कहा, “इसका क्या मतलब हुआ ?”

बीरबल बोले, ”एक में चने कमजोर और कम तथा दूसरे में अधिक और बड़े-बड़े  हैं ।” अकबर बादशाह बोले, ‘इतना तो हम भी जानते हैं । किसमें अधिक चना है, यह  बताओ ।’  एक खलिहान गांव के प्रधान का था । वह और दो किसान बीरबल के पास खड़े थे । बीरबल को चुप देखकर प्रधान बोल पड़ा, ‘थोथा चना, बाजे घना ।’

अकबर बोले, ”सुना बीरबल, जिसमें मरा हुआ चना होता है, वह छोटा होता है और जोर-जोर से करता है । जो स्वस्थ चना होता है, वह बड़ा होता है और आवाज नहीं करता ।


Proverb (कहावत) # 20. नाच न जाने, आंगन टेढ़ा:

लड़के की शादी थी । दो दिन बाद बरात जानी थी । दो दिन से शाम को गीत और नाच नियमित हो रहे थे । आज तीसरा दिन था । रिश्तेदार, घर-कुनबा और आस-पड़ोस की महिलाएं गीत में शामिल थीं । कुनबे की एक बुआ थी । सुंदर भी थी और कपड़े भी अच्छे पहने थी ।

जब कोई नाचता था तो वह कुछ-न-कुछ बोल देती थी । कभी कह देती, अरे ये तो देखने की है । नाचनो ढंग से ना आए । कभी कहती, ”अभी नई-नई दीखे । सीख जाएगी नाचनो थोडे दिनन में ।” कभी कहती, ”मजा नाएं आयो ।” लेकिन जब कोई अच्छा नाचती और सब उसकी तारीफ करतीं तो वह भी कह देती, ”देखो, ये है नाचवो तो ।”

मोहल्ले और कुनबे वालों की बुआ होने के नाते लड्‌कियां और बहुएं उनकी बातों को मजाक में लेती थीं । आज तो लड़के की मां, बहनें, भाभियां और तमाम बहू-बेटियां नाचीं ।  आज बुआ ने कुछ ऐसी बातें कहीं कि जिसमें व्यग्य थे । जैसे ”अरे, ये छोरी नाचवोई न जाने । बिना नाच के कहूं गीत पूरे होएं ।” ‘ऐ तो बस खावे की है । जापे कछु न आवै ।’

आखिरी दिन के गीत गाए जाने वाले थे । सब बहुओं और लड़कियों ने मिलकर सोचा-बुआ सबकी मीन-मेख निकालती है । आज बुआ को नचवाते हैं । फिर देखना, कैसी-कैसी बातें बुआ को सुनने को मिलती हैं । सब बहुएं और लड्‌कियां औरतों के इकट्ठे होने का इतजार करने लगीं ।

आज सभी दिल खोलकर गीत गा रही थीं और नाच रही थीं । बुआ की तो कुछ-न-कुछ कहने की आदत थी ही, सो कहती रहीं । बहुओं और लड़कियों ने एक-दूसरे को इशारा किया कि बुआ से नाचने को कहो । एक ने कहा, ‘आज बुआ नाचेगी । खड़ी हो जाओ बुआ ।’ इतना कहना था कि दो-तीन बहुओं और लड़कियों ने मिलकर बुआ को जबरदस्ती खड़ी कर दिया ।

पहले बुआ ने कहा कि मेरे पैर में थोड़ा दर्द है । मैं नाच नहीं पाऊंगी, लेकिन बहुओं और लड़कियों की जिद के आगे मजबूरी में तैयार हो गई । बुआ न तो नाचना जानती थी और न कभी नाचा ही था । कहने-सुनने पर बुआ ने ऐसे ही तीन घूमे लिए और बैठ गई । बुआ के द्यों पर बहुएं और लड्‌कियां ताली दे-देकर खूब हंसीं । एक बहू ने कहा, ”बुआ, नाच थोड़े ही रही थीं, कुदक रही थीं ।”

एक औरत बुआ की भाभी लगती थी । वह बोली, ”यह उंटनी नाच है । जाए हरेक कोई नाय नाच सके ।” एक बार फिर हंसी के फव्यारे छूटे । बहुएं और लड़कियां बोलीं,  ”बुआ थोड़ा और नाचो, बैठ कैसे गई ? तुम्हारा पैर तो ठीक है ।”

बुआ कुछ मुंह बनाकर कहने लगी, ”यहां नाचवे की जगह नाय । गन कुछ टेढ़ा-टेढ़ा-सा है । इसी से हम नाच नाय पा रहे हैं ।” उसी भीड़ में से एक बुढ़िया ने गाली दी और फिर बोली:

