हिंदी पद्य का विकास पर निबन्ध | Essay on The Development of Hindi Poetry in Hindi!

हिंदी पद्य हिंदी साहित्य के आदिकाल से आज तक अखंड रूप में प्रवाहित होती रही है । इसका आदिम रूप मध्यकाल के राजपूत शासकों के दरबारों और अपभ्रंश में मिश्रित भाषा में पाते हैं । राजाश्रय के कवि अपने आश्रयदाताओं के ऐश्वर्यमय जीवन तथा युद्ध में उनकी वीरता को बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन करते थे ।

इन काव्यों में वीर और शृंगार रसों की प्रधानता होती थी । प्राय: इनमें ऐतिहासिक प्रामाणिकता का अभाव रहता था । पृथ्वीराज रासो, बीसलदेव रासो, हम्मीर रासो आदि तत्कालीन राजाओं के जीवन-चरित्र पर अधारित महाकाव्य, प्रबंधकाव्य तथा गीतकाव्य के अतिरिक्त उस समय में जैन-बौद्ध श्रमणों द्वारा नीति प्रधान ‘दूहे’ भी रचे गए थे ।

तेरहवीं सदी तक काव्य-रचना का यही रवैया रहा था । इसके साथ मैथिली भाषा में विद्यापति के लिखे भक्ति और मृगार के फुटकर पद तथा खड़ी बोली में लिखित अमीर खुसरो की सूक्तियाँ व पहेलियाँ भी मिलती हैं । चौदहवीं सदी तक हिंदू-राजाओं की शक्ति की शिथिलता के साथ वीर-काव्यों का भी हास होता गया । इसलाम द्वारा हिंदू राजाओं की धार्मिक और राजनीतिक पराजय के कारण हिंदू जाति में धार्मिक तथा सामाजिक संकीर्णता बड़ी; मनों में निराशा का भाव बढ़ता गया ।

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धार्मिक कट्‌टरता में इसलाम भी पीछे नहीं था, मगर हिंदू और मुसलमान, दोनों युद्ध से थक चुके थे । मुसलमान भारत के निवासी होना चाहते थे । दोनों जातियों की धार्मिक संकीर्णता तथा पड़ोसी भाव की टकराहट को कबीर ने अपने अनोखे अंदाज में प्रस्तुत किया था ।

इस युग के सैकड़ों हिंदू-मुसलिम संतों ने निर्गुण-सगुण तथा प्रेममार्गी भक्ति की करीब तीन सौ सालों तक ऐसी गंगा बहाई कि अकबर का शासन हिंदू- मुसलिम भाईचारे का प्रतीकबनकर उभरा और निखरकर सर्वत्र फैल गया । वही भक्तिकाल कालान्तर में हिंदी कविता का ‘स्वर्णकाल’ कहलाया ।

इनमें निर्गुणवादी संप्रदाय के संतों ने, जिनमें कबीर, नानक, दादू आदि मुख्य थे, अपनी कविताओं के माध्यम से निर्भयता के साथ दोनों जातियों की धार्मिक, सामाजिक संकीर्णताओं तथा कर्मकांडों का जनवाणी में विरोध किया । वहीं अद्वैतवाद और एकेश्वरवाद के मिलन द्वारा उपासना-क्षेत्र में दोनों में एकता पैदा करने की कोशिश की । उनकी वाणी में स्पष्टता और सत्यता थी ।

अत: साधारण जनता पर उनके नैतिक उपदेशों का प्रभाव भी पड़ा । इस प्रकार संत-साहित्य से हिंदी कविता का आत्मबल बढ़ा । दूसरी तरफ, सूफी-संप्रदाय के मुसलिम संतों ने, जिनमें जायसी, कुतबन मझन उसमान आदि मुख्य थे । इन सूफी संतों में लौकिक हिंदू-प्रेमकथाओं को प्रतीक बनाकर आत्मा-परमात्मा के मिलन का वर्णन किया ।

मसनवी शैली में जनभाषा का प्रयोग करते हुए लिखित इन कवियों के प्रबंध काव्यों में इसके वास्तविक जनपक्ष के यथार्थ का भी चित्रण हुआ है । ये संत भी हिंदू-मुसलिम समन्वय के समर्थक रहे थे । हिंदी कविता में गीत और प्रबंध काव्य-पद्धति की नींव उक्त हिंदू-मुसलिम संतों के द्वार पड़ी तथा काव्य में रहस्यवाद का भी पुट आया । निर्गुणवादी संतों की वाणी वीरगाथाकाल के युद्धों से त्रस्त साधारण जनता को धार्मिक आशा तो प्रदान कर सकी, किंतु सामाजिक पुनर्गठन कम सहायक रहा ।