‘नाच न जाने, आंगन टेढ़ा ।’


Proverb (कहावत) # 21. एक तो करेला, दूसरा नीम चढ़ा:

एक व्यक्ति को मधुमेह की बीमारी थी । वैद्य का कहना था कि करेले की सब्जी और करेले का रस मधुमेह के रोगी के लिए बहुत लाभदायक होता है । वैद्य ने उससे करेला खाने के लिए कहा तो बिदक गया ।

करेले से ही नहीं बल्कि हर कड़वी चीज से उसे एक तरह से नफरत थी । यहा तक कि यदि खीरा थोड़ा भी कड़वा निकल आता, तो उसके मुह का जायका खराब हो जाता था । लोगों के कहने-सुनने के बाद उसने करेले की सब्जी खानी स्वीकार कर ली, लेकिन उसकी शर्त थी कि करेले की सब्जी में कड़वापन नहीं होना चाहिए ।

उसके परिवारवाले करेले को काटकर और उसमें नमक मिलाकर दो-तीन घंटे के लिए रख देते थे । तब उसको धोकर उसकी सब्जी बनाकर देते थे, लेकिन वैद्य का कहना था कि थोड़ा कड़वापन बना रहे तो वह बहुत लाभदायक होता है ।

किसी तरह वह करेले में रह जाने वाले कड़वेपन को सहन करने लगा । उसकी मधुमेह की बीमारी बहुत कम रह गई । वह चाहता था कि बिकुल ठीक हो जाए, लेकिन पूर्ण रूप से ठीक होना तो संभव नहीं था, फिर भी अधिक-से-अधिक ठीक हुआ जा सकता था । उसके लिए वह कड़वेपन से दूर भागता था ।

एक दिन किसी ने उसको समझाया कि कड़वी जितनी भी चीजें हैं, वे सभी लाभदायक हैं । नीम, गिलोय, करेला आदि तमाम बीमारियों की दवाए हैं । मधुमेह बीमारी के लोग कच्चे करेले के छिलकों का रस पीते हैं और एक तुम हो ।

कडुवे के नाम पर उसके शरीर में सिहरन दौड़ गई । एक दिन किसी ने उसे सलाह दी कि नीम पर चढ़ी हुई लता के करेले खाने से मधुमेह जड़ से ठीक हो जाता है । वह सुनते ही बिदक गया और बोला : ‘क्या ! ‘एक तो करेला, दूसरा नीम चढ़ा’ ना भाई, नहीं खाना मुझे ।’


Proverb (कहावत) # 22. छाती का जामुन, मेरे मुंह में डाल दो:

सड़क के किनारे एक बाग था । उस बाग में दो-तीन जामुन के पेड़ थे । जामुन के पेड़ के नीचे दो आदमी सो रहे थे । इधर-उधर तमाम जामुनें टपकी पड़ी थीं । एक जामुन एक आलसी के सीने पर पड़ी हुई थी । आंख खुलते ही उस आलसी को लगा कि छाती पर कुछ पड़ा है ।

उसने थोड़ा सिर उठाकर देखा, तो सीने पर एक जामुन दिखी । अब तो जामुन की गंध उस आलसी को बेचैन करने लगी । सीने पर पड़ी हुई जामुन को खाने का उसका बड़ा मन कर रहा था । पास में ही दूसरा आलसी लेटा था और जाग रहा था ।

उसने उससे कहा, “भैया, एक काम कर दोगे ।” उसने पूछा, “क्या है ?” उसने फिर कहा, “छाती का जामुन मेरे मुंह में डाल दो ।” दूसरे आलसी के मुंह को कुत्ता चाट रहा उसने उत्तर दिया, “यार, में कैसे डालूं कुता तो मेरा मुंह चाट रहा है । तुम पहले कुते को हटा दो, तो में जामुन तेरे मुंह में डाल दूंगा ।”

दोपहर का समय था । कोई सड़क पर आता-जाता दिखाई नहीं दे रहा था । थोड़ी देर में उसे एक ऊंट लाते हुए उंटवरिया आता दिखाई दिया । जब वह करीब आया, तो उसने लेटे-लेटे टेढ़ा मुंह करके आवाज दी, ‘ओ ऊंटवाले भैया, जरा एक बात सुनना ।’

उंटवरिया ने समझा, कोई बेचारा आवाज लगा रहा है, चलो देखते हैं क्या परेशानी है ? उसने ऊंट से उतरकर ऊंट की डोरी एक पेड़ से बांधी और उस व्यक्ति की ओर चल दिया । पास आकर उसने पूछा, “क्या परेशानी है भाई ?” वह लेटे-लेटे ही बोला, ”छाती का जामुन, मेरे मुह में डाल दो ।”

इतना सुनकर उंटवरिया को बहुत गुस्सा आया । उसने कहा, ‘तेरे जैसा आदमी तो इस दुनिया में कहीं नहीं होगा । तुझे तो चुच्छू भर पानी में डूबकर मर जाना चाहिए । सीने पर पड़ी हुई जामुन खुद उठाकर नहीं खा सकता ? बेमतलब परेशान किया ।’

वह आलसी बोला, ‘उंटवरिया भैया, सच बोलना । मेरे से ज्यादा तुम आलसी नहीं हो क्या ? वहां से यहां आकर भी तुम छाती का जामुन, मेरे मुंह में नहीं डाल सके ।’ उंटवरिया बोला, ”लेटा रह, तेरी किस्मत में नहीं बदा जामुन खाना ।” इतना कहकर उसने वहीं से दो-तीन साफ-सी जामुन ली और मुंह में डालकर चबाता चला गया ।

वह आलसी लेटा-लेटा उंटवरिया को जामुन खाते देखता रहा और थूक के घूंट लीलता रहा । रास्ते भर उंटवरिया सोचता रहा कि ऐसे भी आलसी हैं इस दुनिया में, जो दूसरे से कहें: ‘छाती का जामुन, मेरे मुंह में डाल दो’ ।


Proverb (कहावत) # 23. घर का आया नाग न पूजें, बांबी पूजन जाएं:

बिना बताए जब कोई मेहमान आता था, तो बड़ी खुशी होती थी । आए हुए मेहमान का आदर-सत्कार करते थे । जब यह पता रहता था कि अमुक मेहमान अमुक तिथि को आ रहा है, तो प्रसन्नता तो होती थी, लेकिन इतनी नहीं होती थी, जितनी बिना बताए आने वाले मेहमान के आने पर होती थी ।

देवता लोग तो न बिना बताए आते थे और न बताकर ही आते थे । वरना उनके आने पर तो बहुत प्रसन्नता होती । फिर भी एक नाग देवता हैं जो अधिकतर बिना बताए घरों में आ जाते हैं । किसी के घर में नाग आ जाता था, तो घर के लोग डर के मारे बाहर निकल आते थे ।

फिर किसी नाग पकड़ने वाले को बुलाकर लाते थे । घर में आए नाग देवता को पकड़वाकर जंगल या गांव के बाहर गांव से बहुत दूर छुड़वा देते थे । कुछ लोग मिलकर लाठियों से नाग देवता को मार देते थे । कुछ लोग हाथ जोड़ लेते थे और नाग देवता इधर-उधर चले जाते थे । कहने का मतलब यह है कि घर पर आए हुए नाग को कोई पूजता नहीं था ।

न कोई दूध पिलाता था, बल्कि उसे मार देते थे या भगा देते थे । जब नाग का पूजन करना होता तो गांव के बाहर खेत की मेंड़ों पर जाते थे । वहां नाग की बांबियां होती थीं, लेकिन नाग नहीं होते थे । वहां दूध से भरे मिट्टी के सकोरे छोड़ आते थे ।

गांव के एक बुजुर्ग यह सब देखा करते थे । एक दिन गाव की औरतें मिलकर ‘नाग पंचमी’ के दिन गांव के बाहर बांबियां पूजने जा रही थीं । हाथ में दूध के भरे सकोरे और पके चावल लिए थीं । उन्हें देखकर एक बुजुर्ग बोल उठा: ‘घर का आया नाग न पूजें, बांबी पूजन जाएं ।’


Proverb (कहावत) # 24. जो हल जोते खेती वाकी, और नहीं तो जाकी ताकी:

तालाब के किनारे एक मंदिर था । एक जमींदार मंदिर के चबूतरे पर बैठा-बैठा कुछ सोच रहा था । आमदनी घटती जा रही थी । सभी खेत आध-बटाई पर दे रखे थे । बिना हाथ-पैर चलाए लगभग आधी फसल का अनाज मिल जाता था । उसने खुद तो कभी हल की मूठ तक नहीं पकड़ी थी ।

खेत वर्षों से आध-बटाई पर चले आ रहे थे, लेकिन इधर चार-पांच महीने से वह अपने खेत आध-बटाई पर दूसरों को देना नहीं चाहता था । इस बात को लेकर काफी कहा-सुनी हुई । फौजदारी होते-होते बची । अत: यह मसला मुखिया के पास जा पहुचा । मुखिया ने पचायत बैठाने का फैसला किया ।

एक दिन पंचायत बैठी । पंचायत मुखिया की चौपाल में जुटी । क्या फैसला होता है, यह जानने के लिए गांव के तमाम लोग इकट्ठे हुए । पंचों ने दोनों ओर की बात सुनने के बाद, दोनों ओर के लोगों से कुछ बातें छी, जमींदारजी, आपको आधा अनाज मिल जाता है, फिर क्यों इनसे काम नहीं कराना चाहते हैं ?