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इस सामाजिक अराजकता के मार्जन के लिए सगुणवादी भक्ति-आदालेन का आविर्भाव हुआ, जो दक्षिण से उत्तर की ओर बहा था । आचार्य रामानुज तथा बल्लभाचार्य की शिष्य-परंपरा के राम और कृष्णभक्त कवियों ने, जिसमें तुलसी, सूर, मीरा तथा अष्टछाप के कवि मुख्य थे, अपनी मुक्तक तथा प्रबंधबद्ध काव्य द्वारा सामाजिक स्थिरता पैदा की तथा हिंदी-भाषा और साहित्य को कलात्मक ऊँचाइयाँ प्रदान कीं ।

इन सगुण भक्त-कवियों की सेवा में ब्रज और अवधी भाषाओं में हिंदी-कवियों का सर्वांगीण विकास हुआ । इन कवियों की मुक्तक तथा प्रबंध रचनाओं में भगवान् के प्रतिनिधि राम और कृष्ण इनसान बनकर अवतरित होते हैं; सामाजिक दुःख-सुखों में रमते हैं; अपनी शक्ति, शील तथा सौंदर्य से समाज का रंजन करते हैं तथा समाज को व्यवस्थित और मर्यादित बनाते हैं ।

इन कवियों ने जनता के सम्मुख वह आदर्श रखा, जिनके बल पर वे अपने लोक और परलोक दोनों को बना सके । कृष्ण-भक्ति ने हिंदी कविता को तन्मयता का उन्नत भाव-भूमि पर पहुंचाया । यह महाकवि सूरदास की सफलता थी । तुलसी के ‘रामचरितमानस’ ने तो हिंदी कविता को भावपक्ष और कलापक्ष के सर्वोच्च शिखर पर प्रतिष्ठित किया ।

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मुगल शासन के शांत और संपन्न वातावरण में हिंदी कविता पुन: राजदरबारों की शोभा बढ़ने लगी । वहाँ आचार्यगण हिंदी के तब तक रचित लक्ष्य-ग्रंथों का विवेचन तथा काव्य के लक्षण तथा रीति का नियमन करते रहे, मगर मुगलकालीन विलासिता के प्रभाव से इस काल में नायिका- भेद, नखशिख-वर्णन तथा नागरिक रचनाएँ प्रचुर मात्रा में रची ।

भक्तिकाल की राधा और कृष्ण इस काल में साधारण नायक-नायिका बन गए । भूषण जैसे एकाध कवियों ने वीररस की सुंभि भी बजाई । इस काल के कवियों में , देव, मतिराम, पद्याकर आदि मुख्य हैं । रीतिकाव्य की कलात्मकता का रीतिकाल चमत्कारपूर्ण विकास हुआ था ।

अंग्रेजों के शासनकाल में हिंदी कविता में नवीन परिवर्तन होने लगे । कविता की था खड़ी बोली, जिसमें संस्कृतनिष्ठ भाषा-छंदों का प्रयोग होने लगा । द्विवेदी युग में उपदेश नीतिबद्ध रतिवृत्तों के खंड और प्रबंधकाव्य बहुतायता में रचे गए । देश में की लड़ाई का वातावरण होने से कविता में राष्ट्रीय भावना को प्राधान्य मिला । गुप्त, नवीन, एक भारतीय, आत्मा, दिनकर आदि की कविताओं में देश-प्रेम, त्याग, और विप्लव की भावनाएँ व्यक्त हुईं ।

भाव तथा अभिव्यक्ति की स्थूलता के परिष्कार के लिए छायावादी काव्य-पद्धति आगमन हुआ, जिसमें प्रकृति में आत्म-प्रसारपरक तथा भावात्मक मुक्तक, गीत काव्य अधिक लिखे गए जिसमें रहस्यात्मक अनुभूतियों को भी स्थान मिला । छायावाद स्वप्निल पलायन की निरर्थकता को अति की स्थिति में काव्य में निराशावाद और ख का भी प्रवेश हुआ ।

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इन सबकी प्रतिक्रिया में मार्क्सवाद से अनुप्राणित प्रगतिवादी प्रयोगवादी कविताएँ भी रची गई । प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी, बच्चन, भगवतीचरण वर्मा, दिनकर, अज्ञेय आदि उल्लेखनीय काव्यकार रहे । इस प्रकार हिंदी कविता देश-विदेशों के भाषा साहित्यों से प्रभाव ग्रहण करती, भारतीय समाज के अनुकूल सतत विकास-पथ पर गतिमान् है ।

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