उस जमीन का आप क्या करेंगे ? आप तो खुद जोतेंगे नहीं, क्योंकि आपने खेती कभी की ही नहीं ।” जमींदार ने उत्तर दिया, ”खेती मेरी है । मैं अपनी खेती का कुछ भी करूं । किसी से भी काम कराऊं ।”  इसके बाद पंचों ने दूसरे पक्ष से पूछा, ”तुम लोग क्या कहते हो ?” खेतिहर किसान बोले, ”हे पंचो ! वर्षों से हम खेती करते आ रहे हैं ।

इसी से अपने परिवारों का पालन-पोषण कर रहे हैं । ईमानदारी से आधा अनाज इनको दे रहे हैं । हमारे पास अलग से जमीन नहीं है और यहां पर काम नहीं है । हम लोग तो भूखों मर जाएंगे ।” पंचों ने आपस में विचार-विमर्श करने के बाद जमींदार से कहा, ”देखिए जमींदारजी, यह तो निश्चित है कि आप खुद तो खेती करोगे नहीं ।

किसी दूसरे से ही करवाओगे । इससे अच्छा है, इनसे ही खेती करवाते रहिए, वरना इन लोगों को जीविका का भीषण सकट आ जाएगा ।” जमींदार ने पंचों की बात नहीं मानी । पंचों ने जमींदार को फिर एक बार समझाया । जब जमींदार नहीं माना तो पंचों ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा: ‘जो हल जोते खेती वाकी, और नहीं तो जाकी ताकी ।’


Proverb (कहावत) # 25. गू का कीड़ा गू में ही खुश रहता है:

ADVERTISEMENTS:

एक गुबरैला था । वह लगभग अपने आकार की गू की गोली बनाकर कभी आगे के पैर से बढ़ाता और जब उसे गोली चढ़ाई पर चढ़ानी होती तो उलटा चलता । पीछे के पैरों से गोली को चढ़ाता । कभी गोली लुढ़कती, तो उसके साथ खुद भी ऊपर-नीचे लुढ़कता हुआ नीचे आ गिरता । यह उसका रोजाना का काम होता ।

खेत से लगा हुआ बाग था । बाग में तरह-तरह के फूल लगे हुए थे । एक दिन गुबरैला उड़ता हुआ बाग में जा पहुंचा । वहा उसे फूलों की गंध बहुत अच्छी लग रही थी । उधर से फूलों पर बैठता हुआ एक भोंरा उसके पास से निकला । गुबरैला को देखकर भौरे को तरस आ गया । भौरे ने पूछा, “गुबरैला भाई, तुम्हें यहां कैसा लग रहा है ?”

गुबरैले ने कहा, “यह तो स्वर्ग है भाई । यह मेरे भाग्य में कहां ?” भौरे ने कहा, “भाग्य-वाग्य को छोड़ । इसका सुख तू भी ले सकता है । तू मेरे साथ रहने लग ।”गुबरैले ने भौरे की बात मान ली और दोनों साथ-साथ रहने लगे । बहुत जल्दी दोनों पक्के दोस्त हो गए । जब एक बाग से दूसरे बाग जाना होता, तो भौंरा गुबरैले को अपनी पीठ पर बैठा लेता और उड़ जाता ।

गुबरैला भी अब तरह-तरह के फूलों की सुगंध लिया करता और मकरंद का पान किया करता । एक दिन भौंरा कहीं जा रहा था । गुबरैला उसकी पीठ पर बैठा था । खेतों से होते हुए निकला । खेतों में फसल खड़ी हुई थी । खेतों में मेड़ के किनारे-किनारे रमास की फलियां और फूल लगे हुए थे । उन फूलों का पान करने के लिए उसका मन हो आया ।

जब भौंरा रमास के फूलों के पास आया, तो गुबरैला की नजर गू पर पड़ी । गुबरैला कुदकर गू के पास पहुंच गया । भौंरा ने साथ चलने के लिए बहुत कहा, लेकिन वह टस-से-मस नहीं हुआ । भौंरा बिना मकरंद पिए वहाँ से चला आया । यह दृश्य एक किसान देख रहा था । किसान के मुंह से निकल पड़ा, ‘गू का कीड़ा गू में ही खुश रहता है ।’

Home››Proverbs››